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Mar 17, 2010

आई टी ओ पुल

- डॉ. मुक्ता
सूखे उजाड़ मैदान के बीच की घास सोमा के पैरों तले डंक मार रही थी। लिपस्टिक, कटे बाल और परफ्यूम के बीच उसका कस्बा कहां से पकड़ में आ गया? आंखों से या रेवेलॉन के तेज ब्रांज शेड के बीच की पतली सुरंग से निकलने वाली आवाज से। वही आवाज जो उसे जमीन और आसमान से बेदखल करती रही है। न वह कस्बे की बन पाई है न महानगर की। अब तो यह आवाज उसके लिए भी अजनबी है।

लसाई पसरी औरत का फूला पेट देखते ही सोमा चौंकी। झुग्गी-झोपडिय़ों की कतारें, उजड़ा सूखा मैदान। पंडारा रोड का यह रास्ता नहीं ...
'किधर लिए जा रहे हो?' सोमा का धैर्य चुक गया। 'सुनाई नहीं दे रहा ... मैं पूछ रही हूं कहां जा रहे हो... मुझे पंडारा रोड जाना है। तुम ऑटोवालों की घुमाने की आदत है... मीटर बढ़ जाएगा किराया वसूल करोगे... लेकिन मेरे साथ यह बेईमानी नहीं चलेगी।'
'किसने बेईमानी की है? बेईमानी कहने का तुम्हें कोई हक नहीं है।' ऑटो चालक की आंखों से आग बरस रही थी।
'हक कैसे नहीं है? एक तो चोरी ऊपर से सीनाचोरी। हम दिल्लीवाले हैं और अखबार वाले हैं... हमारे साथ यह सब नहीं चलेगा...' सोमा की नसें तनने लगीं।
'तुम झूठ बोल रही हो, तुम दिल्ली की नहीं हो। तुम हमारे देश की हो।' ऑटोचालक के तेवर पिघलने लगे। 'हम भी नए हैं ... हमें रास्ता नहीं मालूम... हमने सोचा तुम्हें मालूम है... लेकिन शायद तुम्हें भी नहीं मालूम... चलो आगे पूछ लेते हैं...'
सोमा चुप थी। उसने ऑटो चालक का मुआयना किया। अधेड़ उम्र। नाटे कद का गठा शरीर। चेहरे पर अधपके बालों का झुरमुट। सूखे उजाड़ मैदान के बीच की घास सोमा के पैरों तले डंक मार रही थी। लिपस्टिक, कटे बाल और परफ्यूम के बीच उसका कस्बा कहां से पकड़ में आ गया? आंखों से या रेवेलॉन के तेज ब्रांज शेड के बीच की पतली सुरंग से निकलने वाली आवाज से। वही आवाज जो उसे जमीन और आसमान से बेदखल करती रही है। न वह कस्बे की बन पाई है न महानगर की। अब तो यह आवाज उसके लिए भी अजनबी है। ऑटोवाले ने अचानक ही आज उसे बेनकाब कर दिया 'तुम इस शहर की नहीं।' अखबारवाली भी वह कहां रह गई है? इस जुमले का इस्तेमाल उसने धमकाने के लिए किया था। यह सच है कि उसका अखबार से गहरा रिश्ता था। वह प्रतिबद्ध पत्रकार थी। लेकिन यह सब बीते समय की बातें हैं। कितना बड़ा छद्म वह जी रही है। प्रशांत के घुंघराले सीने में सिर छुपाने का मोह वह तोड़ नहीं पा रही। प्रशांत ऐसी धुरी बन चुका है जिसकी परिधि में वह लहूलुहान घूम रही है ... घूमती जा रही है।
'स्टॉप इट सोमा। यह 'हम' यहां दिल्ली में नहीं चलेगा। 'मैं' कहो ... कितना गंवार सा लगता है। 'हम'। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तराशी हुई जुबान की जरूरत है। शब्दों को केवल बोलना नहीं है उन्हें सहलाना है, खेलना है उनसे ...।'
'प्रशांत, मुझसे नहीं होगा यह सब... मेरा मिशन पत्रकारिता है। महिलाओं, बच्चों के शोषण के विरुद्ध मैं लिखना चाहती हूं। उनकी चुप्पी को ध्वनि देना चाहती हूं... मैं जाऊंगी, पूछूंगी सत्ताधारियों से -कब तक चलेगा यह सब ... कब तक?'
'गुड आइडिया, तुम लिखो, नेताओं से मिलो। बहुत कम लोगों तक पहुंचती है तुम्हारी कलम लेकिन तुम्हारी आवाज पूरे देश तक पहुंचेगी। मैं पहुंचाऊंगा, भरोसा है न मुझ पर।'
प्रशांत के सीने से लगकर सोमा आजादी के बिंब आईने में निहार रही थी। बेंत के फ्रेम में जड़ा यह शीशा सोमा के कस्बे का था। प्रशांत जब भी आता आईने के सामने कई कोण से खड़े होकर अपनी सूरत निहारता। आईना उसकी प्यास थी जिसे वह घूंट-घूंट पीता। सोमा के लिए आईना आकाश का वह टुकड़ा था जिसमें समाकर वह परी बन जाती। आजाद, उन्मुक्त उड़ानें भरती। उसके सामने होती ऐसी धरती जहां चीखें नहीं, कराहें नहीं, बंजर भूमि नहीं, केवल दूर-दूर तक फैली पीली सरसों है।
अकबरपुर के एक छोटे से साप्ताहिक पत्र से सोमा ने लिखना शुरु किया था। पिता की बैंक में अच्छी नौकरी थी। छोटा भाई पढ़ रहा था। मां-पिताजी दोनों की इच्छा थी सोमा आगे बढ़े। सोमा के लेखों की चर्चा पूरे कस्बे में थीं। माता-पिता और साप्ताहिक पत्र के संपादक कुलभूषण जी के प्रोत्साहन का परिणाम था कि सोमा दिल्ली आ गई। कुलभूषणजी की अच्छी खासी मित्र मंडली दिल्ली में थी। सोमा को काम मिलने में आसानी हुई। पत्रकारिता के क्षेत्र में उसकी अपनी पहचान बनने लगी। बंगाली मार्केट में एक साझे कमरे में उसने ज्योति के साथ रहना शुरु दिया। ज्योति प्रेस फोटोग्राफर थी। ज्योति के कई मित्रों में प्रशांत भी एक था। प्रशांत कैमरामैन था, छोटे पर्दे का कैमरामैन। टीवी के प्राइवेट चैनल्स के अतिरिक्त दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण के कार्यक्रमों में वह प्रोड्यूसर्स के साथ काम करता था लेकिन वह रंगमंच से भी जुड़ा था। वैसे तो प्रशांत साधारण नाक-नक्श का आकर्षक युवक ता लेकिन रंगमंच पर होनेवाली बहसों में वह और भी मोहक हो जाता। सोमा ने उसे रंगमंच पर गैलीलियो की भूमिका में देखा। छितरे बाल, वहशी आंखों से सूर्य को ललकारने वाला जादूगर। वह आसक्त हो उठी। प्रशांत भी ज्योति से अधिक सोमा में रूचि लेने लगा। वह सोमा की आदतों से लेकर रूप तक में निखार लाने की कोशिश करता। सोमा के साथ वह भविष्य की रूपरेखा बनाता। वह सतर्क था। सोमा की प्रतिभा, रूप और कलम का वह भरपूर उपयोग करना चाहता था। सोमा के अंदर ज्वार उमड़ रहा था। समाज को बदलने, नए ढंग से गढऩे का सपना। एक-एक इंच जमीन के कोलतार को वह संगमरमर में बदलने को तत्पर थी। झुलसती दोपहर मीलों चलकर श्रमिक महिलाओं से बातचीत करती। उसे हैरानी होती ठेकेदार सुबह सौ का नोट ईंट के बीच टांग देता। मजदूरों के दो गुट उस नोट को पाने की ललक में काम में मुर्गों जैसे भिड़ जाते। शाम होते ही वह नोट वापस ठेकेदार की जेब में चला जाता। खाने को रोटी नहीं है लेकिन पूरे दिन गारा ढोनेवाली कमला भी अपने बेटे को दिलीप कुमार बनाना चाहती है। फिल्मनगरी में ही नहीं सपनों का कारोबार पूरे देश में चल रहा है।
थकी हारी सोमा आईटीओ पुल पर पहुंचते ही उत्साहित हो जाती। दूर से ही अखबार के दफ्तरों की कतार दिखाई देती। उसे राहत मिलती। अपने घर तक पहुंचने वाली गली की याद आती। आईटीओ पुल के नीले उसे हमेशा पूर्वजों के आशीर्वाद की सुरक्षा का बोध होता।
सोमा के लिखे फीचर प्रमुख अखबारों का आकर्षण बनने लगे। उसके उठाए सवालों पर बहस होतीं। राजनीतिक दरवाजों तक हलचल होती। सोमा संतुष्ट थी। प्रशांत की घनिष्ठता बढ़ चुकी थी। अंतरंग क्षणों में जब वह प्रशांत में लय होना चाहती, प्रशांत का ध्यान अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट पर होता। प्रशांत ने डाक्यूमेंट्री फिल्में बनानी शुरु कर दी थीं। अब वह एक छोटा प्रोड्यूसर बन चुका था।
जब पहली बार सोमा सूचना प्रसारण मंत्री का साक्षात्कार लेने प्रशांत के आग्रह पर पहुंची कहीं कोई उत्साह न था। शरीर और मन दोनों पर बोझ था। साक्षात्कार के बाद फिल्म प्रोजेक्ट की फाइल खिसकाते हुए उसे लगा, बीच बााजार में वस्त्रहीन खड़ी है। प्रोजेक्ट को स्वीकृति मिलने के बाद आनंद के अतिरेक में ग्लानि बह गई। फिर इस खेल में सोमा को जुए जैसी खुशी मिलने लगी। सोमा के घरवालों ने विवाह के लिए दबाव डाला। प्रशांत ने 'जल्दी क्या है?' कहकर टाल दिया। सोमा प्रशांत के अनुकूल बनने का हर संभव प्रयत्न कर रही थी। पत्रकार सोमा का प्रोड्यूसर सोमा में रूपांतरण हो चुका था। प्रशांत के पास दो बीटा कैम कैमरे हैं। अपना स्टूडियो बनाने की सोच रहा है। पल्लवी प्रोडक्शंस और सोमप्रभा आट्र्स दोनों ही बैनर में सोमा प्रशांत की साझीदारी है। अब सोमा को साक्षात्कार जैसे किसी बहाने की आवश्यकता नहीं है। प्रोड्यूसर्स की श्रेणी में वह अग्रणी है। प्रशांत को उसकी पुरानी पत्रकार मंडली अब 'सड़क-छाप' लगती। वह बार-बार उनसे दूर रहने और महानगरीय आभिजात्य बनाए रखने की सलाह देता।
'वही पुराना शीशा.... कितनी बार कहा है इसे बदल डालो। टीजीस हाउस ऑफ इंटीरियर्स से नया आईना ले आओ।'
'तुम्हें मालूम है प्रशांत, आईने कभी-कभी हथेलियों में बदल जाते हैं।'
'फिर वही रूमानियत सोमा... जमीन पर आओ।'
'मैं तो जमीन पर हूं प्रशांत लेकिन तुम जमीन से दूर होते जा रहे हो।'
सोमा को प्रशांत कभी-कभी ऐसी चट्टान लगता जिस पर पिघलकर वह केवल मोम की पर्त रह गई है। आकारहीन .... विरूपित....। कल रात की घटना ने उसे जड़ बना दिया है।
'एक सुंदर स्मार्ट लड़की रखनी ही पड़ेगी। इस धंधे में अब केवल शराब और रूपयों से काम नहीं चलने वाला। यह काम तुम्हारे बस का नहीं वरना हमारी बचत हो जाती।'
'ब्रे्रख्त के गैलीलियो के मुंह से यह शब्द कुछ अच्छे नहीं लग रहे हैं।' सोमा की नसें फड़कने लगीं। कानों की लौ सुलगने लगी।
'सच सोमा, मैंने भी रंगमंच का महानायक बनना चाहा था लेकिन क्या यह संभव हो पाया? हम संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। इस काल में सभी कुछ खंड- खंड हो जाता है फिर कुछ नया पनपता है। उसी नवीनता की आशा में शायद यह हमारा पहला कदम है...'
'नहीं...' सोमा बिफर पड़ी - 'मैं तुम्हारे साथ चलने की तैयार नहीं... हूं प्रशांत। अब एक कदम भी नहीं... तुमने कितने घिनौने रूप में मेरा उपयोग किया प्रशांत? तुमने मुझे एडिटिंग में कभी साथ नहीं रखा, न कैमरे की बारीकियां सिखाईं। मेरी लिखी स्क्रिप्ट का तुम मजाक बनाते रहे। आउटडोर शूटिंग में भी मुझे साथ न ले गए क्योंकि तुम्हारी मौज-मस्ती में खलल पड़ता...।'
'तुम भी अपने ढंग से अपना जीवन जी सकती हो... मैंने रोका नहीं था...।'
'बेशक, जी सकती हूं और तुम्हारा साया भी वहां नहीं होगा... लेकिन यह बर्बरता जो तुम मुझे दे रहे हो, कहीं मैं हिंस्र न हो उठूं ... जो मैं नहीं होना चाहती।'
'सुनो मेरी प्रिये। तुम इन सुख सुविधाओं की अभ्यस्त हो चुकी हो। जो कुछ भी हुआ उसमें तुम्हारी बराबर की भागीदारी है। मेरे ऊपर दोष मढऩे से कोई फायदा नहीं।' कड़ुवाहट और व्यंग्य से प्रशांत का चेहरा विकृत हो उठा था। वह सहज होने का अभिनय कर रहा था ... 'सोमा। यही क्या कम है इस कठिन समय में। हम एक दूसरे को प्यार कर रहे हैं।'
सोमा चिल्ला उठी - 'प्यार? इसे तुम प्यार कह रहो हो...' प्रशांत ने आगे बढ़कर सोमा को बांहों के घेरे में ले लिया, 'रिलैक्स डार्लिंग .... रिलैक्स... कल तुम्हारा अप्वाइंटमेंट अग्निहोत्री के साथ है, भूलना मत। मैं यूनिट के साथ शूटिंग पर शिमला जा रहा हूं। दो कारों की जरूरत पड़ेगी। तुम टैक्सी कर लेना। मुझे पूरी तैयारी करनी है। अपना ध्यान रखना...' सीमा के होंठों पर चुंबन का ठप्पा लगाते हुए प्रशांत बाहर निकल गया।
सोमा जलडमरुमध्य में शिलाखंड-सी अंटकी रही। पूरी रात पहरुए की सीटी के साथ प्रशांत के शब्द बजते रहे। प्रशांत की फ्लैट अलग है। अलग रहने का ढोंग वह समाज को दिखाने के लिए ही नहीं कर रहा वरन एक सुनिश्चित रेखा उन दोनों के बीच है। एक पग धरती इधर या उधर। इसी एक पग धरती के बीच कील सी ठुकी रही है सोमा आज तक।
'पंडारा रोड खत्म होनेवाली है। कहां जाना है?'
सीमा की तंद्रा भंग हुई। वह चौंकी।
'अरे ... आगे आ गए हैं। पीछे मोड़ लो...।'
अब ऐसे तो मोड़ नहीं सकते, घुमाकर लाना होगा...' ऑटो चालक ने झल्लाकर कहा।
बंगले का नंबर पढ़ते ही सोमा ने रुकने का संकेत दिया। पैसे चुकाते हुए उसने आग्रह किया कि यदि सवारी न मिले तो प्रतीक्षा करे। ऑटोवाले ने सहमति में सिर हिलाया। आश्वस्त भाव से उसने बीड़ी निकाली।
गेट खोलकर सोमा आगे बढ़ी। दरबान को विजिटिंग कार्ड थमाया। ड्राइंग रूम में वह बुझी-सी बैठी थी। फाइल उसके हाथ में थी। सामने पड़े खाली सोफे को वह शून्य दृष्टि से निहार रही थी। आगे के दृश्य उसकी आंखों के आगे कौंधने लगे। क या ख... या जो भी नाम हो अग्निहोत्री सर या मुखर्जी साहब उसके ठीक सामने वाले सोफे पर विराजेंगे। आंखों से उसे जांचने परखने की कोशिश करेंगे - किसी बहाने जगह परिवर्तन होगा... फिर धीरे- धीरे स्पर्श... चुंबनों तक पहुंचेंगे। मदिरा और धुएं के बीच सौदा होगा। मदिरा या धुआं स्थगित होने पर भी देह और रुपए का गणित वही रहेगा। किसी तरह वह संभोग की स्थिति से स्वयं को बचा लेगी। कल पर टाल देगी या काम होने के बाद तक। सांप-नेवले का वही पुराना खेल.... त्वचा पर चिपकी असंख्य आंखें सोमा को नश्तरों-सी चुभने लगीं। उसे लगा पूरी दीवाल पर बलात्कार के खूंखार चित्र उभर आए हैं। बनैले पशुओं के बलात्कार के चित्र जो उसके अस्तित्व को गोश्त की बोटी की तरह नोच रहे हैं। अपने शरीर के रिसते खून और खरोंचों की कल्पना कर वह चीख पड़ी- काश कि ऐसा ही बलात्कार इन बनैले आदमियों के साथ वह कर सकती... सामूहिक रूप से मिलकर करती और ऐसों के अस्तित्व को अपमानित और धवस्त कर एक नपुंसक क्लीव और घृणित लिजलिजी लाश में बदल देती। जलती आंखों और उबलती सांसों से उसने चारों ओर देखा और गेट की ओर बढ़ चली।
'बहुत जल्दी काम हो गया...' ऑटो चालक ने बात बढ़ाई।
'हूं...' 'सफदरजंग एन्क्लेव वापस चलें...'
'नहीं ... आई टी ओ पुल.... अखबारों के दफ्तर की ओर ...।'

2 comments:

सुरेश यादव said...

बहुत ही उम्दा और बहु आयामी सृजनात्मक क्षमता से पूर्ण आप की पत्रिका हेतु बधाई.

राजेश उत्‍साही said...

कहानी एक क्‍लाइमेक्‍स पर पहुंचकर अचानक खत्‍म क्‍यों कर दी गई मुक्‍ता जी यह समझ नहीं आया। और न ही यह कि सोमा अखबारों के दफ्तर की ओर क्‍यों गई। कहानी में एक प्रवाह और बांधने की क्षमता है इसमें कोई शंका नहीं।