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Jul 21, 2015

उदंती.com जुलाई - 2015

उदंती.com जुलाई - 2015

भारत मानव जाति का पलना है, मानव-भाषा की जन्मस्थली है, इतिहास की जननी है, पौराणिक कथाओं की दादी है, और प्रथाओं की परदादी है। मानव इतिहास की हमारी सबसे कीमती और सबसे ज्ञान-गर्भित सामग्री केवल भारत में ही संचित है।  - मार्क ट्वेन

लोक- मंच विशेष



उदंती के आवरण पृष्ठ पर इस बार सुनीता वर्मा का बनाया जलरंग से निर्मित चित्र प्रकाशित है। सुनीता वर्मा अपनी पेंटिंग्स के माध्यम से रंग और प्रकृति के साथ पारंपरिक दृश्य एवं लोक जीवन को एक नया रूप तो देती ही हैं साथ ही छत्तीसगढ़ की बेटी होने के नाते वे अपनी लोक संस्कृति के भी बहुत करीब हैं यही वजह है कि उनके चित्रों में छत्तीसगढ़ का लोकजीवन झलकता है। सुनीता को जलरंग ज्यादा पसंद हैं, उनके अनुसार यह बहता हुआ रंग है और प्रकृति के बहुत करीब भी। वे संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स तथा वर्तमान में दिल्ली पब्लिक स्कूल भिलाई में आर्ट टीचर के रुप में कार्यरत हैं।उनका पता है: 8-सी, सड़क नं. 76, सेक्टर-6, भिलाई- 490006, मो:09406422222

Jul 20, 2015

छत्तीसगढ़ का लोक मंच

छत्तीसगढ़ का लोक मंच
- डॉ. रत्ना वर्मा
जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती चली जाती है वैसे वैसे हमारे जीने के तरीके में भी बदलाव आने लगते  हैं। हमारी परम्परा हमारी संस्कृति हमारे रीति- रिवाज में हर काल में कुछ न कुछ जुड़ता चला जाता है , तो कुछ न कुछ खत्म भी होते चला जाता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो लोक जीवन की रीत यही है- जहाँ नित परिर्वतन होते रहते हैं। समय और जरूरत के अनुसार वे अपनी जीवन जीने के तरीके में बदलाव करते चले जाते हैं। लोक संस्कृति किसी भी समाज को समझने में सहायक होती हैं। उदंती के इस अंक में हम छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के एक ऐसे पक्ष के बारे में चर्चा करने की कोशिश कर रहे हैं जो समय के प्रवाह के साथ शनै शनै: विलुप्त होने की कगार पर है। 
भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंक उसकी लोक कलाएँ हैं, जिनका हमारे लोकजीवन में विशेष स्थान है।   शास्त्रों में जिन 64 कलाओं का उल्लेख किया गया है उसमें गायन, वादननर्तन, और नाट्य जैसी अनेक कला- कौशल का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है।  भारतीय परंपरा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं ,जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपियन शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है ,जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है।
भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति होती है ,जिसे लोककला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्परागत कला का एक अन्य रूप है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की लोक और जनजातीय कलाएँ बहुत ही पारम्परिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध विरासत का अनुमान स्वत: हो जाता है। लेकिन यह भी सत्य है कि विरासत को पा लेना जितना आसान होता है, उतना उसे सहेज कर रख पाना बहुत मुश्किल होता है।
विज्ञान ने हमें तरक्की करना तो सिखाया है पर तरक्की करते करते हम अपनी लोक कलाओं से दूर होते चले जा रहे हैं । हमारी सुविधा के लिए बनी मशीनों ने मनुष्य को ही मशीन बना दिया।  अब हमारे पास अपनी उस भव्य विरासत, समृद्ध लोक-कलाओं को जिंदा रखने के लिए न समय है न सदिच्छा। और जब जीवन से लोक कलाएँ तिरोहित होती जाती हैं , तो इंसान के जीवन से इंसानियत खत्म होती चली जाती है। आज जहाँ देखो उधर मनुष्य अपनी आर्थिक समृद्धि में ही खटते नजर आता है, उसके लिए लोक कलाओं के लिए समय निकालना समय की बर्बादी है, जबकि कला वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि-  कला की साधना से हमारी कल्पनाशीलता का विकास होता है, लोक कलाएँ हमारे लिए मनोरंजन मात्र नहीं वरन, हमें व्यवस्थित ढंग से जीने के उपाय सिखाती है।  हम आज जीवन जीने के इस तरीके को भूलते जा रहे हैं जो चिंता का विषय है।
यदि छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति की बात करें तो यहाँ की लोककलाएँ  बहुत विकसित रहीं हैं, जिसे समय-समय पर यहाँ के महान कला-धर्मियों ने सहेजा और विकसित किया है। प्राचीन काल में जब मनोरंजन के आधुनिक साधन विकसित नहीं हुए थे तब छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में भी नृत्य, गीत नाचा, गम्मतमेले- मड़ई, रामलीला, कृष्णलीला आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन हुआ करते थे।  इस तरह छत्तीसगढ़ की लोककलाओं के अध्ययन से इस प्रदेश की समृद्ध लोक संस्कृति के बारे में भी हम अनुमान लगा सकते हैं।
कला के संदर्भ में किसी ने बहुत सुंदर बात कही है कि - कला से जुडऩे का अर्थ है- स्वयं के व्यक्तित्व का विकास, ऐसा विकास जो अपने साथ-साथ दूसरों के लिए प्रेरणा भी बन सके और सहज मनोरंजन का साधन भी।
उदंती का यह विशेष लोक- अंक रामहृदय तिवारी जी के रचनात्मक सहयोग से तैयार हो पाया है, जिनका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है, मैं उनकी आभारी हूँ। साथ ही छत्तीसगढ़ की लोककला और संस्कृति पर निरंतर लिखने वाले रचनाकारों में संजीव तिवारी जो छत्तीसगढ़ी भाषा की पहली वेब पत्रिका गुरतुर गोठ के संपादक हैं, उनके ब्लाग आरंभ से भी रचनात्मक सहयोग लिया गया है। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार आदरणीय श्यामलाल चतुर्वेदी जी का एक आलेख भी इसमें शामिल है। इस अंक में शामिल सभी रचनाकारों  का भी आभार व्यक्त करती हूँ।

शुभकामनाओं के साथ 

रंगकर्म जिनके जीने का जरिया बना

रंगकर्म जिनके जीने का जरिया बना
रामहृदय तिवारी
दुर्ग जिले के उरडहा गाँव में 16 सितम्बर 1943 को जन्मे रामहृदय तिवारी लोककला के क्षेत्र में पिछले चार दशकों से सक्रिय है। एक स्वतंत्र रंगकर्मी के रुप में श्री तिवारी सिर्फ रंगमंच ही नहीं अपितु नाट्यकर्म से जुड़ी अनेकानेक गतिविधियों में निरंतर संलग्न रहें हैं। श्री तिवारी द्वारा निर्देशित अँधेरे के उस पार भूख के सौदागर, भविष्य, अश्वत्थामा, राजा जिंदा है, मुर्गी वाला, झड़ीराम सर्वहारा, पेंशन, विरोध, हम क्यों नहीं गाते, अरण्यगाथा तथा अन्य अनेक हिन्दी नाटक छत्तीसगढ़ के समृद्ध रंगमंचीय इतिहास का हिस्सा तो बने ही, जनता के संघर्षमय जीवन की अंतरंग, सूक्ष्म और संवेदनशील अभिव्यक्ति के वाहक भी बने।
रामहृदय तिवारी ने कसक, सँवरी, स्वराज, एहसास जैसी अनेक टेली फिल्मों का भी निर्देशन किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ी नाचा, बोली, लोकगीत, लोककथा, लोक परम्परा, लोक संगीत, लोक नाट्य और लोक अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओं पर निरंतर और सोद्देश्यपूर्ण लेखन भी किया। वे लम्बे समय तक हिन्दी रंगमंच क्षितिज रंग शिविर से जुड़े रहे और वर्तमान में राज्य की अत्यंत प्रतिष्ठित रंग संस्था लोक रंग अर्जुन्दा से संबद्ध है। वे लंबे समय तक दाऊ रामचंद्र देशमुख और दाऊ महासिंग चंद्राकर के सानिध्य में रहे।
 रामहृदय तिवारी ने छत्तीसगढ़ी लोकजीवन की चहल-पहल को अत्यन्त कलात्मक एवं उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान की है। दाऊ रामचंद्र देशमुख ने जनता के सुख-दुख को जिस अंतरंगता एवं संवेदनशीलता के साथ लोकनाट्य का हिस्सा बनाया, रामहृदय तिवारी ने उसे सार्थक दिशा और अर्थपूर्ण विस्तार प्रदान किया। महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने पहले रंगकर्म को अपने जीवन का हिस्सा बनाया, बाद में उनका जीवन ही रंगकर्म का हिस्सा बन गया।

लोकमंचीय कला के पुरोधाः रामचन्द्र देशमुख

लोकमंचीय कला के पुरोधा
रामचन्द्र देशमुख
- प्रेम साइमन
रामचन्द्र देशमुख- एक व्यक्ति का ही नहीं, छत्तीसगढ़  की धूलधूसरित लोक संस्कृति को फिर से महिमामंडित करने के सफल और सार्थक प्रयास का नाम है। रामचन्द्र देशमुख और लोककला ये दोनों एक दूसरे के ऐसे पर्याय बन चुके हैं कि इन्हें अलग करके देख पाना लगभग असंभव है। आज हमारी लोक संस्कृति विदेशों तक को अपनी इन्द्रधनुषी फुहारों से सराबोर कर रही है। निश्चय ही, इस उपलब्धि के पीछे इस व्यक्ति के आजीवन अथक परिश्रम का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। इसमें जरा  भी अतिशयोक्ति नहीं कि इस अंचल में ही नहीं बल्कि पूरे भरत में लोककला की दुनिया को इतना समृद्ध और परिष्कृत बहुत कम लोगों ने किया होगा जितना स्व. रामचन्द्र देशमुख ने किया था।

लोक संस्कृति के इस कलासाधक का जन्म 25 अक्टूबर 1916 में ग्राम पिनकापार में देशमुख कुर्मी जाति के सम्पन्न कृषक परिवार में हुआ था। कृषि और कानून, दोनों में स्नातक होने के बावजूद, उनका मूल झुकाव पारंपरिक कलाओं के प्रति था। मंच के माध्यम से जन चेतना को जागृत करने की भावना शुरू से ही उनके मन में रही। कालान्तर में यह भावना योजना बनी, फिर कर्म। रामचन्द्र देशमुख के इसी कर्म ने इस अंचल को चंदैनी गोंदा देवार डेरा और कारी जैसी कालजयी लोकमंचीय प्रस्तुतियाँ दी हैं।
 छत्तीसगढ़ की लोकमंचीय विधा नाचा पर्याप्त प्रख्यात तो है ही, अंचल के जो स्वरूप था, उसमें अश्लीलता, अनैतिकता, फूहड़ता और निरर्थकता की भरमार थी। वह नवस्वाधीन देश भारत के पुनर्जागरण का काल था। जनचेतना में उच्चादर्शो और नैतिक मूल्यों को स्थापित करने की जरूरत थी। भविष्य द्रष्टा रामचन्द्र ने भांप लिया था कि इस कार्य में नाचा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, यदि इसे परिष्कृत और परिमार्जित किया जाय तो। अपने इसी विश्वास के वशीभूत होकर उन्होंने सन् 1951 में छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मण्डल की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने सागर से निकाले गये मोतियों की तरह समूचे छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों को चुन-चुन कर एक मंच पर एकत्र किया और अपनी प्रस्तुतियों- सरग अउ नरक जनम और मरन तथा कालीमाटी में नगीने की तरह जड़ा। मदन निषाद, लालूराम, ठाकुरराम, बाबूदास, भुलऊदास इत्यादि लब्धप्रतिष्ठित कलाकार इसी संस्था की उपज हैं। यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि सन् 1953 में प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर ने इन्ही नाटकों को देखकर लोकमंच की शक्ति को पहचाना और रामचन्द्र देशमुख से प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर उनके ही लोक कलाकारों के सहयोग से अपने मंचीय जीवन की शुरूआत की। छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल रामचन्द्र देशमुख का पहला सफल मंचीय प्रयोग था। वस्तुत: इस मंडल के माध्यम से उन्होंने कीचड़ सने नाचा के पाँव पखारे थे।
1945-55 से 1969-70 तक के अंतराल में रामचन्द्र देशमुख ने अपना समय आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों के अध्ययन और उन्नत कृषि के अनुसंधान में लगाया। प्रत्यक्ष रूप से, मंच से अलग होने के बाद भी उनकी सतर्क दृष्टि मंचीय उतार -चढ़ाव को निहारती रही और उनका मन छत्तीसगढ़ की वेदना को किसी कृति में समोने के लिए छटपटाता रहा। यह चन्दैनी गोंदा जैसी महान सर्जना के जन्म के पूर्व का प्रसवकाल था। छत्तीसगढ़ के सांसकृतिक क्षितिज पर यहाँ से वहाँ तक एक विराट शून्य फैला हुआ था और एक मर्मान्तक हताशा हर लोककला प्रेमी के मन मस्तिष्क को झकझोर रही थी। अपनी ही कला और संस्कृति से वंचित छत्तीसगढ़, फटी-फटी आँखों से किसी चमत्कार को ढूँढ रहा था। लेकिन चमत्कार करने का साहस भला किसमें था? यह साहस दिखाया रामचन्द्र देशमुख ने। उन्होंने अपने अंचल के दुख-सुख को अपने में समोकर उसे पूरी मार्मिकता से अभिव्यक्त करने की चेष्टा की और इसी चेष्टा का युगान्तकारी परिणाम था- चन्दैनी गोंदा।  यह ऐसी अनूठी प्रस्तुति थी जिसने एक दशक तक छत्तीसगढ़ अँचल के समूचे सांस्कृतिक गगन को अपने प्रभाव में समेट लिया। सन् 1971 में पहली बार प्रस्तुत इस लोक नाट्य ने अपने इन्द्रजाल में छत्तीसगढ़ी जनमानस को इस तरह बाँधा कि छत्तीसगढ़ निवासी हो जिसने चंदैनी गोंदा न देखा हो और छत्तीसगढ़ ही क्यों उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजधानी दिल्ली के अशोका हॉटल में भी इसके प्रदर्शन मील के पत्थर बन चुके हैं। चंदैनी गोंदा में लोक संस्कृति के साथ-साथ राष्ट्रीय भावना की प्रचुरता  थी। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अंधविश्वासों और बुराइयों परर प्रभावशाली ढंग से चोट की गई थी। हरितक्रांति और शोषणमुक्त समाज की परिकल्पना इसमें देखते ही बनती थी। आम भारतीय कृषक के सुख-दुख, आशा, आकांक्षा, उल्लास उत्साह और सपनों के सतरंगी धागों से बुने चंदैनी गोंदा की प्रासंगिकता और अनुपमेयता आज भी निर्विवाद है। शायद इसीलिए इसके एक प्रदर्शन को मार्मिक है कि छत्तीसगढ़ के लोगों को अपने इतिहास एवं संस्कृति के लिए मर-मिटने की प्रेरणा मिलती है। सचमुच अंचल की लोकमंचीय कला के इतिहास में इतनी बड़ी क्रांति न तो कभी हुई और न संभवत: होगी। रामचन्द्र देशमुख की दूसरी महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति थी- देवार डेरा जो सर्वाधिक उपेक्षित देवारों को समर्तित इन देवारों की उदास, उजाड़ और नीरस जिन्दगी में भी नृत्य और संगीत का एक अजस्र स्रोत बहता है। किन्नरों के अभिशप्त मानस पुत्र थे देवार विरासत में सिर्फ कला पाते हैं। गली और कूचों में बेमोल बिकने वाली कला।
चंदैनी गोंदा के निर्माण के दौरान ही रामचन्द्र देशमुख ने देवारों के इस कला वैभव को परख लिया था। फिर शुरू हुई उनके दुखों को शब्द देने की प्रक्रिया देवार डेरा के माध्यम से। एक ओर तो रामचन्द्र देशमुख ने मंच के जरिए खनकते हुए घुँघरूओं के बीच हुए आँसुओं की व्यथा कथा को समाज के सामने रखा वहीं दूसरी ओर उन्होंने देवारों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए अथक परिश्रम भी किया। उनकी आवासीय समस्याओं को सुलझाने के लिए उन्होंने शासन तक भी बात पहुँचाई। उन्हीं की कोशिशों का नतीजा है कि सन् 1987में शासन ने दुर्ग में उनके लिए आवासीय कॉलोनी बनाने की योजना अपने हाथ में ली।
रामचन्द्र देशमुख 1977 में यूनेस्को द्वारा भोपाल में आयोजित एक सेमिनार के आमंत्रित वक्ता भी रह चुके हैं। इस सेमिनार में उन्होंने लोकमंच माध्यम में प्रयोग शीर्षक से अपना सारगर्भित निबन्ध पढ़ा। श्रोताओं ने उनके विचारों, धारणाओं और मान्यताओं की मुक्तकंठ से सराहना की। 1977 में ही चंदैनी गोंदा के कुछ अंशों की टी.वी. रिकार्डिग दिल्ली दूरदर्शन में की गई तथा अशोका होटल के कन्वेंशन हॉल में मंत्रियों, सांसदों और देश विदेश के गणमान्य अतिथियों के समक्ष उसका भव्य प्रदर्शन हुआ। दिल्ली के दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक पत्र-पत्रिकाओं ने इस प्रस्तुति की प्रशंसायुक्त समीक्षाएँ छापीं। साप्ताहिक धर्मयुग में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार परितोष चक्रवर्ती ने लिखा था- चंदैनी गोंदा कोई नाटक, नाचा, गम्मत या तमाशा नहीं है बल्कि गीत संगीत मे पिरोई गई भारतीय कृषक के जीवन की व्यथा कथा है। जमशेदपुर से प्रकाशित दर्पण के चंदैनी गोंदा परिशिष्ट अंक में राजकुमार शर्मा ने लिखा है- फिल्मी गीतों का कुप्रभाव जनजीवन में इस कदर बैठ गया था कि हम सुआ, ददरिया, पंथी, करमा जैसे पारंपरिक गीत ही भूलते चले जा रहे थे। हमारी लोककलाएँ दूषित और विस्मृत हो रही थीं। उन्हें परिमार्जित, संशोधित और पुन: प्रतिष्ठित करना बहुत जरूरी था। चंदैनी गोंदा ने यही किया है। चंदैनी गोंदा आँचलिक संस्कृति के गौरव का सिंहनाद है। वस्तुत: यह समूची लोक संस्कृति का दर्पण है।
सचमुच चंदैनी गोंदा ने यही किया था। अपने सौ प्रदर्शनों में इसने ऐसा प्रभाव छोड़ा था कि समूचे छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई। आज लोग रेडियों, दूरदर्शन और अन्य माध्यमों से लोकगीतों को रूचि पूर्वक सुनने लगे हैं। छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रति लोगों के मन में आकर्षण और आदर की भावना पैदा हुई है। लुप्तप्राय: लोकगीत और लोक कलाएँ ढँूढ-ढूँढ कर निकाली जा रही हैं। चिर उपेक्षित आँचलिक कलायें एक नए गौरव बोध से भर उठी हैं।
देहाती कला विकास मंडल चंदैनी गोंदा और देवार डेरा के बाद लोक मंच की परिष्कार यात्रा के जिस चौथे पड़ाव पर रामचन्द्र देशमुख पहुँचे वह थी कारी डॉ.पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की पुस्तक अंतिम अध्याय के एक संसमरण छत्तीसगढ़ की आत्मा से प्रेरित रामचन्द्र देशमुख की यह कल्पना लोक संस्कृति के गगन पर छत्तीसगढ़ की वही चिरव्यथित माँ के रूप में अपनी ममतामयी ज्योत्स्ना  बिखेरती रही है। रामचन्द्र देशमुख की पारखी दृष्टि ने नारी प्रधान इस लोक नाट्य के निर्देशन का भार रामहृदय तिवारी के हाथों में सौंपा। इस लोकनाट्य में नारी जागृति और नारी महिमा को पुनप्र्रतिष्ठित करने की भावना सन्निहित थी। इस गंभीर प्रयोगात्मक नाटक के 44 से अधिक भव्य एवं सफल मंचन अँचल के गाँवों, शहरों और नगरों में हो चुके हैं और आज भी इसकी अपनी लोकप्रियता और आकर्षण की चर्चा यत्र-तत्र होती रहती है।
साप्ताहिक धर्मयुग के दिये गये अपने साक्षात्कार में रामचन्द्र देशमुख ने कहा था- अचल की गरीबी, पिछड़ापन और शोषण देखकर कोई भी द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता। इन्हें अंधेरों से उबारने, इनमें जागृति पैदा करने के लिए लोक कला माध्यमों से बढक़र सहज, सरल और प्रभावशाली साधन अन्य कोई नहीं है। अंचल के लोगों में सर्वतोमुखी जागृति और चेतना पैदा करने के लिए ही मैने इस माध्यम को चुना है और यही मेरा प्रमुख उद्देश्य है।

उम्र की 80 वीं देहलीज पर भी जहाँ आम तौर पर लोग जीवन की सक्रियता से विराम पा लेते हैं, रामचन्द्र देशमुख पूरी निष्ठा और विश्वास के साथ लोक संस्कृति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए छटपटाते रहे, अपने स्तर पर चिंतनरत रहते हुए जिज्ञासु युवा पीढ़ी को दिशा निर्देश देते रहे। सांस्कृतिक क्षेत्र का यह अपराजेय योद्धा लोककला की जय पताका को अँचल के साथ-साथ देश और विदेश के गगन में शान से लहराते देखने की साध अंत तक मन में संजाये रहे। आज समूचा छत्तीसगढ़ उनकी अप्रतिम सांस्कृतिक देनों का ऋणी है क्योंकि उन्होंने इस अँचल से जितना कुछ पाया उससे अगाधा गुना देते ही रहे हैं। आजीवन राजनीति से दूर सतत् सेवाभावी लोककलाओं के प्रति आकंठ समर्पित इस व्यक्तित्व का नाम छत्तसीगढ़ी लोकमंचीय कला के इतिहास में सदा जगमगाता रहेगा।

सोनहा बिहान के स्वप्नदर्शी: दाऊ महासिंह चन्द्राकर

सोनहा बिहान के स्वप्नदर्शी:

दाऊ महासिंह चन्द्राकर

- रामहृदय तिवारी

याद आती है- 6 सितम्बर 1997 की, मतवारी में आयोजित सुर श्रद्धांजलि की वह शाम, गोधूलि बेला में गायों के गले की टुनटुनाती घंटियाँ, पक्षियों की चहचहाती बोलियाँ, मंदिर में शंख और झालर की ध्वनियाँ और इन्हीं सबके बीच भीगे लम्हों में गुजरती, बिसुरती अपनी बेबस जिन्दगी का पैगाम भेजा था उनके प्रेमी सुर साधकों ने, संगीत के सुरबइहे दिवंगत दाऊ महासिंह चन्द्राकर के नाम, एक पेड़ आमा, छत्तीस पेड़ जाम, सतरंगी ला मोला तें ओढ़ा दे रे दोस, एक मोरे हीरा, मुँहू पा परे घाम, सतरंगी ला मोला तें ओढ़ा दे रे दोस  तब लगा था- गीत गंगा मरुस्थलों में म्लान होकर रह गई, कोकिला की कंठ भी बेजान होकर रह गई, सिर्फ तुम ही क्या गए इस महफिल से, महफिल एक सूखी नदी सी वीरान होकर रह गई।
हम नहीं जानते लोक स्वर का साधक सूक्षम जगत में आज कहाँ हैं? वे तो निष्ठुरता के साथ अचानक ओझल हुए थे हमारी आँखों से। उन्होंने हमें वक्त ही नहीं दिया उनसे कुछ कह सकें। शायद वे नहीं जान सके कि हम उनसे कितना प्यार करते थे। आज भी  हमारे मन के कोने में बार-बार उनकी यहीं पंक्ति गूँजा करती है- विधि के इही विधान रे संगी, सुख-दुख दोनों मितान रे संगी।
सोनहा बिहान के स्वप्नदर्शी यह दाऊ महसिंह चन्द्राकर ही थे, जिन्होंने भोले छत्तीसगढ़ की पीरा को मंच पर साकार किया था। लोकरंजनी उन्हीं की गायी हुई अमर रागिनी थी। लोरिक चंदा उन्ही की सांस्कृतिक जय यात्रा का तूर्य नाद था, जिससे आज भी निनादित है, अंचल का सांस्कृतिक गगन, जिसके साक्षी हैं- आज भी यहाँ की हवाओं में तैरते छत्तीसगढ़ी गीत, संगीत, नृत्य और उनमें डूबे ऐसे बेशुमार लोग जो इस अंचल की लोककलाओं को जी-जान से प्यार करते हैं। आज जब भी लोक संगीत की महफिल सजती है, तब उस सर्र्जक लोक गायक की, बहुत याद आती है। याद आता है। उनका गाया सदाबाहार गीत-
कोने गुनह में सजा दिन्हें मोहन वो मोला, कोने गुनह में सजा दिन्हा जी। वे जो कभी लोक सांगीतिक महफिल की जान थे, साज और आवाज की शान थे, उनके बिना उनके घर विद्यमान वाद्यों के सदा निनादित रहने वाले स्वर, आज कितने खामोश कितने उदास और वीरान लगते हैं। समर्पण भवन आज भले अस्तित्त्व में न हो, मगर वहाँ के कलागत क्रियाकलापों की सुरमयी स्मृतियाँ हमारे मन मस्तिष्क में सदा के लिए अंकित हैं।
यही वह समर्पण भवन था, जहाँ पहली बार सन् 1975 में उनसे मेरी मुलाकात हुई थी, जहाँ केवल हमारे जैसे ही नहीं बल्कि निजामुद्दीन, दुर्गा भट्ट, जगन्नाथ भट्ट, कबीर साहब, लालू और मदन जैसे न जाने कितने उद्भट कला साधकों को स्नेह और सम्मान मिला करता था। जहाँ बारहों महीने दिन रात नया-नया सीखने और सिखाने वाले प्रेमपूर्वक पनाह पाया करते थे, समर्पण भवन, जिसने ममता, प्रमिला, दीपक लक्ष्मण, शैलजा, मिथिलेश, कुलेश्वर और माया, बसंती, पद्मा जैसे अनगिनत कलारत्नों को तराशा संवारा और उन्हें अनमोल रत्न बनाकर मंच पर पेश किया। तब समर्पण भवन ही नहीं उनके घर आँगन का प्रत्येक कोना, देहरी दरों दीवार और गलियाँ घुँघरु की रुनझुन और तबले की थाप से गुँजायमान थीं।
आज वे सारे स्वर मानों उन्हीं के साथ अनंत में विलीन होकर हमारे लिये केवल स्मृतियाँ बनकर रह गये हैं। लोकस्वर के वे बावले सर्जक शायद हमसे रुठकर बहुत दूर चले गये हैं, हम उन्हें ऐन वक्त पर अलविदा भी न कह सके, पर हमारे अहसासों से, हमारी यादों से वे दूर भला कैसे हो सकते हैं? वे सशरीर हमारे बीच न सही मगर हमारे दिलों में हमेशा समाये रहेंगे। आज हमारे लिये प्रेरक अवशेष हैं- लोक संगीत के लिये उनका दीवानापन, कलाओं के लिये उनका आजीवन समर्पण और अंचल की माटी के लिये कुछ भी कर गुजरने की उनकी अटूट लगन। उनके रोम-रोम से छत्तीसगढ़ बोलता था, उनकी साँस-साँस में छत्तीसगढ़ धडक़ता था। उस सच्चे छत्तीसगढ़ी सपूत और सांस्कृतिक स्वाभिमानी की सीख, समर्पण और लगन, उनसे जुड़े कलाकारों की पूँजी और प्रणम्य धरोहर है।
सच कहा जाये तो महासिंह चन्द्रकर व्यक्ति का नहीं, एक तपस्या का नाम था। लोक मंचीय कलाओं के लिये दिन रात लगे रहने वाले इस महान साधक का देहावसान एक साँस्कृतिक कालखंड का अवसान था। उनके जीवन के व्याकुल क्षणों में जन्मी उनकी तमाम कलागत सर्जनाओं ने उनसे बड़ी-बड़ी कीमतें वसूल कीं। सम्पन्न घर में जन्म लेने के बावजूद उनका सांस्कृतिक सफर सुगम कभी नहीं रहा। पग-पग पर अनगिनत बाधायेंपिताश्री और परिजन का प्रबल प्रतिरोध, फिर भी वे न कभी विचलित हुए न अपना साधन पथ बदला। जीवन भर, यहाँ तक कि गंभीर अस्वस्थता और वार्धक्य की विवशता के बावजूद सांस्कृतिक मशाल को जलाये अपने हाथों में थामे रहे। यह विलक्षण जीवटपन दाऊजी के व्यक्तित्व की खास पहचान थी, जिसकी मिसाल अंचल के सांस्कृतिक इतिहास में दाऊ, रामचन्द्र देशमुख और मदराजी दाऊ के अलावा दुर्लभ है। भट भेरा साज के गर्भ से जन्में सोनहा बिहान की सांस्कृतिक सुरसरिता के विभिन्न पड़ावों के रुप में गीतांजलि, लोक-रंजनी, फिर लोरिक चंदा का अविरल प्रवाह महासिंह दाऊ की उद्दाम कलानिष्ठा, साधना और समर्पण का अनूठा प्रमाण का प्राण मानने वाले महासिंह जी यह मानते थे कि कला की कोई सीमा नहीं होती, न ही उसे सीखने में उम्र या हैसियत आड़े आनी चाहिये। वे जिज्ञासु भाव से नित्य नई चीजें गुणी लोगों से स्वयं सीखते रहे, साथ ही युवा पीढ़ी को पूरी तल्लीनता के साथ सिखाते भी रहे। लोरिक चंदा का निर्देशन भार सौंपने के साथ कई सीख उन्होंने मुझे भी दी थी। इस प्रोजेक्ट के लिए गड़हा ददरिया उन्होंने स्वयं गाकर जब सुनाया था, मेरी आँखें भीग गयी थीं। कलाकारों के प्रति उनकी  सदाशयता और उदारता अंत तक बनी रही। मैं स्वयं उनसे मिले स्नेह और सम्मान को भूल नहीं पाता हूँ।
यूँ तो इस दुनिया से सबको एक न एक दिन रुखसत होना ही है, मगर ऐसी अंतिम बिदाई और दशगात्र पर दी गई स्वर श्रद्धांजलि जो मैने देखी और सुनी, बिरले को ही नसीब होती है, शायद ऐसे ही किन्हीं क्षणों में नीरज के दिल से ये पंक्तियाँ निकली होंगी:
अब न वो दर्द, न वो दिलन वो दीवाने रहे,
अब न वो सोज, न साज न वो गाने रहे,
साकी, तू अब भी यहाँकिसके लिये बैठा है?

अब न वो जाम, न वो मयन वो पैमाने रहे।

लोरिक चन्दाःसंयोग-वियोग की प्रेमकथा


लोरिक चन्दाःसंयोग-वियोग की प्रेमकथा 
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परदेशीराम वर्मा 
छत्तीसगढ़ लोक गाथाओं का गढ़ भी है। हस्तिनापुर में राज करने वाले कौरव-पांडवों की कथा को पद्मभूषण तीजन बाई पंडवानी परम्परा से जुड़े गायक कुछ इस तरह छत्तीसगढ़ी रंग में रंग कर प्रस्तुत करते हैं कि सारे पात्र छत्तीसगढ़ी बन जाते हैं। श्रीराम की माता कौशल्या तो कोशल नरेश की सुपुत्री थीं ही। छत्तीसगढ़ ही दक्षिण कोशल है। इसलिए श्रीराम छत्तीसगढ़ के भांजे हैं। छत्तीसगढ़ में इसीलिए बुजुर्ग मामा भांजों का चरण स्पर्श करते हैं। चूँकि श्रीराम छत्तीसगढ़ के भांजे हैं इसलिए हर भांजा श्रीराम है। इसीलिए यहाँ भांजे इस तरह पूजित होते हैं।
उसी तरह भतृहरि की कथा का भी छत्तीसगढ़ीकरण हो गया है। हमारे भतृहरि रानी की बेवफाई के कारण संन्यासी नहीं बनते। यहाँ की कथा में भृतहरि विवाह के बाद प्रथम रात्रि में जब अपनी रानी के पास  जाता है तो सोने के पलंग की पाटी टूट जाती है। पाटी टूटने पर रानी हँस देती है। राजा जब पाटी टूटने के रहस्य को जानना चाहता जब कहानी शुरू होती है। रानी के सात जन्मों की कथा प्रारम्भ होती है। रानी बताती है कि पूर्व जन्म में वह राजा की माता थी पाटी इसलिए टूटी।
स्त्री के भीतर के मातृ स्वरूप की महत्ता को बताने के लिए भतृहरि कथा का छत्तीसगढ़ी रूप इस तरह सामने आया। इसे सुरूजबाई खांडे देश-विदेश के मंचों पर सुनाकर सम्मोहन रचती है।
लोकगाथाओं का स्वरूप अंचलों में अलग-अलग होना स्वाभाविक है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोकगाथाओं में सर्वाधिक प्रभावी लोकगाथा लोरिक-चन्दा है। यादव कुल में जन्मे लोरिक और गढ़पाटन के राजा की बेटी चन्दा की यह प्रेम कथा अलग-अलग जातियों के साथ जुडक़र प्रस्तुति में वैविध्य का इन्द्रधनुष रचती है।
लोरिक गढ़पाटन का एक साधारण चरवाहा है। वह वीर है और जंगल में बसे अपने गाँव में रहकर ढोर-डाँगर चराकर जीवन यापन करता है। गढ़पाटन राज्य में एक शेर नरभक्षी हो जाता है। राजा अपने सेनापति को आदेश देता है कि वह शेर को खत्म कर दे। सेनापति को पता लगता है कि उसके राज्य में लोरिक है जो शेर को मार सकता है।
अन्तत: लोरिक शेर को मार देता है मगर श्रेय सेनापति ले लेता है। लोरिक अपने पिता के समझाने पर मान जाता है और श्रेय सेनापति को दे देता है। सेनापति के आग्रह पर लोरिक को राजा अपने दरबार में स्थान देता है। बाँसुरी वादन में निपुण धुर गँवइहा लोरिक पर राजकुमारी चन्दा मुग्ध हो जाती है। चन्दा और लोरिक छिप-छिप कर जंगल में मिलते हैं। दोनों एक दूसरे के बिना जीना नहीं चाहते। लेकिन गढ़पाटन का राजा अपनी बेटी चन्दा का ब्याह कराकुल देश के राजा के कोढ़ी पुत्र वीरबाबन से कर देता है।
चन्दा जब कोढ़ी पति को देखती है तब पछाड़ खाकर गिर जाती है। वीरबाबन को ग्लानि होती है। वह जान जाता है कि चन्दा लोरिक के बगैर जी नहीं सकती। यह चन्दा को मुक्त करते हुए कहता है कि वही महल से निकल जाती है अपने लोरिक की तलाश में। यह तलाश ही उसके शेष जीवन की असलियत बन जाती है।
कथा गायक यह नहीं बताया कि लोरिक-चन्दा में फिर मेल हुआ कि नहीं।
प्रेम की प्यास, अपने मनचाहे संसार को पाने की ललक, राज परिवार मे जन्म लेने की सजा, राज्य से जुड़े सामन्तों का षडय़न्त्र और अन्तत: प्यास के अधूरेपन के अनन्त विस्तार को ही लोरिक चन्दा की कथा में हम पाते हैं। लोरिक चन्दा की कथा को यहाँ चनैनी गायन कहा जाता है। चनैनी गायन की कला में सिद्धि के लिए सतनामी कलाकारों को बेहद सम्मान प्राप्त है। चनैनी के लगभग सभी बडत्रे कलाकार इसी समाज से आये। एक विशेष धुन को चनैनी धुन के रूप में हम जानते हैं। उसी एक लय में पूरी कथा रात भर चलती है। मशाल जलाकर कलाकार नाचते हैं और इस कथा की रोचक प्रस्तुति होती है। मशाल नाच दल द्वारा प्रस्तुत चनैनी के माध्यम से ही लोरिक-चन्दा की कथा आज तक यहाँ तक आयी है।
जिस जाति में लोरिक का जन्म हुआ उस जाति के यदुवंशी भी इस कथा का गायन करते हैं। मगर वे बाँस गीत के रूप में इसे गाते हैं। बाँस संसार की सबसे लम्बी बाँसुरी है।लम्बे-लम्बे बाँसों को फूँक कर बजाना तगड़े राऊतों के बस का कौशल होता है।
एक मुख्य गायक लोरिक और चन्दा की कथा का गायन करता है और दो बाँस बजाने वाले उसे सपोर्ट करते हैं। रात भर इसी तरह कहानी कही जाती है। कथा गायक नाटकीय अन्दाज में कहानी प्रस्तुत कर श्रोताओं को बाँधे रखता है। आजकल लोरिक-चन्दा की कहानी पर लाइट एंड साउंड की भव्य प्रस्तुतियाँ भी हो रही हैं। क्षितिज रंगशिविर द्वारा पिछले दिनों लोरिकायन की प्रस्तुति हुई। मगर सबसे पहले इस कथा की चर्चित मंचीय प्रस्तुति रामहृदय तिवारी के निर्देशन में सन् 1981-82 में हुई थी। लोरिक चन्दा की एक ही कथा नहीं है। किसी कथा में लोरिक को राज के षडय़ंत्रकारी सिपाही मार देते हैं। एक कहानी में कोढ़ी राजकुमार के पिता लोरिक को अपना बेटा बनाकर ब्याह वेदी पर बिठाता है। मगर जब बारात लौटाती है तब बीच जंगल में फिर कोढ़ी को डोली पर बिठाकर लोरिक को भाग जाने का आदेश देता है।
लोरिक इससे आहत होकर संन्यासी बन जाता है। चन्दा अपने कोढ़ी पति को गाड़ी में बिठाकर धर्मस्थलों की यात्रा करती है। अन्तत: लोरिक साधु के रूप में मिलता है। चन्दा और लोरिक एक-दूसरे को देखते हैं और वहीं गिरकर ढेर हो जाते हैं।
एक और प्रचलित कथा है जिसमें लोरिक सद्गृहस्थ रहता है। वह अपनी पत्नी के साथ गाय भैंस पालता है। उसकी घरवाली रौताइन दूध बेचने गढ़पाटन जाती है। चन्दा गढ़पाटन की राजकुमारी है। एक कुटनी के माध्यम से उसे लोरिक के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है कि उसने शेर को मार दिया। जिज्ञासावश चन्दा लोरिक से मिलती है। लोरिक से प्राय: तभी मिलती है जब लोरिक की पत्नी दूध बेचने जाती है। एक दिन लोरिक की पत्नी चन्दा को रंगे हाथों पकड़ लेती है। उसे खूब फटकारती है। दोनों में हाथापाई होती है। लोरिक किसी तरह दोनों को शान्त करता है। अन्तत: दोनों ही लोरिक की पत्नी बनकर सुखपूर्वक रहती हैं।
यहाँ प्रचलित कथाओं में लोक मान्यताओं का सच्चा रंग ही है।
अन्य प्रदेशों के राजाओं जैसे बड़े राजा यहाँ नहीं हुए। हर जिले में छोटे-छोटे राजमहल आज भी हैं। जिलों के राज परिवार के लोक अब विधानसभा, लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं। जीतते-हारते हैं। छत्तीसगढ़ सहज, सरल लोगों का क्षेत्र है। आडम्बर और प्रदर्शन की कला यहाँ कभी परवान नहीं चढ़ी। प्रेम कथाएँ भी यहाँ आडम्बरहीनऔर सीधी सच्ची-सी हैं। अब तक छत्तीसगढ़ की प्रेम कथाओं पर कोई औपन्यासिक कृति नहीं सामने आयी मगर दूसरे क्षेत्रों के उत्साही कलमकारों ने ऐसा सफल प्रयास किया है। शरत सोनकर ने लगभग 500 पृष्ठों का एक उपन्यास लोरिक सँवरू के नाम से प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने लोरिक को प्रतापगढ़ चनवा क्षेत्र का वीर बताया है।
छत्तीसगढ़ के कलाकार ढोला-मारू और बहादुर कलारिन की कथा भी गाते हैं। ये प्रेम कथाएँ हैं। आश्चर्य की बात है कि सभी प्रेमकथाओं में नायक -नायिका पिछड़ी दलित जातियों से हैं। एक कथा उडिय़ान है। तालाब खोदने में माहिर उडिय़ा श्रमिकों की यह कथा छत्तीसगढ़ में प्रचलित है। केवल इस कथा में उडिय़ा श्रमिक सुन्दरी पर ब्राह्मण लडक़े की आसक्ति की कहानी कही जाती है। नौ लाख उडिय़ा नौ लाख ओड़निन माटी कोड़े ल चलि जाँय, ओती ले आवय बाम्हन छोकरा, ओड़निन पर ललचाय।
और कथा इस तरह आगे बढ़ती है। श्रमिकों, दलितों, वनवासियों, पिछड़े लोगों का यह छत्तीसगढ़ सामन्ती और जातीय दंश से उस तरह संत्रस्त नहीं हुआ जिस तरह देश के दूसरे क्षेत्र हुए। इसीलिए पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने कहा कि जातीय कटुता के जैसे चित्र प्रेमचन्द की कहानियों में है उसके लिए छत्तीसगढ़ में गुंजाइश कभी नहीं रही। साहित्य इसीलिए समाज का दर्पण कहलाता है। जैसी छवि समाज की होगी उसी तरह की प्रतिछवि दर्पण पर दिखेगी।
छत्तीसगढ़ की परम्पराएँ, छत्तीसगढ़ी जन के मन में रचा वैराग्य, सहज जीवन इन कथाओं में चित्रित है।
प्राय: हर कथा दुखान्त है। प्रेम की छत्तीसगढ़ी कथाओं के केन्द्र में दुख है और तो और अयोध्या के राजा की धर्मपत्नी महारानी सीता को भी  जब निर्वासन मिला तो उसे छत्तीसगढ़ ने ही आसरा दिया।
तुरतुरिया नामक स्थान में आज भी वाल्मीकि का आश्रम है। यहीं लव-कुश का जन्म हुआ। अयोध्या के सम्राट का घोड़ा यहीं पकड़ा गया।
आज जब क्षेत्रीयतावाद की तंग परिभाषाएँ दी जा रही हैं तब यह ऐतिहासिक सच्चाई प्रश्न करती है कि छत्तीसगढ़ की बेटी कौशल्या अयोध्या के राजा की पटरानी बनीं तब बाहरी कोई कैसे हुआ?कौन बाहरी है, कौन माटीपुत्र, इसे कैसे परिभाषित किया जा सकता है? एक ही कथा रूप बदलकर देश भर में प्रचलित हो जाती है। लोग भी उसी तरह कालान्तर में जहाँ जाकर बस जाते हैं उसी क्षेत्र का जयगान करते है।
छत्तीसगढ़ सबका है और सब छत्तीसगढ़ के हैं। भिन्न-भिन्न जाति के कलाकार अलग-अलग स्वरूप में कथा प्रस्तुत करते हैं मगर सब में सुर और शब्द शुरूआत में एक जैसे ही होते हैं... चौसठ जोगनी सुमिरों तोर/ तोर भरोसा बल गरजौं तोर/ तोर ले गरब गुमाने तोर/ तोर छोड़ गीत गाँवव तोर/ आलबरस दाई जाँवव तोर/ लख चौरासी देवता तोर/ डूमर के दीदी परेतीन तोर/ बोइर के दीदी चुरेलिन तोर/ मुँह के वो मोहनी तोर/ आँखी के वो सतबहिनी तोर/ सुमिरँव सन्त समाज तोर/ अरे जे दिन बोले/ मोर चंदैनी, मोर बरगना हो...
इस अनगढ़ सी तुकबन्दी से ही लोरिक चन्दा की कथा शुरू होती है। इसमें चौंसठ जोगनी, गुरू चौरासी लाख देवता, गूलर डूमर पेड़ की इन सबकी वन्दना के बाद ही कथा प्रारम्भ होती है। यह एकरूपता भी कथा का अलग-अलग विस्तार होता है।
लोरिक चन्दा की प्रेम कथा वनग्रामों में पनपी और अब केवल मंचीय कलाकारों के कौशल के कारण जीवित है।

सरल वीर पुरुष के प्रति राजकन्या के आकर्षण की इस कथा में संयोग और वियोग शृंगार की बानगी देखते ही बनती है।

लोक कला के ध्वज वाहक: गोविन्दराम निर्मलकर


लोक कला के ध्वज वाहक:

गोविन्दराम निर्मलकर

 संजीव तिवारी
देश के अन्य प्रदेशों के लोक में प्रचलित लोकनाट्यों की परम्परा में छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य नाचा का विशिष्ट स्थान है । नाचा में स्वाभाविक मनोरंजन तो होता ही है साथ ही इसमें लोक शिक्षण का मूल भाव समाहित रहता है जिसके कारण यह जन में रच बस जाता है। वाचिक परम्परा में पीढ़ी दर पीढ़ी सफर तय करते हुए इस छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा में हास्य और व्यंग्य के साथ ही संगीत की मधुर लहरियाँ गूँजती रही है और इस पर नित नये प्रयोग भी जुड़ते गये हैं। इसका आयोजन मुख्यत: रात में होता है, जनता बियारीकरके इसके रस में जो डूबती है तो संपूर्ण रात के बाद सुबह सूरज उगते तक अनवरत एक के बाद एक गम्मत की कड़ी में मनोरंजन का सागर हिलोरें लेते रहता है। गाँव व आस-पास के लोग अपार भीड़ व तन्मयता से इसका आनंद लेते हैं और इसके पात्रों के मोहक संवादों में खो जाते हैं। नाचा की इसी लोकप्रियता एवं पात्रों में अपनी अभिनय क्षमता व जीवंतता सिद्ध करते हुए कई नाचा कलाकार यहाँ के निवासियों के दिलों में अमिट छाप बना गए है। मड़ई मेला में आवश्यक रूप से होने वाले नाचा को इन्हीं जनप्रिय कलाकरों नें गाँव के गुड़ी से महानगर व विश्व के कई देशों के भव्य नागरी थियेटरों तक का सफर तय कराया है। जिनमें से सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है गोविन्दराम निर्मलकर, जिन्हें इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार प्रदान किया गया है।
छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के तट पर बसे ग्राम मोहरा में 10 अक्टूबर 1935 को पिता स्व. गैंदलाल व माता स्व. बूंदा बाई के घर में जन्में गोविन्दराम के मन में नाचा देख-देखकर ऐसी लगन जागी कि वे 20 वर्ष की उम्र में पैरों में घुंघरू बाँधकर नाचा कलाकार बन गये। उन्होंनें अपना गुरू बनाया तत्कालीन रवेली रिंगनी साज के ख्यात नाचा कलाकार मदन निषाद को। इनके पैरों के छन-छन व कमर में बंधे घोलघोला घाँघर नें पूरे छत्तीसगढ़ में धूम मचा दिया। इन्हीं दिनों 50 के दशक के ख्यात रंगकर्मी रंग ऋ षि पद्म भूषण हबीब तनवीर नें छत्तीसगढ़ी नाचा की क्षमता को अपनाते हुए इनकी कला को परखा और नया थियेटर के लिए मदन निषाद, भुलवाराम यादव, श्रीमती फिदाबाई मरकाम, देवीलाल नाग व अन्य सहयोगी कलाकार लालू, ठाकुर राम, जगमोहन आदि को क्रमश: अपने पास बुला लिया।
गोविन्दराम निर्मलकर 1960 से नया थियेटर से जुड़ गये। उन दिनों हबीब तनवीर के चरणदास चोर नें संपूर्ण भारत में तहलका मचाया था। अभिनय को अपनी तपस्या मानने वाले गोविन्दराम निर्मलकर नया थियेटर में आते ही नायक की भूमिका में आ गए वे मदनलाल फिर द्वारका के बाद तीसरे व्यक्ति थे जिसने चरणदास चोर की भूमिका को अदा किया। अपनी अभिनय क्षमता के बूते पर उन्होंनें सभी प्रदर्शनों में खूब तालियाँ एवं संवेदना बटोरी। इसके साथ ही हबीब तनवीर की दिल्ली थियेटर की पहली प्रस्तुति आगरा बाजार (1945) में भी गोविन्दराम निर्मलकर ने अभिनय शुरू कर दिया। इसके बाद गोविन्दराम निर्मलकर ने हबीब तनवीर के प्रत्येक नाटकों में अभिनय किया और अपने अभिनय में निरंतर निखार लाते गए। लोकतत्त्वों  से भरपूर मिर्जा शोहरत बेग (1960), बहादुर कलारिन (1978), चारूदत्त और गणिका वसंतसेना की प्रेम गाथा मृछकटिकम मिट्टी की गाड़ी (1978), पोंगा पंडित, ब्रेख्त के नाटक गुड वूमेन ऑफ शेत्जुवान पर आधारित शाजापुर की शांतिबाई (1978), गाँव के नाम ससुरार मोर नाव दमाद (1973), छत्तीसगढ़ के पारंपरिक प्रेम गाथा लोरिक चँदा पर आधारित सोन सरार (1983), असगर वजाहत के नाटक जिन लाहौर नई देख्या वो जन्मई नई ((1990), शेक्सपियर के नाटक मिड समर्स नाइट ड्रीम पर आधारित कामदेव का अपना वसंत ऋ तु का सपना (1994), आदि में गोविन्दराम नें अभिनय किया।
गोविन्दराम जी के अभिनय व नाटकों के अविस्मरणीय पात्रों में चरणदास चोर की भूमिका के साथ ही आगरा बाजार में ककड़ी वाला, बहादुर कलारिन में गाँव का गौटिया, मिट्टी की गाड़ी में मैतरेय, हास्य नाटकों के लिए प्रसिद्ध मोलियर के नाटक बुर्जुआ जेन्टलमेन का छत्तीसगढ़ी अनुवाद लाला शोहरत बेग (1960) में शोहरत बेग जैसी केन्द्रीय व महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ रही। इन्होंने बावन कोढ़ी के रूप में सोन सागर में सर्वाधिक विस्मयकारी और प्रभावशाली अभिनय किया। महावीर अग्रवाल इस संबंध में तत्कालीन  चौमासा-1988 में लिखते हैं - एक-एक कदम और एक-एक शब्द द्वारा गोविन्दराम नें अपनी शक्ति और साधना को व्यक्त किया है। मुड़ी हुई अँगुलियों द्वारा कोढ़ का रेखांकन अद्भुत है। में तोर संग रहि के अपने जोग ला नी बिगाड़ों जैसे संवादों की अदायगी के साथ-साथ चँदा ला लोरिक के गरहन लगे हेसंवाद सुनकर आंखों में उतर जाने वाले यम रूपी क्रोध को, वहशीपन को अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा प्रभावित किया है। शुद्ध उच्चारण और मंच के लिये अपेक्षित लोचदार आवाज द्वारा गोविन्दराम चरित्र से एकाकार होने और संवेदनाओं को सहज उकेरने की कला में दक्ष हैं। मृच्छकटिकम मिट्टी की गाड़ी (1978) में नटी और मैत्रेय की भूमिका में चुटीले संवादों से हास्य व्यंग्य की फुलझड़ी बिखेरने वाले एवं पोंगा पंडित में लोटपोट करा देने वाले पोंगा पंडित की भूमिका में निर्मलकर नें जान डाल दिया था। मुद्राराक्षस में जीव सिद्धि, स्टीफन ज्वाईग की कहानी देख रहे हैं नैन में दीवान, कामदेव का अपना वसंत ऋतु में परियों से संवाद करने वाला बाटम, गाँव के नाम ससुरार मोर नाव दमाद (1973) में दमाद की दमदार भूमिका, जिन लाहौर नई देख्या वो जन्मई नई (1990) में अलीमा चायवाला, वेणीसंघारम में युधिष्ठिर, पोंगवा पंडित में पईसा म छूआ नई लगे कहने वाले पंडित की जोरदार भूमिका में गोविन्दराम निर्मलकर छाये रहे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह, एडिनबरा लंदन में गोविन्दराम अभिनीत चरणदास चोर का प्रदर्शन 52 देशों से आमंत्रित थियेटर ग्रुपों के बीच हुआ और चरणदास चोर को विश्व रंगमंच का सर्वोच सम्मान प्राप्त हुआ। इस प्रसिद्धि के बाद चरणदास चोर का मंचन विश्व के 17 देशों में हुआ। गोविन्दराम को पहली बार हवाई जहाज चढऩे का अवसर एडिनबरा जाते समय प्राप्त हुआ उसके बाद वह निरंतर हबीब तनवीर और साथी कलाकारों के साथ हवा एवं यथार्थ के लोक अभिनय की ऊँचाइयों पर उड़ते रहे। चरणदास चोर की प्रसिद्धि के चलते श्याम बेनेगल नें फिल्म चरणदास चोरबनाया जिसमें गोविन्दराम नें भी अभिनय किया है।

2005 से लकवाग्रस्त गोविन्दराम को बहुमत सम्मान दिये जाने के समय उन्होंनें अपने द्वारा अभिनीत आगरा बाजार के ककड़ी वाले गीत को गाकर सुनाया, यह नाटक और उनका अभिनय आगरा बाजार  की जान है। आगरा बाजार में पतंगवाला हबीब तनवीर के साथ इस ककड़ी वाले के स्वप्नों को सामंतशाही सवारी ने रौंद दिया था, उस दिन भी वही कसक पद्म श्री गोविंदराम निर्मलकर जी के हृदय से हो कर आँखों से छलक रही थी। मध्य प्रदेश सरकार के तुलसी सम्मान व छत्तीसगढ़ सरकार के मदराजी सम्मानके बावजूद 1500 रुपये पेंशन से अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचते गोविंदराम छत्तीसगढिय़ा स्वाभिमान और संतोष के पारंपरिक स्वभाव के धनी रहे, पैसा नहीं है तो क्या हुआ जिंदादिली तो है। बरसों गुमनामी की जिन्दगी जीते इस महान कलाकार ने अपनी परम्परा व संस्कृति के प्रति आस्था की डोर नहीं छोड़ी। उसी तरह जिस तरह आगरा बाजार में रौंदे जाने के बाद भी रोते ककड़ी वाले के अंतस को अपूर्व ऊर्जा से भर देने वाले जस गीत व मांदर के थापों ने दुखों को भूलाकर ब्रह्मानंद में मगन कर दिया था। वह ककड़ी वाला आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जीवन में आशा का संचार करता हुआ हमारी संस्कृति और परम्परा के ध्वज को सर्वोच्च लहराता हुआ अड़ा खड़ा है।