छत्तीसगढ़ी
लोकगीत
जीवन
शक्ति का अमृतकुण्ड
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सीताराम साहू श्याममहाकांतार, दण्डकारण्य, कोसल चेदिशगढ़ और धान का कटोरा जैसे नामों और संज्ञाओं से विभूषित हमारा छत्तीसगढ़ प्रकृति की गोद में बसा है। अमरकंटक, मेकल, रामगिरि और छोटे-बड़े सैकड़ों डोंगरी-पहाड़ और जंगल-झाड़ी इसकी प्राकृतिक सुषमा को बढ़ाते हैं। चित्रोत्पला-महानदी, हसदो, शिवनाथ, खारुन जैसी कई नदियाँ, अनेक नाले झरने छत्तीसगढ़ का गोड़धोवा बनकर अपने भाग्य पर गर्व करते हैं। राजिम छत्तीसगढ़ का प्रयाग है। यहाँ शिवरीनारायण, बमलेश्वरी, रतनपुर, भोरमदेव, दंतेवाड़ा और गोररइयाँ का पतित पावन तीरथ धाम है। ऐसी ही अनेकानेक विशेषताएँ यहाँ के कण-कण में समाई हुई हैं। ठीक इसी प्रकार यहाँ का लोक साहित्य भी समृद्ध और पोठ है। जिसमें हमारी व्यथा कथा, मया-पीरा सुख-दुख, तिहार-बार, नेंग-जोग और अनगिनत परम्परायें गुंथी और सनी हुई हैं। ये लोग साहित्य अजर-अमर होते हैं और वाचिक परम्परा द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते रहते हैं। ये पढ़ाई-लिखाई के मोहताज नहीं होते। दादा ने नाती ने सुना और उससे आने वाली पीढ़ी तक पहुँचते रहते हैं। ये सब मुखाग्र और कंठस्थ रहता है। इनके आगे लिपिबद्धता झूठी हो जाती है। इन सबको जानने के लिए हमें अपनी लोकभाषा छत्तीसगढ़ी के आँचल को पकडऩा ही पड़ेगा।
लोक
साहित्य के बगीचे में बहुत से खूबसूरत फूल हैं जिसमें लोकगीत, लोकनृत्य, लोक
संगीत, लोकगाथा, हाना, कहिनी, लोक संस्कृति को गिनाया जा सकता है।
डॉ.
सत्येन्द्र के अनुसार लोक साहित्य अंतर्गत वह समस्त बोली या भाषा अभिव्यक्ति आती
है जिसमें-
1 आदिम
मानव के अवशेष उपलब्ध हों।
2
परम्परागत मौखिक क्रम से उपलब्ध बोली या भाषागत अभिव्यक्ति हो, जिसे
किसी की कृति न कहा जा सके, जिसे श्रुति ही मानी जाती हो और जो लोक
मानस की प्रवृत्ति में समायी हुई हो।
३ किन्तु वह कृतित्त्व लोक मानस के सामान्य
तत्त्वों से युक्त हो उसके किसी
व्यक्तित्त्व के साथ सम्बन्ध रखते हुए भी लोक उसे अपने व्यक्तित्त्व की कृति
स्वीकार करे।
लोक
साहित्य के इस अनुपम बगीचे में एक चटकदार फूल है लोकगीत। लोकगीतों का जन्म मनुष्य
प्राणी के जन्म के साथ-साथ हुआ। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में लिखा है कि
आदिमानव का उल्लासमय संगीत ही लोकगीत है।
लोकगीत
किताब कापी, कलम दावात की ओर मुँह नहीं ताकते। ये हृदय के सहज
स्वाभाविक और भुंइफोर उद्गार हैं। इसके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती।
आज
लोकगीत के नाम पर किताब के गीत या अपने लिखे गीतों को लोग ’यादा
महत्व दे रहे हैं वे मेरी दृष्टि में लोकगीतों के साथ अन्याय कर रहे हैं। लोकगीत
के स्वरुप को जानने के लिए स्व. डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के कथन की ओर ध्यान देना
जरुरी है:
लोकगीत
लोगन के मुँह ले झरथे, किताब के गीत हा निमगा लोक गीत नइ होय
तेखर सेती लोकगीत ल अइसे जगा ले सकेलना चाही जिंहा के लोगन अनपढ़ होंय अउ किताब
पढ़ के लोकगीत नई गाँवय। कहूँ लोकगीत गवइया के बोली म हिन्दी के शब्द मिलय तो ओखर
कोनो फिकर नइ करना चाही। अइसन लोकगीत गवइया के उमर 40 अउ 60 साल ले उप्पर होय तो
हमर संग्रह म अउ सुघरई आ जाही। अउ प्रमाणिक घलो माने जाही। लोक साहित्य और
लोकगीतों के बारे में इस तरह विस्तृत वर्णन करें तो विषयांतर होने का डर है। अत:
हम अपनी मूल बात पर आ जायें तो ज़्यादा अच्छा रहेगा। हमारे समस्त लोकगीतों में
जिन्दगी जीने की शक्ति अर्थात् जीवनी शक्ति भरी हुई है। सबसे प्रमुख बात यह है कि
श्रम करते, काम करते ये गीत जन्म लेते हैं। इसे पैदा करने के
लिए बारा उदीम करने की जरुरत नहीं पड़ती। सुख और दुख में अपनी जिन्दगी को
हँसते-हँसते कैसे जियें, अपनी छाती में दुख का पत्थर लदककर हार
नहीं मानें, से संदेश छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में समाया है। खेत
जोतते, कांदी लूते, सुरता की पीड़ा को ददरिया गाकर भूल जाते
हैं लोग। जीने का थेभा (सहारा) खोज लिया जाता है। आलाप लेकर अपने संगवारी के साथ
दूर से ही गीत गाते बातें हो जाती हैं तो जिन्दगी का रस संचरित हो जाता है। खुद ब
खुद संगीत की वर्षा हो जाती है। गीत संगीत अमर करने वाले अमृत तुल्य संजीवनी है।
बानगी देखिए:
1 रद्दा ल रेंगे झुला ले डेरी हाथ। तैं अकेली झन
जाबे--
2 नवा सड़किया रेंगे ले मैना। चार दिन के
अवइय्या---
3 चाँदी के मुँदरी चिन्हारी कर ले। मेंहा रइथंव
दुरुग---
4 बेल तरी बेलन बेलन तरी ढोल, इही
डोंगरी म---
ऐसे
कई ददरिया गीतों में जिन्दगी जीने की चाहत है। संग-संग जिन्दगी गुजारने का न्यौता
है। ऐसे ही हजारों ददरिया सयानों को कंठस्थ रहता है। जिसके सहारे इनकी पहाड़ जैसी
जिन्दगी सहज हो जाती है।
कहा
जाता है कि जो मनुष्य जितना ज़्यादा नाचते और गाते है उनमें जीवन संघर्ष झेलने की
ताकत ज़्यादा रहती है। यह बात करमा गाने वाले देवार और अन्य जाति के लोगों पर सोलह
आने लागू होती है। इस गाँव से उस गाँव अपने डेरा उझारते, बनाते, गीत
गा-गा के और नाच-नाचकर दुख दर्द के पहाड़ को भी मुस्कुराते हुए पार कर जाते हैं।
जाड़, पानी बादर और घाम सब सह लेते हैं वे। उनका न घर न दुवार, न
खाने की व्यवस्था न पानी का थेभा। आकाश उनका ओढऩा और धरती बिछौना फिर भी अभावों
में खुश रहकर जिन्दगी बिता देते हैं। निराशा से कई योजन दूर रहकर। इन दुखों के
झँझावातों को सहने की शक्ति लोकगीत और लोकनृत्य ही देते हैं। प्रकृति की गोद में, प्रकृति
के साये में रहकर जीवन का सहज आनंद उन्हें प्राप्त होता है-
बिन
जतन के लइका बेड़हे जाए
जतन
के लइका ल घुन्ना खाए।
ये
उत्ती ले पानी मोरे बुड़ती ले करा
ये
टूरी बर दार भात, ये टूरा बर बरा।
सुवा
गीत में तो हमारी माता-बहने अपनी पीड़ा को व्यक्त करती जिजीविषा का संदेश बिखेरती
हैं। मुफलिसी में पीड़ा टपक पड़ती है। एक उदाहरण प्रस्तुत है जिसमें रो-रोके भी
जीने और अपने धनी के साथ मिलने के लिये जोगिन वेष धारण कर खोज निकालने की बात कही
गई है-
कारन
कोन पिया नहीं आइन रे सुवना
के
मिलिस न मोला संदेस,
एक
महिना म मोर धनी नई आही न रे सुवना
के
धरी लेइहौं जोगिन के भेस,
आंगुर-आंगुर
भुइय्याँ ल खोजिहौं
खोजिहौं
में डोंगरी पहाड़,
बारा
तो माटी बंगाल छानिहौं रे सुवना
के
लेइहौं धनी ल निकार।
सास, ननद
और देवर के दुख तानों को सहते उनकी जिन्दगी के लिये दुआ (छाइत) माँगना और अपने धनी
को खोज निकालने का विचार और संकल्प जीने के जीपरहेपन का प्रतीक है।
होरी
गीत तो उमंग और मस्ती का गीत है। छोटे बच्चों
से लेकर जवान, बुढ़वा, युवती नारी सब के सब होरी के रंग-गुलाल
में रंगकर एकमई हो जाते हैं और जीवन त्यौहार बन जाता है। जहाँ चिंता, डर, त्रास
आने की हिम्मत नहीं करता। लोकगीतों के एक निष्णात् विद्वान का कथन है कि लोकगीतों
के सान्निध्य में गुजारे क्षण कभी भी रोग या चिंता के कारण नहीं हो सकते। बल्कि
रोग निवारण के गूढ़ तत्त्व, जो हृदय तंतु को जागृत कर देते हैं, इन
गीतों को मैं जीवन शक्ति का शाश्वत अमृत कुंड मानता हूँ। दुनिया का कोई भी मानव
नहीं होगा जिसे बचपन में माँ की लोरी के जादुई स्पर्श ने अमृत रस माधुर्य का एहसास
न कराया हो।
नाचा
गीत में तो जिन्दगी के रहस्य सुलझाने के मंत्र गुम्फित हैं। आज भाग-दौड़ की
जिन्दगी में आदमी पलभर हँसने के लिए तरस जाता है। वहीं छत्तीसगढ़ का आडम्बर हीन
मंच नाचा द्वारा लोगों को रात भर हँसी का खजाना परोसा जाता है। ऐसे मुक्त हास्य-धन
को क्या किसी तराजू में तौला जा सकता है?
जीवन
में आशाओं के दीप सदा जलाते रहिये
उदासियों
को घर-आँगन से बहुत दूर भगाते रहिये।
सजने
दीजिए हर जगह खुशियों की महफिलें
जरुरी
है जीने के लिए नचकारों के साथ ठहाके लगाते रहिये।
आध्यात्मिकता
और सत्संग की महिमा का बखान करते कर्म की ऊँचा सीख देना भी नाचा की अपनी खासियत
है। समाज की विसंगति और व्यवस्था के दोगलेपन को गीत के माध्यम से अभिव्यक्त कर
उनसे निपटने का रास्ता भी सुझाया जाता है-
झूठ
के गर मा माला डारे, साँच ल देवय फाँसी
मंदिर
ऊपर घुघवा बइठारे, सुन-सुन आवय हाँसी।
राधा
तोर आरती उतारों सरी राती---
लोकगीतों
में लोक भजन की शाश्वत परम्परा रही है, जिसमें ज्ञान की अथाह गंगा और भक्ति की
निर्मल यमुना समाहित है। उसमें नाना प्रकार के गूढ़ विचारों को फूलों की तरह गूँथे
गये हैं। जिसे सुनकर अंतस जगमगा जाता है। हृदय निर्मल और कोमल होकर भगवान की सगुण
और निर्गुण भक्ति में रम जाता है। गर्व
गुमान को त्यागकर नेक कर्म में प्रवृत होने की बात इस लोक भजन में व्यक्त की गई
है:
झन
करबे गरब गुमान, भरोसा एको पल के नइहे
गौरा, जँवारा
शक्ति की साधना के गीत हैं जो हममें आत्मशक्ति जगाते हैं। इन गीतों की स्फूर्ति , आवेग
और गतिशीलता आत्मबल आपूरित जीवन के पर्याय हैं। गौरा और जँवारा का पर्व शक्ति और
शौर्य जगाने तथा मन-नीर को निर्मल करने का पारम्परिक अनुष्ठान है। इन पर्वो को
देखकर संत कबीर की पंक्तियाँ आम छत्तीसगढिय़ा पर लागू होती प्रतीत होती हैं:
कबीर
मन निर्मल भयो ज्यों गंगा के नीर
पीछे-पीछे
हरि फिरे-कहत कबीर-कबीर।
इसी
तरह बिहाव, भोजली, सोहर ढोलामारु, बाँसगीत, फुगड़ी, चँदैनी, पंडवानी
गौरिया गीत, पंथी गीत के संग अन्य लोकगीतों में जीवन के सभी
प्रसंग समाविष्ट हैं। ये लोकगीत मनुष्य को जीने का सहारा देते हैं। कभी-कभी
कुलूपअंधियारी घटायें जिन्दगी में घपट जाती है तब हर आदमी इन गीतों को गुनगुनाकर
दिव्य प्रकाश और चैन पा सकता है।
प्राकृतिक
सम्पदा से सम्पन्न भू-भाग बस्तर के लोकगीतों के बिना तो हमारा यह वर्णन अधूरा ही
होगा। सीमित आवश्यकताओं के बीच, समस्त लोक कलाओं की जननी प्रकृति की गोद
में रखकर पूरी निश्चिन्तता के साथ जिन्दगी को सहज भाव से जीना बस्तर के आदिवासी
भाई-बहानों की सबसे बड़ी विशेषता है। भूख लगी तो कंद-मूल, फल
खा लो, पस लगी तो कल-कल निनाद करती नदी का पानी पी लो, नींद
लगी तो वृक्षों की छाया में पुरसुदहा सो जाओ, चोट या बीमारी की अवस्था में पेड़ पौधों
में ही जड़ी-बूटी तलाशकर सेवन कर लो। प्रकृति लोकगीत और लोकनृत्य के संबल के बिना
संभव नहीं। रिलो, लेंझा, हुलकी गीत और मांदर की थाप उनके
प्राणाधार हैं। उनकी जिन्दगी की गतिशीलता का राज लोक गीत, लोकनृत्य
ही है:
खेती
को पानी चाहिए
पल-पल
निगरानी चाहिए
रुकना
तो मौत है नादानी है
जिन्दगी
को गीतों भरी रवानी चाहिए।
सभी
लोकगीतों में जीवनी शक्ति के तात्विक उदाहरण खोजे जा सकते हैं पर यहाँ
दीर्र्घसूत्रता को ध्यान में रखकर अपना पसारा यहीं पर समेटना उपयुक्त होगा।
छत्तीसगढ़ के उन समस्त कला मनीषियों को प्रणम्य भाव समर्पण जिन्होंने अपनी सारी
जिन्दगी लोकगीतों को अक्षुण्ण रखने में लगाई और लगा रहे हैं। उन्होंने प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष
रुप से मानव जाति पर अहेतु की कृपा की है।
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