लोक
नाट्य नाचा में साखी
परंपरा
- डॉ. पीसी लाल यादव
छत्तीसगढ़
के लोकजीवन को करीब से देखें तो हम यह पाते हैं कि छत्तीसगढ़ की लोककला और लोक
संस्कृति ने वैश्विक प्रसिद्धि पाई है। चाहे वह पंडवानी हो या भरथरी, पंथी
हो या नाचा। छत्तीसगढ़ी लोककलाओं के रूप विविध हैं और रंग भी अनेक। लोक का
आचार-विचार, सम्यता-संस्कार, कार्य और व्यवहार लोक कलाओं में
प्रतिबिंबित होता है। जीवन का हास-परिहास, पतझर-मधुमास, आशा
और विश्वास सब लोक संस्कृति में ही मुखरित होते हैं। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन का जो
सर्वाधिक लोकप्रिय कलारूप है, वह है लोक नाट्य नाचा।
पहले
नाचा रात्रि नौ-दस बजे से शुरू होकर सुबह तक चलता है। चार बांसों से बना साधारण
मंच, न कोई तामझाम न कोई सजावट बिना परदे का। सब कुछ सहज और सरल ठीक यहाँं के
लोगों के जीवन की तरह। न दम्भ, न दिखावा न कोई प्रपंच न छलावा। जैसा
बाहर वैसा ही भीतर यही तो है विशेषता यहाँ के भोले-भाले लोगों की और नाचा की।
नाचा
के अनेक पक्ष है। अनेक रंग है। नाचा के पूर्व रंग के अंतर्गत साखी परंपरा की चर्चा
इस लेख का विषय है। नाचा में स्त्री पक्ष की भूमिका पुरुष द्वारा ही अदा की जाती
है। नाचा के पूर्व रंगमंच में नचकारिन (परी) के गीत नृत्य के बाद जोक्कड़ों (गम्मतिहा) का प्रवेश होता
है। जोक्कड़ नाचा गम्मत के मेरूदंड हैं। ये जितने कला प्रवीण और दक्ष होंगे वह
नाचा मंडली उतनी ही प्रसिद्ध होगी। जोक्कड़ (जोकर) प्रारंभ में नचौडी नृत्य कर
साखी व पहेली के माध्याम से नाचा में गम्मत का माहौल तैयार करते हैं। नृत्य गीत
में मग्न दर्शक को यह आभास हो जाता है कि अब गम्मत की प्रस्तुति होगी। साखी की
परंपरा नाचा में खड़े साज से प्रारंभ होकर आज भी बैठक साज में विद्यमान है। ऐसा भी
नहीं है कि साखी की यह परंपरा नाचा में ही है।
छत्तींसगढ़ी
गीत गायन में साखी (दोहा) परंपरा हमें फाग गीतों में भी मिलती है। ये साखियाँ कबीर, तुलसी
की साखियों, दोहों से भिन्न नहीं है। कबीर ने मानव मूल्यों की
रक्षा के लिए जिन साखियों को रचा। आत्मा परमात्मा के एकाकार के लिए जिन साखियों को
गढ़ा। जीवन के आडम्बरों और पाखंडों पर प्रहार के लिए जिन साखियों को अस्त्र के रूप
में प्रयुक्त किया। ये सब वही साखियाँ हैं, वही दोहे। फागगीतों में साखी की एक
बानगी-
सराररा
सुनले मोर कबीर...
बनबन
बाजे बांसुरी, के बनबन नाचे मोर।
बनबन
ढूंढे राधिका, कोई देखे नंदकिशेर।।
इस
तरह छत्तीसगढ़ी फाग गीतों का गायन साखी के बाद ही प्रारंभ होता है। जहाँ तक
पहेलियों की बात है, वह तो लोकजीवन में मनोरंजन और ज्ञानरंजन
का पर्याय है। पहेली को छत्तीसगढ़ी में -जनौला- कहा जाता है। यही साखियाँं, यही
पहेलियाँ नाचा में मनोरंजन का द्वार खोलती है और दर्शकों को ज्ञान- विज्ञान और हास
परिहास में गोते लगवाती है। नाचा के पूर्व रंग का रंग ही अनोखा और चोखा है। यही है
नाचा का वह अछूता पक्ष है जिसकी चर्चा नहीं हो पाती। नाचा के जोक्कड़ गीत-गायन, नृत्यक
और संवाद अदायगी में बड़े कुशल होते हैं। वे बात से बात पैदा करने में माहिर होते
हैं। कहा भी जाता है-
जईसे
केरा के पात पात में पात।
तईसे
जोक्कड़ के बात बात में बात।।
अर्थात
जिस प्रकार केले के पौधे में पत्ते ही पत्ते होते हैं, उसी
प्रकार जोक्कड़ की बातों से बातें ही पैदा होती है। चश्मा लगाया हुआ जोक्कड़ कहता
है- हां...हां...हां...हां..चार आँखी दू बाँहा जी। कैसी अनोखी बात है? आँखे
चार है और भुजाएँ दो। सुनने वाले तो आवाक् और हतप्रभ रह जाते हैं। तब दूसरे ही
क्षण वह जोक्कड़ अपना चश्मा निकालकर फिर कहता है- चार आँखी दू बाँहा जी- तब दर्शक कठल (बहुत ज्यादा हँसना) जाते हैं।
जोक्कड़ के वाक् चातुर्य की दाद देते हैं और हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते हैं।
देखिये एक जोक्कड़ बात में किस तरह से बात पैदा करता है। वह अपनी व्युत्पन्नमति से
बड़े-बड़े विद्वानों की बातों को भी झूठा साबित कर देता है। एक लोकोक्ति है या
कहें किसी विद्वान का कथन है कि- पानी पियो छान के, गुरु बनाओ जान के- अर्थात पानी को छानकर
पीना चाहिए और गुरु को जान समझकर बनाना चाहिए। सीधी सी बात है लेकिन नाचा का
कलाकार दूसरा जोक्कड़ तर्क प्रस्तुत करता है और कहता है- नहीं -पानी पियो जान के, गुरु
बनाओ छान के- यदि कोई तुम्हारे सामने डबरे का पानी छानकर दे, तो
क्या तुम उसे पी लोगे? नहीं। इसलिए पानी को जानकर पियो और गुरु
को छानकर अर्थात चुनकर जाँच परख कर बनाओ।
नाचा
में रात भर में तीन चार गम्मत प्रस्तुत किये जाते हैं। प्रत्येक गम्मत के पूर्व
में इस तरह की साखियाँ और पहेलियाँ प्रस्तुत करने की परंपरा है। जीवन व जगत से
जुड़़ी हुई ये साखियाँ और पहेलियाँ जहाँ लोगों का मनोरंजन करती हैं, वहीं
उनके ज्ञानार्जन में सहायक सिद्ध होती है। लोक के इस प्रयोजन में लोक की अनुभूति
ही अभिव्यक्त होती है।
नाचा
में प्रयुक्त होने वाली साखियों और पहेलियों को
कई वर्गों में विभाजित कर सकते हैं जैसे- देवी-देवता संबंधी साखियाँ, नीति
संबंधी साखियाँं, मानवीय संबंधी साखियाँ, कृषि
संस्कृति संबंधी साखियाँ, पशु-पक्षी, प्रकृति
संबंधी साखियाँ, द्विअर्थी संबंधी साखियाँ, आदि
देवी-देवता
संबंधी साखियाँ
लोक
जीवन धार्मिकता से ओतप्रोत होता है। धर्म पर लोक जीवन की आस्था अधिक रहती है।
राम-सीता, कृष्ण-राधा, शंकर-पार्वती आदि देवी-देवताओं के
साथ-साथ लोकांचल के अपने और भी भिन्नि-भिन्न देवी-देवता होते हैं। नाचा में इन्हीं
देवी-देवताओं से संबंधित धर्म विषयक साखियाँ व पहेलियाँ गम्मत के प्रारंभ में
जोक्कड़ प्रस्तुत करते होते हैं-
घर
निकलत तोर ददा मरगे, अधमरा होगे तोर भाई।
बीच
रद्दा म नारी के चोरी होगे, काम बिगाड़े तोर दाई।।
उपरोक्त
साखी में श्रीराम से संबंधित कथा को पहेली के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
भावार्थ यह कि- घर से तुम्हारे निकलते ही तुम्हारे पिताजी ने प्राण छोड़ दिये।
तुम्हारा भाई मूच्र्छित हो गया। बीच रास्ते में तुम्हारी पत्नी की चोरी हो गई ये
सारे कार्य तुम्हारी माँ ने बिगाड़े हैं। जाहिर है उक्त घटनाएँ श्रीराम के साथ ही
घटित हुई थी।
नीति संबंधी साखी
राजा
के मरगे हाथी, देवान के मरगे घोड़ा।
रांडी
के मरगे कुकरी, त एक बराबर होय।
यदि
राजा का हाथी मर गया, मंत्री का घोडा मर जाये और किसी गरीब
विधवा स्त्री की मुर्गी मर जाये तो इन तीनों की हानि बराबर आँकी जायेगी।
मैं
मरेंव तोर बर, तैं झन मर मोर बर।
तैं
मरबे मोर बर, त ऊपर खड़े हे तोर बर।।
इस
साखी में केंचुआ (जिसे मछली फँसाने के लिए कांटे में लगाया जाता है) मछली से कहता
है- मुझे तुम्हें फँंसाने के लिए मारा गया है, अच्छा होगा कि तुम मुझे खाने के लिए मत
दौड़ो। यदि तुम मुझे खाओगे तो बंशी के काँटे में फँस कर मारे जाओगे। क्योंकि
तुम्हें मारने के लिए ऊपर आदमी खड़ा है। इस साखी में लालच न करने की शिक्षा
सन्निहित है।
मानवीय
संबंध संबंधी साखियाँ
सम्बंधों
की प्रगाढ़ता मानव जीवन का माधुर्य है। जहाँ मानवीय सम्बंधों में मिठास होगा, वही
परिवार समुन्नत और सम्पन्न होगा। नागर जीवन में लोग संयुक्त परिवार से कट रहे हैं, और
एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पर गाँवों में हमें आज भी संयुक्त परिवार देखने को
मिलते हैं। परस्पर प्रेम, अनुशासन, साहचर्य, सहयोग और समरसता संयुक्त परिवार व
मानवीय सम्बंधों के रक्षा कवच हैं। लोक जीवन की यह विशेषता नाचा की साखी परंपरा से
पृथक नहीं है। एक बानगी-
एक
बाप के बारा बेटा, छै झन बहू बिहाय।
एक
लुगरा पहिरा के ओला, खारन खार कुदाय।
इसका
उत्तर है बैलगाड़ी का चक्का। जिसमें बारह आरे, छह पुठा और एक बाँठ होता है, स्थूल रूप में इसमें संयुक्त परिवार का
दृश्य प्रतिबिंबित होता है।
कृषि
संबंधी साखियाँ
गाँव
के लोगों का प्रमुख कार्य कृषि ही है, नाचा के कलाकार भी कृषक होते हैं। तब
भला अपने कृषि कर्म में काम आने वाली वस्तुओं को वे कैसे भूल सकते हैं? कृषक
जीवन की दिनचर्या और कृषि कर्म भी साखी और पहेली की विषय सामग्री बनते हैं-
आगू
डाहर सुल्लु, पाछू डाहर चकराय।
आँही-बाँही
गोल गोल, बीच म ठडिय़ाय।।
इस
साखी में बैलगाड़ी का चित्रण है, जिसका सामने भाग नुकीला और पिछला भाग
चौड़ा होता है। आजू-बाजू गोल-गोल दो चक्के होते हैं। बीच में लोहे की पोटिया लगी
होती हैं।
पशु-पक्षी, प्रकृति
संबंधी साखियाँ
लोक मानस प्रकृति का पुजारी है, प्रकृति
ही उसका सर्वस्व है। इसलिए वह प्रकृति से तादात्यबनाकर चलता है। प्रकृति से कटना
जैसे जीवन से कटना है। प्रकृति ही लोक के लिए ऊर्जा का स्रोत है और उसका जीवन भी।
जंगल, जल और जमीन, लोक के प्राण तीन। प्रकृति पुत्र नाचा
का कलाकार भला प्रकृति का अनादर कैसे कर सकता है? उसके रोम-रोम और साँस-साँस में प्रकृति
के प्रति अनन्यन प्रेम है इसलिए लोक कलाकार प्रकृति का प्रेमी होता है। प्रकृति भी
उसकी कला की अभिव्यक्ति में मुखरित होती है। नाचा की साखियाँ प्रकृति के विविध
रंगों से रंगी हुई है-
एक
सींग के बोकरा, मेरेर-मेरेर नरियाय जी।
मुँह
डाहर ले चारा चरे, बाखा डाहर ले पगुराय जी।।
विचित्र
बात यह कि बकरे का एक ही सींग है। वह में-में बोलता है। मुँह से चारा चरता है
किंतु जुगाली बाजू से करता है।
No comments:
Post a Comment