उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Mar 17, 2010

ये साहित्यिक लठैत

- महावीर अग्रवाल
'लाठी' जवांमर्द का प्रतीक रही है। जमींदारों के रुतबे और उनकी शान-शौकत को बरकरार रखने में उनके लठैत हमेशा लाठी का जोर आजमाते हैं। मालगुजारों की उज्जवल कीर्ति ने लठैतों के बल पर ही आकाश चूमा है। बड़े-बूढ़ों के मुख से तत्कालीन लठैतों की बहादुरी के किस्से आप सुनने बैठिए रात बीत जाएगी, पता भी न चलेगा। लठैतों के चमत्कार वे इतने रससिद्ध और प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि सुनने पर ऐसा लगता है कि कोई फिल्म देख रहे हैं। वे भाव- विभोर होकर उनकी बहादुरी की गाथा सुनाते हैं। वे बताते हैं जमींदार लठैतों के दम पर कैसे राज करते थे। अत्याचार करते थे। केवल चार छह लठैतों की टीम पूरा गांव उजाडऩे की क्षमता रखती थी। जब चाहा तब खड़ी फसल काट ली। जिस पर नजर ठहरी, उसे दिन- दहाड़े उठवा लिया। लाठी का जोर ही सब कुछ था। वह युग लाठी वाले हाथों का युग था। इसीलिए इस कहावत का जन्म हुआ- 'जिसकी लाठी उसकी भैंस।'
अब यह युग कलम का युग है, कलम वाले हाथों का आज जमाना है। पत्रकार हो या लेखक- कलम का जोर सब मनवा लेते हैं। बुद्धिजीवियों की बढ़ती और चढ़ोतरी का युग है। साहित्यिक चर्चाओं, गोष्ठियों और शिविरों का माहौल गरम रहता है। जमकर लिखा जा रहा है। जिसे कहते हैं साहित्य। साहित्यकारों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि श्रोता और पाठक कम हो गए हैं। पचास लोग मिलकर प्रयोगधर्मी नाटक खेलते हैं तो देखने वालों की संख्या पच्चीस रहती है। उसके अतिरिक्त खूब कवि हैं, ढेर सारे। कोई कहानीकार है तो कोई उपन्यासकार। कोई नाटककार है तो कोई व्यंग्यकार। स्थिति ऐसी है कि भीड़ में कंकड़ फेकिये। जिसे लगेगा, वह साहित्यकार ही होगा।
अब तो धन्नासेठों के लक्ष्मीपुत्रों को भी कविता का शौक चर्राया है। घर वाले चिल्लाते रहते हैं- कवि के रूप में कुल कलंग पैदा हो गया। परंतु साहबजादे साहित्य की सेवा में मस्त रहते हैं। वाह- वाही करने चार साहित्यिक हमेशा साथ लगे रहते हैं। लगन बराबर बढ़ती जा रही है। ये अपने नये संग्रह के लिए एक साहित्यिक लठैत की खोज में हैं।
क्या कहा? साहित्यिक लठैत।
हां, जी हां। साहित्यिक लठैत की खोज में हंै।
सुनिए साहब। साहित्यिक लठैत उन्हें कहते हैं जिनकी साहित्यिक जगत में तूती बोलती है।
साफ- साफ बताइए। पहेलियां मत बुझाइये।
तो सुनिए। ....।। जिस प्रकार पहले जमींदारों और मालगुजारों का उत्थान पतन उनके लठैतों पर निर्भर रहता था, उसी प्रकार समकालीन साहित्यिक जगत में किसी भी साहित्यिकार का उत्थान और पतन समीक्षकों की टोली पर निर्भर करता है। इन्हें ही चालू भाषा में साहित्यिक लठैत कहते हैं।
बात कुछ कुछ जमती है भाई।
पूरी बात तो सुनिए। जैसे जमींदारों के लठैतों की लाठियां आक्रमण के साथ- साथ समय पडऩे पर सुरक्षा भी अख्तियार करती थी, उसी प्रकार साहित्यिक लठैत विरोधियों पर जमकर आक्रमण करते हैं। और जब विरोधी खेमे में साहित्यिक लठैत किसी कृति की धज्जियां उड़ाते हैं, तो ये सुरक्षा कवच बनकर सामने आते हैं।
कहा जाता है कि यदि दिग्गज समीक्षक आपके पहले संग्रह पर अनुकूल टिप्पणी दे दे, तो देखते ही देखते आप साहित्याकाश पर चमकने वाले सितारे होंगे। आपकी तुलना तोड़ती पत्थर, ब्रह्मराक्षस, कामायनी, आंसू, कुरुक्षेत्र से होने लगेगी। लोग समझने लगेंगे कि एक दिव्य प्रतिभा का अवतरण साहित्यिक जगत में हो चुका है। और यदि वे साहित्यिक लठैत नाराज हो गये तो आपके पचीसों संग्रह आने के बाद भी आप बौने ही रहेंगे और लगातार आकाश छूने के लिए फडफ़ड़ाते रहेंगे। एक दिन मैंने अपने- अपने क्षेत्र के प्रख्यात तीन समीक्षकों से भेंट की। दो पंक्तियां उनको कागज पर लिखकर दी और कहा कि आप इन पंक्तियों की सजीव व्याख्या कीजिए। वे राजी हो गए। उनमें से एक थे- कथावाचक जो भक्तों की भीड़ के बीच हारमोनियम के माध्यम से कीर्तन भी कर रहे थे और सस्वर पाठ करने के बाद अपने ढंग से व्याख्या या समीक्षा करते जा रहे थे। भगवान अदृश्य है, सबकी सुनते हैं। सब कुछ करते हैं पर नजर नहीं आते। मैं तो दिन रात उनके ही चरणों की वंदना करता हूं।
दूसरे नामी गिरामी विद्वान थे। उद्भट विद्वान, प्रकांड पंडित जैसे शब्द छोटे पड़ जाते हैं उनके सामने। हमेशा कार पर चलने वाले। शोषण के विरुद्ध नाम बुलंद करने वाले माक्र्सवाद में गहरी आस्था रखने वाले समीक्षक थे। वे जनसभा को संबोधित कर रहे थे- यह सही है कि मैंने गरीबी नहीं देखी। अभावों का दुख नहीं जाना। बचपन से ही वैभव के बीच रहा, लेकिन मजदूर हमारे भाई हैं। इनका दुख हमारा दुख है। उनकी मांगें हमारी मांगे हैं। उनके अधिकारों के लिए मैं आखिरी दम तक लडूंगा।
और तीसरे थे पुस्तकों के प्रेमी एक पढ़ाकू युवक। उभरते हुए कवि और समीक्षक के रूप में उनकी पहचान बनी थी कि अचानक उनकी मंगनी हो गई। आज्ञाकारी पुत्र होने के कारण वे बाग्दता को देखने भी नहीं गये। परंतु अपनी इस प्रेयसी का भूत उन्होंने स्वयं के सर पर चढ़ा लिया। भावी पत्नी और वर्तमान प्रेमिका के प्रेम में मस्त होकर उन्होंने भी उन दो पंक्तियों की समीक्षा की जो मैंने उन्हें लिखकर दी।
तीनों जाने-माने समीक्षक थे। पंक्तियां वे ही थीं परंतु नजर अलग अलग थी। पहले कथावाचक ने कहा- मैंने भगवान नहीं देखा पर उनका गुणगान करता हूं। दूसरे कार वाले माक्र्सवादी ने कहा- मैंने मजदूरी नहीं की गरीबी नहीं देखी लेकिन उसके लिए संघर्ष करता हूं। और तीसरे पढ़ाकू युवक ने कहा- अभी तक मैंने अपनी प्रेमिका को नहीं देखा तो क्या हुआ। तीनों साहित्यिक लठैतों ने अपने- अपने ढंग से दो पंक्तियों की व्याख्या की। चौथे से मिलता तो वे भी अपने ढंग से नई व्याख्या करते। इसीलिए तो कहता हूं रचनाकारों से कि साहित्यिक लठैतों से न उलझें। अब आपको भी दो पंक्तियां समीक्षा हेतु परोस रहा हूं:
उन पर हम जान देते हैं अनवर,
जिन्हें अब तक देखा नहीं है।
संपर्क- संपादक 'सापेक्ष',
ए-14, आदर्श नगर,
दुर्ग (छ.ग.) 491003,
फोन - 0788- 2210234
व्यंग्यकार के बारे में ...
महावीर अग्रवाल ने केवल व्यंग्य ही नहीं लिखे बल्कि उनकी सक्रियता का क्षेत्र व्यापक है। उन्होंने बड़ी जिम्मेदारी के साथ प्रगतिशील विचारधारा की पत्रिका 'सापेक्ष' को अपनी जीवन संगिनी श्रीमती संतोष अग्रवाल के साथ मिलकर बड़े परिश्रम और यत्न पूर्वक प्रकाशित सम्पादित कर एक राष्ट्रीय पहचान दी। उनका सम्पूर्ण कार्यक्षेत्र दुर्ग रहा और दुर्ग से ही श्री प्रकाशन आरंभ कर छत्तीसगढ़ के अनेक लेखकों के संग्रह छापकर उन्हें उपकृत किया। महावीरजी ने देश के मूर्धन्य साहित्यकारों के साक्षात्कार के लिए और उन्हें प्रकाशित किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ की लोककला पर काम किया, नाचा पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 'गधे पर सवार इक्कीसवी संदी' और 'लाल बत्ती जल रही है' नाम के उनके दो व्यंग्य संग्रह हैं। यहां प्रस्तुत व्यंग्य रचना 'ये साहित्यिक लठैत' में लेखक ने अपने अनुभवों से साहित्य की खेमेबन्दी में व्याप्त लठैतों का चिट्ठा खोला है। विशेषकर साहित्यिक आलोचना जगत में तैनात लठैतों की संदिग्ध भूमिका और आलोचक के भीतर पनप रही सामन्ती प्रवृत्तियों की ओर इशारा किया गया है।
- विनोद साव

No comments: