लोरिक चन्दाःसंयोग-वियोग की प्रेमकथा
-
परदेशीराम वर्मा
परदेशीराम वर्मा
छत्तीसगढ़
लोक गाथाओं का गढ़ भी है। हस्तिनापुर में राज करने वाले कौरव-पांडवों की कथा को
पद्मभूषण तीजन बाई पंडवानी परम्परा से जुड़े गायक कुछ इस तरह छत्तीसगढ़ी रंग में
रंग कर प्रस्तुत करते हैं कि सारे पात्र छत्तीसगढ़ी बन जाते हैं। श्रीराम की माता
कौशल्या तो कोशल नरेश की सुपुत्री थीं ही। छत्तीसगढ़ ही दक्षिण कोशल है। इसलिए
श्रीराम छत्तीसगढ़ के भांजे हैं। छत्तीसगढ़ में इसीलिए बुजुर्ग मामा भांजों का चरण
स्पर्श करते हैं। चूँकि श्रीराम छत्तीसगढ़ के भांजे हैं इसलिए हर भांजा श्रीराम
है। इसीलिए यहाँ भांजे इस तरह पूजित होते हैं।
उसी
तरह भतृहरि की कथा का भी छत्तीसगढ़ीकरण हो गया है। हमारे भतृहरि रानी की बेवफाई के
कारण संन्यासी नहीं बनते। यहाँ की कथा में भृतहरि विवाह के बाद प्रथम रात्रि में
जब अपनी रानी के पास जाता है तो सोने के
पलंग की पाटी टूट जाती है। पाटी टूटने पर रानी हँस देती है। राजा जब पाटी टूटने के
रहस्य को जानना चाहता जब कहानी शुरू होती है। रानी के सात जन्मों की कथा प्रारम्भ
होती है। रानी बताती है कि पूर्व जन्म में वह राजा की माता थी पाटी इसलिए टूटी।
स्त्री
के भीतर के मातृ स्वरूप की महत्ता को बताने के लिए भतृहरि कथा का छत्तीसगढ़ी रूप
इस तरह सामने आया। इसे सुरूजबाई खांडे देश-विदेश के मंचों पर सुनाकर सम्मोहन रचती
है।
लोकगाथाओं
का स्वरूप अंचलों में अलग-अलग होना स्वाभाविक है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोकगाथाओं
में सर्वाधिक प्रभावी लोकगाथा लोरिक-चन्दा है। यादव कुल में जन्मे लोरिक और
गढ़पाटन के राजा की बेटी चन्दा की यह प्रेम कथा अलग-अलग जातियों के साथ जुडक़र
प्रस्तुति में वैविध्य का इन्द्रधनुष रचती है।
लोरिक
गढ़पाटन का एक साधारण चरवाहा है। वह वीर है और जंगल में बसे अपने गाँव में रहकर
ढोर-डाँगर चराकर जीवन यापन करता है। गढ़पाटन राज्य में एक शेर नरभक्षी हो जाता है।
राजा अपने सेनापति को आदेश देता है कि वह शेर को खत्म कर दे। सेनापति को पता लगता
है कि उसके राज्य में लोरिक है जो शेर को मार सकता है।
अन्तत:
लोरिक शेर को मार देता है मगर श्रेय सेनापति ले लेता है। लोरिक अपने पिता के
समझाने पर मान जाता है और श्रेय सेनापति को दे देता है। सेनापति के आग्रह पर लोरिक
को राजा अपने दरबार में स्थान देता है। बाँसुरी वादन में निपुण धुर गँवइहा लोरिक
पर राजकुमारी चन्दा मुग्ध हो जाती है। चन्दा और लोरिक छिप-छिप कर जंगल में मिलते
हैं। दोनों एक दूसरे के बिना जीना नहीं चाहते। लेकिन गढ़पाटन का राजा अपनी बेटी
चन्दा का ब्याह कराकुल देश के राजा के कोढ़ी पुत्र वीरबाबन से कर देता है।
चन्दा
जब कोढ़ी पति को देखती है तब पछाड़ खाकर गिर जाती है। वीरबाबन को ग्लानि होती है।
वह जान जाता है कि चन्दा लोरिक के बगैर जी नहीं सकती। यह चन्दा को मुक्त करते हुए
कहता है कि वही महल से निकल जाती है अपने लोरिक की तलाश में। यह तलाश ही उसके शेष
जीवन की असलियत बन जाती है।
कथा
गायक यह नहीं बताया कि लोरिक-चन्दा में फिर मेल हुआ कि नहीं।
प्रेम
की प्यास, अपने मनचाहे संसार को पाने की ललक, राज परिवार मे जन्म लेने की सजा, राज्य
से जुड़े सामन्तों का षडय़न्त्र और अन्तत: प्यास के अधूरेपन के अनन्त विस्तार को ही
लोरिक चन्दा की कथा में हम पाते हैं। लोरिक चन्दा की कथा को यहाँ चनैनी गायन कहा
जाता है। चनैनी गायन की कला में सिद्धि के लिए सतनामी कलाकारों को बेहद सम्मान
प्राप्त है। चनैनी के लगभग सभी बडत्रे कलाकार इसी समाज से आये। एक विशेष धुन को
चनैनी धुन के रूप में हम जानते हैं। उसी एक लय में पूरी कथा रात भर चलती है। मशाल
जलाकर कलाकार नाचते हैं और इस कथा की रोचक प्रस्तुति होती है। मशाल नाच दल द्वारा
प्रस्तुत चनैनी के माध्यम से ही लोरिक-चन्दा की कथा आज तक यहाँ तक आयी है।
जिस
जाति में लोरिक का जन्म हुआ उस जाति के यदुवंशी भी इस कथा का गायन करते हैं। मगर
वे बाँस गीत के रूप में इसे गाते हैं। बाँस संसार की सबसे लम्बी बाँसुरी
है।लम्बे-लम्बे बाँसों को फूँक कर बजाना तगड़े राऊतों के बस का कौशल होता है।
एक
मुख्य गायक लोरिक और चन्दा की कथा का गायन करता है और दो बाँस बजाने वाले उसे
सपोर्ट करते हैं। रात भर इसी तरह कहानी कही जाती है। कथा गायक नाटकीय अन्दाज में
कहानी प्रस्तुत कर श्रोताओं को बाँधे रखता है। आजकल लोरिक-चन्दा की कहानी पर लाइट
एंड साउंड की भव्य प्रस्तुतियाँ भी हो रही हैं। क्षितिज रंगशिविर द्वारा पिछले
दिनों लोरिकायन की प्रस्तुति हुई। मगर सबसे पहले इस कथा की चर्चित मंचीय प्रस्तुति
रामहृदय तिवारी के निर्देशन में सन् 1981-82 में हुई थी। लोरिक चन्दा की एक ही कथा
नहीं है। किसी कथा में लोरिक को राज के षडय़ंत्रकारी सिपाही मार देते हैं। एक कहानी
में कोढ़ी राजकुमार के पिता लोरिक को अपना बेटा बनाकर ब्याह वेदी पर बिठाता है।
मगर जब बारात लौटाती है तब बीच जंगल में फिर कोढ़ी को डोली पर बिठाकर लोरिक को भाग
जाने का आदेश देता है।
लोरिक
इससे आहत होकर संन्यासी बन जाता है। चन्दा अपने कोढ़ी पति को गाड़ी में बिठाकर
धर्मस्थलों की यात्रा करती है। अन्तत: लोरिक साधु के रूप में मिलता है। चन्दा और
लोरिक एक-दूसरे को देखते हैं और वहीं गिरकर ढेर हो जाते हैं।
एक
और प्रचलित कथा है जिसमें लोरिक सद्गृहस्थ रहता है। वह अपनी पत्नी के साथ गाय भैंस
पालता है। उसकी घरवाली रौताइन दूध बेचने गढ़पाटन जाती है। चन्दा गढ़पाटन की
राजकुमारी है। एक कुटनी के माध्यम से उसे लोरिक के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है
कि उसने शेर को मार दिया। जिज्ञासावश चन्दा लोरिक से मिलती है। लोरिक से प्राय:
तभी मिलती है जब लोरिक की पत्नी दूध बेचने जाती है। एक दिन लोरिक की पत्नी चन्दा
को रंगे हाथों पकड़ लेती है। उसे खूब फटकारती है। दोनों में हाथापाई होती है।
लोरिक किसी तरह दोनों को शान्त करता है। अन्तत: दोनों ही लोरिक की पत्नी बनकर
सुखपूर्वक रहती हैं।
यहाँ
प्रचलित कथाओं में लोक मान्यताओं का सच्चा रंग ही है।
अन्य
प्रदेशों के राजाओं जैसे बड़े राजा यहाँ नहीं हुए। हर जिले में छोटे-छोटे राजमहल
आज भी हैं। जिलों के राज परिवार के लोक अब विधानसभा, लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं। जीतते-हारते
हैं। छत्तीसगढ़ सहज, सरल लोगों का क्षेत्र है। आडम्बर और
प्रदर्शन की कला यहाँ कभी परवान नहीं चढ़ी। प्रेम कथाएँ भी यहाँ आडम्बरहीनऔर सीधी
सच्ची-सी हैं। अब तक छत्तीसगढ़ की प्रेम कथाओं पर कोई औपन्यासिक कृति नहीं सामने
आयी मगर दूसरे क्षेत्रों के उत्साही कलमकारों ने ऐसा सफल प्रयास किया है। शरत
सोनकर ने लगभग 500 पृष्ठों का एक उपन्यास लोरिक सँवरू के नाम से
प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने लोरिक को प्रतापगढ़ चनवा क्षेत्र का वीर बताया
है।
छत्तीसगढ़
के कलाकार ढोला-मारू और बहादुर कलारिन की कथा भी गाते हैं। ये प्रेम कथाएँ हैं।
आश्चर्य की बात है कि सभी प्रेमकथाओं में नायक -नायिका पिछड़ी दलित जातियों से
हैं। एक कथा उडिय़ान है। तालाब खोदने में माहिर उडिय़ा श्रमिकों की यह कथा छत्तीसगढ़
में प्रचलित है। केवल इस कथा में उडिय़ा श्रमिक सुन्दरी पर ब्राह्मण लडक़े की आसक्ति
की कहानी कही जाती है। नौ लाख उडिय़ा नौ लाख ओड़निन माटी कोड़े ल चलि जाँय, ओती
ले आवय बाम्हन छोकरा, ओड़निन पर ललचाय।
और
कथा इस तरह आगे बढ़ती है। श्रमिकों, दलितों, वनवासियों, पिछड़े
लोगों का यह छत्तीसगढ़ सामन्ती और जातीय दंश से उस तरह संत्रस्त नहीं हुआ जिस तरह
देश के दूसरे क्षेत्र हुए। इसीलिए पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने कहा कि जातीय कटुता
के जैसे चित्र प्रेमचन्द की कहानियों में है उसके लिए छत्तीसगढ़ में गुंजाइश कभी
नहीं रही। साहित्य इसीलिए समाज का दर्पण कहलाता है। जैसी छवि समाज की होगी उसी तरह
की प्रति‘छवि दर्पण पर दिखेगी।
छत्तीसगढ़
की परम्पराएँ, छत्तीसगढ़ी जन के मन में रचा वैराग्य, सहज
जीवन इन कथाओं में चित्रित है।
प्राय:
हर कथा दुखान्त है। प्रेम की छत्तीसगढ़ी कथाओं के केन्द्र में दुख है और तो और
अयोध्या के राजा की धर्मपत्नी महारानी सीता को भी
जब निर्वासन मिला तो उसे छत्तीसगढ़ ने ही आसरा दिया।
तुरतुरिया
नामक स्थान में आज भी वाल्मीकि का आश्रम है। यहीं लव-कुश का जन्म हुआ। अयोध्या के
सम्राट का घोड़ा यहीं पकड़ा गया।
आज
जब क्षेत्रीयतावाद की तंग परिभाषाएँ दी जा रही हैं तब यह ऐतिहासिक सच्चाई प्रश्न
करती है कि छत्तीसगढ़ की बेटी कौशल्या अयोध्या के राजा की पटरानी बनीं तब बाहरी
कोई कैसे हुआ?कौन बाहरी है, कौन माटीपुत्र, इसे
कैसे परिभाषित किया जा सकता है? एक ही कथा रूप बदलकर देश भर में प्रचलित
हो जाती है। लोग भी उसी तरह कालान्तर में जहाँ जाकर बस जाते हैं उसी क्षेत्र का
जयगान करते है।
छत्तीसगढ़
सबका है और सब छत्तीसगढ़ के हैं। भिन्न-भिन्न जाति के कलाकार अलग-अलग स्वरूप में
कथा प्रस्तुत करते हैं मगर सब में सुर और शब्द शुरूआत में एक जैसे ही होते हैं...
चौसठ जोगनी सुमिरों तोर/ तोर भरोसा बल गरजौं तोर/ तोर ले गरब गुमाने तोर/ तोर छोड़
गीत गाँवव तोर/ आलबरस दाई जाँवव तोर/ लख चौरासी देवता तोर/ डूमर के दीदी परेतीन
तोर/ बोइर के दीदी चुरेलिन तोर/ मुँह के वो मोहनी तोर/ आँखी के वो सतबहिनी तोर/
सुमिरँव सन्त समाज तोर/ अरे जे दिन बोले/ मोर चंदैनी, मोर
बरगना हो...
इस
अनगढ़ सी तुकबन्दी से ही लोरिक चन्दा की कथा शुरू होती है। इसमें चौंसठ जोगनी, गुरू
चौरासी लाख देवता, गूलर डूमर पेड़ की इन सबकी वन्दना के
बाद ही कथा प्रारम्भ होती है। यह एकरूपता भी कथा का अलग-अलग विस्तार होता है।
लोरिक
चन्दा की प्रेम कथा वनग्रामों में पनपी और अब केवल मंचीय कलाकारों के कौशल के कारण
जीवित है।
सरल
वीर पुरुष के प्रति राजकन्या के आकर्षण की इस कथा में संयोग और वियोग शृंगार की
बानगी देखते ही बनती है।
No comments:
Post a Comment