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Mar 18, 2010

उदंती.com- मार्च 2010


वर्ष 2, अंक 8, मार्च 2010
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स्त्रियों की अवस्था में सुधार न होने तक विश्व के कल्याण का कोई मार्ग नहीं। किसी पक्षी का एक पंख के सहारे उडऩा निंतांत असंभव है।
-स्वामी विवेकानंद
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अनकही: समानता का अधिकार

समानता का अधिकार


भारत में इस समय महिलाएं राष्ट्रपति, अध्यक्ष लोकसभा, अध्यक्ष कांग्रेस पार्टी, नेता विपक्ष लोकसभा, मुख्यमंत्री, उच्च न्यायलयों में जज सरीखे कई उच्च पदों पर आसीन हैं। विदेश मंत्रालय की विदेश सचिव और भारतीय सेना के लिए अंतर- महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र के निर्माण की निदेशक महिलाएं ही हैं। जिस किसी उच्च पद पर महिलाओं को अवसर दिया गया है वे उसे कुशलता से बखूबी निभा रही हैं। गत वर्ष के भारतीय प्रशासनिक सेवा के परिणामों में प्रथम तीन स्थनों पर महिलाएं ही सफल हुईं हैं। स्कूल कालेजों की वार्षिक परीक्षाओं में लड़कियों के परीक्षा फल हर वर्ष लड़कों से बेहतर होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि स्त्रियों में बौद्धिक प्रतिभा पुरुषों के समान ही होती हंै। परंतु क्या ये तथ्य इस बात का भी प्रमाण है कि हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समतुल्य हो गई है?
वास्तव में देखें तो हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय बनी हुई है। उपरोक्त उच्च पदों पर महिलाओं का होना तो बिलकुल वैसा ही है जैसे किसी टूटी- फूटी जर्जर दीवार पर रंगीन आकर्षक पोस्टर चिपकाना और इसे हमारे समाज में स्त्री के सामाजिक स्तर में उन्नति का द्योतक होने का प्रचार करना तो जले पर नमक छिड़कने जैसा है। वास्तविकता में हमारा समाज आज भी बहुत ही मजबूत पुरुष प्रभुत्व की जंजीरों में जकड़ा है और इसमें स्त्रियों की स्थिति आज भी बहुत कुछ खूंटे में बंधी मूक दुधारु गाय जैसी ही है।
इस संदर्भ में वल्र्ड इकानामिक फोरम द्वारा लिंग समानता पर किए गए विश्वव्यापी अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार भी उपरोक्त स्थिति की पुष्टि होती है। इसके अनुसार जिन 130 देशों में यह अध्ययन किया गया है उनमें भारत का स्थान 113 वां है अर्थात स्त्रियों के सबसे निचले स्तर वाले 20 देशों में। ताज्जुब की बात तो यह है कि बंगलादेश और संयुक्त अरब अमीरात का नाम भारत से ऊपर है। इस अध्ययन में सभी देशों के समाज में स्त्रियों की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के अवसर तथा राजनीतिक स्थिति में हुई प्रगति का आकलन करके, देशों को सूची में क्रमबद्ध किया गया है। स्त्रियों का सामाजिक स्तर सर्वोत्तम नार्वे में पाया जाता है अत: नार्वे को इस सूची में प्रथम स्थान प्राप्त है। इसी प्रकार एक अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरपार्लियांमेंट्री यूनियन द्वारा विश्व भर के देशों में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति का जो सर्वेक्षण किया गया है उसके अनुसार तो भारत का स्थान 99वें नंबर पर आता है।
उक्त अध्ययनों के अनुसार अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और जीवित रहने की उम्र के पैमाने पर भारतीय स्त्रियों की स्थिति इन सभी देशों के मुकाबले सबसे खराब है। इस शर्मनाक स्थिति का कारण है अधिकांश भारतीय स्त्रियों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का उपलब्ध न होना। भारत में प्रसव के दौरान प्रत्येक एक लाख में 450 स्त्रियों की मृत्यु हो जाती है। यह दर विश्व में सबसे ऊंची है। हमारे यहां स्त्रियां पुरुषों से सिर्फ एक वर्ष अधिक जीवित रहती हंै। जबकि विश्व के अधिकांश देशों में स्त्रियां पुरुषों से औसतन 5 से 7 वर्ष ज्यादा उमर तक जीवित रहती हैं। यहां अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं तो दूर की बात है, ग्रामीण क्षेत्र में अधिकांश स्त्रियों को प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं तक प्राप्त नहीं हैं।
अध्ययन में पिता और माता के अधिकार की भी तुलना भी की गई है जिसमें हमारे समाज को सबसे निम्न श्रेणी में रखा गया है। परिवार में मां की दुर्गति का प्रमाण है हमारे देश में विशेषतया पंजाब, हरियाणा और गुजरात जैसे समृद्ध राज्यों में कन्याओं की धड़ल्ले से भ्रूण हत्या, जिसके कारण स्त्री- पुरुष अनुपात अवांछित रुप बिगड़ चुका है। इससे यह भी स्पष्ट है कि समाज में सिर्फ आर्थिक प्रगति से स्त्रियों की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। पुरुष प्रभुत्व की दमनात्मक गतिविधियों का एक और प्रमाण है कन्याओं की भ्रूण हत्या और परिवार की इज्जत के नाम पर युवतियों की हत्या और दहेज हत्या। हमारे समाज में पुरुष प्रभुत्व से उत्पन्न ये ऐसे कलंक हैं जिनके कारण स्त्रियों की भारतीय समाज की सबसे निचली श्रेणी में गणना होना उचित ही है।
इमानदारी की बात तो यह है कि हमारी आधी आबादी अर्थात स्त्रियां वास्तव में एक दलित वर्ग हैं। दलित जातियों के लिए तो संविधान निर्माताओं ने चिंता की है और उनकी प्रगति के लिए संवैधानिक प्रावधान किए। लेकिन देश के सबसे बड़े दलित वर्ग यानी स्त्री के पारंपरिक दमन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। दहेज विरोधी, कन्या भू्रण हत्या प्रतिबंध, घरेलू हिंसा इत्यादि से संबंधित कानून बनाने जैसी कुछ कागजी कार्रवाई अवश्य की गई हैं, लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था के सभी अंगों के भ्रष्टाचार से ग्रसित होने के कारण इनके तहत कोई कार्रवाई होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ये कानून फटे कपड़ों में थिगड़े लगाने जैसे हैं। ऐसा ही पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों द्वारा संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत स्थान सुरक्षित करने का आम चुनाव के समय चलाया जाने वाला मखौल भी है। वैसे राज्यसभा में महिलाओं के आरक्षण संबंधित संविधान संशोधन पास तो हो गया लेकिन जिस परिप्रेक्ष्य में हुआ वह बहुत ही गंदा था, जो भारतीय समाज में स्त्रियों की सोचनीय स्थिति का एक और प्रमाण है। राज्य सभा में संविधान संशोधन का पास होना पहला कदम है, इसके वांछित रूप में कारगर होने की प्रक्रिया बहुत लंबी है। देखना है, यह कब पूरी होती है।
किसी भी देश के आर्थिक और सामाजिक रुप से समृद्ध होने के लिए आवश्यक है शिक्षा और स्वास्थ्य जिसमें उनका खान- पान भी शामिल हैं जैसी आवश्यक सुविधाएं समान रुप से सुलभ हों। एतएव भारतीय स्त्रियों के वर्तमान स्थिति से उबरने के लिए आवश्यक है कि अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं (विशेषतया ग्रामीण क्षेत्र में) के लिए सरकारी बजट में वांछित प्राथमिकता दी जाए। जब हमारे देश के सभी नर- नारी समान रुप से सुशिक्षित और स्वस्थ होंगे तभी वे एक समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे।


- रत्ना वर्मा

चुटकियों में बड़ी- बड़ी गणनाएँ

भारत में कम ही लोग जानते हैं, पर विदेशों में लोग मानने लगे हैं कि वैदिक विधि से गणित के हिसाब लगाने में न केवल मज़ा आता है, उससे आत्मविश्वास मिलता है और स्मरणशक्ति भी बढ़ती है।
वैदिक गणित के माध्यम से हम गणित को रोजमर्रा की जिंदगी में मौज मस्ती की तरह शामिल कर सकते हैं। वैदिक गणित हमारी अपनी प्राचीन गणित है जिसके माध्यम से हम मात्र कुछ क्षणों में अपने कठिन से कठिन सवाल का हल पा सकते हैं, लेकिन हम किसी भी तरह की गणना के लिए पूरी तरह से कैल्कुलेटर के आदी हो गए हैं, जो कि पश्चिम जगत की खोज है। अगर हम अतीत में जाएं, तो वह काल न तो कंप्यूटर का था न कैल्कुलैटर का, आज से सैकड़ों साल पहले के समय की जो बात हमारे दिमाग में सबसे पहले आती है वह है वैदिक काल। हमारे चार वेद हैं, और वैदिक गणित अथर्ववेद का ही एक भाग है।
जर्मनी में सबसे कम समय का एक नियमित टेलीविजऩ कार्यक्रम है- विसन फ़ोर अख्त। हिंदी में अर्थ हुआ 'आठ के पहले ज्ञान की बातें। देश के सबसे बड़े रेडियो और टेलीविजऩ नेटवर्क एआरडी के इस कार्यक्रम में हर शाम आठ बजे होने वाले मुख्य समाचारों से ठीक पहले, भारतीय मूल के विज्ञान पत्रकार रंगा योगेश्वर केवल दो मिनटों में ज्ञान- विज्ञान से संबंधित किसी दिलचस्प प्रश्न का सहज- सरल उत्तर देते हैं। रंगा योगेश्वर कहते हैं कि भारत की क्या अपनी कोई अलग गणित है? वहां के लोग क्या किसी दूसरे ढंग से हिसाब लगाते हैं?
भारत में भी कम ही लोग जानते हैं कि भारत की अपनी अलग अंक गणित है, जी हां वैदिक अंकगणित। पर भारत के स्कूलों में वह शायद ही पढ़ायी जाती है। भारत के शिक्षा शास्त्रियों का भी यही विश्वास है कि असली ज्ञान-विज्ञान वही है जो इंग्लैंड- अमेरिका से आता है।़
हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि बगदाद के राजा ने उज्जैन के एक विद्वान को अपने यहां विज्ञान और गणित पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया था। उस राजा ने कई भारतीय पुस्तकों का अरबी में अनुवाद भी करवाया। इसके बाद यही पध्दति 11 वीं शताब्दी में यूरोप जा पहुंची। एक इस्लामिक विद्वान अल-बरुनी भारतीय विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत आया। भारत में वह तीस साल तक रहा और उसने कई किताबें भी लिखी, जिसमें से हिसाब-ए-हिंदी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है। जगतगुरू शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ महाराज ने वर्ष 1911 से 1918 तक वैदिक गणित पर शोध किया और इसे पुर्नस्थापित किया।
हमारे यहां एक प्रसिद्ध कहावत है न कि घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध। लेकिन आन गांव वाले अब भारत की वैदिक अंक गणित पर चकित हो रहे हैं और उसे सीख रहे हैं। बिना कागज़- पेंसिल या कैल्क्युलेटर के मन ही मन हिसाब लगाने का उससे सरल और तेज़ तरीका शायद ही कोई है। रंगा योगेश्वर ने जर्मन टेलीविजऩ के दर्शकों को एक उदाहरण से इसे समझाया:
'मान लें कि हमें 889 में 998 का गुणा करना है। प्रचलित तरीके से यह इतना आसान नहीं है। भारतीय वैदिक तरीके से उसे ऐसे करेंगे: दोनों का सब से नज़दीकी पूर्णांक एक हजार है। उन्हें एक हज़ार में से घटाने पर मिले 2 और 111। इन दोनों का गुणा करने पर मिलेगा 222। अपने मन में इसे दाहिनी ओर लिखें। अब 889 में से उस दो को घटायें, जो 998 को एक हज़ार बनाने के लिए जोडऩा पड़ा। मिला 887। इसे मन में 222 के पहले बायीं ओर लिखें। यही, यानी 887 222, सही गुणनफल है।'
अब यह तो माना ही जाता है कि यूनान और मिस्र से भी पुराना है हमारे भारत का गणित- ज्ञान। शून्य और दशमलव तो भारत की देन है ही, कहते हैं कि यूनानी गणितज्ञ पिथागोरस (पाइथागोरस) का प्रमेय भी भारत में पहले से ज्ञात था।
यह दुर्भाग्य की बात है कि भारत में 90 प्रतिशत लोग इस जादुई गणित से परिचित नहीं है। वैदिक विधि से बड़ी संख्याओं का जोड़- घटाना और गुणा- भाग ही नहीं, वर्ग और वर्गमूल, घन और घनमूल निकालना भी संभव है। अब आप चौंकिएगा मत भारत भले ही अपने इस गणित को भूल गया हो पर इंग्लैंड, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बच्चों को वैदिक गणित सिखाने वाले स्कूल भी खुल गये हैं।
वैदिक गणित की तुलना अगर यूसी मैथ्स से की जाए तो हम पाते हैं कि विद्यार्थी एबैकस की मदद के बिना यूसी मैथ्स नहीं सीख सकते। एबैकस वह उपकरण है जिसका आविष्कार चीन में हुआ है और इसमें कुछ बिंदुओ का प्रयोग किया जाता है। दूसरी बात इसको सीखने में ज्यादा समय (कुछ सप्ताह) लगता है। इसको विस्तार से सीखने में यानि भाग देना, गुणा करना, आदि सीखने में कई और सप्ताह लग जाते हैं। जबकि वैदिक गणित में तो किसी भी विद्यार्थी को इसके बुनियादी सिध्दांतों को ही सीखना होता है और उसे गणित के सवाल के अनुसार जोड़, घटाव, गुणा भाग से लेकर वर्ग, वर्गमूल, और घनमूल निकालने में प्रयोग में लाना होता है।
ऑस्ट्रेलिया के कॉलिन निकोलस साद वैदिक गणित के रसिया हैं। उन्होंने अपना उपनाम 'जैन' रख लिया है और ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स प्रांत में बच्चों को वैदिक गणित सिखाते हैं। उनका दावा है: 'अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा गोपनीय तरीके से वैदिक गणित का कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले रोबोट बनाने में उपयोग कर रहा है। नासा वाले समझना चाहते हैं कि रोबोट में दिमाग़ की नकल कैसे की जा सकती है ताकि रोबोट ही दिमाग़ की तरह हिसाब भी लगा सके... उदाहरण के लिए कि 96 गुणे 95 कितना हुआ....9120Ó। कॉलिन निकोलस साद ने वैदिक गणित पर किताबें भी लिखी हैं। बताते हैं कि वैदिक गणित कम से कम ढाई से तीन हज़ार साल पुरानी है। उस में मन ही मन हिसाब लगाने के 16 सूत्र बताये गये हैं, इन सूत्रों को आप चाहें तो एक तकनीक या ट्रिक भी कह सकते हैं। कई लोग तो इसे जादुई ट्रिक भी कहते हैं। हम इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कह सकते हैं वैदिक गणित वह विधा है जिसकी मदद से हम सवाल में ही छुपे जवाब का पता लगा सकते हैं।
साद अपने बारे में कहते हैं- 'मेरा काम अंकों की इस चमकदार प्राचीन विद्या के प्रति बच्चों में प्रेम जगाना है। मेरा मानना है कि बच्चों को सचमुच वैदिक गणित सीखना चाहिये। भारतीय योगियों ने उसे हजारों साल पहले विकसित किया था। आप उनसे गणित का कोई भी प्रश्न पूछ सकते थे और वे मन की कल्पनाशक्ति से देख कर फट से जवाब दे सकते थे। उन्होंने तीन हजार साल पहले शून्य की अवधारणा प्रस्तुत की और दशमलव वाला बिंदु सुझाया। उनके बिना आज हमारे पास कंप्यूटर नहीं होता।' साद उर्फ जैन ने मानो वैदिक गणित के प्रचार- प्रसार का व्रत ले रखा है: 'मैं पिछले 25 सालों से लोगों को बता रहा हूं कि आप अपने बच्चों के लिए सबसे अच्छा काम यही कर सकते हैं कि उन्हें वैदिक गणित सिखायें। इससे आत्मविश्वास, स्मरणशक्ति और कल्पनाशक्ति बढ़ती है। इस गणित के 16 मूल सूत्र जानने के बाद बच्चों के लिए हर ज्ञान की खिड़की खुल जाती है'।
यह बात तो मानी हुई है कि किसी समस्या का समाधान खोजने का तरीका जितना सरल होगा, आप उतनी ही जल्दी उसे हल कर सकेंगे और इसमें गलती होने की संभावना भी कम से कम होगी। (संकलित)

चीनी और महँगाई की जुगलबंदी


- अविनाश वाचस्पति
इस शताब्दी का सबसे बड़ा त्योहार महंगाई है और हर त्योहार पर हावी है। इसने अपनी भरपूर जुगलबंदी से त्योहारों की ऐसी की तैसी कर रखी है बट विद डेमोक्रेसी। बिना डेमोक्रेसी के राष्ट्र में तो पत्ता तक नहीं हिलता, कहना समीचीन नहीं होगा क्योंकि राष्ट्र कोई पेड़ नहीं है बल्कि यूं कहा जाएगा कि नेता और पब्लिक बिन डेमोक्रेसी बेचैन रहती है।
होली से ठीक पहले फिजा में चीनी के ऐसे रंग की बरसात हो रही है जो चीनी को मीठा होने से रोक रही है। रंग भरपूर हों पर मिठास न मौजूद हो तो होली होते हुए भी आनंद नहीं देती है। होली होली होती है। होली डायबिटिक नहीं होती। होली ऐसा रंग है जो बेरंग नहीं है पर हालात यह हैं कि प्रत्येक त्योहार पर बेरंगीनियत भीतर तक रंग कर गई है। बेरंगीनियत का यह जश्न मन के भावों में समाने वाला नहीं है। यह तो मन में जश्ने- रंग की बलात् घुसपैठ है। होली पर मनमाफिक रंग और सिर्फ पसंदीदा ही सुहाते हैं। होली में भरपूर मिठास के समावेश के सबब बनते हैं। रंग ही होली को मिलन बनाता है, इसे अनुभूति के सुखद संसार में ढालता है और इसे अनंत इन्द्रधनुषीय विस्तार देता है।
होली तो मन के रोम- रोम को बींधती है। होली खेलना इसके खुलने के अहसास का उल्लसित होना है, न कि खुजलाहट का सबब बनना है। उल्लास को समेटने के लिए बिखरना और खुलना-खिलना ऐसी शर्तें हैं जिनका पूरा होना नितांत जरूरी है बिना किसी प्रकार के अंत के मतलब बेअंत। होली होली ही रहे- दिवाली न बने। होली का दिवाली होना- भाता नहीं है और दिवाला होना तो दीवाली का भी नहीं सुहाता।
राजनेताओं का तो हर पल होली खेलते हुए बीतता है। किसी भी साथी को किसी भी जानवर का नाम दे देते हैं। अब यहां पर उल्लू और उसके प_ों की बादशाहत डांवाडोल हो गई है और हरे पीले नीले लाल रंग के सांप फनफना रहे हैं, फुफकार रहे हैं। इस मुगालते में रहकर कि आपके इस प्रकार के रहस्योद्घाटन से पब्लिक आपके बारे में भी अपनी वैसी ही राय कायम नहीं करेगी, जबकि ऐसा ही होता है। आप जो चश्मा पब्लिक को पहनाते हो तो फिर उसी चश्मे से आपको भी देखा जाता है। यह कटु सत्य है जिससे बचना संभव नहीं है। आपको अब बस अपने देखने के नजरिये को एक नये संदर्भ में देखना होगा। अगर नजरिया बदलोगे तो राजनीतिज्ञों की हर रात को ही दीवाली सा चमकीन (चमकता हुआ) पाओगे और अपने उजालों को भी अमावस्या के अंधेरों से सराबोर।
इस बात से असहमति नहीं की जा सकती है कि होली और दीवाली की यह प्रवृत्ति दिनोंदिन पब्लिक के लिए घातक बनती जा रही है और उसे छलती जा रही है। दिन दोगुना और रात हजारगुना यानी हर पल यह जोखिम बढ़ रहा है। होली में दिवाली की चमकीनता और दीपावली पर होली की रंगीन पर संगीन उत्सवीय जंग अपनी विशिष्टता में विकसित हो रही है। इस रंग की पहुंच से पब्लिक तो बाहर ही है।
चीनी के साथ होली पहले ही खेली जा रही है। नेताओं के साथ होली तो साल भर चालू रहती है। वही कभी दीवाली बन जाती है कभी होली और अब तो शेयर बाजार भी अपने निवेशकों के साथ होली खेलन में सिद्धहस्त हो गया है। इस बार की होली राजधानी के रिक्शाचालकों के लिए मनमाफिक रंग में आई है। रिक्शावालों पर मस्ती छाई है।
मिलावट की करवट ने जिंदगी के प्रत्येक पायदान को, सेहत तक को पहले ही अपनी चपेट से, अपने चंगुल में कस रखा है और चाहे कितना ही कसमसाया जाये पर मिलावट की यह ऊंटिया करवट हलचलविहीन ही रहती है। उस शिला के माफिक जिसका पब्लिक की सेहत की कीमत पर रोजाना शिलान्यास होता है। पब्लिक बेबसी से इसकी अभ्यस्त हो चुकी है।
कामनवेल्थ गेम्स के आयोजन के मद्देनजर सड़कों पर वाहन हर समय जाम की होली खेलते दिखलाई दे रहे हैं। इस जाम की सरेआम मस्ती से लुटते हुए सब इस पर चिंता तो प्रकट करते हैं पर चिंतित नहीं होते। चिंता प्रकट करना समस्या के उपर से ही बिना सरसराये ही गुजरना है- यहां सरसराहट की आहट भी नहीं होती है। अगर चिंतित होते तो इस जाम का और अधिक विकास न होने देते। जाम का विकास न होने से परोक्ष तौर पर देश का विकास रूकता है जबकि जाम के विकास में राष्ट्र का विकास समाहित है।
इस शताब्दी का सबसे बड़ा त्योहार महंगाई है और हर त्योहार पर हावी है। इसने अपनी भरपूर जुगलबंदी से त्योहारों की ऐसी की तैसी कर रखी है बट विद डेमोक्रेसी। बिना डेमोक्रेसी के राष्ट्र में तो पत्ता तक नहीं हिलता, कहना समीचीन नहीं होगा क्योंकि राष्ट्र कोई पेड़ नहीं है बल्कि यूं कहा जाएगा कि नेता और पब्लिक बिन डेमोक्रेसी बेचैन रहती है। महंगाई एक ऐसा त्यौहार है जो अपनी ऊर्जास्विता से चैन का संचार करता है। न चाहते हुए भी हम सब यही चाहते हैं कि महंगाई का त्योहार मनाया जाता रहे। हर समय हाहाकार करने में तल्लीन रहते हैं। कभी पगार में बेतहाशा बढ़ोतरी की चाह करके और कभी ...।
जिस प्रकार पहले राशन कार्ड पर सस्ती चीनी मुहैया कराई जाती रही है। अब सबकी चाहना है सस्ती चीनी चाहे न मिले पर तनख्वाह भरपूर बढ़े, चाहे ख्वामखाह ही बढ़े पर इतनी बढ़े कि लाखों के सैलेरी पैकेज भी छोटे ही नजर आते रहें। हमारी इन्हीं बलवती इच्छाओं के बलबूते पर महंगाई के फल, फूल रहे हैं और फुला रहे हैं। एक बानगी देखिये सब्जी सेलर (गौर कीजिएगा) सब्जियों का उत्पादन करने वाले मेहनतकश किसान नहीं, उगाने वालों हाथों से उपयोग करने वालों हाथों तक पहुंचाने की एवज में महंगाई अपना त्योहार अपनी विराटता में मनाती है। महंगाई को मसलने- कुचलने के जितने उपक्रम किए जाते हैं उनका असर हमारे जिस्म और जेब पर होता है। जेब हमारी मसली जा रही है और जिस्म कुचला जा रहा है। महंगाई की सभी चालें खूब होली खेल रही हैं और दिवाला निकाल रही हैं। महंगाई के इस त्रिकोणीय मेल से कोई अछूता नहीं रहा। छूत के रोग को छूट (सेल) में तब्दील होने से कोई नहीं रोक सका। महंगाई के उत्सव का यही जलवा हलवे का स्वाद दे रहा है और हलवे को मिठास देने के लिए इसमें डाला गया चीनी का प्रत्येक कण चीख- चीखकर संभवत: यही घोषणा कर रहा है कि कौन कहता है कि चीनी में अंकुर नहीं फूट सकते, आप एक बार हमें गमले में बोकर तो देखो। जब हमारा जिक्र करके वोट बैंक में भी अंकुर फूट आते हैं तो हमारे उपजाऊपन पर संदेह भरी नजर क्यों?

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टमाटर फायदा ही फायदा


खून का थक्का रोकने में कारगर है टमाटर के बीजों का रस। बुजुर्गो के इस कथन कि टमाटर खाने से चेहरे पर लाली आती है को अब वैज्ञानिक आधार भी मिल गया है। भारतीय मूल के एक शोधकर्ता ने अपने ताजे शोध में बताया कि टमाटर के बीजों से तैयार रस रक्तवाहिनियों में थक्का जमने से रोकता है। इससे हार्ट अटैक एवं स्ट्रोक का खतरा कम हो जाता है। रक्तवाहिनियों में बनने वाला खून का थक्का रक्त के बहाव में रुकावट पैदा करता है, जिससे हार्ट अटैक और स्ट्रोक जैसी गंभीर बीमारियों का खतरा पैदा होता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक एस्पिरिन की अपेक्षा टमाटर के बीजों का रस इन बीमारियों की रोकथाम में ज्यादा कारगर साबित होता है। खून को पतला बनाने के लिए लाखों लोग एस्पिरिन का सेवन करते हैं। एस्पिरिन से आंतरिक रक्तस्राव का खतरा बढ़ जाता है। शोध के मुताबिक टमाटर के बीजों का रस का सेवन आंतरिक रक्तस्राव के खतरे को कम कर देता है। टमाटर के इस्तेमाल का जहां महज 18 घंटे में असर दिखाता है, वहीं एस्पिरिन से ठीक होने में 10 दिन लगते हैं। टमाटर व एस्पिरिन दोनों प्लेटलेट्स को नियंत्रित करते हैं। खून का थक्का जमने के लिए प्लेटलेट्स ही जिम्मेदार होते हैं। धूम्रपान, खून में कोलेस्ट्रॉल के उच्च स्तर और तनाव के कारण प्लेटलेट्स के आकार में ऐसे बदलावों से थक्के जमने की आशंका बढ़ जाती है।
यह तो हुई टमाटर के बीज के फायदे लेकिन पूरा का पूरा टमाटर ही हमारे भोजन के सर्वाधिक लाभदायक पदार्थों में से एक है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के अनुसार टमाटर अनेक प्रकार के कैंसरों से हमारी सुरक्षा करता है, जिसमें छाती और गले के कैंसर प्रमुख हैं। केवल 100 ग्राम टमाटर से 0.9 ग्राम प्रोटीन, 0.2 ग्राम वसा और 3.6 ग्राम कार्बोहाइड्रेट प्राप्त हो जाते हैं। इसमें रेशों की मात्रा ब्राउन ब्रेड के एक स्लाइस के बराबर होती है और आयरन की मात्रा एक अण्डे की तुलना में पांच गुनी। साथ ही इससे हमें पोटेशियम और फासफोरस भी प्राप्त होते हैं। हरे टमाटर की तुलना में लाल टमाटर को ज्यादा फायदे देने वाला बताया गया है, क्योंकि लाल टमाटर को तलने पर वह लाइकोपीन को अच्छे से आब्जर्व कर लेता है। खास बात है कि टमाटर को तेल में तलने के बावजूद उसके न्यूट्रिएंट्स खत्म नहीं होते। टमाटर में पोटाशियम, नियासिन, विटामिन बी6 और फॉलेट होते हैं, जो दिल की सेहत के लिए बेहद जरूरी हैं। तो अब आप जब भी टमाटर खरीदने जाएं, तो लाल टमाटर ही चुनें। इनमें बीटा कैरोटिन व आईकोपीन की मात्रा बहुत अधिक होती है।
वैसे, अगर आप अपना वजन कम करने के बारे में सोच रहे हैं, तो भी टमाटर आपके लिए फायदेमंद होगा। इसमें फाइबर ज्यादा व कैलरीज कम होती हैं, जो वजन घटाने में मदद करती है। इसमें मौजूद बीटा कैरोटिन भी शरीर के लिए बेहद फायदेमंद है। दरअसल, यह बॉडी में विटामिन ए में बदल जाता है और यह तो सभी जानते हैं कि विटामिन ए त्वचा, बालों, हड्डियों व दांतों को मजबूत रखने के लिए कितना जरूरी है।
आयुर्वेद में भी टमाटर को अत्यंत लाभकारी बताया गया है। इसमें अंगूर और संतरे की अपेक्षा अधिक विटामिन होते हैं। पथरी, खांसी, आर्थराइटिस, सूजन या मांसपेशियों के दर्द में टमाटर के सेवन का निषेध किया गया है।

कन्या भ्रूण हत्या वाले प्रदेश में


जहां कन्याओं का होता है सम्मान
-निरूपमा दत्त
गुरदासपुर व अमृतसर जिलों में, जिनकी सीमा पाकिस्तान से मिलती है, ग्रामीण लड़कियों के लिए यह विद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में विलक्षण प्रयोग है। महिलाओं की शिक्षा व सशक्तिकरण में इसके दूरगामी प्रभाव इस बात से प्रकट होते हैं कि यह विद्यालय उस राज्य में आधारित है जहां कन्या भ्रूण हत्या का बोलबाला है और जहां यौन अनुपात- प्रति हजार पुरूषों के पीछे स्त्रियों की संख्या देश में सबसे कम है।

पंजाब के गुरदासपुर जिले के उडोवल गांव की हरप्रीत कौर उम्र 18 वर्ष, ने पहले बाबा आया सिंह रेरकी कॉलेज तुगलवाला के बारे में अपने चचेरी बहिन से सुना था। हरप्रीत याद करती है- 'मेरी चचेरी बहिन, जिसने वहां पढ़ा है, वहां के सुखी व सरल जीवन- शिक्षा के माध्यम से सीखे गए उच्च मान्यताओं के बारे बताती रहती है। इसलिए मेरी भी वहां जाने की इच्छा हुई।'
हरप्र्रीत ने दसवीं के बाद इस स्कूल में प्रवेश ले लिया और अभी वह ग्रेजुएशन कर रही है। हरप्र्रीत एक उत्साही छात्रा है जो अपनी कक्षा की सचिव भी है, वह कहती है- 'मैं बी.ए. फिर अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. के बाद यहां एक अध्यापिका के रूप में रहना चाहूंगी।
गुरदासपुर व अमृतसर जिलों में, जिनकी सीमा पाकिस्तान से मिलती है, ग्रामीण लड़कियों के लिए यह विद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में विलक्षण प्रयोग है। महिलाओं की शिक्षा व सशक्तिकरण में इसके दूरगामी प्रभाव इस बात से प्रकट होतेे हैं कि यह विद्यालय उस राज्य में आधारित है जहां कन्या भ्रूण हत्या का बोलबाला है और जहां यौन अनुपात (प्रति हजार पुरूषों के पीछे स्त्रियों की संख्या) देश में सबसे कम है। यह कॉलेज जो एक ट्रस्ट द्वारा चलाया जाता है, 1934 से आरम्भ हुआ जब बाबा आया सिंह नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता ने तुगलवाला मे 'पुत्री पाठशाला' (गल्र्स स्कूल) की स्थापना की। उन्होंने एस.के.डी. हाई स्कूल को भी 1939 में स्थापित किया। कॉलेज ने वस्तुत:, अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष 1975 से काम करना प्रारम्भ किया।
प्रधानाचार्य 64 वर्ष के स्वर्ण सिंह विर्क, याद करते हुए कहते हैं कि ऐसे समाज में जो अपनी बेटियों को शिक्षा देने में आना- कानी करता है कॉलेज ने कई प्रारम्भिक चुनौतियों को झेला हैं। 'लड़कियों के लिए शिक्षा के महत्व पर गांव- गांव अभियान चलाने के बाद, मुझे 34 छात्राओं का आश्वासन मिला जिसमें से 20 छात्राएं आश्वासन से पलट गईं बाकी रह गई 14 छात्राओं से हमने इसे आरम्भ किया। इन लड़कियों ने प्रेप (ग्यारहवीं के बराबर) व ज्ञानी (पंजाबी भाषा की परीक्षा) की परीक्षा दी व सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त किया।
आज स्कूल के पास आवश्यक संख्या में अध्यापक हैं तथा यह विद्यालय पंजाब माध्यमिक शिक्षा परिषद सेे सम्बद्ध है। कॉलेज के छात्र स्नातक व उत्तर- स्नातक परीक्षा के लिए निजी रूप से बैठते हैं। सब मिलाकर, यहां 3, 500 लड़कियों (निवास तथा केवल दिन में पढऩे हेतु) को कक्षा छ: से उत्तर-स्नातक स्तर तक अध्ययन के लिए प्रवेश मिला है।'
यह रूचिपूर्ण है कि शिक्षा शुल्क मात्र रू. 800 सालाना है। खाने व रहने का खर्च सालाना रू. 5,500 है। किसी अनुदान के अभाव में, कॉलेज ने अपने सीमित साधनों व स्वत: चलाने के तरीकों के प्रबन्धन में उत्कृष्ट कौशल का प्रदर्शन किया है। विद्यार्थियों के बैठने के लिए घर मे बुने कम्बल या दरी का प्रयोग किया जाता है। डेस्क व बैंच का प्र्रयोग परीक्षा में किया जाता है। कॉलेज में छ: अध्यापक हं, जो वरिष्ठ कक्षाओं को पढ़ाते हैं। शेष कक्षाओं को वरिष्ठ छात्र 'हर एक' 'एक छात्र' की विचार धारा से पढ़ाता हैं। इससे दूसरे अध्यापक को रखने के खर्च में ही कमी नहीं आती बल्कि विद्यार्थी- प्र्राध्यापक में जिम्मेदारी व विश्वास की भावना पनपती है।
विर्क बताते हैं, 'हम बिना सहायता के काम चलाएंगे। हम सूरज के प्रकाश का उपयोग करके बिजली की बचत करते हैं। हमारा ईंधन का कोई खर्च नहीं है क्योंकि हमारा अपना बायो-गैस प्लान्ट है।' कॉलेज में लिखने की सामग्री का सहकारी भण्डार व जनरल स्टोर विद्यार्थियों को लगभग 50 प्रतिशत तक की छूट देता है तथा लगभग रू. 150,000 की बचत कर पाता है। इस बचत का उपयोग कॉलेज में पढ़ रहे 150 अनाथ बच्चों को सहारा देने में होता है।
सभी शिष्यों को श्रम की महिमा व परिसर की सफाई से लेकर 12 के दलों में खाना पकाने व भोजनालय वाटिका के काम करना होता है। सभी विद्यार्थियों को उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य के लाभ के बारे में बताया जाता है। यह सभी काम विद्यार्थी स्वयं ही संभालते हैं।
आप कभी तुगलवाला जाइए, आप देखेंगे कि सैकड़ों युवा लड़कियां अपनी सफेद पोशाक में हर किसी काम को आसानी से कर लेती हैंं। संस्थान के विशाल द्वार पर दो छात्राएं तैनात हैं, जो आगंतुकों का नाम व पता लिखती हैं। छात्राओं का एक दल दिन का भोजन तैयार कर रहा है। सुखमीत कौर 18 वर्ष बी.ए. अंतिम वर्ष व अपनी कक्षा की सचिव, विस्तार से बताती है- 'आज दिन के भोजन में करी है। लड़कियां ही सहमति से भोजन की सूची तैयार करती हैं। हम अधिकांश वही सब्जियां व दाल प्रयोग करती हैं जो विद्यालय के 8 एकड़ के फार्म में उगाया जाता है।' लड़कियों को पूर्ण भोजन दिया जाता है व उनका दिन स्कूल की अपनी डेरी से प्राप्त चाय पत्ती के साथ उबले भैंस के दूध के पूरे गिलास से आरम्भ होता है।
उत्कृष्टता का ऊंचा स्तर उनकी पढ़ाई में भी है। कॉलेज को अपने छात्रों के परीक्षा में बेदाग परीक्षाफल के इतिहास पर गर्व है, क्योंकि यहां नकल करने का एक भी मामला नहीं है। हरशरन सिंह परीक्षक कहते हैं-'परीक्षक व नकल जांचकर्ताओं को यहां तैनात किया जाता है, लेकिन उनके पास प्रश्न पत्र बांटने के अलावा कोई अन्य कार्य नहीं होता।' विद्यालय ने परीक्षकों के लिए रू. 21,000 की नकद पुरस्कार राशि नकल पकडऩे के लिए रखी है। हर वर्ष इस इनाम को लेने वाला कोई नहीं होता। तथापि कॉलेज के लिए वास्तविक इनाम उनके परीक्षार्थियों का लगभग 100 प्रतिशत उत्तीर्ण होने का इतिहास है, इनमें से कम से कम 50 प्रतिशत परीक्षार्थी तो प्रथम श्रेणी प्राप्त करती हैं।
एक ऐसा राज्य जिसका हॉकी में लगाव है, सबसे उत्साहजनक सूचना इसके परिसर में हॉकी का मैदान है। विर्क बताते हैं- 'हम लड़कियों को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय हॉकी की खेल प्रतियोगिताओं के लिए तैयार करेंगे।'
धर्म का अध्ययन, सिख धर्म पाठ्यक्रम का अंग है, बच्चों को सभी धर्मों का सम्मान करने की शिक्षा दी जाती है और स्कूल के गलियारे विविध पुराणों के आदर्श वाक्यों से भरे हैं। अभी यह संस्था केवल कला विज्ञान के विषयों को पढ़ाती है लेकिन आने वाले समय में अन्य विधाओं को भी शामिल करेगी। विर्क कहते हैं कि- 'हम अपनी शाखाओं को अपने प्रयास से बढ़ाऐंगे, यदि कर सके। सम्बद्धता से अधिक धन, सहायता तो मिलेगी लेकिन इससे हम धन को सर्वोपरि मानने वाले संस्थाओं में शामिल हो जाएंगे, जो हम होना नहीं चाहते,'। अभी कॉलेज गुरू नानक देव विश्वविद्यालय (जी.एन.डी.यू.) के न्यायाधिकार में आता है लेकिन इससे सम्बद्ध नहीं है, क्योंकि यह नियमित संस्था नहीं है। परीक्षार्थी इस विश्वविद्यालय की परीक्षा देने के लिए निजी आवेदन करते हैं।
दोपहर बाद का समय- छात्राएं कॉलेज परिसर में फैले खो- खो (पारम्परिक भारतीय टीम खेल) खेल रही हैं, खुशी से चारों ओर दौड़ रही हैं, या लोक संगीत गा रही हैं। कुछ विविध अन्तर- कक्षा संगीत, पेन्टिंग, व सार्वजनिक भाषण प्रतियोगिता का अभ्यास कर रही हैं, अन्य हाथ से चार्ट व विभिन्न उत्सवों के लिए निमंत्रण पत्र तैयार करने में व्यस्त हैं। यह उत्सव स्कूल में होते हैं व प्राय: अन्तर- विद्यालय होते हैं। तुगलवाला कॉलेज की लड़कियां बाहर अन्तर- विद्यालय उत्सवों के लिए जाती हैं।
विद्यालय का परिसर विश्वास व खुशी के प्रचुर भाव फैलाता प्रतीत होता है, सभी विद्यार्थी-निवासी या दैनिक छात्र जो अपने गांव या शहर से बस में यहां आते हैं- विद्यालय के कार्यक्रमों में पूरे दिल से भाग लेते प्रतीत होते हैं।
सुखमीत कौर बौपुरिया उम्र18 वर्ष जो बी.ए. अंतिम वर्ष की छात्रा है व्यक्त करती है- 'हाल ही में मनप्रीत कौर ने एक प्रसिद्घ राष्ट्रीय समाचार चैनल के फिल्मिंग सदस्यों से बताया कि उसने नकल करने की आदत, जो वह पिछले विद्यालय में किया करती थी छोड़ दी है। जब समाचार के प्रस्तुतकर्ता ने उसे फटकार लगाई कि कैमरे के सामने नकल करने की धोखाबाजी की बात करते हुए उसको शर्म आनी चाहिए, मनप्रीत ने तुरन्त उत्तर दिया, 'जब मैं नकल कर रही थी तब मुझे शर्म आनी चाहिए थी, न कि अब जब मैं अपनी गलती स्वीकार करके उसको सुधार रही हूं'। विश्वास व्यक्त करने का तुगलवाला तरीका है।
विद्यालय की सराहना केवल इसके विद्यार्थी ही नहीं वरन वरिष्ठ शिक्षाविद भी करते हैं। जैसे जय रूप सिंह, जी.एन.डी.यू. के कुलपति, अपनी परख बताते हैं, 'तुगलवाला कॉलेज में आना मेरे लिए एक नवीन व अनूठा अनुभव रहा है। यहां विद्यार्थी पढऩे के साथ- साथ काम भी करते हैं। दूसरी संस्थाओं को इससे शिक्षा लेनी चाहिए।'
(विमेन्स फीचर सर्विस)

बैगाः हौसला देने का प्रयास

-डॉ. परदेशीराम वर्मा
छत्तीसगढ़ी आदिवासी अपने विशेष धर्म के बंधे हैं। पंरपराएं भी अपनी ही हैं। जो एक समुदाय और दूसरे समुदाय को जोड़ती भी हैं और कुछ विशेषताओं और विलक्षण सीमाओं के कारण एक दूसरे से उन्हें अलग भी करती हैं।
यह प्रसन्नता की बात है कि जनजातियों की चिंता अब प्राय: हर देश की सरकारें कर रही हैं। आमजन में जनजाति के संबंध में विशेष जानकारी अब पहुंच रही है। तरह-तरह की व्यर्थ स्थापनाओं से जनजातियों के संबंध में जो भ्रांतियां गढ़ी गई थीं वे खत्म हो रही हैं। जनजातियों के संदर्भ में डॉ. मजूमदार का कहना है कि 'जनजाति परिवारों या परिवारों के संकलन का एक समूह होता है जिसका एक सामान्य नाम होता है। जिसके सदस्य एक निश्चित भू-भाग में रहते हैं, सामान्य भाषा बोलते हैं, और विवाह व्यवसाय या उद्योग के विषय में कुछ निषेध का पालन करते हैं।'
जनजातियों का जीवन व्यापार, भाषा, संस्कृति से अंतर्सम्बधित रहा है। हमारे देश में गोंड़, संथाल, भील, ओरांव, मीना, मुंडा, खोंड, हो, नागा तथा बैगा जनजातियां भिन्न-भिन्न अंचलों में निवास करती हैं। जहां नागा आदिवासी अपने शरीर सौष्ठव में ग्रीक देवताओं की तरह सुदर्शन, दृष्ट-पुष्ट और गोरे होते हैं, वहीं अन्य आदिवासी जातियां लगभग एक ही देहयष्टि की होती हैं। मजबूत और मझोला कद हर कहीं एक समान पाया जाता है।
नागा आदिवासियों के बीच मिशन के कार्यकर्ता डेढ़ शताब्दी पूर्व जा पहुंचे थे, संभवत: इसीलिए नागा और मीजो आदिवासियों का झुकाव इसाई धर्म की ओर अधिक हुआ। छत्तीसगढ़ में भी इसाई धर्म का व्यापक प्रभाव आदिवासियों के बीच है, लेकिन अधिकांश छत्तीसगढ़ी आदिवासी अपने विशेष धर्म के बंधे हैं। पंरपराएं भी अपनी ही हैं। जो एक समुदाय और दूसरे समुदाय को जोड़ती भी हैं और कुछ विशेषताओं और विलक्षण सीमाओं के कारण एक दूसरे से उन्हें अलग भी करती हैं। एक समूह दूसरे समूह से कुछ व्यवहारों में अलग भी रहती हैं। कंगला मांझी ने 52 आदिवासी पिछड़े समूहों को रेखांकित कर एक करने का अभियान चलाया। संस्कारों, विवाह पद्धतियों के बीच सरल समन्वय बनाने के प्रयास में वे सफल भी हुए।
छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में बैगा आदिवासी काफी पिछड़े हुए हैं। कवर्धा क्षेत्र में बैगा जनजाति की संख्या पर्याप्त है। कवर्धा पहले दुर्ग जिले का फिर राजनांदगांव जिले का हिस्सा था। अब स्वतंत्र जिले के रूप में उसका विकास हो रहा है। विगत : वर्षों में कवर्धा जिले में विकास की गति बढ़ी है। शहर से भोरमदेव को जोड़ता हुआ एक पुल वहां इसी वर्ष बना है। इससे 5किलोमीटर की दूरी कम हो गई है। प्रतिवर्ष भोरमदेव में आयोजित महोत्सव भी देश भर का ध्यान आकृष्ट कर रहा है। भोरमदेव का मंदिर अत्यंत खूबसूरत पुरातात्विक स्थल है। चारों ओर पहाडिय़ों से घिरे एक समतल जगह पर तालाब के किनारे स्थित मंदिर की सुन्दरता देखते ही बनती है।
इन्हीं पहाडिय़ों की गोद में ही बैगा आदिवासियों के छोटे- छोटे गांव हैं। जहां विकास की टिमटिमाहट धीरे- धीरे पहुंच रही है। अंधेरे में डूबे उन गांवों की चिंता गैरसरकारी संगठनों को भी सरकार से कम नहीं है। सदैव कुछ गैरसरकारी संगठनों ने आदिवासियों के लिए परिणाम- परक पहल कर इतिहास रचा है।
इस वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर कवर्धा जाकर बैगा आदिवासियों से मिलने का अवसर मुझे भी मिला। चिल्पी और आसपास के वनक्षेत्र में बसे गांवों से पहली बार आदिवासी बच्चे कवर्धा लाये गये। बच्चों ने पहली बार बस में चढऩे का आनंद लिया। कवर्धा की सड़कों में उनकी रैली निकली। बच्चे तख्ती लिए हुये थे जिसमें नारा लिखा था-
जंगल हमर दाई ,शेर हमर भाई
इस नारे में ही वन्य जीवन की विशेषता और समकालीन दौर की पेचीदगी का सूत्र है। जंगल मां है और जंगल के वन्य प्राणी भाई बहन हैं। यह बात वनवासी ही सोच सकता है। वन्य प्राणियों के खात्मे का इतिहास बताता है कि वनवासियों को, वन्य जीवों को शहरों में रहने वाले अर्थ पिपासु लोगों ने ही समाप्ति की ओर धकेला है। वन्य जीव तो प्रतिरोध नहीं कर सके लेकिन वनवासी अब प्रतिरोध कर रहा है। बहुत कुछ खोकर वह उठ खड़ा हुआ है। संभवत: इसीलिए शहर के लोग भी इसधमाके और जागरण का अनुनाद सुन रहे हैं। कवर्धा की सड़कों पर बैगा बच्चों की रैली से एक अच्छी शुरुवात हुई है। उन्हें देखकर दिनकर की पंक्तियां याद हो आईं...
सदियों की ठंडी, बुझी आग सुगबुगा उठी,मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।26 जनवरी 1950 को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रकवि ने उल्लसित व्यथित और संकल्पित होकर इस कविता का लेखन किया था। इसमें अदृश्य शोषण का वर्णन भी है। प्रत्यक्ष हमलों के बारे में वर्णन है।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख,मंदिरों, राजप्रसादों में तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर मिट्टी तोड़ रहे,देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में।
आदिवासी बच्चे छत्तीसगढ़ी से अधिक अपनी भाषा में सहजता महसूस करते हैं। वे उसी तरह छत्तीसगढ़ी समझते हैं जिस तरह हिन्दी माध्यम से हाईस्कूल पास व्यक्ति अंग्रेजी समझ पाता है। लेकिन कोशिश करने पर भी बोल नहीं पाता। स्कूली शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम में वनक्षेत्रों की बोलियों को क्यों महत्व दिया जा रहा है, इसे हम ऐसे अवसरों पर ही समझ पाते हैं।
गांवों के बच्चे शहर आकर खुश तो थे मगर उनकी आंखों में झांकने पर यह दर्द झलकता था कि रोशनी उनके गांवों तक कब पहुंचेगी। यह संयोग ही है कि वे पहिली बार गणतंत्र परेड में शहर आये। जब देश की आबादी मात्र तैंतीस करोड़ थी तब दिनकर ने जो लिखा था
कि ...
सबसे विराट जनतंत्र जगत का पहुंचा
तैतीस कोटि -- सिंहासन तय करो,अभिषेक आज राजा का नहीं प्रजा का है,तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुठ धरो।
भोले महाकवि ने कल्पना की, कि हर मानुष के सिर पर मुकुट धर दिया जाय। मगर 60 वर्ष बाद हम देख रहे हैं कि फिर देश भूखा है। खाने के लाले पड़ गए हैं। पुन: हरित क्रांति हो यह देश की महामहिम राष्ट्रपति कहती हैं।
पूंजीवादियों ने देश के समस्त स्रोत को अपनी जेबों में कैद करने का षडय़ंत्र किया। एक करोड़ लोग ही देश में आसमान में उन्मुक्त उड़ते हैं। शेष तो केवल चिल्लाकर रह जाते हंै कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
पूंजीवादी वर्चस्वकामी तंत्र कुशल लोग जानते हैं कि जनता इसी तरह चिल्लाती रहेगी और वे एक करोड़ की खुशी के लिए काम करते हुए उन पर राज करते रहेंगे।ऊंच-नीच, गरीब अमीर का अंतर बढ़ा है तो छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या का घाव भी लाइलाज सा हो रहा है। नक्सल समस्या आदिवासीजन की भूख, गरीबी, असुरक्षा, अपमान और गुस्से से परवान चढ़ी है। जब तक उपरोक्त भावों के मर्म को नहीं समझा जाएगा नक्सल समस्या रूपी नदी को सुखाया नहीं जा सकेगा। रूक- रूक कर आने वाली इस नदी की बाढ़ में जनतंत्र और शासन के नुमाइंदे भी बहते से लगेंगे।
अच्छा है कि कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं आदिवासियों के गांवों तक अपने प्रयास से पहुंचाती रही हैं। इन्हीं लोगों ने आशा जगाकर हमें हौसला देने का प्रयास किया है।
भोरमदेव जंगल रिट्रीट के सत्येन्द्र उपाध्याय ने भोरमदेव में तीन एकड़ में स्वाभाविक स्थल का विकास किया है जहां सैलानी रूकते हैं। अत्यंत मनोरम स्थल पर बना यह जंगल रिट्रीट मन को सुकून देता है। जंगल रिट्रीट तथा कुछ अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं ने वृक्षारोपण, वन्यप्राणी संरक्षण समय-समय पर चिकित्सा शिविर, सामाजिक सम्मेलन आदि के संयोजन का बीड़ा भी उठाया है। इससे आदिवासियों के बीच उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। आदिवासी जन उनके करीब आये हैं। बैगा या अन्य वनवासीजन प्रकृति के संरक्षक रहे हैं। वन्य प्राणियों के मित्र आदिवासी मनोरंजन के लिए आखेट नहीं करते। ये अमूल्य जड़ी बूटियों के जानकार भी हैं। सुखेन वैद्य के साथ ही जिस तरह संजीवनी बूटी का रहस्य चला गया उसी तरह बहुत सारी दुर्लभ जड़ी बूटियों की पहचान मिट जाएगी अगर हम प्रयास कर इसे समझ लें।
वनों में प्लास्टिक झिल्ली का प्रकोप भी बढ़ रहा है जिससे वन्य प्राणी जीवन को खतरा बढ़ रहा है। शहर जंगल पहुंच कर अपना विष वहां फैला रहा है। वन का शोषण कर शहर लाभ तो लेता है मगर बदले में जंगल को जहर लौटाने का प्रयास करता है। यह सिलसिला बंद हो, यही प्रयास कुछ जंगल रिट्रीट जैसी संस्थाएं कर रही हैं। आशा है, इनके प्रयासों को शासकीय सेवक और शासन की योजनाओं के नियंता भी सम्बल देकर और आगे बढऩे के लिए प्रेरित करेंगे।
यह समय है कि सत्ता, शासन और आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक मजबूती के गुमान में इतरा रहा वर्ग सजग बन जाए और दिनकर जी की चेतावनी का अर्थ समझे...
हुंकारों से महलों की नींद उखड़ जाती,सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
संपर्क - एल आई जी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाई 490009 (..) मो. 98279 93494