लोकनाट्य
नाचाः
जिसे जनता
जिसे जनता
पूरी रात जागकर देखती थी
- महावीर
अग्रवाल
नाचा
छत्तीसगढ़ अंचल में प्रचलित लोकनाट्य की एक प्रमुख शैली है, जिसे
आम जनता हजारों की संख्या में रात-रात भर जागकर उतावली और बावली होकर देखती है।
सूर्य की पहली किरण क्षितिज पर नहीं फूटती, तब तक इसके दर्शक मंत्रमुग्ध से बैठे
रहते हैं। गाँव के बच्चों और बूढ़े, युवा और महिलाएँ सभी को समान रूप से
प्रिय नाचा जनरंजन के साथ लोकशिक्षण का भी अत्यंत समर्थ माध्यम है। इस छत्तीसगढ़ी
लोकनाट्य में जन-जन का सुख-दुख, उसकी आशा- आकांक्षा, उसकी
वेदना और खुशी के साथ ही उसकी संघर्ष क्षमता भी प्रतिबिंबित होती है। लोकजीवन का
बहुरंगी और सही रूप इसमें झलकता है। लोकगीत और लोकसंगीत में पिरोकर इसे जब आज के
संदर्भो में प्रस्तुत किया जाता है, तो इसकी महत्ता और बढ़ जाती है। वस्तुत:
इस लोकविधा में छत्तीसगढ़ी की आत्मा बोलती है।
नाचा
का उद्भव एवं विकास ग्रामीण परिवेश में होने के कारण इसमें लोकनाट्य के तत्त्व
भरपूर हैं। इसमें कथा लोकनाट्य की गेय और धारदार संवाद शैली पर आगे बढ़ती हैं।
गम्मतिहा या जोकर की इसमें अहम भूमिका होती है, जो कि किसी भी घटना या बात को तुरंत
प्रस्तुत करने में अपना सानी नहीं रखता। वह नृत्य, गायन, अभिनव तीनों में दक्ष होता है और विदूषक
की तरह अपने संवादों से, अपनी आंगिक चेष्टाओं से मुख्य रुप से
हँसाने का कार्य करता है। गम्मतिहा की सहायता के लिये एक दूसरा पुरुष परी बनता है।
परी का अर्थ है सजी-धजी सुंदर युवती जो गायन में पारंगत हो और जिसका कंठ भी मधुर
हो। परी की यह पहचान है कि हमेशा सिर पर काँसे का लोटा रखकर ही मंच पर प्रवेश करती
है। तीव्र लय में नृत्य करते समय उसके सिर पर रखे लोटे का संतुलन देखते बनता है।
परी की लावण्यमयी कमनीय देह, दिलकश अदाकारी और नजाकत दर्शनीय होती
है। कुछ पार्टियों में परी को नचकहरिन भी कहा जाता है। कुछ नाचाओं का महत्त्वपूर्ण
हिस्सा या सशक्त लोकमंचीय कलारुप होता-गम्मत जिसके विकसित होते हुए व्यापक स्वरुप
में अंचल में लोकगाथाएँ और लोकगीत रच-बस गये हैं।
दुर्भाग्यवश, अश्लीलता
के कारण नाचा आज कुत्सित मनोरंजन का साधन बनता जा रहा है। कई बार तो अश्लीलता सीमा
को पार कर जाती है। परन्तु प्रारंभ में ऐसा नहीं था, नाचा का जन्म गाँवों में हुआ, वहीं
वह फला-फूला और आगे बढ़ा। सो उसमें ग्रामीण जीवन की सहजता, उन्मुक्तता
और अलमस्ती का होना स्वाभाविक था और इसके कलाकार कभी-कभी बोलचाल और अपने अभिनय में
शिष्ट समाज की सीमाओं को लाँघ जाते थे। लोकजीवन में स्व‘छंदता
और निकटता का बोध गाँव की जिन्दगी का जरुरी हिस्सा है, जो
उसकी संस्कृति में रचा-बसा है। लोक कलाकार अपने विचारों, भावों
और अपनी कला को बड़ी सादगी और सहजता से दर्शकों के सामने रख देता है। उसमें
निश्छलता से ओतप्रोत तो होता है, बनावट नहीं होती, यही
उसकी शक्ति है। कुछ विवेचकों को इसमें अश्लीलता के जो मापदंड हैं उनसे लोककला को
मापना समीचीन नहीं है। बोली, बरताव, पहरावा-हर स्तर पर लोकजीवन में जो
खुलापन है, उसी का प्रतिबिंब नाचा में है।
नाचा
कलाकार अभिनय में अपने चेहरे और हाथों का अधिक प्रयोग करते हैं। बेशक कभी-कभी
नाटकीय प्रभाव पैदा करने के लिये, चरित्रों के अनुरुप जटा-जूट और नकली
दाढ़ी-मूँछ का भी उपयोग किया जाता है) कलाकारों की पूरी देह गतिमान रहती है, मानों
उनका अंग-अंग बोलता हो। यही कारण है कि उनकी अभिव्यक्ति इतनी सशक्त और प्रभावशाली
होती है कि शहरी और फिल्मी जीवन जीने वाले बड़े-बड़े कलाकार और सिद्धहस्त आलोचक भी
आश्चर्यचकित होकर मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा करते हैं। सामाजिक कुरीतियों पर विषमता
और छुआछूत पर ढोंग और पाखंड, पर शोषण और राजनीति के दोहरे चरित्र पर
तीखी चोट करने की नाचा कलाकारों की क्षमता तो केवल नाचा देखकर ही समझा जा सकता है।
उसकी प्रस्तुतियों की विषयगत विविधता, व्यापकता और गहराई को देखकर यह कहना गलत
न होगा कि नाचा विषयवस्तु को गहरी सूक्ष्मता के साथ पकडक़र उसे व्यंग्य और हास्य से
पैना बनाकार समाज के गतिशील यथार्थ का रेखांकन करता है।
सभी
नाचा प्रस्तुतियों की रचनाविधि अत्यंत सरल होती है। मंडली के सभी कलाकार एक साथ
बैठ जाते हैं तथा कोई ऐसा विषय मंचन के लिये उठा लेते हैं,

छत्तीसगढ़ के गाँवों में बार-बार खेले जाने वाले एक नाचा लोकनाट्य की कथावस्तु इस प्रकार है: किसी गाँव में एक समृद्ध हरिजन परिवार रहता है। एक बार उसकी इच्छा होती है कि उसके यहाँ भी सत्यनारायण की कथा हो। एक कथावाचक पंडितजी से अनुरोध किया जाता है। किन्तु वे अनुरोध ठुकरा देते हैं। जब परिवार की अविवाहित रूपवती सयानी कन्या को इस अपमान का पता चलता है तब वह स्वयं पंडितजी के घर जाती है। पंडित जी उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसके यहाँ कथा बाँचना स्वीकार कर लेते हैं। धीरे-धीरे दोनों में परिचय बढ़ता है। पंडितजी उस हरिजन कन्या से प्रणय निवेदन करते हैं पर यह उसे ठुकरा देती है। तब पंडितजी उसे आत्मा-परमात्मा की बातें समझाने लगते हैं। उससे कहते हैं कि दुनिया में कोई छोटा-बड़ा, ऊँचा-नीचा नहीं है। हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं, तब वह हरिजन कन्या विवाह का प्रस्ताव रखती है। पंडित जी मान लेते हैं और इस तरह यह लोकनाट्य समाप्त होता है।
भरम
के भूत नामक नाचा में अंधविश्वास पर कटाक्ष करके हास्य उत्पन्न किया जाता है।
पोंगा पंडित नाम के एक अन्य नाटक में अनपढ़ ब्राह्मण पुरोहित और एक भोले-भाले कृषक
पुत्र को पेश किया जाता है। अपने पिता की मृत्यु के बाद यह कृषक पुत्र पिता के
श्राद्ध के अंत में सत्यनारायण भगवान की कथा करवाना चाहता है। दोनों ही पात्र अपने
अज्ञान एवं भोलेपन से हास्य की सृष्टि करते हैं।
छोटी-छोटी
कथाओं में से कुछ में दो पत्नियों वाले व्यक्ति की दुर्दशा की तुलना पीपल की
पत्तियों से की जाती है, जो हवा के हल्के से झोंके से काँपने
लगते हैं या ग्रामीण किसान के ऐसे भोले-भाले बेटे की कहानी प्रस्तुत की जाती है, जो
अपने बिगड़े हुए साथी की संगत में व्यभिचार की ओर उन्मुख हो जाता है और अंत में
कोढ़ का शिकार हो जाता है। सामान्यत: इन नाटकों की यह नसीहत होती है कि बुरे काम
का नतीजा हमेशा बुरा होता है।
नृत्य
और नाटक में प्राण फूँकने की नाचा कलाकारों की असाधारण क्षमता के प्रभाव से दर्शक
अपने आपकों दूसरी दुनिया में पहुँचा हुआ महसूस करते हैं। वे नाटक के पात्रों के
सुख-दुख में बराबर के भागीदार बन जाते हैं। यह नाचा की विलक्षण उपलब्धि है कि बिना
किसी विशेष वेशभूषा के सिर्फ अपनी जीवंत अभिनय-क्षमत द्वारा इसके कलाकार प्रत्येक
चरित्र को बेहद ईमानदारी के साथ जीते और उसमें प्राण फूँक देते हैं।

सच्चा
कलाकार अपने अंत: करण की प्रवृत्ति और रुझान की आग में तपकर तैयार होता है। अभाव
में बीत रहे जीवन और अनिश्चित भविष्य के बावजूद सृजन के आवेश और दबाव में वह
प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं को कैसे गढ़ता और तैयार करता है, यह
रात-रात भर नाचा देखकर और नाचा कलाकारों के जीवन को निकट से देखकर ही जाना जा सकता
है। नाचा के क्रमिक इतिहास उसके कलाकारों की पीड़ा उसके संघर्षो और प्रश्नचिह्नित
उपलब्धियों को दीपक चन्द्राकर द्वारा निर्मित एवं रामहृदय तिवारी द्वारा निर्देशित
फीचर फिल्म लोकरंग के गम्मतिहा में सूक्ष्म रुप से रेखांकित किया गया है।
कहना
न होगा कि अपनी संस्कृति और इतिहास की बाँह थामकर, वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न संस्कृति के
सृजनशील तत्त्वों से जुडक़र ही नाचा सही और सकारात्मक विकास कर सकेगा। सामाजिक
चिंतन से जुड़े हुए तमाम रचनाकारों, कलाकारों एवं सृजनधर्मियों को इस दिशा
में सोचना और नाचा को समाज के गतिशील यथार्थ और सामाजिक चेतना से जोडऩे का प्रयास
करना चाहिये।
अन्यथा
छत्तीसगढ़ के लोकजीवन को अभिव्यक्त करने वाली यह सर्वाधिक प्रभावशाली कला इतिहास
की चीज बनकर रह जाएगी।
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