लोक
कला के ध्वज वाहक:
गोविन्दराम
निर्मलकर
संजीव तिवारी
देश
के अन्य प्रदेशों के लोक में प्रचलित लोकनाट्यों की परम्परा में छत्तीसगढ़ी लोक
नाट्य नाचा का विशिष्ट स्थान है । नाचा में स्वाभाविक मनोरंजन तो होता ही है साथ
ही इसमें लोक शिक्षण का मूल भाव समाहित रहता है जिसके कारण यह जन में रच बस जाता
है। वाचिक परम्परा में पीढ़ी दर पीढ़ी सफर तय करते हुए इस छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य
नाचा में हास्य और व्यंग्य के साथ ही संगीत की मधुर लहरियाँ गूँजती रही है और इस
पर नित नये प्रयोग भी जुड़ते गये हैं। इसका आयोजन मुख्यत: रात में होता है, जनता
‘बियारी’ करके इसके रस में जो डूबती है तो
संपूर्ण रात के बाद सुबह सूरज उगते तक अनवरत एक के बाद एक गम्मत की कड़ी में
मनोरंजन का सागर हिलोरें लेते रहता है। गाँव व आस-पास के लोग अपार भीड़ व तन्मयता
से इसका आनंद लेते हैं और इसके पात्रों के मोहक संवादों में खो जाते हैं। नाचा की
इसी लोकप्रियता एवं पात्रों में अपनी अभिनय क्षमता व जीवंतता सिद्ध करते हुए कई
नाचा कलाकार यहाँ के निवासियों के दिलों में अमिट छाप बना गए है। मड़ई मेला में
आवश्यक रूप से होने वाले नाचा को इन्हीं जनप्रिय कलाकरों नें गाँव के गुड़ी से
महानगर व विश्व के कई देशों के भव्य नागरी थियेटरों तक का सफर तय कराया है। जिनमें
से सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है गोविन्दराम निर्मलकर, जिन्हें इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार
प्रदान किया गया है।
छत्तीसगढ़
में शिवनाथ नदी के तट पर बसे ग्राम मोहरा में 10 अक्टूबर 1935 को पिता स्व.
गैंदलाल व माता स्व. बूंदा बाई के घर में जन्में गोविन्दराम के मन में नाचा
देख-देखकर ऐसी लगन जागी कि वे 20 वर्ष की उम्र में पैरों में घुंघरू
बाँधकर नाचा कलाकार बन गये। उन्होंनें अपना गुरू बनाया तत्कालीन रवेली रिंगनी साज
के ख्यात नाचा कलाकार मदन निषाद को। इनके पैरों के छन-छन व कमर में बंधे घोलघोला
घाँघर नें पूरे छत्तीसगढ़ में धूम मचा दिया। इन्हीं दिनों 50
के दशक के ख्यात रंगकर्मी रंग ऋ षि पद्म भूषण हबीब तनवीर नें छत्तीसगढ़ी नाचा की
क्षमता को अपनाते हुए इनकी कला को परखा और नया थियेटर के लिए मदन निषाद, भुलवाराम
यादव, श्रीमती फिदाबाई मरकाम, देवीलाल नाग व अन्य सहयोगी कलाकार लालू, ठाकुर
राम, जगमोहन आदि को क्रमश: अपने पास बुला लिया।

गोविन्दराम
जी के अभिनय व नाटकों के अविस्मरणीय पात्रों में चरणदास चोर की भूमिका के साथ ही
आगरा बाजार में ककड़ी वाला, बहादुर कलारिन में गाँव का गौटिया, मिट्टी
की गाड़ी में मैतरेय, हास्य नाटकों के लिए प्रसिद्ध मोलियर के
नाटक बुर्जुआ जेन्टलमेन का छत्तीसगढ़ी अनुवाद लाला शोहरत बेग (1960) में
शोहरत बेग जैसी केन्द्रीय व महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ रही। इन्होंने बावन कोढ़ी के
रूप में सोन सागर में सर्वाधिक विस्मयकारी और प्रभावशाली अभिनय किया। महावीर
अग्रवाल इस संबंध में तत्कालीन चौमासा-1988 में लिखते हैं - एक-एक कदम और एक-एक शब्द द्वारा गोविन्दराम नें अपनी
शक्ति और साधना को व्यक्त किया है। मुड़ी हुई अँगुलियों द्वारा कोढ़ का रेखांकन
अद्भुत है। ‘में तोर संग रहि के अपने जोग ला नी बिगाड़ों जैसे
संवादों की अदायगी के साथ-साथ चँदा ला लोरिक के गरहन लगे हे’ संवाद
सुनकर आंखों में उतर जाने वाले यम रूपी क्रोध को, वहशीपन को अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा
प्रभावित किया है। शुद्ध उच्चारण और मंच के लिये अपेक्षित लोचदार आवाज द्वारा
गोविन्दराम चरित्र से एकाकार होने और संवेदनाओं को सहज उकेरने की कला में दक्ष
हैं। मृच्छकटिकम मिट्टी की गाड़ी (1978) में नटी और मैत्रेय की भूमिका में चुटीले
संवादों से हास्य व्यंग्य की फुलझड़ी बिखेरने वाले एवं पोंगा पंडित में लोटपोट करा
देने वाले पोंगा पंडित की भूमिका में निर्मलकर नें जान डाल दिया था। मुद्राराक्षस
में जीव सिद्धि, स्टीफन ज्वाईग की कहानी देख रहे हैं नैन में
दीवान, कामदेव का अपना वसंत ऋतु में परियों से संवाद करने वाला बाटम, गाँव
के नाम ससुरार मोर नाव दमाद (1973) में दमाद की दमदार भूमिका, जिन
लाहौर नई देख्या वो जन्मई नई (1990) में अलीमा चायवाला, वेणीसंघारम
में युधिष्ठिर, पोंगवा पंडित में पईसा म छूआ नई लगे कहने वाले पंडित
की जोरदार भूमिका में गोविन्दराम निर्मलकर छाये रहे हैं।

2005
से लकवाग्रस्त गोविन्दराम को बहुमत सम्मान दिये जाने के समय उन्होंनें अपने द्वारा
अभिनीत आगरा बाजार के ककड़ी वाले गीत को गाकर सुनाया, यह
नाटक और उनका अभिनय आगरा बाजार की जान है। आगरा बाजार में पतंगवाला हबीब तनवीर के साथ इस ककड़ी वाले के
स्वप्नों को सामंतशाही सवारी ने रौंद दिया था, उस दिन भी वही कसक पद्म श्री गोविंदराम
निर्मलकर जी के हृदय से हो कर आँखों से छलक रही थी। मध्य प्रदेश सरकार के तुलसी
सम्मान व छत्तीसगढ़ सरकार के मदराजी सम्मानके बावजूद 1500 रुपये पेंशन से अपनी
गृहस्थी की गाड़ी खींचते गोविंदराम छत्तीसगढिय़ा स्वाभिमान और संतोष के पारंपरिक
स्वभाव के धनी रहे, पैसा नहीं है तो क्या हुआ जिंदादिली तो
है। बरसों गुमनामी की जिन्दगी जीते इस महान कलाकार ने अपनी परम्परा व संस्कृति के
प्रति आस्था की डोर नहीं छोड़ी। उसी तरह जिस तरह आगरा बाजार में रौंदे जाने के बाद
भी रोते ककड़ी वाले के अंतस को अपूर्व ऊर्जा से भर देने वाले जस गीत व मांदर के
थापों ने दुखों को भूलाकर ब्रह्मानंद में मगन कर दिया था। वह ककड़ी वाला आज भले ही
हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जीवन में आशा का संचार करता हुआ हमारी संस्कृति और
परम्परा के ध्वज को सर्वोच्च लहराता हुआ अड़ा खड़ा है।
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