रामचन्द्र देशमुख
- प्रेम साइमनरामचन्द्र देशमुख- एक व्यक्ति का ही नहीं, छत्तीसगढ़ की धूलधूसरित लोक संस्कृति को फिर से महिमामंडित करने के सफल और सार्थक प्रयास का नाम है। रामचन्द्र देशमुख और लोककला ये दोनों एक दूसरे के ऐसे पर्याय बन चुके हैं कि इन्हें अलग करके देख पाना लगभग असंभव है। आज हमारी लोक संस्कृति विदेशों तक को अपनी इन्द्रधनुषी फुहारों से सराबोर कर रही है। निश्चय ही, इस उपलब्धि के पीछे इस व्यक्ति के आजीवन अथक परिश्रम का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि इस अंचल में ही नहीं बल्कि पूरे भरत में लोककला की दुनिया को इतना समृद्ध और परिष्कृत बहुत कम लोगों ने किया होगा जितना स्व. रामचन्द्र देशमुख ने किया था।
लोक
संस्कृति के इस कलासाधक का जन्म 25 अक्टूबर 1916 में ग्राम पिनकापार में देशमुख
कुर्मी जाति के सम्पन्न कृषक परिवार में हुआ था। कृषि और कानून, दोनों
में स्नातक होने के बावजूद, उनका मूल झुकाव पारंपरिक कलाओं के प्रति
था। मंच के माध्यम से जन चेतना को जागृत करने की भावना शुरू से ही उनके मन में
रही। कालान्तर में यह भावना योजना बनी, फिर कर्म। रामचन्द्र देशमुख के इसी कर्म
ने इस अंचल को चंदैनी गोंदा देवार डेरा और कारी जैसी कालजयी लोकमंचीय प्रस्तुतियाँ
दी हैं।
छत्तीसगढ़ की लोकमंचीय विधा नाचा पर्याप्त
प्रख्यात तो है ही, अंचल के जो स्वरूप था, उसमें
अश्लीलता, अनैतिकता, फूहड़ता और निरर्थकता की भरमार थी। वह
नवस्वाधीन देश भारत के पुनर्जागरण का काल था। जनचेतना में उच्चादर्शो और नैतिक
मूल्यों को स्थापित करने की जरूरत थी। भविष्य द्रष्टा रामचन्द्र ने भांप लिया था
कि इस कार्य में नाचा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, यदि
इसे परिष्कृत और परिमार्जित किया जाय तो। अपने इसी विश्वास के वशीभूत होकर
उन्होंने सन् 1951 में छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मण्डल की स्थापना की। इसके लिए
उन्होंने सागर से निकाले गये मोतियों की तरह समूचे छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों को
चुन-चुन कर एक मंच पर एकत्र किया और अपनी प्रस्तुतियों- सरग अउ नरक जनम और मरन तथा
कालीमाटी में नगीने की तरह जड़ा। मदन निषाद, लालूराम, ठाकुरराम, बाबूदास, भुलऊदास इत्यादि लब्धप्रतिष्ठित कलाकार
इसी संस्था की उपज हैं। यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि सन् 1953 में प्रख्यात
रंगकर्मी हबीब तनवीर ने इन्ही नाटकों को देखकर लोकमंच की शक्ति को पहचाना और
रामचन्द्र देशमुख से प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर उनके ही लोक कलाकारों के सहयोग से
अपने मंचीय जीवन की शुरूआत की। छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल रामचन्द्र देशमुख
का पहला सफल मंचीय प्रयोग था। वस्तुत: इस मंडल के माध्यम से उन्होंने कीचड़ सने
नाचा के पाँव पखारे थे।

चंदैनी
गोंदा के निर्माण के दौरान ही रामचन्द्र देशमुख ने देवारों के इस कला वैभव को परख
लिया था। फिर शुरू हुई उनके दुखों को शब्द देने की प्रक्रिया देवार डेरा के माध्यम
से। एक ओर तो रामचन्द्र देशमुख ने मंच के जरिए खनकते हुए घुँघरूओं के बीच हुए
आँसुओं की व्यथा कथा को समाज के सामने रखा वहीं दूसरी ओर उन्होंने देवारों के जीवन
स्तर को सुधारने के लिए अथक परिश्रम भी किया। उनकी आवासीय समस्याओं को सुलझाने के
लिए उन्होंने शासन तक भी बात पहुँचाई। उन्हीं की कोशिशों का नतीजा है कि सन् 1987में
शासन ने दुर्ग में उनके लिए आवासीय कॉलोनी बनाने की योजना अपने हाथ में ली।

सचमुच
चंदैनी गोंदा ने यही किया था। अपने सौ प्रदर्शनों में इसने ऐसा प्रभाव छोड़ा था कि
समूचे छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई। आज लोग रेडियों, दूरदर्शन
और अन्य माध्यमों से लोकगीतों को रूचि पूर्वक सुनने लगे हैं। छत्तीसगढ़ी
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रति लोगों के मन में आकर्षण और आदर की भावना पैदा हुई
है। लुप्तप्राय: लोकगीत और लोक कलाएँ ढँूढ-ढूँढ कर निकाली जा रही हैं। चिर
उपेक्षित आँचलिक कलायें एक नए गौरव बोध से भर उठी हैं।
देहाती
कला विकास मंडल चंदैनी गोंदा और देवार डेरा के बाद लोक मंच की परिष्कार यात्रा के
जिस चौथे पड़ाव पर रामचन्द्र देशमुख पहुँचे वह थी कारी डॉ.पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी
की पुस्तक अंतिम अध्याय के एक संसमरण छत्तीसगढ़ की आत्मा से प्रेरित रामचन्द्र
देशमुख की यह कल्पना लोक संस्कृति के गगन पर छत्तीसगढ़ की वही चिरव्यथित माँ के
रूप में अपनी ममतामयी ज्योत्स्ना बिखेरती
रही है। रामचन्द्र देशमुख की पारखी दृष्टि ने नारी प्रधान इस लोक नाट्य के
निर्देशन का भार रामहृदय तिवारी के हाथों में सौंपा। इस लोकनाट्य में नारी जागृति
और नारी महिमा को पुनप्र्रतिष्ठित करने की भावना सन्निहित थी। इस गंभीर प्रयोगात्मक
नाटक के 44 से अधिक भव्य एवं सफल मंचन अँचल के गाँवों, शहरों
और नगरों में हो चुके हैं और आज भी इसकी अपनी लोकप्रियता और आकर्षण की चर्चा
यत्र-तत्र होती रहती है।
साप्ताहिक
धर्मयुग के दिये गये अपने साक्षात्कार में रामचन्द्र देशमुख ने कहा था- अचल की गरीबी, पिछड़ापन
और शोषण देखकर कोई भी द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता। इन्हें अंधेरों से उबारने, इनमें
जागृति पैदा करने के लिए लोक कला माध्यमों से बढक़र सहज, सरल
और प्रभावशाली साधन अन्य कोई नहीं है। अंचल के लोगों में सर्वतोमुखी जागृति और
चेतना पैदा करने के लिए ही मैने इस माध्यम को चुना है और यही मेरा प्रमुख उद्देश्य
है।

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