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Jul 20, 2015

लोकमंचीय कला के पुरोधाः रामचन्द्र देशमुख

लोकमंचीय कला के पुरोधा
रामचन्द्र देशमुख
- प्रेम साइमन
रामचन्द्र देशमुख- एक व्यक्ति का ही नहीं, छत्तीसगढ़  की धूलधूसरित लोक संस्कृति को फिर से महिमामंडित करने के सफल और सार्थक प्रयास का नाम है। रामचन्द्र देशमुख और लोककला ये दोनों एक दूसरे के ऐसे पर्याय बन चुके हैं कि इन्हें अलग करके देख पाना लगभग असंभव है। आज हमारी लोक संस्कृति विदेशों तक को अपनी इन्द्रधनुषी फुहारों से सराबोर कर रही है। निश्चय ही, इस उपलब्धि के पीछे इस व्यक्ति के आजीवन अथक परिश्रम का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। इसमें जरा  भी अतिशयोक्ति नहीं कि इस अंचल में ही नहीं बल्कि पूरे भरत में लोककला की दुनिया को इतना समृद्ध और परिष्कृत बहुत कम लोगों ने किया होगा जितना स्व. रामचन्द्र देशमुख ने किया था।

लोक संस्कृति के इस कलासाधक का जन्म 25 अक्टूबर 1916 में ग्राम पिनकापार में देशमुख कुर्मी जाति के सम्पन्न कृषक परिवार में हुआ था। कृषि और कानून, दोनों में स्नातक होने के बावजूद, उनका मूल झुकाव पारंपरिक कलाओं के प्रति था। मंच के माध्यम से जन चेतना को जागृत करने की भावना शुरू से ही उनके मन में रही। कालान्तर में यह भावना योजना बनी, फिर कर्म। रामचन्द्र देशमुख के इसी कर्म ने इस अंचल को चंदैनी गोंदा देवार डेरा और कारी जैसी कालजयी लोकमंचीय प्रस्तुतियाँ दी हैं।
 छत्तीसगढ़ की लोकमंचीय विधा नाचा पर्याप्त प्रख्यात तो है ही, अंचल के जो स्वरूप था, उसमें अश्लीलता, अनैतिकता, फूहड़ता और निरर्थकता की भरमार थी। वह नवस्वाधीन देश भारत के पुनर्जागरण का काल था। जनचेतना में उच्चादर्शो और नैतिक मूल्यों को स्थापित करने की जरूरत थी। भविष्य द्रष्टा रामचन्द्र ने भांप लिया था कि इस कार्य में नाचा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, यदि इसे परिष्कृत और परिमार्जित किया जाय तो। अपने इसी विश्वास के वशीभूत होकर उन्होंने सन् 1951 में छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मण्डल की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने सागर से निकाले गये मोतियों की तरह समूचे छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों को चुन-चुन कर एक मंच पर एकत्र किया और अपनी प्रस्तुतियों- सरग अउ नरक जनम और मरन तथा कालीमाटी में नगीने की तरह जड़ा। मदन निषाद, लालूराम, ठाकुरराम, बाबूदास, भुलऊदास इत्यादि लब्धप्रतिष्ठित कलाकार इसी संस्था की उपज हैं। यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि सन् 1953 में प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर ने इन्ही नाटकों को देखकर लोकमंच की शक्ति को पहचाना और रामचन्द्र देशमुख से प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर उनके ही लोक कलाकारों के सहयोग से अपने मंचीय जीवन की शुरूआत की। छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल रामचन्द्र देशमुख का पहला सफल मंचीय प्रयोग था। वस्तुत: इस मंडल के माध्यम से उन्होंने कीचड़ सने नाचा के पाँव पखारे थे।
1945-55 से 1969-70 तक के अंतराल में रामचन्द्र देशमुख ने अपना समय आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों के अध्ययन और उन्नत कृषि के अनुसंधान में लगाया। प्रत्यक्ष रूप से, मंच से अलग होने के बाद भी उनकी सतर्क दृष्टि मंचीय उतार -चढ़ाव को निहारती रही और उनका मन छत्तीसगढ़ की वेदना को किसी कृति में समोने के लिए छटपटाता रहा। यह चन्दैनी गोंदा जैसी महान सर्जना के जन्म के पूर्व का प्रसवकाल था। छत्तीसगढ़ के सांसकृतिक क्षितिज पर यहाँ से वहाँ तक एक विराट शून्य फैला हुआ था और एक मर्मान्तक हताशा हर लोककला प्रेमी के मन मस्तिष्क को झकझोर रही थी। अपनी ही कला और संस्कृति से वंचित छत्तीसगढ़, फटी-फटी आँखों से किसी चमत्कार को ढूँढ रहा था। लेकिन चमत्कार करने का साहस भला किसमें था? यह साहस दिखाया रामचन्द्र देशमुख ने। उन्होंने अपने अंचल के दुख-सुख को अपने में समोकर उसे पूरी मार्मिकता से अभिव्यक्त करने की चेष्टा की और इसी चेष्टा का युगान्तकारी परिणाम था- चन्दैनी गोंदा।  यह ऐसी अनूठी प्रस्तुति थी जिसने एक दशक तक छत्तीसगढ़ अँचल के समूचे सांस्कृतिक गगन को अपने प्रभाव में समेट लिया। सन् 1971 में पहली बार प्रस्तुत इस लोक नाट्य ने अपने इन्द्रजाल में छत्तीसगढ़ी जनमानस को इस तरह बाँधा कि छत्तीसगढ़ निवासी हो जिसने चंदैनी गोंदा न देखा हो और छत्तीसगढ़ ही क्यों उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजधानी दिल्ली के अशोका हॉटल में भी इसके प्रदर्शन मील के पत्थर बन चुके हैं। चंदैनी गोंदा में लोक संस्कृति के साथ-साथ राष्ट्रीय भावना की प्रचुरता  थी। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अंधविश्वासों और बुराइयों परर प्रभावशाली ढंग से चोट की गई थी। हरितक्रांति और शोषणमुक्त समाज की परिकल्पना इसमें देखते ही बनती थी। आम भारतीय कृषक के सुख-दुख, आशा, आकांक्षा, उल्लास उत्साह और सपनों के सतरंगी धागों से बुने चंदैनी गोंदा की प्रासंगिकता और अनुपमेयता आज भी निर्विवाद है। शायद इसीलिए इसके एक प्रदर्शन को मार्मिक है कि छत्तीसगढ़ के लोगों को अपने इतिहास एवं संस्कृति के लिए मर-मिटने की प्रेरणा मिलती है। सचमुच अंचल की लोकमंचीय कला के इतिहास में इतनी बड़ी क्रांति न तो कभी हुई और न संभवत: होगी। रामचन्द्र देशमुख की दूसरी महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति थी- देवार डेरा जो सर्वाधिक उपेक्षित देवारों को समर्तित इन देवारों की उदास, उजाड़ और नीरस जिन्दगी में भी नृत्य और संगीत का एक अजस्र स्रोत बहता है। किन्नरों के अभिशप्त मानस पुत्र थे देवार विरासत में सिर्फ कला पाते हैं। गली और कूचों में बेमोल बिकने वाली कला।
चंदैनी गोंदा के निर्माण के दौरान ही रामचन्द्र देशमुख ने देवारों के इस कला वैभव को परख लिया था। फिर शुरू हुई उनके दुखों को शब्द देने की प्रक्रिया देवार डेरा के माध्यम से। एक ओर तो रामचन्द्र देशमुख ने मंच के जरिए खनकते हुए घुँघरूओं के बीच हुए आँसुओं की व्यथा कथा को समाज के सामने रखा वहीं दूसरी ओर उन्होंने देवारों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए अथक परिश्रम भी किया। उनकी आवासीय समस्याओं को सुलझाने के लिए उन्होंने शासन तक भी बात पहुँचाई। उन्हीं की कोशिशों का नतीजा है कि सन् 1987में शासन ने दुर्ग में उनके लिए आवासीय कॉलोनी बनाने की योजना अपने हाथ में ली।
रामचन्द्र देशमुख 1977 में यूनेस्को द्वारा भोपाल में आयोजित एक सेमिनार के आमंत्रित वक्ता भी रह चुके हैं। इस सेमिनार में उन्होंने लोकमंच माध्यम में प्रयोग शीर्षक से अपना सारगर्भित निबन्ध पढ़ा। श्रोताओं ने उनके विचारों, धारणाओं और मान्यताओं की मुक्तकंठ से सराहना की। 1977 में ही चंदैनी गोंदा के कुछ अंशों की टी.वी. रिकार्डिग दिल्ली दूरदर्शन में की गई तथा अशोका होटल के कन्वेंशन हॉल में मंत्रियों, सांसदों और देश विदेश के गणमान्य अतिथियों के समक्ष उसका भव्य प्रदर्शन हुआ। दिल्ली के दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक पत्र-पत्रिकाओं ने इस प्रस्तुति की प्रशंसायुक्त समीक्षाएँ छापीं। साप्ताहिक धर्मयुग में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार परितोष चक्रवर्ती ने लिखा था- चंदैनी गोंदा कोई नाटक, नाचा, गम्मत या तमाशा नहीं है बल्कि गीत संगीत मे पिरोई गई भारतीय कृषक के जीवन की व्यथा कथा है। जमशेदपुर से प्रकाशित दर्पण के चंदैनी गोंदा परिशिष्ट अंक में राजकुमार शर्मा ने लिखा है- फिल्मी गीतों का कुप्रभाव जनजीवन में इस कदर बैठ गया था कि हम सुआ, ददरिया, पंथी, करमा जैसे पारंपरिक गीत ही भूलते चले जा रहे थे। हमारी लोककलाएँ दूषित और विस्मृत हो रही थीं। उन्हें परिमार्जित, संशोधित और पुन: प्रतिष्ठित करना बहुत जरूरी था। चंदैनी गोंदा ने यही किया है। चंदैनी गोंदा आँचलिक संस्कृति के गौरव का सिंहनाद है। वस्तुत: यह समूची लोक संस्कृति का दर्पण है।
सचमुच चंदैनी गोंदा ने यही किया था। अपने सौ प्रदर्शनों में इसने ऐसा प्रभाव छोड़ा था कि समूचे छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई। आज लोग रेडियों, दूरदर्शन और अन्य माध्यमों से लोकगीतों को रूचि पूर्वक सुनने लगे हैं। छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रति लोगों के मन में आकर्षण और आदर की भावना पैदा हुई है। लुप्तप्राय: लोकगीत और लोक कलाएँ ढँूढ-ढूँढ कर निकाली जा रही हैं। चिर उपेक्षित आँचलिक कलायें एक नए गौरव बोध से भर उठी हैं।
देहाती कला विकास मंडल चंदैनी गोंदा और देवार डेरा के बाद लोक मंच की परिष्कार यात्रा के जिस चौथे पड़ाव पर रामचन्द्र देशमुख पहुँचे वह थी कारी डॉ.पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की पुस्तक अंतिम अध्याय के एक संसमरण छत्तीसगढ़ की आत्मा से प्रेरित रामचन्द्र देशमुख की यह कल्पना लोक संस्कृति के गगन पर छत्तीसगढ़ की वही चिरव्यथित माँ के रूप में अपनी ममतामयी ज्योत्स्ना  बिखेरती रही है। रामचन्द्र देशमुख की पारखी दृष्टि ने नारी प्रधान इस लोक नाट्य के निर्देशन का भार रामहृदय तिवारी के हाथों में सौंपा। इस लोकनाट्य में नारी जागृति और नारी महिमा को पुनप्र्रतिष्ठित करने की भावना सन्निहित थी। इस गंभीर प्रयोगात्मक नाटक के 44 से अधिक भव्य एवं सफल मंचन अँचल के गाँवों, शहरों और नगरों में हो चुके हैं और आज भी इसकी अपनी लोकप्रियता और आकर्षण की चर्चा यत्र-तत्र होती रहती है।
साप्ताहिक धर्मयुग के दिये गये अपने साक्षात्कार में रामचन्द्र देशमुख ने कहा था- अचल की गरीबी, पिछड़ापन और शोषण देखकर कोई भी द्रवित हुए बिना नहीं रह सकता। इन्हें अंधेरों से उबारने, इनमें जागृति पैदा करने के लिए लोक कला माध्यमों से बढक़र सहज, सरल और प्रभावशाली साधन अन्य कोई नहीं है। अंचल के लोगों में सर्वतोमुखी जागृति और चेतना पैदा करने के लिए ही मैने इस माध्यम को चुना है और यही मेरा प्रमुख उद्देश्य है।

उम्र की 80 वीं देहलीज पर भी जहाँ आम तौर पर लोग जीवन की सक्रियता से विराम पा लेते हैं, रामचन्द्र देशमुख पूरी निष्ठा और विश्वास के साथ लोक संस्कृति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए छटपटाते रहे, अपने स्तर पर चिंतनरत रहते हुए जिज्ञासु युवा पीढ़ी को दिशा निर्देश देते रहे। सांस्कृतिक क्षेत्र का यह अपराजेय योद्धा लोककला की जय पताका को अँचल के साथ-साथ देश और विदेश के गगन में शान से लहराते देखने की साध अंत तक मन में संजाये रहे। आज समूचा छत्तीसगढ़ उनकी अप्रतिम सांस्कृतिक देनों का ऋणी है क्योंकि उन्होंने इस अँचल से जितना कुछ पाया उससे अगाधा गुना देते ही रहे हैं। आजीवन राजनीति से दूर सतत् सेवाभावी लोककलाओं के प्रति आकंठ समर्पित इस व्यक्तित्व का नाम छत्तसीगढ़ी लोकमंचीय कला के इतिहास में सदा जगमगाता रहेगा।

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