छत्तीसगढ़
की नाचा शैली को विश्व में मशहूर करने वाले
हबीब
तनवीर
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उनका
पूरा नाम हबीब अहमद खान था ;लेकिन जब उन्होंने कविता लिखनी शुरू की
तो अपना तखल्लुस तनवीर रख लिया और उसके बाद से वह हबीब तनवीर के नाम से लोगों के
बीच मशहूर हो गए। उनके पिता हफीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के रहने वाले थे।
हबीब
ने अपनी मैट्रिक की परीक्षा रायपुर के लौरी म्युनिसिपल स्कूल से पास की थी तथा बीए
नागपुर के मौरिश कालेज से किया। हबीब की एमए प्रथम वर्ष की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय से हुई। केवल 22 साल की उम्र में वह 1945 में मुंबई चले
गए जहाँ उन्होंने आकाशवाणी में काम किया। इसके बाद उन्होंने कुछ हिन्दी फिल्मों के
लिए गीत लिखे और कुछ में काम भी किया।
हबीब
ने एक पत्रकार की हैसियत से अपने कॅरियर की शुरुआत की और रंगकर्म तथा साहित्य की
अपनी यात्रा के दौरान कुछ फिल्मों की पटकथाएँ भी लिखीं तथा उनमें काम भी किया।
मुंबई में हबीब ने प्रगतिशील लेखक संघ की
सदस्यता ली और इप्टा का प्रमुख हिस्सा बने। एक समय ऐसा आया जब इप्टा के प्रमुख
सदस्यों को ब्रिटिश राज के खिलाफ काम करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया और तब
इप्टा की बागडोर हबीब को सौंप दी गई। वर्ष 1954 में वह दिल्ली आ गए जहाँ उन्होंने
कुदेसिया जैदी के हिन्दुस्तान थिएटर के साथ काम किया। इस दौरान वह बच्चों के थिएटर
से भी जुड़े रहे और उन्होंने कई नाटक लिखे।
दिल्ली में तनवीर की मुलाकात अभिनेत्री मोनिका मिश्रा से हुई जो बाद में
उनकी जीवनसंगिनी बनीं। यहीं उन्होंने अपना पहला महत्त्वपूर्ण नाटक आगरा बाजार
किया।
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1955
में तनवीर इग्लैंड गए और रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक्स आर्ट्स (राडा) में प्रशिक्षण
लिया। यह वह समय था जब उन्होंने यूरोप का दौरा करने के साथ वहाँ के थिएटर को करीब
से देखा और समझा। दो साल तक यूरोप का दौरा करते रहे। इस दौरान उन्होंने नाटक से
संबंधित बहुत-सी बारीकियाँ सीखीं।
अनुभवों
का खजाना लेकर तनवीर 1958 में भारत लौटे और तब तक खुद को एक पूर्णकालिक निर्देशक
के रूप में ढाल चुके थे। इसी समय उन्होंने शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक
मृछकटिका पर केंद्रित नाटक मिट्टी की गाड़ी
तैयार किया। इसी दौरान नया थिएटर की नींव तैयार होने लगी थी और छत्तीसगढ़
के छह लोक कलाकारों के साथ उन्होंने 1959 में भोपाल में नया थिएटर की नींव डाली।
नया
थिएटर ने भारत और विश्व रंगकर्म के मंच पर अपनी अलग छाप छोड़ी। लोक कलाकारों के
साथ किए गए प्रयोग ने नया थिएटर को नवाचार के एक गरिमापूर्ण संस्थान की छवि प्रदान
की। चरणदास चोर उनकी कालजयी कृति है। यह नाटक भारत सहित दुनिया में जहाँ भी हुआ, सराहना
और पुरस्कार अपने साथ लाया।
हबीब
तनवीर ने छत्तीसगढ़ी बोली को लेकर जो प्रयोग किया उसपर अशोक बाजपेयी कहते हैं
कि- पिछले पचास वर्ष में किसी का नाम लिया
जा सकता है - जिसने छत्तीसगढ़ को अस्मिता दी, पहचान दी और छत्तीसगढ़ पर जिद करके अड़ा
रहा और यह जिद सारे संसार में उन्हें ले गई तो वह हबीब तनवीर है। एक तो हिन्दी में
ही नाटक करना कठिन है ऐसे में हम कभी नहीं सोचते थे एक बोली और वो भी हिन्दी की एक
उपबोली में नाटक करें और उस नाटक को इस हद तक ले जाएँ , इतने
बरस तक ले जाएँ- बोली जो निपट स्थानीय है और प्रभाव और लक्ष्य जो सार्वभौमिक
है। हबीब तनवीर ने एक तो पहली बार ये
सिद्ध कर दिया बोली में भी समकालीन होना न केवल संभव है बल्कि बोली भी समकालीनता
का ही एक संस्करण है।
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छत्तीसगढ़
की नाचा शैली में 1972 में किया गया उनका नाटक गाँव का नाम
ससुराल मोर नाम दामाद ने भी खूब वाहवाही लूटी।
हबीब
साहब पहली बार विवादों में उस समय आए जब 90 के दशक में उन्होंने धार्मिक ढकोसलों
पर आधारित नाटक पोंगा पंडित बनाया। उन्होंने 2006 में रवीन्द्र नाथ टैगोर के
उपन्यास राज ऋ षि और नाटक विसर्जन पर आधारित फिल्म राजरक्त का निर्माण और निर्देशन
किया। उन्होंने मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल के साथ मिलकर नाटक चरणदास चोर पर एक हिन्दी फिल्म का निर्माण भी करवाया
जिसमें स्मिता पाटिल ने मुख्य भूमिका निभाई। अपने जीवन में उन्होंने रिचर्ड एटनबरो
की ऑस्कर विजेता फिल्म गाँधी सहित कई अन्य फिल्मों में बतौर अभिनेता काम किया।
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हबीबजी
के नाटक चरणदास चोर से लेकर, पोंगा पंडित, जिन
लाहौर नहिं देख्या, कामदेव का सपना, बसंत
रितु का अपना जहरीली हवा, राजरक्त
समेत अनेक नाटकों में उनकी प्रतिभा दिखायी देती है जिसे दुनिया भर के लोगों ने
पहचाना। 2005 में संजय महर्षि और सुधन्वा देशपांडे ने उन पर एक डाक्यूमेंटरी बनायी
जिसका नाम रखा गाँव का नाम थियेटर, मोर नाम हबीब’।
यह टाइटिल उनके बारे में बहुत कुछ कह देता है, पर दुनिया की इस इतनी बड़ी सख्सियत के
बारे में आप कुछ भी कह लीजिये हमेशा ही कुछ अनकहा छूट ही जाएगा।
हबीब
तनवीर को 1969 में और फिर 1996 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 1983 में
पद्श्रमी और 2002 में पद्मभूषण मिला। 1972 से लेकर 1978 तक वे उ‘च
सदन रा’यसभा के सदस्य भी रहे। (संकलित)
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