हर बार
स्त्री ही दोषी?
-डॉ. जेन्नी शबनम
अजीब होती है हमारी ज़िदगी। शांत सुकून देने वाला दिन बीत रहा होता है कि
अचानक ऐसा हादसा हो जाता की हम सभी स्तब्ध हो जाते हैं। हर कोई किसी न किसी
दुर्घटना के पूर्वानुमान से सदैव आशंकित और आतंकित रहता है । कब कौन-सा वक्त देखने
को मिले कोई नहीं जानता न भविष्यवाणी कर सकता है। कई बार यूँ लगता है जैसे हम सभी
किसी भयानक दुर्घटना के इंतज़ार में रहते हैं,
और जब तक ऐसा कुछ हो न जाए तब तक उस पर विमर्श और बचाव के उपाय भी
नहीं करते हैं। कोई हादसा हो जाए तो अखबार, टी.वी, नेता, आम आदमी सभी में सुगबुगाहट आ जाती है । हादसा
खबर का रूप अख्तियार कर जैसे हलचल पैदा कर देता है। किसी भी घटना का राजनीतिकरण
उसको बड़ा बनाने के लिए काफी है और उतना ही ज़रूरी घटना पर मीडिया की तीक्ष्ण
दृष्टि। छोटी से छोटी घटना मीडिया और नेताओं की मेहरबानी से बड़ी बनती है तो कई
बड़ी और संवेदनशील घटनाएँ नज़रंदाज़ किए जाने के कारण दब जाती है। कई बार लगता है
जैसे न सिर्फ हमारी ज़िन्दगी दूसरों की मेहरबानियों पर टिकी है बल्कि हम अपने
अधिकार की रक्षा भी अकेले नहीं कर सकते। सरकार, कानून,
पुलिस के होते हुए भी हम असुरक्षित हैं और अपनी सुरक्षा के लिए
दूसरों पर निर्भर।
रोज़-रोज़ घटने
वाली एक शर्मनाक और क्रूर घटना फिर से घटी है। भरोसा एक बार फिर टूटा है इंसानियत
पर से। दिल्ली में घटी दिल दहला देने वाली बलात्कार की घटना सिर्फ एक सामान्य
दुर्घटना नहीं है ; बल्कि मनुष्य की हैवानियत
और जातीय हिंसा का क्रूरतम उदाहरण है और स्त्री जाति के साथ किया जाने वाला क्रूरतम
विश्वासघात। आम जनता, पुलिस,
मीडिया, सरकार, राजनेता,
सामाजिक कार्यकर्ता सभी सदमे और सकते में हैं। कोई सरकार को दोष दे
रहा है तो कोई पुलिस को, क्योंकि सुरक्षा देने में दोनों ही
नाकाम रही है। कोई औरतों के जीने के तरीके को इस घटना से जोड़ कर देख रहा है तो
कोई सांस्कृतिक ह्रास का परिणाम कह रहा है। कारण और कारण जो भी हो ऐसी शर्मनाक और
घृणित घटनाएँ रोज़-रोज़ घट रही हैं और हम सभी बेबस हैं। ऐसी हर दुर्घटना न सिर्फ औरत
के अस्तित्व पर सवाल है बल्कि समस्त पुरुष वर्ग को कटघरे में खड़ा कर देती है ;
क्योंकि बलात्कार ऐसा वीभत्स अपराध है जिसे सिर्फ पुरुष ही करता है।
पुरुष की मानसिक विकृति का ही परिणाम है कि जन्म
से ही स्त्री असुरक्षित होती है और पुरुष को संदेह से देखती है। कुछ खास पुरुष की
मानसिक कुंठा या मानसिक विकृति या रुग्णता के कारण समस्त पुरुष जाति से घृणा नहीं
की जा सकती और न इस अपराध के लिए कसूरवार ठहराया जा सकता है। हर स्त्री किसी न
किसी की माँ, बहन,
बेटी होती है और हर पुरुष किसी न किसी का पिता, भाई, बेटा; फिर भी ऐसी पार्श्विक
घटनाएँ घटती है । मनुष्य की अजीब मानसिकता है कि हर बलात्कारी अपनी माँ बहन बेटी
की सुरक्षा चाहता है और उसकी माँ बहन बेटी उसको इस अपराध की सज़ा से बरी करवाना
चाहती है ।
बलात्कार की शिकार
स्त्री तमाम उम्र खुद को दोषी मानती है और हमारा समाज भी। वो एक तरफ शारीरिक और
मानसिक यातना की शिकार होती है तो दूसरी तरफ समाज की क्रूर मानसिकता का। समाज उसे
घृणा की नज़र से देखता है और उसमें ऐसी कितनी वज़हें तलाशता है जब उस स्त्री का
दोष साबित कर सके। समाज की सोच है- पुरुष तो ऐसे होते ही हैं स्त्री को सँभल के
रहना चाहिए। अब सँभलना में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं, इसे कोई परिभाषित नहीं कर पाता। स्त्री का रहन-सहन,
पहनावा, चाल-ढाल सदैव उसके चरित्र के साथ जोड़
कर देखा जाता है। पुरुष की गलती की सज़ा स्त्री भुगतती है। कई बार तो घर का ही
अपना कोई सगा बलात्कारी होता है। जिस उम्र में कोई लड़की ये नहीं जानती कि स्त्री
पुरुष क्या होता है, ऐसे में अगर बलात्कार की शिकार हो तो
फिर दोष किसका? क्या उसका स्त्री होना?
हमारे देश में
कानून की लचार प्रणाली अपराधों के बढ़ने में सहूलियत देता है। किसी भी तरह का
अपराधी आज कानून से नहीं डरता है। कई सारे अपराधी ऐसे हैं जो सबूत और गवाह के अभाव
में बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं और पीड़ित को इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। कई बार
आजीवन सश्रम कारावास की सज़ा पाया कैदी जेल में शान का जीवन जीता है। जेल में भोजन, वस्त्र तो मिलता ही है बीमार होने पर सरकारी खर्चे
पर इलाज भी और घर वालों से मिलते रहने की छूट भी। और अगर जो लाग-भाग वाला अपराधी
है तब तो जेल का कमरा उसके लिए साधारण होटल के कमरे की तरह हो जाता है जहाँ टी.वी,
फ्रीज, फोन और पसंद का खाना सभी कुछ उपलब्ध हो
जाता है।
बलात्कारी को
मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा देना निश्चित ही कम है ; क्योंकि मृत्यु तो
सारी समस्याओं से निजात पाने का नाम है। बलात्कार जैसे पशुवत् व्यवहार के लिए न तो
मृत्युदंड पर्याप्त है न आजीवन कारावास। बलात्कारी को क्या सज़ा दी जाए जो ऐसे
अपराधी मनोवृत्ति के लोगों पर खौफ़ के कारण अंकुश लगे, ये सोचना और अंजाम देना ज़रूरी है। हमारे देश में
फाँसी की सज़ा देकर भी फाँसी देना मुनकिन नहीं होता। न जाने कितने मामले क्षमा
याचना के लिए लंबित पड़े रहते हैं। सबसे पहली बात कि जब एक बार अपराध साबित हो गया
और फाँसी की सज़ा मिल गई तो उसे क्षमा याचना के लिए आवेदन का अधिकार ही नहीं मिलना
चाहिए। और फाँसी भी सार्वजनिक रूप से दी जाए, ताकि कोई दूसरा ऐसे अपराध करने के
बारे में सोच भी न सके। बलात्कारी को फाँसी देने से ज्यादा उचित होगा कि उसे
नपुंसक बना कर सार्वजनिक मैदान में सेल बनाकर फाँसी के दिन की लंबी अवधि तक रखा
जाए ताकि हर आम जनता उसे घृणा से देख सके। शारीरिक पीड़ा देने से ज्यादा ज़रूरी है
मानसिक यातना देना ताकि तिल-तिल कर उसका मरना सभी देख सके और कोई भी ऐसे अपराध के
लिए हिम्मत न कर सके।
डर और खौफ़ के साये
में तमाम उम्र जीना बहुत कठिन है, पर हर स्त्री ऐसे ही जीती है और उसे जीना ही होती है। सरकारी शब्दावली में
ख़ास जाति में जन्म लेने वाला दलित है जबकि वास्तविक रूप में मनुष्य की सिर्फ एक
जाति दलित है, और वो है स्त्री; चाहे
किसी भी जाति या मज़हब की हो। दलित और दलित के अधिकारों की बात करने वाले हमारे
देश में सभी को इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि आखिर दलित है कौन? क्या औरत से भी बढ़कर कोई दलित है?
संपर्क:
द्वारा राजेश कुमार
श्रीवास्तव द्वितीय तल 5/7
सर्वप्रिय विहार नई दिल्ली- 110016 फोन न. 011-26520303
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