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Mar 17, 2010

ऑटिज़्मः अलग होता है हर बच्चा

ऑटिज़्म से ग्रसित 70% व्यक्तियों में मानसिक मंदता पायी जाती है जिसके कारण वह एक सामान्य जीवन जीने में पूरी तरह समर्थ नहीं हो पाते परन्तु अगर मानसिक मंदता अधिक हो

टिज़्म अभिव्यक्ति के गूंगेपन जैसी अवस्था है। ऑटिज़्म यानि आत्मकेंद्रित। यह एक ऐसी अवस्था है जो मस्तिष्क के सामथ्र्य को कम करती है। यह व्यक्तित्व का वह बंद दरवाजा है जिसकी सांकल खुल ही नहीं सकती। इस अवस्था में व्यक्ति स्वयं अपने शरीर में कैद हो जाता है। इस रोग से जूझते बच्चे और उनका परिवार हमसे सिर्फ स्वीकृति चाहते हैं। यह अलग हैं...पर उपेक्षित नहीं।
इससे ग्रसित व्यक्ति अपने आसपास की बात को आसानी से नहीं समझ पाता, उस पर प्रतिक्रिया देना तो दूर की बात है। यही कारण है कि उनका स्वभाव हम सबसे भिन्न होता है। कई बार उन्हें जरूरत और चाह के हिसाब से उपयुक्त शब्द नहीं मिलते तो वे सही शब्द की तलाश में एक ही शब्द या वाक्य दोहराते जाते हैं। इसके साथ ही वह लोगों की बात भी नहीं समझ पाता है। ऐसा नहीं कि वह शब्दों को साफ नहीं सुनते मगर वे उसका सही अर्थ समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे बच्चे के मन के भाव तेजी से बदलते हैं। जो बच्चा एक क्षण प्रसन्न दिखता है, अगले ही क्षण दुखी, खीजा हुआ, गुस्सैल भी हो सकता है। इसका कारण कोशिश करने पर भी अपनी बात व्यक्त कर पाना हो सकता है। इन वजहों की लिस्ट बनाना नामुमकिन है। यह अपने आप में इन बच्चों और इनका ध्यान रखने वाले तथा उनका पालन- पोषण करने वालों के लिए चुनौती है। इससे उलझनें, भ्रांतियां, निराशा और कुण्ठा बढ़ती जाती है। इन्हीं सब कारणों से ऐसे बच्चे परिवार से समाज से कट जाते हैं।
ऑटिज़्म एक आजीवन रहने वाली अवस्था है जिसके पूर्ण इलाज के लिए यहां-वहां भटक कर समय बरबाद करने के बजाए इसके बारे में जानकारी जुटा कर मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।
ऑटिज़्म को स्पेक्ट्रम डिसॉर्डर कहते हैं। हर बच्चे को यह अलग मात्रा में ग्रसित करती है। कुछ को कम, कुछ को ज्यादा। ऑटिस्टिक बच्चों में जो लक्षण आमतौर पर नजर आते हैं उनमें बोलचाल का कम होना, भाषा से अलग आवाज़ निकालना, देर से बोलना सीखना, एक ही शब्द, वाक्य बार बार बोलना, मैं और तुम जैसे सर्वनाम के प्रयोग में गलती करना, मेल- मिलाप कम करना और नापसंद करना, आंख ना मिलाना, पूछी बात पर प्रतिक्रिया ना देना, चिड़चिड़ा रहना, हाथ हिलाते रहना, कूदना, गोल घूमना, बैलेंस बनाने की कोशिश करना, ऐड़ी पर चलना, कुछ आवाज़ों को सख्त नापसंद करना, कुछ कपड़ों, खाने की चीज़ों को नापसंद करना, खुद को नुकसान पहुंचाना। इनमें से कई बातें हो सकती है और कई नहीं भी। हर बात की तीव्रता भी अलग हो सकती है। हर बच्चा अलग होता है... और उसका सामथ्र्य भी। इनमें से कोई भी शंका होने पर बाल रोग विशेषज्ञ नहीं तो चाइल्ड सायकोलोजिस्ट से अवश्य मिलें। इस अवस्था के होने पर उसका सही निदान उपचार जरूरी है।
अब तो ऑटिस्टिक बच्चों को जिंदगी के तौर-तरीके सिखाने के लिए भी क्लीनिक और कई साइंटिफिक तरीके ईजाद हो गये हैं। हालांकि ये 100 फीसदी कारगर तो नहीं हैं मगर समाज की मुख्य धारा से ऐसे बच्चों को जोडऩे में सहायक हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए बहुत सारा धैर्य और सही दृष्टिकोण चाहिए। अगर ऐसा हो सके तो ऐसे बच्चे अपने जीवन का अर्थपूर्ण अस्तित्व पा सकते हैं। और जीवन में कुछ बन सकते हैं।
क्योंकि ऐसे अनेक मामलों में देखा यह गया है कि जिन ऑटिज़्म से ग्रस्त बच्चों को प्रारम्भ में ही गहन और उचित चिकित्सा दी गई तो उनमें आश्चर्यजनक सुधार पाया गया। बच्चों पर किए गए प्रयोग से जो परिणाम मिले हैं उनसे संकेत मिलता है कि ऑटिज़्म की शीघ्र जांच पड़ताल और उपचार फायदेमंद हो सकता है।
कैलीफोनिया विश्वविद्यालय के माइंड इंस्टीट्यूट की मनोवैज्ञानिक सैली राजर्स, और उनके सहयोगियों ने ऑटिज़्म से प्रभावित 18 से 30 माह उम्र के कुछ बच्चों को दो समूह में बांटा। एक समूह को परम्परागत उपचार दिया गया जबकि दूसरे समूह को एक गहन व्यवहार चिकित्सा में शामिल किया गया। इस व्यवहार चिकित्सा का नाम 'अर्ली स्टार्ट डेनवर मॉडल' है। इस पद्घति में मनोरंजक तरीके से बालसुलभ गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता है, जबकि परम्परागत ऑटिज़्म उपचार में एक- सी गतिविधियां बार-बार दोहराई जाती हैं जो बहुत छाटे बच्चों के लिए अधिक उपयुक्त नहीं होतीं। राजर्स का मानना है कि बच्चों के संकेतों को समझकर आगे बढऩा और उनके व्यवहार में मनोरंजन का पुट जोडऩा एक महत्वपूर्ण शैक्षिक औजार हो सकता है। इन सबमें आपको लगे कि इसमें क्या बड़ी बात है, यह तो सहज-बुद्घि की बात है किन्तु ऑटिज़्म में सहज-बुद्घि जैसा कुछ नहीं होता।
दो साल बाद सारे बच्चों का बुद्घि परीक्षण किया गया। जिन 24 बच्चों के लिए अर्ली स्टार्ट डेनवर मॉडल अपनाया गया था, उन्होंने इस परीक्षण में उल्लेखनीय रूप से उच्चतर अंक अर्जित किए। भाषा के प्रयोग, रोजमर्रा के हुनर और सामाजिक तालमेल जैसे अन्य मापदंडों में भी ये बच्चे परम्परागत उपचार पाने वाले बच्चों से बेहतर रहे। स्वतंत्र मनोविज्ञानियों का आकलन था कि इनमें से सात बच्चे ऐसे थे जिन्हें आगे ऑटिज़्म उपचार के दायरे में रखने की जरूरत नहीं है। दूसरी ओर परम्परागत उपचार पा रहे 21 बच्चों में से सिर्फ 1 बच्चे का प्रदर्शन ही इस स्तर का रहा। बहुत कम उम्र में ही ऑटिज़्म का पता लगाने की तकनीकें तो पिछले कुछ वर्षों में बहुत विकसित उन्नत हुई हैं किन्तु यह बात साफ नहीं हो पाया था कि माता-पिता और डाक्टर इन सूचनाओं का क्या लाभ उठा सकते हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की मनोविज्ञानी लौरा श्राइबमैन कहती हैं कि राजर्स का अध्ययन इस मसले पर रोशनी डालता है। बहुत छाटे बच्चों के उपचार का खर्चा उनके वयस्क हाने पर उनकी देखरेख में आने वाले खर्चे से कम है। यह इतना कारगर है कि ऑटिस्टिक बच्चों की देखभाल करने वालों को इस पर $जरूर ध्यान देना चाहिए।
ऑटिज़्म एक प्रकार की विकास सम्बन्धी बिमारी है जिसे पूरी तरह से ठीक तो नहीं किया जा सकता लेकिन सही प्रशिक्षण परामर्श से रोगी को बहुत कुछ सिखाया जा सकता है, जो उसके जीवन जीने के तरीके को आसान बनाने में मददगार साबित हो सकता है।
... बदल रहा है नजरिया
जी टीवी में ऑटिज़्म से ग्रसित बच्चों की कहानी बताने वाला धारावाहिक आपकी अंतरा इस असमान्य बीमारी के प्रति लोगों को संवेदनशील बना रहा है और इस समस्या के शिकार बच्चों के प्रति उनका नजरिया बदल रहा है। इस टीवी धारावाहिक के निर्देशक हैं संजय सरकार उनका मानना है कि लोगों ने इस बात को समझना शुरू कर दिया है कि ऑटिज़्म से ग्रसित बच्चे बेवकूफ या पागल नहीं होते। ऑटिज़्म एक ऐसी समस्या है जिसमें बच्चा अपनी ही एक अलग दुनिया में खोया रहता है। धारावाहिक में इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि इस नाजुक और संवेदनशील मुद्दे पर दर्शक किसी भी तरह से भ्रमित होने पाएं। संबंधित दृश्यों को प्रसारण से पहले मनोचिकित्सकों को दिखाया जाता है ताकि कोई गलत संदेश जाने पाए।
कोई बच्चा ऑटिस्टिक है या नहीं यह जानने के लिए दो तरह के टेस्ट हैं
CHAT(Checklist for Autism in Toddlers test)
http://www.paains.org.uk/Autism/chat.htm
ATEC Test (Autism Treatment Evaluation Checklist )
http://www.autism.com/ari/atec/

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