मनोरंजन
और जागरूकता का संगमः नाचा
- नारायण लाल परमार
- नारायण लाल परमार
लोकनृत्यों
की दृष्टि से छत्तीसगढ़ी अंचल बहुत समृद्ध है, चाहे दक्षिणवर्ती बस्तर का माडिय़ा नृत्य
हो अथवा घोटुल के हुलकी और मांदरी नृत्य हो, इन सबकी अपनी-अपनी जीवंत परम्पराएँ हैं।
नित नवीन उल्लास के साथ-साथ इन गीत बहुल नृत्यों का एक मात्र श्रेय और प्रेय यही
है कि ये जन जातियों के समाजिक संबंधों को उजागर करें।
करमा
और सुवा, छत्तीसगढ़ जनपद के प्रमुख नृत्य हैं। गोंड़ और बैगा जाति के लोक करमा को
बहुत अधिक महत्व देते हैं, कुल मिलाकार यह एक नृत्य मय उत्सव भी
है। सुवा गीत अथवा नृत्य का महत्व भी लोक परक संगीत की दृष्टि से बहुत
महत्त्वपूर्ण होता है। यह पारिवारिक
प्रसंगों और प्रेम के विविध अनुभवों पर आधारित होता है। कहना होगा कि जातियाँ
जितना ही अधिक नाचतीं और गाती हैं, उनमें जीवन संघर्षो को झेलने की
क्षमता उतनी ही अधिक होती है। इनके सहारे
सामाजिक सम्बन्धों में माधुर्य, दृढ़ता और शालीनता आती है।
इन
पारंपरिक नृत्यों के अतिरक्ति भी छत्तीसगढ़ के जन मनोरंजन के लिए सर्वसुलभ एक
माध्यम है नाचा। इससे बढक़र सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए और कोई साधन
दृष्टिपथ में नहीं आता। इसकी आडम्बरहीनता मन को मुग्ध किये बिना नहीं रहती।
भावमयता का इसमें आधिक्य होता है इसका कथानक दर्शकों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र
होता है। ये कथानक प्राय: सामाजिक हुआ करते हैं। इनसे समाज में प्रचलित मान्यताओं
एवं प्रवृत्तियों पर अ‘छा प्रकाश पड़ता है।
नाचा
के आयोजन के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी पड़ती गाँवों में अक्सर नाचा मंडली पाई
जाती है। इनके कलाकार कुछ तो शौकिया होते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्होंने
इसे जीविकोपार्जन का साधन बना लिया है। विवाह, मड़ई, गणेशोत्सव अथवा किसी भी अवसर पर सामान्य
पारिश्रमिक पर सामान्य से मंडप में नाचा का आयोजन सहज ही हो जाता है। नाचा के
अंतर्गत गम्मत का विशेष महत्व होता है। गम्मतों में हास्य व्यंग्य का पुट निश्चित
रूप से पाया जाता है। प्रहसनात्मक शैली में रचित इन गम्मतों में हजारों लोगों को
खुले आसमान के नीचे रात-रात भर आनंद देने की शक्ति होती है। इनमें स्त्रियों का
अभिनय आज भी पुरुष ही करते हैं। नाचा के अंतर्गत अभिनीत इन गम्मतों का उद्देश्य
विशुद्ध ही नहीं होता बल्कि इनमें अपने परिवेश की ईमानदार अभिव्यक्ति भी मिल जाती
है। अछूतोद्धार, अंधविश्वास, अनमेल विवाह और शोषण जैसी सामाजिक
बुराइयों को इन गम्मतों के कथानक जिस बेलौस तरीके से उघाड़ते हैं, वह
देखते ही बनता है।
विकास
यात्रा के प्रारंभिक चरण में नाचा के प्रति सभ्य नागरिकों की दृष्टि उपहासजनक ही
रही थी परन्तु आज अनेकानेक लोक सांस्कृतिक मंचों के माध्यम से संभ्रान्त समाज में
प्रतिष्ठित हो चुका है। नृत्य और गीतों में जो परिष्कार आया है सर्वत्र उसकी
मुक्तकंठ से प्रशंसा की जा रही है। इस कला के उत्थान की शुरूआत का श्रेय श्री
रामचन्द्र देशमुख को ही दिया जा सकता है। नाचा के अंतर्गत प्रस्तुत की जाने वाली
गम्मतों की कथावस्तु के संदर्भ में पहले कोई आदर्शपरक दृष्टि थी ऐसा नहीं कहा जा
सकता। परंतु अब यह देखा जा रहा है कि इसमें सामाजिक अवस्था और दर्शकों की रूचियों
के अनुसार नये-नये कथानकों का समावेश होता ही रहता है। इस प्रकार यह पारंपरिक
नाट्य शैली इस अंचल की सामाजिक और राजनैतिक जागरूकता का परिचय भली भाँति देती है।
छत्तीसगढ़ी
नाचा में व्यंग्य, विद्रूप और सामाजिक परिवर्तन की भूख का
एक कारण और भी है। जिस तरह निर्गुण परम्परा के संत कवि निम्र जातियों से ही आये थे
और उन्होंने अभिजात कहे जाने वाले समाज के आडम्बरों का भंडा फोड़ किया था ठीक उसी
प्रकार नाचा पार्टियों में भी निम्न वर्ग के लोगों का ही बाहुल्य होता है। विशेष
रूप से देवार नामक घुमक्कड़ जाति के योगदान को किसी भी तरह भुलाया नहीं जा सकता।
इस जाति के लोग निरन्तर संघर्ष की जिन्दगी जीते हैं। समाज में इनका कोई स्थान नहीं
होता। हर दृष्टि से इनका शोषण किया जाता है।
समाज
विशेष के लोग इनकी मेहतन के बल पर ऐश करते हैं। वर्ग भेद की यह खाई आज भी उतनी ही
चौड़ी है जितनी पहले थी। यही कारण है कि नाचा के माध्यम से समाज में पैसे के बल पर
आतंक जमाये रखने वाले लोगों की गलत जिन्दगी का पर्दाफाश किया जाता है।
दुख
इस बात का है कि अभी तक नाचा के कलाकारों का कोई रचनात्मक संगठन नहीं है। यह काम
इतना विस्तृत है कि बिना शासकीय सहयोग के इसमें कोई संतोषजनक स्वरूप दे पाना कठिन
है। छत्तीसगढ़ का यह एक दुर्भाग्य है कि यहाँ के कलाकार अपनी शक्ति और संगठन
क्षमता से अपरिचित हैं, वर्ना आज उनकी स्थिति सामान्य मजदूरों
से भी बदतर न होती। इन कलाकारों में से कइयों के पास रहने को घर नहीं है। जब ये
बीमार पड़ते हैं तो कोई भी इनके उपचार के लिए आगे नहीं आता। यही कारण है कि ये
कलाकार जीवन की विद्रूपताओं को प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं।

फिर
भी नाचा के कलाकार जागरूक हैं। अपनी रुग्ण सामाजिकता से वे अच्छी तरह परिचित हैं
इधर सुपरठित लोगों का ध्यान नाचा की ओर गया है। उसमें अच्छे गीतों तथा कथानाकों का
समावेश हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में नाचा से बढक़र लोक शिक्षण का माध्यम और
कोई नहीं हो सकता। यदि सरकार चाहती है कि गाँव-कस्बे के लोगों को समाजवादी संस्कार
मिले तो नाचा को योजनाबद्ध किया जा सकता है। कलाकारों को समुचित सहायता दी जा सकती है। और अगर इस कला को अपने
हाल पर छोड़ दिया जाता है तो होगा यह कि कोई पंडित हरिजन कन्या से प्रणय निवेदन तो कर देगा, किन्तु
उसके घर जाकर सत्यनारायण की कथा नहीं पढ़ेगा। कोई ठग किसी विधवा को सहज ही नीलामी
में पाँच रुपये देकर खरीद सकेगा। गाँवों
में नकली साधु आते जाते रहेंगे और शोषण की प्रक्रिया अबाध रूप से चलती रहेगी।
छत्तीसगढ़ी
नाचा के कलाकारों में चाहे ठाकुर राम हो अथवा भुलवा, मदन हो अथवा लालू, किस्मत
बाई हो अथवा बासंती, महत्त्वपूर्ण प्रश्न इनके व्यक्तिगत
जीवन का नहीं बल्कि समूचे कला जगत का है। जिन पीड़ाओं से ये गुजर रहे हैं, वह
तकलीफ इस अंचल की रग-रग में पैठी हुई है। इसका उपचार होना ही चाहिए, तब
जाकर यह धरती हरी-भरी हो सकेगी। जीवन और समाज सार्थक हो सकेगा।
नाचा, पूर्णरूपेण
एक जीवन केन्द्रित लोक विधा है। जिस प्रामाणिकता से यह सामाजिक जीवन को प्रस्तुत
करता है, उसमें कहीं किसी ठौर बनावट की कोई गुंजाइश नहीं रहती। मनोरंजन और शिक्षा
का जैसा मणि कांचन संयोग इसमें मिलता है, ऐसा अन्यत्र संभव नहीं है। समाज के
उत्थान पतन को रेखांकित करने वाली यह एक आरसी है। इसके सत्याचरण को चुनौती दे पाना
मुश्किल है, बल्कि कहना होगा कि छत्तीसगढ़ की यह पारंपरिक लोक
कला भविष्य में भी नई सामाजिकता के लिए अपने निर्मम कत्र्तव्यों को पूरा करती
रहेगी।
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