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Jan 18, 2013

उदंती.com-जनवरी 2013

मासिक पत्रिकाः उदंती.com-जनवरी  2013 
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यदि स्त्रीत्व असुरक्षित होगा तो
संसार में जो न हो जाए थोड़ा है।   
- वर्जीनिया वुल्फ

आवरण चित्रः  
वंदना परगनिहा: उदंती के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित यह पेंटिंग पिछले दिनों एमजीएम आई इंस्टीट्यूट में आयोजित नेशनल आर्टिस्ट वर्कशॉप में  चित्रकार वंदना परगनिहा ने बनाया है। यह पेंटिंग उसी दौरान दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड की शिकार पीडि़ता की व्यथा को उसकी मौत के बाद श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पित किया गया है।  इंदिरा संगीत कला विश्वविद्यालय खैरागढ़ से मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स में डिग्री प्राप्त वंदना अपनी पेंटिंग के जरिए नारी की भिन्न-भिन्न मनोदशाओं को अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त हैं। वंदना के बनाए कई अन्य चित्रों को भीतर के पृष्ठों में भी आप देख सकते हैं। वंदना वर्तमान में सेंट्रल स्कूल डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में आर्ट टीचर के रूप में कार्यरत हैं।  संपर्क: 6/बी, 100 यूनिट, नंदिनी नगर, दुर्ग (छ.ग.) मो. 7587326027, Email- parganiha.vandana@gmail.com        
       

तमसो मा ज्योतिर्गमय...



तमसो मा ज्योतिर्गमय...

 -डा. रत्ना वर्मा       
दिल्ली में 23 वर्षीय लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना समूची इंसानियत पर एक बदनुमा दाग है। क्रूर बर्बरता की चरमसीमा इससे अधिक कुछ और हो ही नहीं सकती। शर्म से सिर झुक जाता है कि हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं ;  जहाँ ऐसी घटनाएँ हो रही हैं। दिल दहला देने वाली यह घटना 2012 के नाम पर मानवता के लिए कलंक। पीडि़त लड़की उन राक्षसों से मिले अनगिनत घावों के बावजूद कई दिन तक मौत से लड़ती रही लेकिन अंतत: हार गई।  परंतु उसकी यह हार शरीर की हार है। जिस जिजीविषा के साथ उसने जिंदगी के साथ संघर्ष किया वह इस बात का संकेत है कि वह अपने साथ हुई उस बर्बरता और उस नृशंसता के खिलाफ लडऩे का जज्बा रखती थी। अब इस नए साल में हमारा यह संकल्प होना चाहिए कि उसकी जिजीविषा को जिंदा रखें और उसके साथ हुए जुल्म के खिलाफ लड़ते रहें, तब तक जब तक कि इंसाफ नहीं मिल जाता।  
पूरा देश इस बर्बर कृत्य के विरोध में सड़क पर उतर आया। इस वीभत्स घटना पर देश भर में जैसा गुस्सा उमड़ पड़ा, वह इस बात का संकेत है कि भारत की आम जनता खासकर युवा अब चुप बैठने को तैयार नहीं हैं। बुराई के खिलाफ लोगों का इस तरह जाग्रत होना भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत माना जा रहा है। पर दिल्ली की उसके साथ हुए हादसे के बाद उबले इस गुस्से को देश के लिए अच्छा संकेत जैसा शब्द लिखते हुए हाथ काँप रहे हैं। यह अच्छा संकेत नहीं बल्कि ऐसा गुस्सा, ऐसा उबाल है जो कई बरसों से आम इंसान के दिल में, युवाओं के मन में दबा हुआ था, और जब उसने ऐसी बर्बरता देखी तो उसका खून उबल पड़ा।
लेकिन इस गुस्से को सिर्फ एक मामले तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता, यह गुस्सा पूरी व्यवस्था के खिलाफ है, जो बरसों- बरस एक ही ढर्रे पर चली आ रही है। बदलते समय और बढ़ते हिंसक अपराधों को देखते हुए हमारी कानून- व्यवस्था को नए सिरे से बदले जाने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार जनता के प्रति कितनी संवेदनहीन हो चुकी है और जनता से कितनी कट चुकी है, इसी तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि पूर्ववर्ती राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार करके उनकी हत्या करने जैसे भयंकर जघन्य अपराधों के लिए सुप्रीम कोर्ट से फाँसी की सजा पाए पाँच आरोपियों की दया याचिकाएँ स्वीकार लीं। अँधेर नगरी चौपट राजा....
कानून व्यवस्था की स्थिति पर विचार करने के साथ साथ हमें यह भी सोचना होगा कि भारतीय परिवेश में ऐसी क्रूरता क्योंकर पनप रही है। महिलाएँ  ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रही हैं पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर अपनी काबिलयत साबित कर रही हैं, वैसे-वैसे उन पर अत्याचार, शोषण और बलात्कार जैसी अमानवीय घटनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं। महिला जहाँ आत्मनिर्भर हो कर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है वहीं वह अपने को और अधिक असुरक्षित महसूस कर रही है। पुलिस की बर्बरता का उदाहरण इस मामले में प्रत्यक्ष देखने को मिला और यह पहली बार नहीं है यह हमेशा ही होता आया है- वह ऐसे मामलों की तुरंत प्राथमिकी दर्ज नहीं करता, कोई जख्मी है तो चिकित्सा उपलब्ध नहीं करवाता।  दिल्ली गैंग रेप मामले के बाद इतना अवश्य हुआ है कि जनता के गुस्से को देखते हुए मीडिया ने इस तरह की खबरों को हाशिये पर न रखकर अब प्रमुख खबर के रूप में प्रकाशित करना आरंभ कर दिया है।
तमाम अध्ययनों का यह भी निष्कर्ष है कि समस्या मात्र सख्त कानून का अभाव नहीं, बल्कि कानून को लागू करने वाली एजेंसियों की निष्क्रियता, अभियोग पक्ष और यहाँ तक कि कई बार न्यायपालिका का भी स्त्री-विरोधी रुख और पूरे समाज में बैठी पितृ-सत्तात्मक मानसिकता का भी है। एक अंग्रेजी पत्रिका ने कुछ समय पहले बड़े पुलिस अधिकारियों का स्टिंग आपरेशन कर ऐसे ही मामले को उजागर किया था कि किस तरह पुलिस वाले बलात्कार के लिए खुद पीडि़त महिला को दोषी मानकर चलते हैं। अगर पुलिस वालों की ट्रेनिंग में उन्हें ऐसे सामाजिक मसलों पर संवेदनशील बनाने की कोशिश नहीं होती है, तो चाहे जो भी कानूनी प्रावधान कर लिए जाएँ, उससे अपराधियों को सजा दिलवाने की दर में बढ़ोतरी नहीं होगी।  शर्मनाक असलियत यह है कि देश में  95 हजार से भी अधिक बलात्कार के मामले न्यायालय में लंबित पड़े हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है बहस को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए वरना, क्योंकि एक मामले में अगर शीघ्र न्याय हो भी जाता है, तब भी उससे महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी इसकी क्या गारंटी है।
इस संदर्भ  में पिछले वर्ष समाज में कुछ ऐसी नई सकारात्मक प्रक्रियाएँ देखी गई हैं जो समाज-कल्याण और शासन तंत्र में सुधार के लिए कुछ शुभ संकेत देती हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण सकारात्मक घटना है सरकारी भ्रष्टाचार और तेजी से बढ़ते जघन्य अपराधों के विरुद्ध सुशिक्षित- आम जनता, विशेषतया युवा वर्ग का, हजारों की संख्या में अपनी आत्मा की आवाज पर नगरों और महानगरों में सरकार की अकर्मण्यता के विरुद्ध सड़कों पर उतरना और सरकार पर जवाबदेही के लिए दबाव बढ़ाना। स्पष्ट है कि सुशिक्षित और संस्कारों से समृद्ध वर्ग सरकार की दमनात्मक शक्तियों के भय से मुक्त हो चुका है। अन्ना हजारे के अंदोलन से जन-मानस की चेतना में सरकारी भ्रष्टाचार, दुराचार और अत्याचार के विरुद्ध जो जागरण हुआ है उसी का परिणाम था कि 2012 के अंतिम पखवाड़े का देश-विदेश व्यापी विशाल आन्दोलन जो इस पंक्तियों के लिखे जाने तक भी चल रहा है।
इसमें समाज और सरकारी तंत्र में कई कल्याणकारी परिवर्तन होने के शुभ संकेत हैं। इससे यह भी उजागर हो रहा है कि अभी तक जनतंत्र का अर्थ आम जनता के लिए सिर्फ वोट डालने तक सीमित था अर्थात प्रशासनिक तंत्र  ब्रिटिश राज जैसा ही था जिसमें सरकार की अन्यायपूर्ण हरकतों के विरुद्ध आवाज उठाना राजद्रोह मानकर कुचल  दिया जाता है। पिछले वर्ष के जनान्दोलनों ने स्पष्ट शुभ संकेत दिया है कि अब जनतंत्र की धारणा को जनता चुनावों के बीच के समय में भी शासन और समाज में समग्र रूप से सक्रिय देखना चाहती है। हमें विश्वास है कि जन चेतना में यह शुभ नव जागरण तेजी से हमारे ग्रामीण समाज में भी फैलेगा।
अपने सुधी पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएँ प्रेषित करते हुए हम सभी से विनम्र निवेदन करते हैं कि जन- चेतना में नव जागरण के शुभ कार्य को और अधिक विस्तृत तथा प्रभावशाली बनाने में भरपूर सहयोग करेंगे ,जिससे समाज और प्रशासन में अन्य सुधारों के साथ-साथ समाज में औरतों को औरत होने की सजा मिलनी बंद हो और उन्हें भी समाज में वांछित सुरक्षा और सम्मान मिल सके।
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पिछले माह हमारी समृद्ध संस्कृति के सबसे सक्रिय, विश्व प्रसिद्ध राजदूत और विलक्षण संगीतज्ञ भारत रत्न पंडित रविशंकर जी का अमरीका में स्वर्गवास हो गया।  पंडित जी की पुण्य स्मृति को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।
                                                                                                                  
                                               

धर्म संस्कृति

सनातन आस्था का प्रतीक
प्रयाग कुम्भ 
 - कृष्ण कुमार यादव
 

भारत के ऐतिहासिक मानचित्र पर इलाहाबाद एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है, जिसकी रोशनी कभी भी धूमिल नहीं हो सकती। इस नगर ने युगों की करवट देखी है, बदलते हुये इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है, राष्ट्र की सामाजिक व सांस्कृतिक गरिमा का यह गवाह रहा है तो राजनैतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र भी।  पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस नगर का नाम प्रयाग है। ऐसी मान्यता है कि चार वेदों की प्राप्ति पश्चात् ब्रह्म ने यहीं पर यज्ञ किया था, सो सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया। प्रयाग माने प्रथम यज्ञ। कालान्तर में मुगल सम्राट अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफी प्रभावित हुआ।  उसने भी इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण इलहवास किया अर्थात जहाँ पर अल्लाह का वास है।  परन्तु इस सम्बन्ध में एक मान्यता और भी है कि इला नामक एक धार्मिक सम्राट, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर (अब झूंसी) थी के वास के कारण इस जगह का नाम इलावास पड़ा।  कालान्तर में अंग्रेजों ने इसका उच्चारण  इलाहाबाद  कर दिया। 
इलाहाबाद एक अत्यन्त पवित्र नगर है, जिसकी पवित्रता गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम के कारण है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृति कवियों से लेकर लोकसाहित्य के रचनाकारों तक ने इस संगम की महिमा का गान किया है।  इलाहाबाद को संगमनगरी, कुम्भनगरी और तीर्थराज भी कहा गया है। प्रयागशताध्यायी के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ  हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्जा प्राप्त है। तीर्थराज प्रयाग की विशालता व पवित्रता के सम्बन्ध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियाँ, सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखीं, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा, फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। वस्तुत: गोमुख से इलाहाबाद तक जहाँ कहीं भी कोई नदी गंगा से मिली है उस स्थान को प्रयाग कहा गया है, जैसे-देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रूद्रप्रयाग आदि।  केवल उस स्थान पर जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है प्रयागराज कहा गया। इस प्रयागराज इलाहाबाद के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ, कलुष पुंज कुंजर मगराऊ। सकल काम प्रद तीरथराऊ, बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।। इसी प्रयाग की धरा पर हर बारह वर्ष पर कुम्भ पर्व का भव्य आयोजन होता है।
कुम्भ पर्व सनातन आस्था का प्रतीक है। कुम्भ पर्व हरद्वार, उज्जैन तथा नासिक में प्रत्येक चार वर्ष के अन्तराल में लगता है परन्तु प्रयाग कुम्भ का विशेष महत्व है। प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर प्रत्येक बारह वर्ष के अन्तराल पर यह विश्व प्रसिद्ध पर्व मकर संक्राति से लेकर महाशिवरात्रि तक चलता हैं, जिसमें देश-विदेश से करोड़ों नर-नारी असीम श्रद्धा के साथ पतित-पावनी त्रिवेणी में न केवल स्नान कर अपने पापों एवं कष्टों को धोते हैं, बल्कि ऐसी मान्यता है कि इसके साथ ही विद्वानों के मुखार बिन्दु से अविरल बह रही गंगा में गोता लगाकर अपने जन्म-जन्मान्तर के पापों को नष्ट करते हैं। कुम्भ की भव्यता और मनमोहकता से आकृष्ट हो हजारों विदेशी पर्यटक इस अवसर पर विशेष रूप से आते हैं और कई तो सदा-सदा के लिए यहाँ की आध्यात्मिक रजकणों से अभिभूत हो अपनी भौतिक सम्पन्नता को त्याग कर भक्ति में लीन हो जाते हैं।
सामान्यत: कुम्भ का अर्थ घड़े से होता है परन्तु इसका तात्विक अर्थ कुछ और ही है। कुम्भ हमारी संस्कृतियों का संगम है। कुम्भ एक आध्यात्मिक चेतना, मानवता का प्रवाह एवं शाश्वत जीवन धारा है। भारतीय दर्शन में नदियाँ जल का प्रवाह मात्र नहीं हैं वरन् ये महा चैतन्य रूपी परमात्मा का शाश्वत प्रवाह है। उनका स्वरूप लेाक माताओं के रूप में पूज्यनीय माना गया है। भारतीय संस्कृति में गंगा नदी का प्रमुख स्थान है, जिसके तट पर प्रयाग में कुंभ का आयोजन होता है। वस्तुत: गंगा एक जीवन धारा है। ज्ञान वैराग्य और भक्ति का अमृत संगम में छिपा है जिसमें डुबकी लगाने से इंसान को जीते जी मोक्ष की प्राप्ति होती है। तभी तो कहा गया है-गंगे तव दर्शनात् मुक्ति:।
कुम्भ का यदि हम ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करें तो हमें सनातन काल से मिलता है। सनातन आदि और अनादि है। इसी में समष्टि का बोध निहित है। इसी में हिन्दू संस्कृति, इसी में विश्व की संस्कृति एवं सभ्यताओं का संगम निहित है। यही कारण है कि विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृतियों में भी कुम्भ का उल्लेख एवं आकार हमें प्राप्त होता है। इतना विशाल पर्व एक दिन में तो होने नहीं लगता, शनै:-शनै: वह महान् स्वरूप लेता है। कुछ ऐसा भी कुम्भ पर्व के बारे में हुआ होगा। 644 ईसवी में सम्राट हर्षवर्धन के कार्य काल में प्रयाग का यह महापर्व सर्वाधिक प्रकाश में आया, ऐसी मान्यता है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत का जिस प्रकार से उल्लेख किया है, उससे स्पष्ट है कि उस समय कुम्भ अथवा अर्धकुम्भ का ही समय रहा होगा। हर्षवर्धन द्वारा गंगा स्नान करके अपना सर्वस्व दान कर बहन राजश्री से वस्त्र मांग कर पहनने आदि जैसे वृतान्त प्रयाग के कुम्भ अथवा अर्धकुम्भ की ओर संकेत करते हैं। नवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा दसनामी अखाड़ों का गठन करने, कुम्भ, अर्धकुम्भ पर्वों की नींव डालने की बात भी उभर कर सामने आती है।
कुम्भ पर्व अमृत स्नान और अमृतपान की कामना की बेला है। इस समय गंगा की धारा में अमृत का सतत् प्रवाह होता है। कुम्भ पर्व की मूल चेतना पुराणों में वर्णित है। यह पर्व क्षीरसागर के मंथनोपरान्त प्राप्त हुए अमृत घट के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में सबसे अन्त में धन्वन्तरि अमृतकलश लेकर प्रकट हुए। अमृतकुम्भ पाने की होड़ ने देव-दानव युद्ध का रूप ले लिया। इन्द्रपुत्र जंयत अमृत कलश लेकर उड़ गये। दानवों ने उनका पीछा किया। यह युद्ध 12 दिनों तक चला। देवताओं का एक दिन मानवों के एक वर्ष के बराबर होता है। इस दौरान सूर्य, चन्द्र, गुरु और शनि की कुछ बूँद छलक गई। उन्हीं स्थानों पर ग्रहों के वैसे दुर्लभ संयोग पडऩे पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। इन बारह स्थलों में से आठ पवित्र स्थान देवलोक में हैं और चार (प्रयाग, हरद्वार, उज्जैन, नासिक) पृथ्वी पर हैं। चूँकि इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, चन्द्र, गुरु और शनि सहयोगी की भूमिका में थे अत: कुम्भ पर्व के दौरान इनका संयोग किसी न किसी रूप में बनता है।
विष्णु याग के अनुसार -
माघे मेषगते जीवे, मकरे चन्द्रीभास्करौ।       
अमावस्या तदा योग: कुम्भख्यस्तीर्थ नायके।।
अर्थात् माघ में वृहस्पति के मेष में होने तथा सूर्य और चन्द्रमा के मकर में होने पर अमावस्या को प्रयाग में कुम्भ पर्व होता है।
मकर संक्रान्ति से लेकर वैशाख पूर्णिमा तक चलने वाले प्रयाग कुंभ पर्व में कुछ खास स्नान पर्व होते हैं और तीन शाही स्नान होते हैं- मकर संक्राति (शाही स्नान) (14.01.2013), पौष पूर्णिमा (27.01.2013), मौनी आमावस्या (शाही स्नान) (10.02.2013), वसंत पंचमी (शाही स्नान) (15.02.2013), माघ पूर्णिमा (25.02.2013), महाशिवरात्रि (10.03.2013)। विभिन्ना अखाड़ों के साधु-संत कुम्भ स्थल में एकत्र होते हैं और प्रमुख स्थान पर्व पर वे एक शानदार शोभा यात्रा निकालते हुए पारम्परिक अनुशासन में बँधकर स्नान हेतु स्नान स्थल पर जाते हैं। इन अखाड़ों के प्रमुख महँतों की सवारी सोने-चाँदी तथा अन्य सजावट से सजे हाथी, भव्य रथों और पालकियों पर निकलती है, जिनके आगे-पीछे आकर्षक सज्जा से आच्छादित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड भी होते हैं।
कुम्भ प्रयाग ही नहीं विश्व का सबसे बड़ा स्वत: स्फूर्त आयोजन है। कुम्भ सिर्फ मानवीय आयोजन नहीं बल्कि एक दैवीय और आध्यात्मिक महोत्सव है। कुम्भ ऐसा पर्व है जहाँ मानव का देव से सीधे साक्षात्कार होता है, शारीरिक-मानसिक व्याधियों से मुक्ति मिलती है। ग्रह-नक्षत्रों के सहयोग तथा गंगा और संतों पर उमडऩे वाली आस्था कुम्भ रूपी सृष्टि जीवनदायी अमृत का बोध कराती है।
  संपर्क:  निदेशक डाक सेवाएँ, इलाहाबाद परिक्षेत्र,
     इलाहाबाद (उ.प्र.)-211001,  मो. 08004928599    
Email- kkyadav.y@rediffmail.com  http:/kkyadav.blogspot.in/, http:/dakbabu.blogspot.in/