- डॉ. रत्ना वर्मा
जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती चली जाती है वैसे वैसे हमारे जीने के तरीके में भी बदलाव
आने लगते हैं। हमारी परम्परा हमारी
संस्कृति हमारे रीति- रिवाज में हर काल में कुछ न कुछ जुड़ता चला जाता है , तो
कुछ न कुछ खत्म भी होते चला जाता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो लोक
जीवन की रीत यही है- जहाँ नित परिर्वतन होते रहते हैं। समय और जरूरत के अनुसार वे
अपनी जीवन जीने के तरीके में बदलाव करते चले जाते हैं। लोक संस्कृति किसी भी समाज
को समझने में सहायक होती हैं। उदंती के इस अंक में हम छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के एक
ऐसे पक्ष के बारे में चर्चा करने की कोशिश कर रहे हैं जो समय के प्रवाह के साथ शनै
शनै: विलुप्त होने की कगार पर है।
भारतीय
संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंक उसकी लोक कलाएँ हैं, जिनका
हमारे लोकजीवन में विशेष स्थान है।
शास्त्रों में जिन 64 कलाओं का उल्लेख किया गया है उसमें
गायन, वादन, नर्तन, और नाट्य जैसी अनेक कला- कौशल का
प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। भारतीय
परंपरा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं ,जिनमें
कौशल अपेक्षित हो। यूरोपियन शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना
है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है ,जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का
प्रयोग होता है।
भारत
के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति होती है ,जिसे
लोककला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्परागत कला का एक अन्य रूप
है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के
रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की लोक और जनजातीय कलाएँ बहुत ही पारम्परिक और
साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध विरासत का
अनुमान स्वत: हो जाता है। लेकिन यह भी सत्य है कि विरासत को पा लेना जितना आसान
होता है, उतना उसे सहेज कर रख पाना बहुत मुश्किल होता है।
विज्ञान
ने हमें तरक्की करना तो सिखाया है पर तरक्की करते करते हम अपनी लोक कलाओं से दूर
होते चले जा रहे हैं । हमारी सुविधा के लिए बनी मशीनों ने मनुष्य को ही मशीन बना
दिया। अब हमारे पास अपनी उस भव्य विरासत, समृद्ध
लोक-कलाओं को जिंदा रखने के लिए न समय है न सदिच्छा। और जब जीवन से लोक कलाएँ
तिरोहित होती जाती हैं , तो इंसान के जीवन से इंसानियत खत्म होती
चली जाती है। आज जहाँ देखो उधर मनुष्य अपनी आर्थिक समृद्धि में ही खटते नजर आता है, उसके
लिए लोक कलाओं के लिए समय निकालना समय की बर्बादी है, जबकि
कला वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि-
कला की साधना से हमारी कल्पनाशीलता का विकास होता है, लोक
कलाएँ हमारे लिए मनोरंजन मात्र नहीं वरन, हमें व्यवस्थित ढंग से जीने के उपाय
सिखाती है। हम आज जीवन जीने के इस तरीके
को भूलते जा रहे हैं जो चिंता का विषय है।
यदि
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति की बात करें तो यहाँ की लोककलाएँ बहुत विकसित रहीं हैं, जिसे
समय-समय पर यहाँ के महान कला-धर्मियों ने सहेजा और विकसित किया है। प्राचीन काल
में जब मनोरंजन के आधुनिक साधन विकसित नहीं हुए थे तब छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में भी
नृत्य, गीत नाचा, गम्मत, मेले- मड़ई, रामलीला, कृष्णलीला आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन
हुआ करते थे। इस तरह छत्तीसगढ़ की
लोककलाओं के अध्ययन से इस प्रदेश की समृद्ध लोक संस्कृति के बारे में भी हम अनुमान
लगा सकते हैं।
कला
के संदर्भ में किसी ने बहुत सुंदर बात कही है कि - कला से जुडऩे का अर्थ है- स्वयं
के व्यक्तित्व का विकास, ऐसा विकास जो अपने साथ-साथ दूसरों के
लिए प्रेरणा भी बन सके और सहज मनोरंजन का साधन भी।
उदंती
का यह विशेष लोक- अंक रामहृदय तिवारी जी के रचनात्मक सहयोग से तैयार हो पाया है, जिनका
संक्षिप्त परिचय नीचे दिया गया है, मैं उनकी आभारी हूँ। साथ ही छत्तीसगढ़
की लोककला और संस्कृति पर निरंतर लिखने वाले रचनाकारों में संजीव तिवारी जो
छत्तीसगढ़ी भाषा की पहली वेब पत्रिका गुरतुर गोठ के संपादक हैं, उनके
ब्लाग आरंभ से भी रचनात्मक सहयोग लिया गया है। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार आदरणीय
श्यामलाल चतुर्वेदी जी का एक आलेख भी इसमें शामिल है। इस अंक में शामिल सभी
रचनाकारों का भी आभार व्यक्त करती हूँ।
शुभकामनाओं
के साथ
1 comment:
आपने छत्तीसगढ़ की लोक विरासत की दशा और दिशा सुधारने में सार्थक पहल की है ।आपकी पत्रिका लोक कलाओ के संरक्षण के प्रति गंभीर और अग्रणी है इस दावे को झुठलाया नही जा सकता।
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग
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