-डॉ. परदेशीराम वर्मा
जनजातियों का जीवन व्यापार, भाषा, संस्कृति से अंतर्सम्बधित रहा है। हमारे देश में गोंड़, संथाल, भील, ओरांव, मीना, मुंडा, खोंड, हो, नागा तथा बैगा जनजातियां भिन्न-भिन्न अंचलों में निवास करती हैं। जहां नागा आदिवासी अपने शरीर सौष्ठव में ग्रीक देवताओं की तरह सुदर्शन, दृष्ट-पुष्ट और गोरे होते हैं, वहीं अन्य आदिवासी जातियां लगभग एक ही देहयष्टि की होती हैं। मजबूत और मझोला कद हर कहीं एक समान पाया जाता है।
नागा आदिवासियों के बीच मिशन के कार्यकर्ता डेढ़ शताब्दी पूर्व जा पहुंचे थे, संभवत: इसीलिए नागा और मीजो आदिवासियों का झुकाव इसाई धर्म की ओर अधिक हुआ। छत्तीसगढ़ में भी इसाई धर्म का व्यापक प्रभाव आदिवासियों के बीच है, लेकिन अधिकांश छत्तीसगढ़ी आदिवासी अपने विशेष धर्म के बंधे हैं। पंरपराएं भी अपनी ही हैं। जो एक समुदाय और दूसरे समुदाय को जोड़ती भी हैं और कुछ विशेषताओं और विलक्षण सीमाओं के कारण एक दूसरे से उन्हें अलग भी करती हैं। एक समूह दूसरे समूह से कुछ व्यवहारों में अलग भी रहती हैं। कंगला मांझी ने 52 आदिवासी पिछड़े समूहों को रेखांकित कर एक करने का अभियान चलाया। संस्कारों, विवाह पद्धतियों के बीच सरल समन्वय बनाने के प्रयास में वे सफल भी हुए।
छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में बैगा आदिवासी काफी पिछड़े हुए हैं। कवर्धा क्षेत्र में बैगा जनजाति की संख्या पर्याप्त है। कवर्धा पहले दुर्ग जिले का फिर राजनांदगांव जिले का हिस्सा था। अब स्वतंत्र जिले के रूप में उसका विकास हो रहा है। विगत छ: वर्षों में कवर्धा जिले में विकास की गति बढ़ी है। शहर से भोरमदेव को जोड़ता हुआ एक पुल वहां इसी वर्ष बना है। इससे 5किलोमीटर की दूरी कम हो गई है। प्रतिवर्ष भोरमदेव में आयोजित महोत्सव भी देश भर का ध्यान आकृष्ट कर रहा है। भोरमदेव का मंदिर अत्यंत खूबसूरत पुरातात्विक स्थल है। चारों ओर पहाडिय़ों से घिरे एक समतल जगह पर तालाब के किनारे स्थित मंदिर की सुन्दरता देखते ही बनती है।
इन्हीं पहाडिय़ों की गोद में ही बैगा आदिवासियों के छोटे- छोटे गांव हैं। जहां विकास की टिमटिमाहट धीरे- धीरे पहुंच रही है। अंधेरे में डूबे उन गांवों की चिंता गैरसरकारी संगठनों को भी सरकार से कम नहीं है। सदैव कुछ गैरसरकारी संगठनों ने आदिवासियों के लिए परिणाम- परक पहल कर इतिहास रचा है।
इस वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर कवर्धा जाकर बैगा आदिवासियों से मिलने का अवसर मुझे भी मिला। चिल्पी और आसपास के वनक्षेत्र में बसे गांवों से पहली बार आदिवासी बच्चे कवर्धा लाये गये। बच्चों ने पहली बार बस में चढऩे का आनंद लिया। कवर्धा की सड़कों में उनकी रैली निकली। बच्चे तख्ती लिए हुये थे जिसमें नारा लिखा था-
जंगल हमर दाई ए,शेर हमर भाई ए
इस नारे में ही वन्य जीवन की विशेषता और समकालीन दौर की पेचीदगी का सूत्र है। जंगल मां है और जंगल के वन्य प्राणी भाई बहन हैं। यह बात वनवासी ही सोच सकता है। वन्य प्राणियों के खात्मे का इतिहास बताता है कि वनवासियों को, वन्य जीवों को शहरों में रहने वाले अर्थ पिपासु लोगों ने ही समाप्ति की ओर धकेला है। वन्य जीव तो प्रतिरोध नहीं कर सके लेकिन वनवासी अब प्रतिरोध कर रहा है। बहुत कुछ खोकर वह उठ खड़ा हुआ है। संभवत: इसीलिए शहर के लोग भी इसधमाके और जागरण का अनुनाद सुन रहे हैं। कवर्धा की सड़कों पर बैगा बच्चों की रैली से एक अच्छी शुरुवात हुई है। उन्हें देखकर दिनकर की पंक्तियां याद हो आईं...
सदियों की ठंडी, बुझी आग सुगबुगा उठी,मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।26 जनवरी 1950 को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रकवि ने उल्लसित व्यथित और संकल्पित होकर इस कविता का लेखन किया था। इसमें अदृश्य शोषण का वर्णन भी है। प्रत्यक्ष हमलों के बारे में वर्णन है।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख,मंदिरों, राजप्रसादों में तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर मिट्टी तोड़ रहे,देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में।
आदिवासी बच्चे छत्तीसगढ़ी से अधिक अपनी भाषा में सहजता महसूस करते हैं। वे उसी तरह छत्तीसगढ़ी समझते हैं जिस तरह हिन्दी माध्यम से हाईस्कूल पास व्यक्ति अंग्रेजी समझ पाता है। लेकिन कोशिश करने पर भी बोल नहीं पाता। स्कूली शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम में वनक्षेत्रों की बोलियों को क्यों महत्व दिया जा रहा है, इसे हम ऐसे अवसरों पर ही समझ पाते हैं।
गांवों के बच्चे शहर आकर खुश तो थे मगर उनकी आंखों में झांकने पर यह दर्द झलकता था कि रोशनी उनके गांवों तक कब पहुंचेगी। यह संयोग ही है कि वे पहिली बार गणतंत्र परेड में शहर आये। जब देश की आबादी मात्र तैंतीस करोड़ थी तब दिनकर ने जो लिखा था
कि ...
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा
तैतीस कोटि -- सिंहासन तय करो,अभिषेक आज राजा का नहीं प्रजा का है,तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुठ धरो।
भोले महाकवि ने कल्पना की, कि हर मानुष के सिर पर मुकुट धर दिया जाय। मगर 60 वर्ष बाद हम देख रहे हैं कि फिर देश भूखा है। खाने के लाले पड़ गए हैं। पुन: हरित क्रांति हो यह देश की महामहिम राष्ट्रपति कहती हैं।
पूंजीवादियों ने देश के समस्त स्रोत को अपनी जेबों में कैद करने का षडय़ंत्र किया। एक करोड़ लोग ही देश में आसमान में उन्मुक्त उड़ते हैं। शेष तो केवल चिल्लाकर रह जाते हंै कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
पूंजीवादी वर्चस्वकामी तंत्र कुशल लोग जानते हैं कि जनता इसी तरह चिल्लाती रहेगी और वे एक करोड़ की खुशी के लिए काम करते हुए उन पर राज करते रहेंगे।ऊंच-नीच, गरीब अमीर का अंतर बढ़ा है तो छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या का घाव भी लाइलाज सा हो रहा है। नक्सल समस्या आदिवासीजन की भूख, गरीबी, असुरक्षा, अपमान और गुस्से से परवान चढ़ी है। जब तक उपरोक्त भावों के मर्म को नहीं समझा जाएगा नक्सल समस्या रूपी नदी को सुखाया नहीं जा सकेगा। रूक- रूक कर आने वाली इस नदी की बाढ़ में जनतंत्र और शासन के नुमाइंदे भी बहते से लगेंगे।
अच्छा है कि कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं आदिवासियों के गांवों तक अपने प्रयास से पहुंचाती रही हैं। इन्हीं लोगों ने आशा जगाकर हमें हौसला देने का प्रयास किया है।
भोरमदेव जंगल रिट्रीट के सत्येन्द्र उपाध्याय ने भोरमदेव में तीन एकड़ में स्वाभाविक स्थल का विकास किया है जहां सैलानी रूकते हैं। अत्यंत मनोरम स्थल पर बना यह जंगल रिट्रीट मन को सुकून देता है। जंगल रिट्रीट तथा कुछ अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं ने वृक्षारोपण, वन्यप्राणी संरक्षण समय-समय पर चिकित्सा शिविर, सामाजिक सम्मेलन आदि के संयोजन का बीड़ा भी उठाया है। इससे आदिवासियों के बीच उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। आदिवासी जन उनके करीब आये हैं। बैगा या अन्य वनवासीजन प्रकृति के संरक्षक रहे हैं। वन्य प्राणियों के मित्र आदिवासी मनोरंजन के लिए आखेट नहीं करते। ये अमूल्य जड़ी बूटियों के जानकार भी हैं। सुखेन वैद्य के साथ ही जिस तरह संजीवनी बूटी का रहस्य चला गया उसी तरह बहुत सारी दुर्लभ जड़ी बूटियों की पहचान मिट जाएगी अगर हम प्रयास कर इसे न समझ लें।
वनों में प्लास्टिक झिल्ली का प्रकोप भी बढ़ रहा है जिससे वन्य प्राणी जीवन को खतरा बढ़ रहा है। शहर जंगल पहुंच कर अपना विष वहां फैला रहा है। वन का शोषण कर शहर लाभ तो लेता है मगर बदले में जंगल को जहर लौटाने का प्रयास करता है। यह सिलसिला बंद हो, यही प्रयास कुछ जंगल रिट्रीट जैसी संस्थाएं कर रही हैं। आशा है, इनके प्रयासों को शासकीय सेवक और शासन की योजनाओं के नियंता भी सम्बल देकर और आगे बढऩे के लिए प्रेरित करेंगे।
यह समय है कि सत्ता, शासन और आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक मजबूती के गुमान में इतरा रहा वर्ग सजग बन जाए और दिनकर जी की चेतावनी का अर्थ समझे...
हुंकारों से महलों की नींद उखड़ जाती,सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
संपर्क - एल आई जी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाई 490009 (छ.ग.) मो. 98279 93494
छत्तीसगढ़ी आदिवासी अपने विशेष धर्म के बंधे हैं। पंरपराएं भी अपनी ही हैं। जो एक समुदाय और दूसरे समुदाय को जोड़ती भी हैं और कुछ विशेषताओं और विलक्षण सीमाओं के कारण एक दूसरे से उन्हें अलग भी करती हैं।
यह प्रसन्नता की बात है कि जनजातियों की चिंता अब प्राय: हर देश की सरकारें कर रही हैं। आमजन में जनजाति के संबंध में विशेष जानकारी अब पहुंच रही है। तरह-तरह की व्यर्थ स्थापनाओं से जनजातियों के संबंध में जो भ्रांतियां गढ़ी गई थीं वे खत्म हो रही हैं। जनजातियों के संदर्भ में डॉ. मजूमदार का कहना है कि 'जनजाति परिवारों या परिवारों के संकलन का एक समूह होता है जिसका एक सामान्य नाम होता है। जिसके सदस्य एक निश्चित भू-भाग में रहते हैं, सामान्य भाषा बोलते हैं, और विवाह व्यवसाय या उद्योग के विषय में कुछ निषेध का पालन करते हैं।'जनजातियों का जीवन व्यापार, भाषा, संस्कृति से अंतर्सम्बधित रहा है। हमारे देश में गोंड़, संथाल, भील, ओरांव, मीना, मुंडा, खोंड, हो, नागा तथा बैगा जनजातियां भिन्न-भिन्न अंचलों में निवास करती हैं। जहां नागा आदिवासी अपने शरीर सौष्ठव में ग्रीक देवताओं की तरह सुदर्शन, दृष्ट-पुष्ट और गोरे होते हैं, वहीं अन्य आदिवासी जातियां लगभग एक ही देहयष्टि की होती हैं। मजबूत और मझोला कद हर कहीं एक समान पाया जाता है।
नागा आदिवासियों के बीच मिशन के कार्यकर्ता डेढ़ शताब्दी पूर्व जा पहुंचे थे, संभवत: इसीलिए नागा और मीजो आदिवासियों का झुकाव इसाई धर्म की ओर अधिक हुआ। छत्तीसगढ़ में भी इसाई धर्म का व्यापक प्रभाव आदिवासियों के बीच है, लेकिन अधिकांश छत्तीसगढ़ी आदिवासी अपने विशेष धर्म के बंधे हैं। पंरपराएं भी अपनी ही हैं। जो एक समुदाय और दूसरे समुदाय को जोड़ती भी हैं और कुछ विशेषताओं और विलक्षण सीमाओं के कारण एक दूसरे से उन्हें अलग भी करती हैं। एक समूह दूसरे समूह से कुछ व्यवहारों में अलग भी रहती हैं। कंगला मांझी ने 52 आदिवासी पिछड़े समूहों को रेखांकित कर एक करने का अभियान चलाया। संस्कारों, विवाह पद्धतियों के बीच सरल समन्वय बनाने के प्रयास में वे सफल भी हुए।
छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में बैगा आदिवासी काफी पिछड़े हुए हैं। कवर्धा क्षेत्र में बैगा जनजाति की संख्या पर्याप्त है। कवर्धा पहले दुर्ग जिले का फिर राजनांदगांव जिले का हिस्सा था। अब स्वतंत्र जिले के रूप में उसका विकास हो रहा है। विगत छ: वर्षों में कवर्धा जिले में विकास की गति बढ़ी है। शहर से भोरमदेव को जोड़ता हुआ एक पुल वहां इसी वर्ष बना है। इससे 5किलोमीटर की दूरी कम हो गई है। प्रतिवर्ष भोरमदेव में आयोजित महोत्सव भी देश भर का ध्यान आकृष्ट कर रहा है। भोरमदेव का मंदिर अत्यंत खूबसूरत पुरातात्विक स्थल है। चारों ओर पहाडिय़ों से घिरे एक समतल जगह पर तालाब के किनारे स्थित मंदिर की सुन्दरता देखते ही बनती है।
इन्हीं पहाडिय़ों की गोद में ही बैगा आदिवासियों के छोटे- छोटे गांव हैं। जहां विकास की टिमटिमाहट धीरे- धीरे पहुंच रही है। अंधेरे में डूबे उन गांवों की चिंता गैरसरकारी संगठनों को भी सरकार से कम नहीं है। सदैव कुछ गैरसरकारी संगठनों ने आदिवासियों के लिए परिणाम- परक पहल कर इतिहास रचा है।
इस वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर कवर्धा जाकर बैगा आदिवासियों से मिलने का अवसर मुझे भी मिला। चिल्पी और आसपास के वनक्षेत्र में बसे गांवों से पहली बार आदिवासी बच्चे कवर्धा लाये गये। बच्चों ने पहली बार बस में चढऩे का आनंद लिया। कवर्धा की सड़कों में उनकी रैली निकली। बच्चे तख्ती लिए हुये थे जिसमें नारा लिखा था-
जंगल हमर दाई ए,शेर हमर भाई ए
इस नारे में ही वन्य जीवन की विशेषता और समकालीन दौर की पेचीदगी का सूत्र है। जंगल मां है और जंगल के वन्य प्राणी भाई बहन हैं। यह बात वनवासी ही सोच सकता है। वन्य प्राणियों के खात्मे का इतिहास बताता है कि वनवासियों को, वन्य जीवों को शहरों में रहने वाले अर्थ पिपासु लोगों ने ही समाप्ति की ओर धकेला है। वन्य जीव तो प्रतिरोध नहीं कर सके लेकिन वनवासी अब प्रतिरोध कर रहा है। बहुत कुछ खोकर वह उठ खड़ा हुआ है। संभवत: इसीलिए शहर के लोग भी इसधमाके और जागरण का अनुनाद सुन रहे हैं। कवर्धा की सड़कों पर बैगा बच्चों की रैली से एक अच्छी शुरुवात हुई है। उन्हें देखकर दिनकर की पंक्तियां याद हो आईं...
सदियों की ठंडी, बुझी आग सुगबुगा उठी,मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।26 जनवरी 1950 को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रकवि ने उल्लसित व्यथित और संकल्पित होकर इस कविता का लेखन किया था। इसमें अदृश्य शोषण का वर्णन भी है। प्रत्यक्ष हमलों के बारे में वर्णन है।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख,मंदिरों, राजप्रसादों में तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर मिट्टी तोड़ रहे,देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में।
आदिवासी बच्चे छत्तीसगढ़ी से अधिक अपनी भाषा में सहजता महसूस करते हैं। वे उसी तरह छत्तीसगढ़ी समझते हैं जिस तरह हिन्दी माध्यम से हाईस्कूल पास व्यक्ति अंग्रेजी समझ पाता है। लेकिन कोशिश करने पर भी बोल नहीं पाता। स्कूली शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम में वनक्षेत्रों की बोलियों को क्यों महत्व दिया जा रहा है, इसे हम ऐसे अवसरों पर ही समझ पाते हैं।
गांवों के बच्चे शहर आकर खुश तो थे मगर उनकी आंखों में झांकने पर यह दर्द झलकता था कि रोशनी उनके गांवों तक कब पहुंचेगी। यह संयोग ही है कि वे पहिली बार गणतंत्र परेड में शहर आये। जब देश की आबादी मात्र तैंतीस करोड़ थी तब दिनकर ने जो लिखा था
कि ...
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा
तैतीस कोटि -- सिंहासन तय करो,अभिषेक आज राजा का नहीं प्रजा का है,तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुठ धरो।
भोले महाकवि ने कल्पना की, कि हर मानुष के सिर पर मुकुट धर दिया जाय। मगर 60 वर्ष बाद हम देख रहे हैं कि फिर देश भूखा है। खाने के लाले पड़ गए हैं। पुन: हरित क्रांति हो यह देश की महामहिम राष्ट्रपति कहती हैं।
पूंजीवादियों ने देश के समस्त स्रोत को अपनी जेबों में कैद करने का षडय़ंत्र किया। एक करोड़ लोग ही देश में आसमान में उन्मुक्त उड़ते हैं। शेष तो केवल चिल्लाकर रह जाते हंै कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
पूंजीवादी वर्चस्वकामी तंत्र कुशल लोग जानते हैं कि जनता इसी तरह चिल्लाती रहेगी और वे एक करोड़ की खुशी के लिए काम करते हुए उन पर राज करते रहेंगे।ऊंच-नीच, गरीब अमीर का अंतर बढ़ा है तो छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या का घाव भी लाइलाज सा हो रहा है। नक्सल समस्या आदिवासीजन की भूख, गरीबी, असुरक्षा, अपमान और गुस्से से परवान चढ़ी है। जब तक उपरोक्त भावों के मर्म को नहीं समझा जाएगा नक्सल समस्या रूपी नदी को सुखाया नहीं जा सकेगा। रूक- रूक कर आने वाली इस नदी की बाढ़ में जनतंत्र और शासन के नुमाइंदे भी बहते से लगेंगे।
अच्छा है कि कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं आदिवासियों के गांवों तक अपने प्रयास से पहुंचाती रही हैं। इन्हीं लोगों ने आशा जगाकर हमें हौसला देने का प्रयास किया है।
भोरमदेव जंगल रिट्रीट के सत्येन्द्र उपाध्याय ने भोरमदेव में तीन एकड़ में स्वाभाविक स्थल का विकास किया है जहां सैलानी रूकते हैं। अत्यंत मनोरम स्थल पर बना यह जंगल रिट्रीट मन को सुकून देता है। जंगल रिट्रीट तथा कुछ अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं ने वृक्षारोपण, वन्यप्राणी संरक्षण समय-समय पर चिकित्सा शिविर, सामाजिक सम्मेलन आदि के संयोजन का बीड़ा भी उठाया है। इससे आदिवासियों के बीच उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। आदिवासी जन उनके करीब आये हैं। बैगा या अन्य वनवासीजन प्रकृति के संरक्षक रहे हैं। वन्य प्राणियों के मित्र आदिवासी मनोरंजन के लिए आखेट नहीं करते। ये अमूल्य जड़ी बूटियों के जानकार भी हैं। सुखेन वैद्य के साथ ही जिस तरह संजीवनी बूटी का रहस्य चला गया उसी तरह बहुत सारी दुर्लभ जड़ी बूटियों की पहचान मिट जाएगी अगर हम प्रयास कर इसे न समझ लें।
वनों में प्लास्टिक झिल्ली का प्रकोप भी बढ़ रहा है जिससे वन्य प्राणी जीवन को खतरा बढ़ रहा है। शहर जंगल पहुंच कर अपना विष वहां फैला रहा है। वन का शोषण कर शहर लाभ तो लेता है मगर बदले में जंगल को जहर लौटाने का प्रयास करता है। यह सिलसिला बंद हो, यही प्रयास कुछ जंगल रिट्रीट जैसी संस्थाएं कर रही हैं। आशा है, इनके प्रयासों को शासकीय सेवक और शासन की योजनाओं के नियंता भी सम्बल देकर और आगे बढऩे के लिए प्रेरित करेंगे।
यह समय है कि सत्ता, शासन और आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक मजबूती के गुमान में इतरा रहा वर्ग सजग बन जाए और दिनकर जी की चेतावनी का अर्थ समझे...
हुंकारों से महलों की नींद उखड़ जाती,सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
संपर्क - एल आई जी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाई 490009 (छ.ग.) मो. 98279 93494
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