दुलारसिंह
साव मदराजी
नाचा
के माध्यम से छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को जीवन्त रखने और उसके समुचित संरक्षण के
लिए अपना तन-मन-धन समर्पित करने वाले दाऊ
दुलार सिंह मदराजी का जन्म 1अप्रैल 1910 को खेली ग्राम के सम्पन्न जमींदार परिवार
में हुआ था। चार-पांच गांवों की मालगुजारी थी। बचपन से गीत-नृत्य के प्रति खास
लगाव था। उन दिनों गाँव-गाँव में खड़े साज का बोल-बाला था। खड़े साज या मशाल लेकर
की जाने वाली मसलहा नाचा प्रस्तुतियों का यह संक्रमण काल था। यह प्रचलित स्वरुप
विकसित होकर गम्मत-नाचा का प्रभावी रुप ग्रहण कर मंच पर स्थान बनाता गया। तब
उन्होंने नाचा के मंचीय विकास की यात्रा में भरपूर योगदान दिया।
मदराजी
ने ही इस विधा को विकृति से बचाते हुए परिष्कृत करने का बीड़ा उठाकर खेली गाँव के
मंचीय प्रदर्शन से प्रयास आरंभ किया। सक्षम कलाकारों से सुसज्जित उनकी टोली
धीरे-धीरे लोकप्रियता पाने लगी। छत्तीसगढ़ी नाचा की लोकयात्रा रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, जगदलपुर, अंबिकापुर, रायगढ़
से टाटानगर तक कई छोटी-बड़ी जगहों में अपना परचम फैलाते बढऩे लगी। रायपुर के
रजबंधा मैदान में खेली दल की नाचा प्रस्तुति को आज भी याद किया जाता है।
देवासुर
संग्राम में देवों के विजय के लिए दधीचि ने हड्डियों का दान दिया था। वैसे ही
छत्तीसगढ़ी लोकमंच की अंत्यन्त लोकप्रिय विधा नाचा के लिए दुलारसिंह साव मदराजी ने
भी इसी परंपरा में अपना सर्वस्व होम कर दिया था। लोकमंच के संवर्धनकत्र्ता दाऊओं में दुलारसिंह साव मदराजी ही अकेले
उदाहरण हैं जो सौ एकड़ जमीन के मालिक के रूप में मंच पर आये और चालीस वर्ष मंच पर
रोशनी बिखरने के बाद जब इस लोक से विदा हुए तो- सिंकदर जब गया दुनिया से दोनों हाथ
खाली थे। जीवन का आखिरी पहर गुमनामी और गरीबी में गुजारा लेकिन आपने व्यक्तिगत
लाभ-प्रशंसा की चाहत को दरकिनार कर केवल नाचा की समृद्धि को जीवन की सार्थकता
माना।
मदराजी
दाऊ सर्वस्व अर्पित करने वाले महान भक्तों की परम्परा के छत्तीसगढ़ी कलाकार थे। वे
ही सबसे पहले हारमोनियम लेकर छत्तीसगढ़ी लोकमंच पर अवतरित हुए। वे स्वयं विलक्षण
हारमोनियम वादक थे। जीवन की संध्या में जब बारी बारी सब साथ छोड़ गये तब भी उनके
पास हारमोनियम रह गया। जमीन-जायदाद सब लुट गया रह गया हारमोनियम। उस्ताद वादक
कलाकार मदराजी दाऊ अंतिम दिनों में छोटे छोटे नाचा दलों में हारमोनियम बजाते थे।
वह भी अनुरोध के साथ। बुलवाराम, ठाकुरराम, बोडऱा जैसे महान नाचा कलाकारों को एक
जगह रिंगनी रवेली साज के मंच पर एकत्र कर मदराजी दाऊ ने नाचा का वो रिंगनी रवेली
साज खड़ा किया कि छत्तीसगढ़ दीवाना हो गया। तोला जोगी जानेंव रे भाई तोला साधू जानेंवगा..... राजा
लंकापति रावन ला मंय साधू जानेंव यह अमर गीत उन्हीं के मंच पर गूँजा।
बुलवा राम यादव परी बनकर जब यह गीत गाते थे तब सीता पर आई विपत्ती का चित्र शब्द
और ध्वनि से कुछ इस तरह मंच पर खिंच जाता था कि स्त्रियाँ विलाप कर उठतीं।
मदराजी
दाऊ वचन के पक्के थे। एक अवसर पर वे नाचा प्रस्तुति के लिए नारियल झोंक कर वचन दे
बैठे। ब‘चा बीमार था। ठीक प्रस्तुति के लिए निर्धारित दिन ब‘चा
चल बसा। ब‘चे की लाश को घर में छोडक़र वे उस गांव तक गए जहाँ
प्रस्तुति देनी थी। रात भर हारमोनियम बजाने के बाद वे सुबह रोते हुए घर आये। तब
लोगों ने जाना की विरागी राजा जनक ही नहीं थे हमारे लोकमंच के पुरोधा भी वीत रागी
हैं।
मदराजी दाऊ का रिंगनी रवेलीसाज 1928 में खड़ा
हुआ। 1953 तक वह चला। हारमोनियम के साथ मदराजी दाऊ चिकारा, तबला
वादक एवं गायन में भी सिद्ध थे। मशाल नाच में वे चिकारा बजाते रहे। चिकारा बजाने
वाले हाथों ने ही हारमोनियम को साधा और नाचा को नई ऊँचाई मिली।
1911
में ग्राम रवेली जिला राजनांदगांव में जन्में दाऊ मदराजी का निधन 24 दिसंबर 1984
में हुआ। नाचा के माध्यम से अभिनय के क्षेत्र में मदन निषाद, लालू, भुलवाराम, फिदाबाई
मरकाम, जयंती, नारद, सुकालू और फागूदास जैसे दिग्गजों को
सामने लाने का श्रेय आपको ही जाता है।
प्रदर्शनकारी लोक विधा-नाचा को जीवंत रखने, जन सामान्य में उसकी पुनर्प्रतिष्ठा और
लोक कलाकारों को प्रश्रय देने वाला यह व्यक्तित्व नई पीढ़ी के लिए प्रेरक है।
छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में लोक कला/शिल्प के लिए दाऊ मंदराजी सम्मान
स्थापित किया है।
सामान्य में उसकी पुनर्प्रतिष्ठा और
लोक कलाकारों को प्रश्रय देने वाला यह व्यक्तित्व नई पीढ़ी के लिए प्रेरक है।
छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में लोक कला/शिल्प के लिए दाऊ मंदराजी सम्मान
स्थापित किया है।
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