उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Feb 17, 2010

उदंती.com, जनवरी-फरवरी 2010


उदंती.com,  जनवरी-फरवरी 2010
वर्ष 2, संयुक्तांक 6-7
**************
धैर्य और परिश्रम से हम वह प्राप्त कर सकते हैं जो शक्ति और शीघ्रता से कभी नहीं।
- ला फान्टेन
**************
अनकही: रक्षक के वेश में भक्षक!
परंपरा : धरती की प्यास बुझाते हैं तालाब
- राहुल कुमार सिंह

संस्मरण : एक सच्चे संत की पुण्य स्मृति
- प्रताप सिंह राठौर

कविता: जिन्दगी की सुनहरी घड़ी
- बुधराम यादव

उत्सव : चली चली रे पतंग...- उदंती फीचर्स
अतिथि : जिनके लिए बस्तर के गांव स्वर्ग समान हैं
- हरिहर वैष्णव

प्रकृति : वसन्त बहार...- डॉ. गीता गुप्त
पर्यटन : बर्फीलीमेहमाननवाजी - बिमल श्रीवास्तव
स्वाद: भारतीय मसालों का जवाब नहीं/ जरा सोचें
धरोहर : बूंद नहीं तो समुद्र भी नहीं
जीवन शैली : जल बिच मीन पियासी रे
- अरुण कुमार शिवपुरी

वाह भई वाह
21वीं सदी के व्यंग्यकार / 10वीं कड़ी :
साहित्यकार के हसीन सपने - काशीपुरी कुंदन

कहानी: रामी - डॉ. दीप्ति गुप्ता
लघु कथाएं: कमल चोपड़ा
इस अंक के लेखक
आपके पत्र/ इन बाक्स

रक्षक के वेश में भक्षक!


चौदह वर्षीया रुचिका टेनिस के खेल की उभरती प्रतिभा थी। उसके पिता ने अपनी लाडली बेटी के टेनिस कौशल में निखार लाने के लिए उसे कनाडा भेजने का निर्णय लिया। जैसे ही यह बात रुचिका के टेनिस क्लब में फैली, क्लब के तत्कालीन अध्यक्ष शंभु प्रताप सिंह राठौर, आई.जी. हरियाणा पुलिस ने तुरंत रुचिका के पिता से मिलकर उन्हें सलाह दी कि वे रुचिका को कनाडा न भेजें और आश्वस्त किया कि वे रुचिका की बेहतर टे्रनिंग की पूरी व्यवस्था यहीं कर देंगे। यह बात है अगस्त 1990 की और इसी के साथ निरीह रुचिका और उसके परिवार- पिता और छोटे भाई पर अमानवीय यातनाओं का पहाड़ टूट पड़ा। जिसने साबित किया कि रुचिका के बाप की उम्र का वरिष्ठ पुलिस अधिकारी राठौर एक नृशंस और बर्बर भेडिय़ा था। राठौर ने पहले टेनिस क्लब में रुचिका का यौन उत्पीडऩ किया। जब रुचिका ने इसकी शिकायत की तो राठौर ने रुचिका को क्लब से निष्कासित करवा दिया। इस अंतहीन यातनामय त्रासदी से टूट कर रुचिका ने 1993 में आत्महत्या कर ली। रुचिका के त्रस्त पिता को पचकुला (हरियाणा) का मकान बेचकर शिमला में शरण लेनी पड़ी।
इन परिस्थितियों में रुचिका की मौत के लिए राठौर को न्यायालय से दण्डित करवाने का बीड़ा उठाया रुचिका की सहेली अनुराधा और उसके साहसी माता-पिता ने। अनुराधा राठौर के कुकृत्य की प्रत्यक्षदर्शी गवाह थी। अनुराधा और उसके परिवार के लिए यह कितना मुश्किल काम था इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें पूरे 19 वर्ष लगे एक के बाद एक बाधा से जूझते हुए न्यायालय से एक निराशाजनक फैसला पाने में। न्यायालय को एक किशोरी को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को सिर्फ 6 महीने की जेल और सिर्फ एक हजार रुपए का जुर्माना उचित दण्ड लगा। इतना ही नहीं न्यायालय ने अपराधी राठौर के साथ अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कहा कि अपराधी की बड़ी उम्र और मुकदमे के 19 वर्ष की लंबी अवधि तक चलने के कारण हल्की सजा दी जा रही है!!! इस सजा (?) को सुनकर दर्प से दमकते चेहरे पर कुटिल मुस्कान लिए अदालत से बाहर निकलते राठौर को टीवी पर असंख्य भारतीयों ने देखा। राठौर की चाल ढाल स्पष्ट संदेश दे रही थी कि वह राजसत्ता और न्यायप्रणाली को अपनी जेब में रखता है। प्रमाण है कि इन्हीं 19 वर्षों में राठौर इतने संगीन अपराध में अभियुक्त होने के बावजूद राजनेताओं और नौकरशाहों के संरक्षण में एक के बाद एक सफलता की सीढिय़ा चढ़ता हुआ इंस्पेक्टर जनरल से डाइरेक्टर जनरल पुलिस की पदवी पाकर अपना कार्यकाल समाप्त करके ससम्मान रिटायर हुआ।
वास्तव में यह अत्यंत दर्दनाक और शर्मनाक मामला हमारे देश के राजनेताओं, शासनतंत्र और सामाजिक व्यवस्था की हेल्थ रिपोर्ट है। इस बीमार गठजोड़ के दानवी चंगुल में रुचिका जैसे लाखों निरीह साधारण नागरिक त्रस्त रहते हैं, दम तोड़ देते हैं।
राजतंत्र के शीर्ष पर बैठे लोगो के मन में जनसेवा, समाज सुधार और राष्ट्र निर्माण जैसे विचार अब नहीं आते। अब राजनीति एक धंधा बन गई है। जहां वे जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक आमदनी करने में जी जान से जुटे रहते हैं। कोई मुख्यमंत्री बनकर बीस बाइस महीनों में चार हजार करोड़ रुपयों का घोटाला कर लेता है, कोई चारा घोटाला करता है और कोई कत्ल और अपहरण जैसे अपराधों में नामजद होता है। रचनात्मक सोच में अक्षम ऐसे जनप्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं में शोर- शराबा और मारपीट तथा अन्य अशोभनीय व्यवहार करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। इस प्रकार के राजनेता भ्रष्टाचार के माध्यम के रूप में नौकरशाही और पुलिस को इस्तेमाल करते हैं, फलस्वरुप पुरस्कार के रूप में सरकारी अफसर और पुलिस अफसर अपने भ्रष्टाचार और कुकर्मों के बावजूद सुरक्षित बने हुए पदोन्नति पाते रहते हैं।
नौकरशाही, न्यायप्रणाली और पुलिस के अशुभ गठबंधन का भयावह, क्रूर और दमनात्मक चेहरा रुचिका की त्रासदी से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। अंग्रेजों ने पुलिस विभाग को एक ऐसे निर्मम और बर्बर संगठन के रूप में गठा था जो अमानवीय यंत्रणाओं से जनता को आतंकित रखे ताकि आम नागरिक अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत भी न जुटा सके। पुलिस विभाग आज भी अंग्रेजों के बनाए उसी कानून के तहत काम करता है और आज के शासन तंत्र के प्रति वही भूमिका निभाता है जो पहले अंग्रेजी शासनतंत्र के प्रति निभाता था। अवधारणा में पुलिस के रक्षक होने की कल्पना की जाती है परंतु भारत में यह कोरी कल्पना ही है। भारत में पुलिस भक्षक बन विचरती है। नतीजा है कि पुलिस थाने में प्राथमिक रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज कराना एवरेस्ट विजय से भी ज्यादा मुश्किल काम है। अवकाश प्राप्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी किरन बेदी के अनुसार पुलिस थाने में अपराध की प्राथमिकी दर्ज होना अपवाद है, दर्ज न होना आम बात है। रूचिका के साथ 1990 में हुए अपराध की प्राथमिकी जब मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और डाइरेक्टर जनरल पुलिस, हरियाणा से गुहार लगाने के बावजूद भी दर्ज नहीं हो पाई तो अन्तत: हाइकोर्ट के आदेश पर आठ वर्ष बाद 1998 में दर्ज हुई। इसीसे प्रगट होता है कि पुलिस विभाग कितना निरंकुश है।
रुचिका के मामले में राठौर ने रुचिका और उसके परिवार को यौन शोषण की शिकायत वापस लेने के लिए उन्हें आतंकित करने हेतु एक के बाद एक भयानक अपराध किए। रुचिका को हरियाणा टेनिस फेडरेशन से निष्कासित करवाया, सेक्रेड हार्ट स्कूल जिसमें रुचिका 11 वर्षों से पढ़ रही थी और जहां राठौर की पुत्री भी उसी क्लास में थी, से भी निष्कासित करवा दिया, रुचिका के छोटे भाई 14 वर्षीय आशू पर कार चोरी जैसे झूठे अपराधिक मुकदमे चलवा कर उसे थाने में लाकर भूखा प्यासा रखते हुए भंयकर शारीरिक यातनाएं दीं। रुचिका को आत्महत्या करने को मजबूर किया, रुचिका की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से छेड़छाड़ की, सीबीआई के जांच अधिकारी पर तथ्य को छुपाने के लिए दबाव डाला और रिश्वत देने का प्रयास किया, उसके छोटे भाई को हथकडिय़ों में बांध कर घर के सामने घुमाया, गुंडों से अश्लील नारे लगवाए, गवाहों को धमकाया और प्रताडि़त किया इत्यादि। इस परिप्रेक्ष्य में यदि आम जनता का यह विश्वास है कि पुलिस की वर्दी अपराधियों का सुरक्षा कवच है तो क्या आश्चर्य। विडम्बना यह है कि भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में राठौर जैसे जालिमों की भरमार है। कानून में प्रशासनिक अधिकारियों को पब्लिक सर्वेंट अर्थात जनता के सेवक कहा जाता है परंतु वास्तविक में ये ऐसे आचरण करते है जैसे जनता इनकी सेवक हो।
उपरोक्त संगीन जुर्मों के लिए 19 वर्ष बाद न्यायालय से अत्यंत मुलायम दण्ड मिलने पर भारत के प्रबुद्धवर्ग और मीडिया में जो आक्रोश उमड़ा है वह रुचिका की त्रासदी से उपजा एक सकारात्मक कदम है। चारों ओर से मांग हो रही है कि राठौर को उसके जघन्य अपराधों के लिए कठोर दण्ड मिले और साथ ही साथ शासन के शीर्ष से लेकर निम्नतम स्तर तक के उन सभी व्यक्तियों को भी कठघरे में खड़ा किया जाए जो राठौर के अपराधों में उसे सरंक्षण देते रहे या सहायता देते रहे। साथ ही यह भी मांग हो रही है कि- बच्चों के साथ होने वाली शारीरिक छेड़छाड़ को गंभीर अपराध मानते हुए कानून में इसके लिए कठोर दंड का प्रावधान किया जाए और थाने में अपराध की प्राथमिकी दर्ज होने को सर्वसुलभ बनाया जाए। हम भी इन सभी मांगों का पूर्ण समर्थन करते हैं।
लोकतंत्र में जनहित में प्रबुद्ध वर्ग और मीडिया द्वारा सम्मिलित रूप से चलाए जाने वाले आंदोलन के परिणाम बहुत ही दूरगामी होते हैं। परंतु आवश्यक यह है कि इस प्रकार के आंदोलन वांछित परिणाम आने तक अबाध रूप से चलते रहें। जुल्म और अन्याय के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से आवाज उठाना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
आइये हम सभी नववर्ष के संकल्प के रूप में प्रण करें कि रक्षक के चोले में घूमने वाले खूंखार भक्षकों से बालक बालिकाओं को सुरक्षित बनाए रखने हेतु सभी कानूनी कदम तत्परता से उठाएगें।
सभी प्रबुद्ध पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं।
- रत्ना वर्मा

धरती की प्यास बुझाते हैं तालाब


-राहुल सिंह
छत्तीसगढ़ में जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण, तालाबों के साथ विद्यमान है और इसलिए तालाब स्नान, पेयजल और अपासी (आबपाशी या सिंचाई) आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति के साथ जन-जीवन और समुदाय के बृहत्तर सांस्कृतिक संदर्भयुक्त बिन्दु हैं। अहिमन रानी और रेवा रानी की गाथा तालाब स्नान से आरंभ होती है। नौ लाख ओडिय़ा, नौ लाख ओड़निन के उल्लेख सहित दसमत कइना की गाथा में तालाब खुदता है और फुलबासन की गाथा में मायावी तालाब है। एक लाख मवेशियों का कारवां लेकर चलने वाला लाखा बंजारा और नायकों के स्वामिभक्त कुत्ते का कुकुरदेव मंदिर सहित उनके खुदवाए तालाब, लोक-स्मृति में खपरी, दुर्ग, मंदिर हसौद, पांडुका के पास, रतनपुर के पास करमा-बसहा, बलौदा के पास महुदा जैसे स्थानों में जीवन्त हैं।
खमरछठ (हल-षष्ठी) की पूजा के साथ प्रतीकात्मक तालाब-रचना और संबंधित कथा में तथा बस्तर अंचल की लछमी जगार गाथा में तालाब खुदवाने संबंधी मान्यता और सुदीर्घ परम्परा का संकेत है। सरगुजा अंचल में कथा चलती है कि पछिमहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाए थे और राजा बालंद, कर के रूप में खीना लोहा वसूलता और जोड़ा तालाब खुदवाता। उक्ति है- सात सौ फौज, जोड़ा तलवा; अइसन रहे बालंद रजवा। विशेषकर पटना (कोरिया) में कथन है- सातए कोरी, सातए आगर। तेकर उपर बूढ़ा सागर।
यह रोचक है कि छत्तीसगढ़ में आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, लोनिया, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब निर्माण में महत्वपूर्ण होती है और उनकी विशेषज्ञता तो काल-प्रमाणित है ही। छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के समय किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा खुदवाए गए उसके नाम स्मारक बहुसंखय 'लंकेटर तालाब' अब भी जल आवश्यकता की पूर्ति और राहत कार्य के संदर्भ सहित विद्यमान हैं।
छत्तीसगढ़ की प्रथम हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के सन 1900 के मार्च-अप्रैल अंक का उद्धरण है- 'रायपुर का आमा तालाब प्रसिद्ध है। यह तालाब श्रीयुत सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत में 17000 रु. खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसकी ओर ध्यान देवे।'
छत्तीसगढ़ के ग्रामों में तालाबों की बहुलता इतनी कि 'छै आगर छै कोरी', यानि 126 तालाबों की मान्यता रतनपुर, मल्हार, खरौद, महन्त, नवागढ़, अड़भार, आरंग, धमधा जैसे कई स्थानों के साथ सम्बद्ध है। सरगुजा के महेशपुर और पटना में तथा बस्तर अंचल के बारसूर, बड़े डोंगर, कुरुसपाल और बस्तर आदि ग्रामों में 'सात आगर सात कोरी' (147) तालाबों की मान्यता है, इन गांवों में आज भी बड़ी संख्या में तालाब विद्यमान हैं। छत्तीस से अधिक संख्या में परिखा युक्त मृत्तिका-दुर्ग (मिट्टी के किले या गढ़) जांजगीर-चांपा जिले में ही हैं, इन गढ़ों का सामरिक उपयोग संदिग्ध है किन्तु गढ़ों के साथ खाई, जल-संसाधन की दृष्टि से आज भी उपयोगी है।
अहिमन शुकलाल प्रसाद पांडे की कविता 'तल्लाव के पानी' में-
गनती गनही तब तो इहां ल छय सात तरैया हे,
फेर ओ सब मां बंधवा तरिया पानी एक पुरैया हे।
न्हावन छींचन भइंसा-मांजन, धोये ओढऩ चेंदरा के।
ते मा धोबनिन मन के मारे गत नइये ओ बपुरा के॥
पानी नीचट धोंघट धोंघा, मिले रबोदा जे मा हे।
पंडरा रंग, गैंधाइन महके, अउ धराउल ठोम्हा हे।
कम्हू जम्हू के साग अमटहा, झोरहातै लगबे रांधे,
तुरत गढ़ा जाही रे भाई रंहन बेसन नई लागे।

भीमादेव, बस्तर में पाण्डव नहीं, बल्कि पानी के देवता हैं। जांजगीर और घिवरा ग्राम में भी भीमा नामक तालाब हैं। बस्तर में विवाह के कई नेग-चार पानी और तालाब से जुड़े हैं। कांकेर क्षेत्र में विवाह के अवसर पर वर-कन्या तालाब के सात भांवा घूमते हैं और परिवारजन सात बार हल्दी चढ़ाते हैं। दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय भी ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है।
छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा भी है, जिसे अनुष्ठान (लोकार्पण का एक स्वरूप) के बाद ही उसका सार्वजनिक उपयोग आरंभ होता था। विवाहित तालाब की पहचान सामान्यत: तालाब के बीच स्थित स्तंभ से होती है। इस स्तंभ से घटते-बढ़ते जल-स्तर की माप भी हो जाती है। कुछ तालाब अविवाहित भी रह जाते हैं, लेकिन ऐसे तालाबों का अनुष्ठानिक महत्व बना रहता है क्योंकि ऐसे ही तालाब के जल का उपयोग चिन्त्य या पीढ़ी पूजा के लिए किया जाता है। जांजगीर-चांपा जिले के किरारी के हीराबंध तालाब से प्राप्त काष्ठ-स्तंभ, उस पर खुदे अक्षरों के आधार पर दो हजार साल पुराना प्रमाणित है। इस उत्कीर्ण लेख से तत्कालीन राज पदाधिकारियों की जानकारी मिलती है।
तालाबों के स्थापत्य में कम से कम मछन्दर (पानी के सोते वाला तालाब का सबसे गहरा भाग), नक्खा या छलका (लबालब होने पर पानी निकलने का मार्ग), गांसा (तालाब का सबसे गहरा किनारा), पैठू (तालाब के बाहर अतिरिक्त पानी जमा होने का स्थान), पुंछा (पानी आने व निकासी का रास्ता) और मेढ़-पार होता है। तालाबों के प्रबंधक अघोषित-अलिखित लेकिन होते निश्चित हैं, जो सुबह पहले-पहल तालाब पहुंचकर घटते-बढ़ते जल-स्तर के अनुसार घाट-घठौंदा के पत्थरों को खिसकाते हैं, घाट की काई साफ करते हैं, दातौन की बिखरी चिरी को इकट्ठा कर हटाते हैं और इस्तेमाल के इस सामुदायिक केन्द्र के औघट (पैठू की दिशा में प्रक्षालन के लिए स्थान) आदि का अनुशासन कायम रखते हैं।
तालाबों के पारंपरिक प्रबंधक ही अधिकतर दाह-संस्कार में चिता की लकड़ी जमाने से लेकर शव के ठीक से जल जाने और अस्थि-संचय करा कर, उस स्थान की शांति- गोबर से लिपाई तक की निगरानी करते हुए सहयोग देता है और घंटहा पीपर (दाह-क्रिया के बाद जिस पीपल के वृक्ष पर घट-पात्र बांधा जाता है) के बने रहने और आवश्यक होने पर इस प्रयोजन के वृक्ष-रोपण की व्यवस्था भी वही करता है। ऐसे व्यक्ति मान्य उच्च वर्णों के भी होते हैं।
तालाबों का नामकरण सामान्यत: उसके आकार, उपयोग, चरित्र पर आधारित होता है, इनमें खइया, नइया, पचरिहा, खो-खो, पनपिया, सतखंडा, अड़बंधा, डोंगिया, गोबरहा, पुरेनहा, देउरहा, पथर्रा, कारी, पंर्री, भट्ठा तालाब, कटोरा तालाब, नवा तालाब जैसे नाम हैं। नामकरण उसके चरित्र-इतिहास और व्यक्ति नाम पर भी आधारित होता है, जैसे- फुटहा, दोखही, भुतही, छुइहा, फूलसागर, मोतीसागर, रानीसागर, राजा तालाब, गोपिया, भीमा आदि। जोड़ा नाम भी होते हैं, जैसे- भीमा-कीचक, सास-बहू, मामा-भांजा, सोनई-रूपई। बरात निकासी, आगमन व पड़ाव से सम्बद्ध तालाब का नाम दुलहरा पड़ जाता है।
पानी और तालाब से संबंधित ग्राम-नामों की लंबी सूची है इनमें उद, उदा, दा, सर (सरी भी), सरा, तरा (तरी भी), तराई, ताल, चुआं, बोड़, नार, मुड़ा, पानी आदि जलराशि-तालाब के समानार्थी शब्दों के मेल से बने गांवों के नाम आम हैं। जल अभिप्राय के उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम के कुछ उदाहरण बछौद, हसौद, तनौद, मरौद, रहौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, बलौदा, मालखरौदा, चिखलदा, बिठलदा, रिस्दा, परसदा, फरहदा हैं। जल अभिप्राय के सर, सरा, सरी, तरा, तरी, के मेल से बने ग्राम नाम के उदाहरण बेलसर, भड़ेसर, लाखासर, खोंगसरा, अकलसरा, तेलसरा, बोड़सरा, सोनसरी, बेमेतरा, बेलतरा, सिलतरा, भैंसतरा, अकलतरा, अकलतरी, धमतरी है। तालाब समानार्थी तरई या तराई तथा ताल के साथ ग्राम नामों की भी बहुलता है। कुछ नमूने डूमरतराई, शिवतराई, पांडातराई, बीजातराई, सेमरताल, उडऩताल, सरिसताल, अमरताल हैं। चुआं, बोड़ और सीधे पानी जुड़कर बने गांवों के नाम बेंदरचुआं, घुंईचुआं, बेहरचुआं, जामचुआं, लाटाबोड़, नरइबोड़, घघराबोड़, कुकराबोड़, खोंगापानी, औंरापानी, छीरपानी, जूनापानी जैसे ढेरों उदाहरण हैं। तालाबों और स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है तो जलराशि सूचक बंद के मेल से बने कुछ ग्राम नाम ओटेबंद, उदेबंद, कन्हाइबंद, बिल्लीबंद, टाटीबंद जैसे हैं। तालाब अथवा जल सूचक स्वतंत्र ग्राम-नाम तलवा, झिरिया, बंधवा, सागर, डबरी, डभरा, गुचकुलिया, कुंआ, बावली, पचरी, पंचधार, सेतगंगा, गंगाजल, नर्मदा और निपनिया भी हैं।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी का नाम महानदी और सरगुजा में महान नदी है तो एक जिला मुख्यालय का नाम महासमुंद है और ग्राम नाम बालसमुंद (बेमेतरा) भी है लेकिन रायपुर जिले के पलारी ग्राम का बालसमुंद, विशालकाय तालाब है। जगदलपुर का तालाब, समुद्र या भूपालताल बड़ा नामी है।
कार्तिक, ग्रहण, भोजली, मृतक संस्कार के साथ नहावन और पितृ-पक्ष की मातृका नवमी के स्नान-अनुष्ठान, ग्राम-देवताओं की बीदर-पूजा, अक्षय-तृतीया पर बाउग (बीज बोना), विसर्जन आदि और पानी कम होने जाने पर मतावल, तालाब से सम्बद्ध विशेष अवसर हैं। हरेली की गेंड़ी को पोरा (भाद्रपद अमावस्या) के दिन तालाब का तीन चक्कर लगाकर गेंड़ी के पउवा (पायदान) का विसर्जन तालाब में किए जाने का लोक विधान है और विसर्जित सामग्री के समान मात्रा की लद्दी (गाद) तालाब से निकालना पारम्परिक कर्तव्य माना जाता है। गांवजल्ला (ग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर) लद्दी निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। पानी सूख जाने पर तालाब में झिरिया (पानी जमा करने के लिए छोटा गड्ढ़ा) बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है।
तालाब की सत्ता, उसके पारिस्थिति की-तंत्र के बिना अधूरी है, जिसमें जलीय वनस्पति- गधिया, चीला, रतालू (कुमुदनी), खोखमा, उरई, कुस, खस, पसहर, पोखरा (कमल), जलमोंगरा, ढेंस कांदा, कुकरी कांदा, पिकी, जलीय जन्तु सीप-घोंघी, जोंक, संधिपाद, चिडिय़ा (ऐरी), मछलियां, उभयचर आदि और कहीं-कहीं ऊद व मगर भी होते हैं। जलीय जन्तुओं को देवतुल्य सम्मान देते हुए सोने का नथ पहनी मछली और लिमान (कछुआ) का तथ्य और उससे सम्बद्ध विभिन्न मान्यताएं तालाब की पारस्थितिकी सत्ता के पवित्रता और निरंतरता की रक्षा करती हैं। जल की रानी, मछलियों के ये नाम छत्तीसगढ़ में सहज ज्ञात होते हैं- डंडवा, घसरा, अइछा, सोढि़हा या सोंढ़ुल, लुदू, बंजू, भाकुर, पढिऩा, भेंड़ो, बामी, काराझिंया, खोखसी या खेकसी, झोरी, सलांगी या सरांगी, डुडुंग, डंडवा, ढेंसरा, बिजरवा, खेगदा, तेलपिया, ग्रासकाल। तालाब जिनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी जबान पर कटरंग, सिंघी, लुडुवा, कोकिया, रेछा, कोतरी, खेंसरा, गिनवा, टेंगना, मोहराली, सिंगार, पढिऩा, भुंडी, सांवल, बोलिया या लपची, रुखचग्घा, केवई, मोंगरी, पथर्री, चंदैनी, कटही, भेर्री, कतला, रोहू और मिरकल मछलियों के नाम भी सहज आते हैं।
सामुदायिक-सहकारी कृषि का क्षेत्र- बरछा, कुसियार (गन्ना) और साग-सब्जी की पैदावार के लिए नियत तालाब से लगी भूमि, पारंपरिक फसल चक्र परिवर्तन और समृद्ध-स्वावलंबी ग्राम की पहचान माना जा सकता है। बंधिया में आबपाशी के लिए पानी रोका जाता है और सूख जाने पर उसका उपयोग चना, अलसी, मसूर, करायर उपजाने के लिए कर लिया जाता है।
तालाब स्नान के बाद जल अर्पित करने के लिए शिवलिंग, मंदिर, देवी का स्थान- माताचौंरा या महामाया और शीतला की मान्यता सहित नीम के पेड़, अन्य वृक्षों में पीपल (घंटहा पीपर) और आम के पेड़ों की अमरइया आदि भी तालाब के अभिन्न अंग होते हैं।
छत्तीसगढ़ में तालाब के साथ जुड़े मिथक, मान्यता और किस्सों में झिथरी, मिरचुक, तिरसाला, डोंगा, पारस-पत्थर, हंडा-गंगार, पूरी बरात तालाब में डूब जाना जैसे पात्र और प्रसंग तालाब के चरित्र को रहस्यमय और अलौकिक बनाती है। तालाब से जुड़ी दंतकथाओं में पत्थर की पचरी, मामा-भांजा की कथा, राहगीरों के उपयोग के लिए तालाब से बर्तन निकलना और भैंसे के सींग में चीला अटक जाने से किसी प्राचीन निर्मित या प्राकृतिक तालाब के पता लगने का विश्वास, जन-सामान्य के इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति करता है।

एक सच्चे संत की पुण्य स्मृति


- प्रताप सिंह राठौर
यह निर्विवाद सत्य है कि गेरुआ वस्त्रधारियों के हुजूम में एक सच्चा संत ढूंढ पाना भूसे के ढेर में से सुई ढूंढने से भी ज्यादा मुश्किल है। जिधर देखो उधर ऐसे संतों (?) की भीड़ दिखाई देती है जो धर्मभीरू स्त्री-पुरुषों को सादा जीवन और त्याग का उपदेश देते हुए अपने नाम पर पांच सितारा होटलों जैसी सुख सुविधाओं से युक्त आराम (?) और एयरकंडीशंड कारों के काफिले बनाकर ऐश करते हैं। किसी भी तीर्थ स्थान पर जाइए ऐसे पूंजीवादी संतों की भरमार है। हरद्वार में भी ऐसा ही है। परंतु मैं अपनी पिछली हरद्वार यात्रा में एक सच्चे संत की मधुर स्मृति से अभिभूत हो गया। बचपन की उस स्मृति को आज मैं आपके साथ बांटना चाहता हूं-
मैं अपने जन्म से स्वामी रामानंद जी का स्नेहभाजन रहा हूं। वर्षों से इच्छा थी कि साधना-धाम जाकर स्वामी जी के पुनीत स्मारक के दर्शन करूं और स्वामीजी की पुण्यस्मृति को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूं। सो स्वामीजी की मेरे परिवार पर स्थायी कृपा के फलस्वरूप सुयोग बन ही गया और मेरी भतीजी का शुभ विवाह संस्कार 15 फरवरी 2007 को हरद्वार में होना निश्चित हुआ, इस प्रकार मुझे साधना धाम के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मैं अपरान्ह 4 बजे साधना धाम की पुण्य स्थली पहुंचा। इस पुनीत स्थल के सौम्य, शांत एवं पवित्र वातावरण में प्रवेश करते ही स्वामीजी के स्नेहमय सान्निध्य में बीते अपने जीवन की मधुर स्मृतियों का मेरे तनमन में ऐसा उफान उठा- ऐसा भावातिरेक हुआ कि आंखे अश्रुपुरित हो गईं। स्वामीजी की मुस्कुराती, स्नेहमय दिव्य छवि तो मन में सदैव ही विराजती है। लगा कि वह दिव्य पवित्र छवि सजीव होकर मेरे सिर को अपने करकमलों से सहला रही है।
मैं तब चार या पांच वर्ष का रहा होऊंगा। यह बात 1946-47 की होगी। मेरे माता-पिता फतेहगढ़ (फर्रूखाबाद) उत्तरप्रदेश निवासी स्व. श्रीमती राजेश्वरी देवी और स्व. ठा. चंदन सिंह राठौर, एडवोकेट स्वामीजी के अनन्य भक्त थे और स्वामीजी के कृपापात्र थे। स्वामीजी हमारे घर ठहरने की कृपा करते थे। स्वामीजी मुझे गोद में उठाकर दुलारते थे, लाड़ प्यार करते थे। मैं स्वामीजी के साथ प्रात: काल गंगा स्नान को जाता था। स्वामीजी गंगाजी में मेरा हाथ पकड़ कर डुबकी लगवाते थे। मेरा बदन भी पोंछ देते थे। कभी- कभी घर पर भी मेरे धूल से सने हाथ- पांव धोकर तौलिये से पोंछ देते थे। स्वामीजी का आसन बाहर बैठक में पड़े एक तख्त पर लगाया जाता था। उसी पर एक थैले में स्वामीजी का पार्कर पेन जिसमें गोल्डन कैप थी, क्विंक दवात और एक छोटा सा होम्योपैथी की दवाइयों का बॉक्स रहता था।
पिताजी के सुबह 10 बजे कचहरी चले जाने के बाद अपरान्ह 4 बजे उनके वापस आने तक मैं स्वामीजी के आस- पास ही खेलता रहता था। स्वामीजी का पेन और होम्योपैथी का बॉक्स मुझे बहुत आकर्षित करते थे। स्वामीजी अनुपस्थिति में मैं उनके पार्कर पेन से उनके लेटरपैड पर अगड़म बगड़म कुछ आकृतियों बना देता था, इंक फैला देता था और होम्योपैथी की शीशियों में से मीठी गोलियां खा लेता था। इन हरकतों पर मेरे माता- पिता मुझे डांटते थे। लेकिन स्वामीजी हंसते थे, इंक से सने मेरे हाथ धो देते थे और प्यार से गोद में बैठा लेते थे। स्वामीजी का मेरे घर पर ठहरना मेरे लिए उत्सव जैसा होता था। मेरा छोटा भाई अजित तब शायद दो वर्ष का था। स्वामीजी उसे भी अपनी गोद में लेकर प्यार करते थे।
मेरी माता जी का स्वामीजी बहुत सम्मान करते थे। उन्हें बड़े आदर से प्रताप की मां कह कर संबोधित करते थे। मेरे पिताजी से स्वामीजी बहुत स्नेह करते थे। मेरे पिताजी हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं में निष्णात थे तथा धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करते रहते थे। स्वामीजी उन्हें अपना मित्र कहते थे तथा उनसे अंग्रेजी में नियमित पत्र व्यवहार करते थे। बहुत ही सुन्दर हस्तलिपि थी स्वामीजी की। बहुत वर्षों तक मेरे पिताजी को लिखे स्वामीजी के पत्र मेरे परिवार की अमूल्य निधि रहे। स्वामीजी के प्रयाण के उपरान्त संभवतया स्वामीजी के पत्रों के प्रकाशन हेतु संकलक को भेज दिये गये थे।
बहुत ही मधुर, संगीतमय कंठस्वर था स्वामीजी का। संध्या समय होने वाले प्रवचन संकीर्तन की सभा में आसन पर बैठकर आंखे मूंद कर ध्यानमग्न होकर जब स्वामीजी राम का उच्चार करते थे तो वह छवि उस बाल्यावस्था में भी मेरे तनमन को झंकृत कर देती थी। आज भी वह संगीतमय मधुरवाणी मेरे मन में गूंजती रहती है।
उन्हीं दिनों मेरे माता- पिता ने नया मकान बनवाना शुरु किया था। स्वामीजी ने उस प्लाट पर जाकर उस भूमि को अपने चरणरज से पवित्र किया था और मेरे माता- पिता की इस योजना के सफल होने के लिए आशीर्वाद देते हुए कहा था- इस मकान में एक ईंट चांदी की लगेगी तो एक ईंट सोने की लगेगी, कोठी के नक्शे का सबसे महत्वपूर्ण भाग उसका 20x24 का ड्राइंग रूम है जिसमें 8 दरवाजे और एक बहुत बड़ी खिड़की है। इसका यह आकार और इसे इतना हवादार बनाने का उद्देश्य स्वामीजी की साधना गोष्ठियों के लिए उपयुक्त हाल का उपलब्ध होना। मेरे माता -पिता को जीवनभर यह कसकता रहा कि उनकी योजना के परिपूर्ण होने से पहले ही स्वामीजी स्वर्ग सिधार गए।
मुझे वह दुखद दिन भी याद है जब पत्र से स्वामीजी के स्वर्गवास का हृदय विदारक समाचार मेरे माता- पिता को मिला। मुझे अपने माता- पिता की आंखों से बहती अश्रुधारा की स्पष्ट याद है। हम बच्चे भी रोते रहे थे।
स्वामीजी इहलोक से प्रयाण कर गए परंतु मेरे परिवार में वे सदैव आराध्य थे और आज भी हैं। हमारी कोठी के पूजागृह में स्वामीजी का भव्य श्वेतश्याम चित्र अन्य देवी- देवताओं के चित्रों के बीच दैदीप्यमान रहता है।
मैं अपने छह भाई-बहनों में सबसे बड़ा हूं। मेरी दो छोटी बहनों और एक भाई का जन्म स्वामीजी के स्वर्गवास के बाद हुआ। फिर भी हम सभी के हृदयों में पूज्य स्वामीजी की मंगलमय कल्याणकारी छवि सदैव विराजती है। स्वामी जी की हमारे परिवार पर इतनी सघन कृपा और स्नेह के फलस्वरूप ऐसा होना ही था।
जहां तक मेरा विश्वास है तो संत, महात्मा, सन्यासी इन सभी शब्दों का एकमात्र पर्याय पूज्य स्वामी रामानंद जी है।
15.2.2007 के शुभ दिन साधना धाम के पावन परिसर में प्रविष्ट होते ही मुझे महसूस हुआ कि स्वामी जी ने अपने लंबे हाथ बढ़ाकर मुझे उठाकर अपनी गोद में बिठा लिया है। यह एक दिव्य अनुभूति थी। मैं मंत्रमुग्ध हो गया। प्रण किया कि इस पावन स्थल पर बार-बार जाता रहूंगा। पूज्य स्वामी रामानंदजी के चरणों में शत शत प्रणाम।
सम्पर्क- बी-403, सुमधुर-।। अपार्टमेन्ट्स,
अहमदाबाद- 380015
मोबाइल- 09428813277
***********************************************************************
स्वामी रामानंदजी
स्वामी रामनंद जी (1916-52 ) का जन्म ललितपुर (उत्तरप्रदेश) के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता होम्योपैथी के डॉक्टर थे। जन्म के समय उनका नाम शिशुपाल रखा गया। बालक शिशुपाल जब दो वर्ष के थे कि उनकी माता का देहांत हो गया। इसके बाद उनका लालन-पालन उनकी 12 वर्षीय बड़ी बहन और पिता ने किया। कुछ समय बाद यह परिवार तरन तारन पंजाब में आ गया और बालक शिशुपाल की शिक्षा प्रारंभ हुई। शिक्षकों ने पाया कि शिशुपाल एक अत्यंत मेधावी छात्र थे। पंजाब यूनीवर्सिटी की 1933 की मैट्रिक परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान पाकर एक नया रेकार्ड स्थापित किया। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें लाहौर भेजा गया। और वहां भी उन्होंने बीए (आनर्स) संस्कृत में प्रथम श्रेणी के साथ प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसी के साथ युवक शिशुपाल के मन में वैराग्य छाने लगा और वे सन्यास लेने की बात करने लगे। उनके परिवार और शिक्षकों की आकांक्षा थी कि वे आई.सी.एस. की परीक्षा में सफल होकर अपनी प्रखर बुद्धि का सदुपयोग करेंगे।
विवेकानंद को आदर्श मानने वाले युवक शिशुपाल ने आई.सी.एस. बनकर विदेशी शासकों के शासन तंत्र की कड़ी बनना अस्वीकार कर दिया और परिवार के आग्रह पर बेमन से एम.ए. संस्कृत में प्रवेश ले लिया। वैराग्य में डूबे मन के बावजूद एम.ए. संस्कृत में भी प्रथम श्रेणी प्राप्त की। इसके एक वर्ष बाद परिवार को मनाने में सफल होकर सन्यासी बन कर सिर्फ एक झोला लेकर वे भारत भ्रमण पर निकल पड़े। स्वामी रामानंद एक यायावर सन्यासी थे और अपने प्रवचनों में अंधविश्वास से बचने और शिक्षा के महत्व का प्रचार करते थे। स्वामी जी ने अनेक पुस्तकें लिखीं और कैलाश की यात्रा की। स्वामी रामानंद ने अपने जीवनकाल में किसी मठ या आश्रम की स्थापना नहीं की। स्वामीजी ने कनखल, हरद्वार में शरीर त्याग दिया। बाद में स्वामीजी के अनुयाइयों ने उनके स्मारक के रूप में कनखल में साधना धाम स्थापित कर दिया है।

जिन्दगी की सुनहरी घड़ी


-बुधराम यादव
सिर्फ रीते कहीं,
फिर से बीते नहीं,
जिन्दगी की सुनहरी घड़ी,
कीमती है ये मानो बड़ी।
ऐसी करतूत हो,
अन्तर्मन शुद्ध हो,
बैर पनपे नहीं,
न कोई युद्ध हो।
स्नेह की हो सलामत कड़ी।
समता की डोर से,
हम बंधे जोर से,
फिर न टूटें कभी,
हम किसी छोर से।
धर लें संकल्पों की वह छड़ी।
धीरज खोयें नहीं,
गम संजोयें नहीं,
हम जहां भी रहें,
खुशियां बोयें वहीं,
जल्दबाजी बिना हड़बड़ी
बोझ जितना हो कम,
चलना होता सुगम,
थकते हैं न कदम,
और भरता न दम,
शीत हो धूप चाहे झड़ी।

चली चली रे... पतंग


नए वर्ष का आरंभ रंग और उमंग लेकर तो आता ही है साथ ही जनवरी माह में आसमान रंग- बिरंगे पतंगों से भर जाता है। पतंग उड़ाने का खेल दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते खेलों में से एक बन गया है। यद्यपि आज इसे महंगे खेलों की श्रेणी में रखा जाता है। कभी शौक से अपने अपने छत और गली नुक्कड़ के बाहर उड़ाये जाने वाले इस खेल के आज दिल्ली में ही लगभग 140 रजिस्टर्ड और लगभग 250 गैर-रजिस्टर्ड 'पतंग क्लब' हैं। ऐसे कई क्लब आगरा, बरेली, भोपाल, इलाहाबाद, बीकानेर, गुजरात, जम्मू आदि सभी शहरों में बन गए हैं, जहां पतंगबाजी की प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं।
पतंगों का उड़ाने का इतिहास बहुत पुराना है। एक अनुमान के तौर पर दुनिया में पहली पतंग आज से करीब 3000 वर्ष पहले उड़ाई गई थी। तो जाहिर सी बात है कि कागज के आविष्कार से करीब एक हजार साल पहले से पतंग उड़ाई जाती रही है। उस वक्त पतंग पेड़ के पत्तों से बनाई जाती थी। जापान में आज भी वाशी पेपर से पतंग बनाई जाती है। इंडोनेशिया में तो अब भी पेड़ के पत्तों से बनी पतंगों का उपयोग मछली पकडऩे के लिए किया जाता है। न्यूजीलैंड के मओरी जनजाति के लोग कपड़े और पत्तों से पतंग बना कर उड़ाते हैं।
इससे कुछ और पहले की बात करें तो सदियों तक पतंगों का उपयोग युद्ध में संकेत देने, लक्ष्य भेदने का अभ्यास करने, प्रचार सामग्री आसमान से गिराने आदि में किया जाता रहा है। अमेरिका में गृह युद्घ के समय अमेरिकी सेना पतंगों के जरिए उनसे लड़ रहे सैनिकों की टुकडिय़ों की पहली पंक्ति के पीछे पर्चे गिराती थी, जिनमें उनसे समर्पण करने की अपील की जाती थी। अमेरिका के गृह युद्ध में पतंगों का उपयोग पत्रों को भेजने तथा समाचार पत्रों के वितरण में भी किया जाता रहा है। पुराने जमाने में चीनी लोग बुरी आत्माओं को भगाने के लिए पतंगे उड़ाया करते थे। आज भी चीनी लोगों की मान्यता है कि पतंग उनके अच्छे भाग्य के प्रतीक हैं। चीनियों का विश्वास है कि जब आप आसमान में उड़ती पतंग देखने के लिए अपना सिर ऊंचा कर ऊपर देखते हैं, तो इससे आपके शरीर के भीतर मौजूद अतिरिक्त ऊर्जा का उत्सर्जन होता है और इस तरह आपके स्वास्थ्य का संतुलन बना रहता है। इससे आपकी दृष्टि भी अच्छी रहती है।
पतंग ने किए कई आविष्कार
विश्व में वायुयान उड़ाने के सिद्धान्त के जनक इंग्लैंड के सर जॉर्ज केले माने जाते हैं। वे यार्कशायर में स्कारबोरो के निकट रहते थे। वर्ष 1720 में जन्में सर जॉर्ज ने पतंगों के सहारे ही लिफ्ट और थ्रस्ट के अंतर की खोज की और दुनिया को पहली बार बताया कि किसी विशेष कोण पर वस्तु को उड़ाने पर वह हवा में स्थिर रह सकती है। यदि उस समय ईंजन का आविष्कार हो गया होता तो वे राइट बंधुओं से डेढ़ सौ साल पहले वायुयान का आविष्कार कर चुके होते। ब्रिटिश विद्वान जोसेफ नीधम अपनी पुस्तक साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना में लिखते हैं कि काइट वह सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपकरण है जो यूरोप से चीन लाया गया।
जब जापानी लोगों ने प्राचीन काल में मंदिर और प्रार्थना स्थल बनाए तो वे छतों पर टाइल्स और अन्य निर्माण सामग्री पहुंचाने के लिए बड़ी पतंगों का सहारा लेते थे। इसी तरह रूसी 1855 में टारपीडों को सही स्थान पर पहुंचाने के लिए पतंगों का उपयोग करते थे। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने पतंग का उपयोग यह सिद्ध करने के लिए किया कि प्रकाश में विद्युत होती है। इसी तरह वर्ष 1999 में फ्लेक्सी इंटरनेशनल की एक टीम ने पतंगों की मदद से इंग्लिश चैनल को दो घंटे 30 मिनट में पार किया था। वे यह चैनल दो घंटों में ही पार कर लेते, लेकिन फ्रांसीसी समुद्री तट पर नौसेनिकों ने उन्हें समुद्री तट की जमीन से आधा मील पहले रोक लिया था। ईसा पूर्व 169 में हान सिन ने पतंग का उपयोग दुश्मन के शिविर में सुरंग की दूरी नापने में किया था। राइट बंधुओं ने 1899 में पतंगों का ग्लाइडर के रूप में और मैदान के निर्धारण के लिए भी किया था। वर्ष 1901 में मारकोनी ने हेक्सागन पतंग का उपयोग पहली बार अटलांटिक के आर- पार रेडियो सिग्नल भेजने के लिए किया था। उन्होंने पतंग का उपयोग एरियल के रूप में किया था। बेन फ्रेंकलिन ने पतंग का उपयोग अपने आपको झील के आर- पार ले जाने के लिए किया था। नियाग्रा नदी के आर- पार केबल ले जाने के लिए भी पतंग काम में लाई गई, ताकि वहां पर पुल बनाया जा सके। वर्ष 1908 में सेमुअल फ्रेंकलिन कोडी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने एक बड़े बॉक्सनुमा पतंग में एक छोटा ईंजन फिट करके पावर्ड एयरक्राफ्ट बनाया और उसे उड़ाया था, हालांकि 1913 में उसी पावर्ड एयरक्राफ्ट में ही उनकी मृत्यु हो गई थी। उन्होंने ही मानव को उड़ाने की क्षमता रखने वाली पतंग प्रणाली का आविष्कार किया था 1903 में पतंगों के सहारे इंग्लिश चैनल पार करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। आज हम आधुनिक पैराशुट और पैरा ग्लाइडर देखते हैं, ये अमेरिका के पतंग निर्माता डोमिना जलबर्ट के पहले पहल पैराफोइल पतंग के बनाने की बदौलत हुआ जो विकसित होते हुए आज के पैराशुट में बदल गया। पतंगों का म्यूजियम दुनिया भर में केवल एक देश अमेरिका में वाशिंगटन के लोंग बीच पर स्थित है। तो सिर्फ खेल मत समझिए हमारी इन रंग-बिरंगी पतंगों को।
(उदंती फीचर्स)

जिनके लिए बस्तर के गाँव स्वर्ग समान हैं


- हरिहर वैष्णव
आज आज जब अपने देश में चहुं ओर पाश्चात्य संस्कृति का न केवल बोलबाला है अपितु इसमें पूरी तरह रच-बस जाने के लिये आबाल-वृद्घ सभी में जानलेवा और जानदेवा होड़ लगी है भारत, विशेषत: बस्तर आने वाले बहुतेरे विदेशी भारतीय संस्कृति से न केवल अभिभूत हो उठते हैं अपितु वे इसे आत्मसात करते भी न$जर आते हैं। पाश्चात्य संस्कृति की विद्रूप चकाचौंध और मशीनी दौड़ से ऊब चुके और इन सबके कारण आत्मीय सम्बन्धों में आती जा रही कटुता, टूटन और रिक्तता-तिक्तता से बहुत गहरे अवसाद में जी रहे पश्चिमी देशों के लोगों को भारतीय संस्कृति, विशेषत: ग्रामीण भारतीय संस्कृति बहुत ही रास आती है। वे इस संस्कृति और इस देश के ग्रामीण परिवेश में सुकून पाते हैं। भारत के ग्रामीण अंचलों की 'अतिथि देवो भव' की भावना और आत्मीयता उन्हें ऐसे बांध लेती है कि जब वे यहां से, भले ही यहां केवल कुछ ही दिन रहने के बाद विदा हो रहे होते हैं तब अनायास ही उनकी आंखों से आंसू बह निकलते हैं।
अभी पिछले वर्ष की ही बात लें। लंदन (इंग्लैंड) के हॉनमैन म्यूजियम की डिप्टी हेड जॉजना गैरेट बस्तर के घड़वा शिल्प के अध्ययन के सिलसिले में अपने चित्रकार और छायाकार मंगेतर क्रैग हाना, जो मूलत: अमेरिकी हैं और अब पेरिस (फ्रान्स) में रह रहे हैं, के साथ बस्तर आयीं। वे दोनों यहां केवल सात दिन रहे किन्तु इन सात दिनों में वे आतिथेय परिवार से इस कदर घुल-मिल गये कि उनसे विदा होते दोनों ही की आंखों से आंसू बहने लगे। जॉजना ने आतिथेय की पत्नी को अपने गले से लगा लिया और कहने लगीं, 'इस ममतामयी महिला ने पूरे सात दिनों तक अपने हाथों से बना भोजन हमें खिलाया और अब जाते वक्त ये हमें कपड़े भी भेंट कर कर रही हैं, जबकि मैं इनके लिये कुछ भी नहीं कर सकी। मुझे अपने आप पर लज्जा आ रही है।' उत्तर में आतिथेय की पत्नी ने कहा, 'यह तो हम भारतीयों की परम्परा है। अतिथि हमारे लिये देवता होता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है।'
वापसी में रायपुर एयरपोर्ट पर तो क्रैग ने हद ही कर दी। उन्होंने कम से कम दस बार अपने आतिथेय के पांव छुए होंगे। एयरपोर्ट पर खड़े लोग कभी उन्हें तो कभी क्रैग को आश्चर्यजनक निगाहों से देख रहे थे। .....और जॉजना ने तो भावावेश में अपने आतिथेय को गले से ही लगा लिया। कहा, वे उन्हें और उनके परिवार को कभी भी नहीं भुला पायेंगी। आतिथेय को लगा, उनकी लाड़ली बहिन उनसे विदा हो कर ससुराल जा रही है और वे उसे दुआएं दे रहे हैं, 'बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले।'
इसी तरह की सन् 2000 की एक घटना मुझे याद आती है, स्विट्जरलैंड की। जिनेवा एयरपोर्ट पर मुझे छोडऩे आयीं मेरी मित्र और फ्रेन्च फिल्मों की सफल अभिनेत्री सोफी कैण्डाव्हरोफ की आंखों में मुझे 'सी ऑफ' करते हुए आंसुंओं की झड़ी लग गयी थी। मेरी आंखों से भी आंसू झरझर बह रहे थे। अनायास ही उन्होंने मुझे अपने गले से लगा लिया और बुक्का फाड़ कर रो पड़ीं। मैं हक्का-बक्का रह गया था। मुझे लगा था, सोफी और कोई नहीं, मेरी छोटी बहिन ही है जिसे मैं छोड़े जा रहा हूं। ऐसा ही हुआ था ऑस्ट्रेलिया में भी। ऑस्ट्रेलिया में अपने 45 दिनों के प्रवास के बाद विदा होते हुए मेरा जी तब भी भर आया था जब मेरे परम मित्र क्रिस ग्रेगोरी और उनकी पत्नी जुडिथ रॉबिन्सन ने रोते हुए मुझे विदा किया था। जुडिथ ने, जिन्हें हम जुडी कह कर पुकारते हैं, मुझे अपने छोटे भाई जैसा प्यार दिया। जुडिथ और क्रिस हमें 45 दिनों तक अपने हाथों बना भारतीय भोजन परोसते रहे। कभी लगा ही नहीं कि हम घर से बाहर हैं। क्रिस ग्रेगोरी और उनकी पत्नी जुडिथ रॉबिन्सन ने 1982 में कोंडागांव में रह कर अपना शोध कार्य किया था। हमारी उनसे मुलाकात तभी हुई थी और फिर यह मुलाकात मित्रता में परिवर्तित हो गयी। बस्तर के लोक साहित्य और लोक संस्कृति से उनका गहरा जुड़ाव हुआ, जो आगे चल कर गहन शोध-कार्य के रूप में परवान चढ़ा।
इसके पहले की एक और घटना बताऊं। 1991 की पहली जून को जब मैं और धातुशिल्पी जयदेव बघेल सिडनी एयरपोर्ट पर उतरे तो वहां हमारी प्रतीक्षा कर रहे क्रिस ग्रेगोरी के 'जोहार' ने हमें चौंका दिया था। बजाय इसके कि वे 'हैलो' कहते, 'जोहार' कह कर उन्होंने हमारा स्वागत किया था और हम उनके बस्तर प्रेम से अभिभूत हो गये थे। उनका बस्तर प्रेम आज भी जस का तस बना हुआ है। तभी तो आस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी (कैनबरा, आस्ट्रेलिया) के आर्केलॉजी और एन्थ्रोपॉलॉजी विभाग में रीडर डॉ. सी. ए. ग्रेगोरी (क्रिस ग्रेगोरी) पिछले दो दशकों से बस्तर के लोक महाकाव्य 'लछमी जगार' पर मेरे साथ संयुक्त रूप से शोध कार्य कर रहे हैं। अपने शोध कार्य को तीव्र गति प्रदान करने के लिये वे इन दिनों 2 वर्षों के अवैतनिक अवकाश पर फिजी में हैं। हिन्दी भाषा की प्रशंसा करते वे नहीं थकते। वे कहते हैं कि हिन्दी एक पूर्णत: वैज्ञानिक और समृद्घ भाषा है। स्वाध्याय के कारण हिन्दी के साथ-साथ बस्तर की लोक भाषा हल्बी पर भी उनका अच्छा अधिकार हो गया है।
रिचर्ड बार्ज एक अमेरिकी हैं और ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी, कैनबरा के एशियन स्टडी$ज विभाग में वे हिन्दी का अध्यापन करते हैं। होने को वे अमेरिकी हैं किन्तु हिन्दी और हिन्दुस्तानी संस्कृति के इतने प्रेमी कि कुछ कहा नहीं जा सकता। वे जितनी शुद्घ और परिष्कृत हिन्दी बोलते और लिखते हैं, सम्भवत: हम हिन्दी वाले भी न तो बोल पाते होंगे और न लिख। उच्चारण की शुद्घता तो कोई उनसे सीखे। उनके विभाग में हिन्दी के विद्यार्थियों को हिन्दी साहित्य पढ़ाते हुए मैं संकोच में पड़ गया था। अमेरिका के 'द राकेफेलर फाऊन्डेशन' के बेलाजो (इटली) स्थित 'स्टडी एण्ड कान्फ्रेन्स सेन्टर' के बुलावे पर हम दोनों भाई (मैं और मेरे अनुज खेम वैष्णव) दो महीने के प्रवास पर 2002 में वहां थे। वहां अमेरिका के सुप्रसिद्घ उपन्यासकार शेली सीगल और उनकी पत्नी हैरिट हमें 'हैलो' की बजाय हमेशा नमस्ते कहा करते और सम्बोधन में भाई साहब। वे कई बार भारत की यात्रा कर चुके हैं और भारतीय संस्कृति से खासे प्रभावित रहे हैं। बातों ही बातों में वे लाल किला, ताजमहल आदि से सम्बन्धित अपने संस्मरण सुना रहे थे कि मैं बोल पड़ा कि मैंने आज तक ताजमहल नहीं देखा। इस पर वे बहुत आश्चर्यचकित हो गये और बड़े ही अ$फसोस के साथ कहा, 'इससे बड़ी दुर्भाग्यजनक बात आपके लिये और क्या होगी कि आप हजारों किलोमीटर दूर इटली तो आ पहुंचे किन्तु आपने आज तक अपने ही देश के उस अद्भुत शाहकार को नहीं देखा जिसे देखने के लिये दुनिया भर के लोग एक बार नहीं बल्कि बारम्बार भारत जाते हैं।' तब मेरा सिर शर्म से झुक गया था।
फ्लैगस्टाफ (एरिजोना, सं.रा.अमेरिका) में मेरी मित्र कैरेन मेलिसा मारकस के पति ब्रुस एम. सुलिवेन 'रिलिजियस स्टडीज' के प्रोफेसर और संस्कृत के विद्वान हैं। फ्रेन्च की प्रोफेसर मेलिसा के भारत प्रेम का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके घर पर गौतम बुद्घ की प्रतिमा स्थापित है। उनका कहना है कि गौतम बुद्घ की उपस्थिति उनके मन को शान्ति देती है। वे कहती हैं कि वे अपने पति के साथ कई बार भारत की यात्रा कर चुकी हैं और अपनी प्रत्येक यात्रा में उन्हें असीम शान्ति और प्रसन्नता का अहसास हुआ है। स्विट्जरलैंड में मुझसे हुई भेंट उन्हें आज भी आह्लादित करती है मुझे भी।
जर्मन मूल के रोल्फ किल्युस पेशे से साऊण्ड इजींनियर हैं और ब्रिटेन में रहते हैं। वे भारतीय शास्त्रीय एवं लोक संगीत के दीवाने हैं। पिछले तीन दशकों से भारतीय शास्त्रीय एवं लोक संगीत के ध्वन्यांकन और लोक वाद्यों के संकलन का अभूतपूर्व कार्य वे विभिन्न संग्रहालयों के लिये करते आ रहे हैं। उनके अपने वेब साईट हैं, जिन पर लॉग ऑन कर भारतीय लोक संगीत पर किये गये उनके काम के विषय में अधिकतम जानकारी प्राप्त की जा सकती है। साथ ही, लोक संगीत का आनन्द भी लिया जा सकता है। ये वेब साईटें हैं :
http://www.rolfkillius.com
http://www.kalacollective.com
http://www.bl.uk/collections/sound-chive/wtmkeralacontents.html
लगभग 8 वर्षों पूर्व जब रोल्फ बस्तर प्रवास पर आये तो वे यह देख कर दंग रह गये थे कि बस्तर के लोक वाद्य 'धनकुल' से नि:सृत होने वाली स्वर लहरी और लय किसी एक जर्मन लोक धुन से शत प्रतिशत साम्य रखती है। वे धनकुल वाद्य की संगत में वह लोक गीत अपनी मित्र युता वकलर के साथ बेसाख्ता गा उठे। जब मैंने यह घटना कला इतिहासकार भानुमती नारायण (सुप्रसिद्घ चित्रकार अकबर पदमसी की पत्नी) को सुनायी तो वे भी दंग रह गयीं और कहने लगीं कि इस घटना को प्रकाश में लाया जाना चाहिये। युता वकलर योग से प्रभावित हैं और वे जर्मनी तथा ब्रिटेन में लोगों को अपने स्तर पर योग का प्रशिक्षण देती हैं। उनका कहना है कि भारतीय जीवन पद्घति उन्हें आकर्षित करती है और योग को वे स्वस्थ तन-मन का नियामक मानती हैं। 'अतिथि देवो भव' की भारतीय भावना की न केवल वह अपितु प्राय: भारत के गांवों में प्रवास पर आने वाले सभी विदेशी कायल हैं।
स्विट्जरलैंड के उल्लेखनीय छायाकार क्रिस्चन डुप्रे और फ्रेन्च फिल्म अभिनेत्री सोफी कैण्डाव्हरो$फ के लिये भारत, विशेषत: बस्तर के गांव स्वर्ग तुल्य हैं। इसी तरह के उद्गार व्यक्त करती हैं ब्रिटेन की एनीमेटर तारा डगलस भी। हल्बी जनभाषा में प्रस्तुत पांच एनीमेशन फिल्मों के निर्माण-प्रक्रिया और उसके बाद उनके गांव-गांव प्रदर्शन के दौरान उन्होंने बस्तर को काफी करीब से न केवल देखा बल्कि यहां की लोक संस्कृति को आत्मसात् भी किया। उनकी मां भारतीय संस्कृति की इतनी हिमायती और प्रशंसक हैं कि वे पिछले कई वर्षों से हिमालय की वादियों में साधनारत हैं। तारा के भारत प्रेम का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपना नाम ही भारतीय रख लिया है: तारा। तारा डगलस। उनका कहना है कि भारत उन देशों में से एक महत्त्वपूर्ण देश है जहां की सरल, किन्तु समृद्घ और अनुकरणीय लोक संस्कृति आज भी जीवित है। यही कारण है कि उन्होंने और उनकी स्कॉटलैंड स्थित एनीमेशन कम्पनी 'वेस्ट हाईलैंड एनीमेशन' ने भारत के पांच विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की लोकभाषाओं में प्रचलित लोक कथाओं को एनीमेशन फिल्म के जरिये प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया। मैंने उनके इस कार्य में सपरिवार सक्रिय सहयोग किया है। वे कहती हैं कि दुनिया भर में जनभाषाओं का लगातार लोप होते चला जा रहा है। गैलिक नामक अत्यन्त प्राचीन जनभाषा स्कॉटलैंड से लुप्त हो चुकी है। ऐसे में यह महत्त्वपूर्ण है कि भारत जैसे देश में अभी भी विभिन्न जनभाषाएं न केवल जीवित हैं बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित भी होती चली जा रही हैं। वे आगे कहती हैं कि यद्यपि ये जनभाषाएं आज जीवित तो हैं किन्तु विभिन्न प्रचार माध्यमों और नागरी संस्कृति के प्रति बढ़ते अति उछाह के चलते इन जनभाषाओं के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। यदि समय रहते इन जनभाषाओं के संरक्षण के लिये ठोस उपाय नहीं किये गये तो भारत जैसे महान् देश से भी ये जनभाषाएं लुप्त हो जायेंगी, इसमें दो राय नहीं है। उन्होंने बस्तर की जनभाषाओं के संरक्षण की दिशा में बस्तर के कुछ लोगों द्वारा किये जा रहे स्वत:स्फूत्र्त प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि ऐसे प्रयासों से ही कुछ आशा की जा सकती है। इन दिनों तारा 'आदिवासी आर्ट्स ट्रस्ट' नामक संस्था की सचिव हैं और इस संस्था के माध्यम से वे भारतीय आदिवासी समुदाय की कला को दुनिया के सामने रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही है। उनके काम के विषय में इस वेब साईट पर जानकारी प्राप्त की जा सकती है:
http://www.talleststory.com/adivasiartstrust/mediapage.html
तारा डगलस की साध्वी माता जिन्होंने अपना नाम बदल कर उमा गिरि रख लिया है, उत्तराखण्ड के कुमाऊं अंचल के अन्तर्गत बागेश्वर जिले के तप्तकुण्ड नामक स्थान में रहती हैं। वे सरयू गंगा के तट पर बने मन्दिर में पिछले 11 वर्षों से रह रही हैं। इससे पहले वे बागेश्वर के ही श्री पंच जूना अखाड़ा आश्रम में अपने गुरुजी श्री श्री 1008 महन्त कृष्ण चन्द्र गिरि महाराज की देखरेख में रह रही थीं। अब वे अवकाश प्राप्त कर वहां स्थानीय कृषकों के साथ उद्यानिकी का कार्य कर रही हैं। वे आध्यात्मिक एवं दर्शनशास्त्र सम्बन्धी साहित्य का अध्ययन करती हैं। अद्वैत वेदान्त, उपनिषदों, वेदों और इसी तरह के साहित्य के अध्ययन में अपना समय व्यतीत करती हैं। वे चिन्तन-मनन करती हैं और मन्दिर को साफ-सुथरा रखने और रात में वहां दीपक जलाने में लगी रहती हैं। 67 वर्षीया उमा गिरि जी ने वहां एक बहुत ही सुन्दर बगीचा लगाया है जिसकी आसपास के सभी लोग प्रशंसा करते हैं। स्थानीय लोग उनसे मिलना और उनकी धुनी के समीप बैठ कर उनसे धर्म चर्चा करने, उनके साथ चाय की चुस्कियां लेने में आनन्द प्राप्त करते हैं। कई बार उनके कई गुरुभाई उनके आश्रम में उनके पास ठहरते हैं। वे परिव्राजक होते हैं। उमा जी मूलत: स्वीडन की हैं और वे प्राय: प्रति वर्ष ग्रीष्म ऋ तु में 2 महीनों के लिये अपनी माता के दर्शन के लिये वहां जाती हैं। सरयू गंगा दरअसल गंगा की ही एक सहायक नदी है जो मुख्य गंगा नदी से अयोध्या में मिलती है। उमा गिरि जी इसी सहायक नदी के उद्गम से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर भारत के तिब्बत-चीन से लगी सीमा पर रहती हैं। आरम्भ में वहां के निवासियों ने एक विदेशी के वहां रहने को लेकर विरोध प्रदर्शन किया था किन्तु जब उन्होंने उमा गिरि जी के द्वारा वहां के स्थानीय लोगों के लिये किये जा रहे विभिन्न लाभदायक और विकासमूलक कार्यों को देखा तो उनका यह विरोध स्वत: ही समाप्त हो गया और साध्वी उमा गिरि जी अब उस अंचल में 'विदेशी हिन्दू माई' के रूप में विख्यात हो गयी हैं।
पेरिस (फ्रान्स) निवासी निकोला प्रिवो लगभग 9 वर्ष पूर्व कोंडागांव तहसील के बरकई नामक गांव में रह रहे थे। वे यहां लगभग 2 वर्षों तक रहे और बस्तर के लोक संगीत का बारीकी से अध्ययन किया। बरकई गांव में जिस परिवार के साथ वे रहे, उस परिवार को वे आज भी अपना ही परिवार मानते हैं। उनके मन में उस परिवार के प्रति दिखावे का अपनापा नहीं किन्तु वास्तविक आत्मीयता हिलोरें मारती है। मेरे साथ ईमेल के जरिये होने वाले प्रत्येक पत्राचार में वे बरकई के उस परिवार की सुध लेना कतई नहीं भूलते। बस्तर के लोक संगीत पर इस अवधि में किया गया उनका अध्ययन हम स्थानीय लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रामाणिक है, यह कहते हुए मुझे कदाचित् भी संकोच नहीं होता। बस्तर के लोक संगीत के राग-रागिनियों की बारीकियां तो कोई उनसे सीखे! निकोला प्रिवो का अध्ययन मोटे तौर पर बस्तर में आयोजित होने वाले देव बजार और मंड़ई पर केन्द्रित था। वे विशेषत: देव मोहरी की सांगीतिक संरचना और देवकुल की सामाजिक संगठना तथा सिरहा और गांडा संगीतकारों के अन्तर्सम्बन्धों को विश्लेषित करने की दिशा में अध्ययन कर रहे थे। इस शोध से उन्हें मिली पीएच.डी. के बाद वे अब पेरिस विश्वविद्यालय में इथनोम्यू$िजकोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। वे कहते हैं कि वे अपने शोध को इस अति सुन्दर अंचल में यहां के प्यारे लोगों के साथ जारी रखना चाहते हैं।
संपर्क - हरिहर वैष्णव, सरगीपाल पारा, कोंडागांव 494226,
बस्तर- छ.ग. फोन : 07786-242693,
मोबा. 093004-29264
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in

वसन्त बहार


- डॉ. गीता गुप्त
जाने क्यों लगा, वसन्त के कदमों की आहट हुई...। मन्द- मन्द बहती शीतल पवन ने सुबह की किरणों के साथ उसका स्वागत किया। पंछियों के कलरव ने मंगलाचार किया। खुले आसमान के नीचे खड़े होकर मैंने बाहें पसार दीं- आओ, आओ स्वागत है तुम्हारा ... मेरे- उपवन में ही नहीं, सृष्टि के रोम- रोम में, जन-जन के मन प्राण में समा जाओ। अपना सौन्दर्य, अपनी सुवास बिखेरो। पौष माह की शीतल लहर से ठिठुरे प्राणियों की नसों में अद्भुत ऊर्जा और ऊष्मा का संचार कर दो...। मैंने प्रार्थना की- वासन्ती बयार पुलकित करे तन-मन को, जीवन को, धरती के कण- कण को महकाए...। पर जाने कहां ठिठका हुआ है वसन्त? सामने नहीं आ रहा।
हमेशा तो ऋतुओं की गली से गुजरता है जीवन। खिलखिलाता है वासन्ती छटा बिखेरते फूलों के संग। बारिश की बूंदों में भीगता हुआ गुनगुनाता है, शीत के झोंकों से सिहरकर प्रियतम के सान्निध्य की ऊष्मा में चहकता है और कालचक्र घूमता चला जाता है अनगिनत संदेश देता हुआ। संकेतों की भाषा में कितना-कितना कुछ कह जाती हैं ऋतुएं? मन तितलियों की तरह भागता रहता है उनके पीछे उन्मुक्त और सौन्दर्यमय क्षणों में कुछ भी नहीं सूझता मधुर सुर-ताल के सिवा...।
क्यों लग रहा है, यह सब गुजरे जमाने की बात हो गयी? इस बरस कहीं दिखाई नहीं दे रहा वसन्त। दरवाजे पर दस्तक ने भ्रमित कर दिया। कदमों की आहट ने भी भरमाया। वह तो जाते हुए शिशिर की पद- चाप थी। दस्तक थी प्रलय-पीडि़त हृदयों की, जो पूछ रही थीं- वसन्त कहां आया? किसके हृदय में हर्षोल्लास का संचार हुआ? नगर तो वीरान हैं, बस्तियों में सन्नाटा है, उजड़े हुए घर की दीवारों-दहलीजों पर उदासी पसरी हुई है और पीड़ा के अथाह समन्दर में डूबा हुआ है विरक्त मन।
जंगल कट गये। हरियाली किताब के पन्नों पर दिखने वाली चीज होती जा रही है। गेंदे या सेवन्ती के पीले फूलों से सजी गोरियां गांवों, कस्बों में होंगी, नगर में कहीं दिखाई नहीं देतीं। वसन्त का राग-रंग, उल्लास की छटा बिखेरती प्राकृतिक सुषमा न जाने कहां विलीन हो गयी? वे नायिकाएं नहीं दिखतीं, जो इस मादक ऋतु में अपने प्रियतम को संदेश भेजती कागा से कहती थीं-
कागा सब तन खाइयो, चुन - चुन खइयो मांस।
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।।
अब न तो कागा की कांव- कांव है, न कोयल की कूक। प्रियतम को संदेस भेजने के लिए आज की मुग्धा नायिकाओं के पास मोबाइल है, एसएमएस और फैक्स है। वे गीतों में अपनी विरह व्यथा गाकर दूसरों को नहीं सुनातीं, सीधे प्रिये को संदेश देती हैं।
कितना बदल गया है समय? न प्रकृति की मोहक छटा है, न जंगल- नदियां, खेत- खलिहान। पपीहे की पिउ- पिउ, न कोयल की कूहू- कुहू। औद्योगीकरण ने निगल लिए सब जंगल, नदियां, बाग- बगीचे, खेत- खलिहान और हरियाली। धरती का सौन्दर्य निहारने के लिए समय नहीं है किसी के पास। आदमी व्यस्त है बहुत। वह मशीन हो गया है। रिश्तों की सुगंध उसके जीवन से गायब हो गयी है। वह अपनी भाषा में संवाद करना भूल गया है। अजनबीयत के दौर में जो रहा है। प्रकृति, मनुष्यता, पशु, पक्षी सबसे अनजान। ऐसे में किसके पास आये वसन्त?
पहाड़ नंगे खड़े हैं, पेड़ कट गये जंगलों से। हरियाली रूठ गयी। पलाश जाने कहां दहकते होंगे अब? पंछी कहां चहकते होंगे? पता नहीं। गमलों में पेड़ उगाने लगे हैं लोग। पशु-पक्षी चिडिय़ाघरों में मनोरंजन का समान हो गये हैं। पेड़- पौधे बोनसाई की शक्ल में प्रदर्शनी की शोभा हो गये। अब कोयल कहां बैठकर गाए? पंछी कहां चहचहाएं?
जिस वसंत की महिमा का गान पन्त, निराला आदि महाकवियों ने किया, मनोहर प्रकृति की गोद में बैठकर आम्र-वृक्षों पर सुशोभित बौर की मादक गंध का पान करते हुए जिसके स्वागत और सम्मान में कभी मैंने भी ललित निबंध लिखे- आज उसके बारे में लिखने के लिए सामग्री का अभाव है। आज कहां है वह वसन्त?
शांति निकेतन में अभी भी होता है वसन्तोत्सव। विद्यार्थी जीवन में हमने भी वनस्थली में खूब वसन्त पर्व मनाए। वासन्ती परिधान में सज-धजकर वसन्त की अगवानी करते हुए ऋतुराज के गीत गाये और परीक्षा के पूर्व पूजा अर्चना कर विद्या बुद्धि की कामना की।
अब नहीं मनाते विद्यालयों-महाविद्यालयों में विद्यार्थी यह पर्व। उन्हें नहीं मालूम कि वसन्त पंचमी गंगावतरण का भी दिन माना गया है कि यह पर्व रति, वेद, विद्या, शारदा, प्रकृति देव और लीलाधर कृष्ण के पूजन के लिए जाना जाता हैं। अब विद्यार्थी नहीं करते आराधना विद्या और वाणी की देवी सरस्वती की, नहीं मांगते बुद्धि-विवेक। वे वेलेन्टाइन डे मनाते हैं। सरस्वती की उन्हें आवश्यकता नहीं। वैज्ञानिक साधनों, अधकचरा पाश्चात्य संस्कृति और दूरदर्शन ने बच्चों की मासूमियत छीनकर उन्हें समय से पहले बालिग बना दिया है। वे फूल-पत्ते, ऋतु, प्राचीन पर्व-त्योहारों, देवी देवताओं को नहीं जानते। वे जानते हैं शक्तिमान को ऐसे कथानायकों और खलनायकों को, जो हथियार चलाते हैं- खून खराबा करते हैं, हिंसा, आगजनी, तोडफ़ोड़ करते हैं और चमत्कारिक शक्ति के स्वामी प्रतीत होते हैं। वहीं उनके आदर्श हैं।
किसी के पास समय नहीं है कि ठहरकर जीवन मूल्यों के बारे में सोचे- ऋतुओं, प्रकृति, सौन्दर्य और प्रेम के बारे में सोचे, जिससे यह जीवन इतना सुन्दर और स्पृहणीय है कि कवि कह उठा-
सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर
मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
आज वातावरण में हिंसा, आतंक, भय, घृणा, अपराध और अनाचार व्याप्त है। यांत्रिक जीवन जीने वाले मनुष्य की संवेदना लुप्त हो गयी है। प्रकृति की सुन्दरता उसे नहीं मोहती, फूलों की सुवास नहीं बांधती, प्राकृतिक उपादानों में छिपे मूल्यवान संदेश वह नहीं ग्रहण करता। उसकी आंतरिक कोमलता में परिणत हो गयी है, हृदय-निर्झर सूख गया है। उसका महत्वाकांक्षी मन सदैव कल्पना लोक में विचरण करता है, अपनी सांस्कृतिक चेतना और जीवन-मूल्यों में नहीं रमता। अपनी मिट्टी की सोंधी महक, पानी की मिठास और संबंधों की ऊष्मा भूला बैठा है वह। उसे सब कुछ चाहिए भौतिक समृद्धि की शक्ल में वसन्त नहीं।
मैं लिखना चाहती हूं वसन्त पर। मेरे लिखने से क्या होगा वसन्त का? पढऩे की फुर्सत किसे है? सोचने की जहमत कौन उठाएगा? मेरा उदास मन लौटा लाना चाहता है मनुष्य को प्रकृति के कोमल संसर्ग में जहां माधुर्य है, प्रेम है, संवेदना है और है सरस अनुभूतियों का निस्सीम विस्तार। पांच सितारा संस्कृति के प्रदूषण और पाश्चात्य जीवनशैली के अंधानुकरण में अपनी गौरवपूर्ण सांस्कृतिक पहचान खोकर क्या हासिल होगा उसे?
अपनी अवहेलना बर्दाश्त नहीं कर सकता कोई। शायद इसीलिए वसन्त भी छिप गया है कहीं। औपचारिकता निभाने के लिए भी नहीं आना चाहता। मानव नहीं समझता, संवेदनशून्य हो गया है लेकिन प्रकृति तो संवेदनशील है। इसीलिए आज पुरवैया उदास है, फूल बेरौनक हैं, कोयल चुप है। अनागत वसन्त की प्रतीक्षा में, सन्नाटे में शोर की तरह मेरी व्यथित पुकार गूंज रही है - लौट आओ... लौट आओ, वसन्त...।

बर्फीली मेहमाननवाजी


- बिमल श्रीवास्तव
बचपन में हम लोग भूगोल की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा करते थे कि उत्तरी ध्रुव के आसपास रहने वाले एस्कीमो लोग बर्फ के मैदानों में रहते हैं, रेनडियर (बारहसिंघे जैसा दिखने वाला एक प्रकार का हिरण) पालते हैं तथा बर्फ से बने घरों में रहते हैं जिन्हें इग्लू कहा जाता है। यह भी पढ़ा था कि बर्फ से बने इन इग्लू के बाहर तो इतनी ठंडक रहती है कि पानी जम कर बर्फ बन जाता है किन्तु घरों के अन्दर का भाग अच्छा खासा गर्म रहता है, जिसके कारण एस्कीमो वहां अपने कपड़े तक उतार देते हैं। उस समय हम सोचते थे कि काश हम भी इस प्रकार के बर्फ के घरों में रह पाते।
तो अब यह कामना काफी हद तक पूरी की जा सकती है, क्योंकि अब योरप तथा अमरीका के अनेक भागों में ऐसे होटल बन गए हैं जो केवल बर्फ के बने हैं। उन होटलों में बर्फ की दीवारें, बर्फ की छतें, बर्फ के खंभे और बर्फ के फर्श तो हैं ही, साथ ही बर्फ के बिस्तर (जिन पर फोम के गद्दे हैं), बर्फ के सिनेमा घर, बर्फ के चर्च और यहां तक कि कुर्सियां, मे$ज, कप, प्लेट, मदिरा पान के गिलास और बर्तन तक बर्फ के बने हैं। ओढऩे के लिए वहां रेनडियर की खाल तथा विशेष रूप से तैयार किए गए खोल का उपयोग किया जाता है। जहां तक मदिरा का सवाल है तो अत्यधिक ठंडक के कारण यहां पर बीयर जम कर ठोस हो जाती है, इसीलिए वोडका या वोडका आधारित पेय उपयोग में लाए जाते हैं। कुछ पर्यटक यहां केवल शीत कालीन विवाह के प्रयोजन से आते हैं, जिसके लिए बर्फ के बने चर्च उपयोग में लाए जाते हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि बर्फ तथा हिम (स्नो) से बनाए गए ये होटल केवल सर्दियों में बनते हैं तथा तीन चार महीनों तक उपयोग के बाद उन्हें तोड़ कर दुबारा पानी के रूप में नदियों में बहा दिया जाता है। अगली सर्दियों में नई ताजी बर्फ से एक बार फिर से बिलकुल नए सिरे से एक नया होटल तैयार किया जाता है, नई डिजाइन, नई वास्तुकला, नए आकार तथा नई सुविधाओं के साथ।
बर्फ से बना सबसे पहला होटल 1990 में उत्तरी स्वीडन के किरुना नगर के यूकसयार्वी नामक स्थान पर बनाया गया था। यह स्थान उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र में स्थित आकर्टिक वृत्त से भी 200 किलोमीटर उत्तर में स्थित है, जहां भयंकर शीत लहर का प्रकोप होता है। यह काफी खूबसूरत जगह है, जो अपने घने ध्रुवीय जंगलों, जमी हुई झीलों तथा उत्तर ध्रुवीय क्षेत्रों में दिखाई देने वाले रहस्यमयी -उत्तरी प्रकाश- के लिए प्रसिद्घ है। यहां पर परिवहन के लिए कुत्तों द्वारा खींची जाने वाली स्लेज गाडियां अथवा स्नो मोबाइल वाहन ही उपयोग में आते हैं तथा यहां अधिकतर पर्यटक गर्मियों में ध्रुवीय क्षेत्रों के पर्यटन का आनन्द लेने के लिए आते थे। किन्तु सर्दियों के आते-आते यह क्षेत्र कड़ाके की ठंड तथा घनघोर अंधेरे से जूझने लगता था तथा वहां बहने वाली टार्ने नदी जम कर ठोस बन जाती थी।
उत्तर ध्रुवीय क्षेत्रों में गर्मियों में पर्यटन के उद्देश्य से भ्रमण सेवाएं चलाने वाली कम्पनी 'यूकस' (जिसका नाम अब 'आइस होटल' हो गया है) को तब यह विचार आया कि इस शीत रूपी प्रकोप का कुछ लाभ उठाया जाए तथा पर्यटकों के लिए आकर्षण की सामग्री बनाई जाए। परीक्षण के तौर पर उस कम्पनी ने जमी हुई टार्ने नदी पर 60 वर्ग मीटर का इग्लू घर बनवाया तथा उसमें फ्रेंच कलाकार की कला प्रदर्शनी लगाई। यह प्रयास काफी लोकप्रिय रहा। उसके बाद कुछ उत्साही युवकों ने उस इग्लू घर में रात बिताने की योजना बनाई। वे रेनडियर की खाल तथा स्लीपिंग बैग लेकर इग्लू में सफलतापूर्वक रात बिताकर सुबह वापस आ गए। और वहीं से बर्फ के होटल की नींव पड़ी।
वर्ष 1990 में जन्मे 60 वर्ग मीटर वाले उस 'आइस होटल' का आकार अब बढ़ कर 5000 वर्ग मीटर हो गया है, उसमें अब 60 कमरे हैं, 25 सुइट्स हैं, बर्फ का बना सिनेमा हाल, बार, बर्फ की कला दीर्घा तथा इस प्रकार के अन्य कई आकर्षण हैं। होटल का एक कमरा तो ऐसा है जहां ठहरने पर 'उत्तर ध्रुवीय प्रकाश' भी देखा जा सकता है। इसके लिए कमरे की छत में एक खिड़की बनाई गई है, जिससे आकाश का दृश्य दिखता है। (वैसे होटल से बाहर निकलने पर 'उत्तर ध्रुवीय प्रकाश' स्वत: ही दिख जाता है।)
इस होटल में प्रतिदिन 14,000 पर्यटक रात्रि में तथा 37,000 दिन में ठहरते हैं। होटल के अन्दर का तापमान लगभग शून्य से चार से नौ डिग्री सेल्सियस कम बना रहता है, जबकि बाहर का तापमान शून्य से चालीस डिग्री नीचे या उससे भी कम रहता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस बर्फीले होटल में रेफ्रीजरेटर भी उपलब्ध हैं, किन्तु उनका काम ची$जों को ठंडा रखना नहीं, बल्कि गर्म रखना है, क्योंकि वस्तुओं को ठंडा करने के लिए उन्हें बाहर रख देना ही पर्याप्त होता है। इन होटलों के कमरों में प्रकाश के लिए ऑप्टिकल फाइबर केबल अथवा मोमबत्तियों की व्यवस्था की जाती है, क्योंकि यहां विद्युत की सप्लाई नहीं होती है।
बर्फीले क्षेत्रों में बर्फ से होटल बनाना सुनने में सरल लगता हो किन्तु यह वास्तव में अत्यंत पेचीदा, खर्चीला एवं इंजीनियरिंग तकनीक से भरपूर कार्य है। निर्माण कार्य प्रति वर्ष अक्टूबर माह में आरम्भ होता है तथा दिसम्बर तक होटल तैयार हो जाता है। निर्माण के उपयोग में आने वाली बर्फ टार्ने नदी से निकाली गई कठोर बर्फ होती है, जिसे आरी से काट- काट कर उनकी लगभग दो- दो टन की बड़ी- बड़ी सिल्लियां तैयार की जाती हैं। (यह कार्य तो मार्च में ही आरंभ हो जाता है तथा सिल्लियों को शीत गृहों में रखा जाता है)। नदी के शुद्घ प्रवाहित जल के उपयोग के कारण ये बर्फ की सिल्लियां साफ व पारदर्शी होती हैं। फिर इन सिल्लियों को निर्माण स्थल तक पहुंचाया जाता है, जहां इनसे होटल की दीवारें, छत आदि बनाई जाती हैं। कठोर बर्फ के अतिरिक्त निर्माण के लिए नदी से निकाले गए बर्फ के चूरे का भी उपयोग किया जाता है, जिसे कुशल इंजीनियरों द्वारा सांचों में भर कर (अथवा तोपनुमा शक्तिशाली मशीनों द्वारा तीव्र गति से हिम के बर्फीले कणों की बौछार कर के) वांछित आकार प्रदान किया जाता है, जिससे छत का भार सहन करने वाले खम्भे तथा होटल के अन्य आवश्यक ढाचों का निर्माण किया जाता है। पूरे होटल को बनाने में लगभग 30,000 टन हिम तथा 4000 टन बर्फ लग जाती है। यह सारी बर्फ जमी हुई टार्ने नदी से उधार के तौर पर लाई जाती है तथा गर्मियां आने पर टार्ने नदी को सधन्यवाद वापस कर दी जाती है।
यह जान कर आश्चर्य होता है कि इतनी सारी बर्फ के बीच खड़ा हुआ होटल अन्दर से गर्म कैसे रह पाता है। इसका कारण यह है कि बर्फ वास्तव में ताप का कुचालक है, अर्थात न तो यह कमरों के अन्दर की गर्मी को बाहर जाने देता है और ना ही बाहर की ठंडक को अन्दर आने देता है। इसी कारण बाहर की कड़क ठंड के बावजूद इन होटलों के यात्रियों के लिए कमरे के अन्दर आरामदायी तापमान बना रहता है।
स्वीडन के 'आइस होटल' की तर्ज पर अब कई देशों में बर्फ के होटल खुल चुके हैं तथा खुलते जा रहे हैं। जैसे बर्फीले देश ग्रीनलैण्ड में होटल इग्लू तथा होटल आकर्टिक बने हैं। नॉर्वे का बर्फ का होटल 'आइस लॉज' समुद्र सतह से 1250 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है इसलिए वह गर्मियों में भी कई महीनों तक बना रहता है। फिनलैण्ड का आल्ता इग्लू होटल भी स्वीडन के 'आइस होटल' की तरह ही अति विकसित होटल है तथा उसमें भी तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं। रोमानिया का बर्फ का होटल वहां की बैलिया नामक झील पर बना है, जो समुद्र सतह से 2034 मीटर की ऊंचाई पर फैगारास पर्वत पर स्थित है। इसे वर्ष 2006 में बनाया गया था।
कनाडा में वर्ष 2000 में क्यूबेक नगर के पास पहला बर्फ का होटल बनाया गया था जो दिसम्बर से अप्रैल तक रहता है। इसमें बर्फ के बने 85 बिस्तर हैं, जिन पर हिरन के फर के अस्तर लगे हैं। इस होटल के निर्माण में 4750 टन बर्फ का उपयोग होता है। इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमरीका ने वर्ष 2004 में अलास्का राज्य में ऑरारा आइस होटल नामक बर्फ का होटल बनाया। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि इस होटल को एक वर्ष तक खोले जाने की अनुमति इसलिए नहीं दी गई थी क्योंकि उसमें आग लग जाने की अवस्था में उसे बुझाने के समुचित प्रबंध उपलब्ध नहीं थे। प्रश्न यह उठाया जा रहा था कि क्या बर्फ के बने उस होटल में आग लग सकती थी। किन्तु नियम तो नियम ही होते हैं। इसलिए अग्नि शमन के प्रबंध के बाद वर्ष 2005 में वह होटल खुल पाया।
बर्फ के होटलों की तरह ही कुछ देशों में बर्फ के किले (या महल) भी बनाए जाते हैं, जो सर्दियों में बनते हैं तथा गर्मियों में समाप्त हो जाते हैं। बर्फ का प्रथम ज्ञात किला लगभग पौने दो सौ वर्ष पूर्व रूस के सेंट पीटर्सबर्ग नगर में वहां की तत्कालीन महारानी अन्ना द्वारा बनवाया गया था। वर्ष 2005 से प्रति वर्ष उस स्थान पर बर्फ के किले की अनुकृति बनाई जाती है। इसी प्रकार अन्य कई देशों में बर्फ के किले पर्यटक आकर्षण, मनोरजन या खेलकूद के उद्देश्य से या अन्य कारणों से बनाए जाते हैं। बर्फ के होटल लोकप्रिय होते जा रहे हैं तथा महंगे होने के बावजूद इनमें रहने वाले पर्यटकों की संख्या वर्ष प्रति वर्ष बढ़ती ही जाती है। (स्रोत फीचर्स)

भारतीय मसालों का जवाब नहीं


भारतीय सब्जी में करी का अपना विशेष महत्व है। परिवार में जब किसी खास अवसर जैसे तीज त्योहार या किसी खास मौके पर भोजन बनता है या मेहमान भोजन पर आमंत्रित किए जाते हैं तब भोजन में करी की सब्जी को जरूर शामिल किया जाता है। अब आप कहेंगे कि करी ही की क्यों, ऐसे अवसरों पर तो और भी कई लज़ीज पकवान बनाए जाते हैं। आज करी की बात करने के पीछे कुछ खास बात है-
करी खाते वक्त भले ही हम मात्र इसे एक स्वाद के रुप में अपने भोजन में शामिल करते हैं परंतु स्वाद के साथ- साथ यह करी औषधि का भी काम करता है, इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को होगी। आज दुनिया भर में जिस बीमारी ने सबको भयभीत कर रखा है वह है स्वाइन फ्लू और डॉक्टरों ने इस जानलेवा बीमारी में भारतीय करी खाने की सलाह दी है तो जाहिर है कि करी में कुछ तो खास होगा ही। तो आइए जानते हैं कि करी और भारतीय भोजन में उपयोग किए जाने वाले मसाले कैसे हमारे शरीर में औषधि के रुप में काम करते हैं।
भारत और चीन में लंबे समय से अदरक का उपयोग दवाई के तौर पर किया जाता है। खांसी, कफ, सरदर्द और मसूड़ों के दर्द के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। भारत के घर- घर में इस्तेमाल की जाने वाली हल्दी रसोईघर का मुख्य हिस्सा है जिसे दाल या सब्जी में डालकर उबाला जाता है। हल्दी की ख़ासियत है कि ऊंचे तापमान पर गर्म करने पर भी इसके औषधीय गुण नष्ट नहीं होते। सैकड़ों सालों से हल्दी को सौन्दर्य प्रसाधन के अलावा सर्दी खांसी के लिए भी उपयोग किया जाता है। हल्दी में अनिवार्य तेल, वसीय तेल, कम मात्रा में सूक्ष्म पोषक तत्व और हल्दी को रंग देने वाला पदार्थ करक्युमिन होता है। करक्युमिन में कई औषधीय गुण होते हैं। भारतीय सब्जियों और दालों में डाली गई हल्दी, जीरा, प्याज और अदरक के औषधीय गुण आपके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं।
मसालों के इन सभी गुणों को देखते हुए ही रूस के डॉक्टरों ने भी सलाह दी है कि स्वाइन फ्लू और खांसी जुकाम से बचने के लिए भारतीय मसालेदार करी उपयोगी साबित हो सकता है अत: स्वाइन फ्लू से बचना हो तो करी खाइए और फ्लू को दूर भगाइए। डॉक्टरों का कहना है कि मसालेदार सब्जी व दाल के औषधीय गुण स्वाइन फ्लू से बचने के लिए बाजार में मिलने वाली किसी भी दवा से कम नहीं है। मॉस्को में महामारी से बचाव के लिए गठित कमेटी के एक अधिकारी के अनुसार जीरा, हल्दी और अदरक जैसे मसालों से बने दालों और करियों में औषधीय गुण बीमारियों से रक्षा करते हैं। मसालेदार खाने के अलावा लोगों को ज़्यादा मात्रा में कच्चा प्याज और लहसुन का सेवन करने के लिए भी कहा जाता है। माना जाता है कि प्याज और लहसुन में भी रोगों से बचने के एंटी वॉयरल गुण होते हैं। यही कारण है कि डॉक्टर मौसमी नजला जुकाम और स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों से बचाव के लिए हर देसी उपाय पर जोर दे रहे हैं। जिनमें अब भारतीय मसालों का नाम भी जुड़ गया है। भारत वासियों को खुश होना चाहिए कि वे तो इनका इस्तेमाल प्रतिदिन करते हैं अत: उन्हें स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी होने की संभावना भी बहुत कम होगी।
जरा सोचें - वक्त की पाबंदी
रोज वक्त पर आने की कोशिश करने के बावजूद देर से आना। यह एक ऐसी बुरी आदत है जो आपकी नौकरी भी छीन सकती है। आप इसलिए देर से आते हैं कि रात को पसंदीदा फिल्म या सीरियल के चक्कर में लेट सोए और सुबह उठ नहीं सके। लेकिन जनाब इससे आपके दफ्तर वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तो आपकी 8 घंटे की ड्यूटी चाहिए। इसलिए वक्त की पाबंदी को अपने टाइम-टेबल में जरूर डाल लें।

बूंद नहीं तो समुद्र भी नहीं


जवाहरलाल नेहरू को लिखा महात्मा गांधी का पत्र
05 अक्टूबर, 1945

चि. जवाहरलाल,
तुमको लिखने को तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूं। अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था। आखिर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखने का पसंद किया।
पहली बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है उसकी है। अगर वह भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए। क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रुकता है। मैंने कहा है कि 'हिन्द स्वराज' में मैंने लिखा है उस राज्य पद्धति पर मैं बिलकुल कायम हूं। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है, लेकिन जो चीज मैंने सन् 1909 में लिखी है उसी चीज का सत्य मैंने अनुभव से आज तक पाया है। आखिर में एक ही उसे मानने वाला रह जाऊं, उसका मुझको जरा-सा भी दु:ख न होगा। क्योंकि मैं जैसे सत्य पाता हूं उसका मैं साक्षी बन सकता हूं। 'हिन्द स्वराज' मेरे सामने नहीं है। अच्छा है कि मैं उसी चित्र को आज अपनी भाषा में खेंचू। पीछे वह चित्र सन् 1909 जैसा ही है या नहीं, उसकी मुझे दरकार न रहेगी, न तुम्हें रहनी चाहिए। आखिर में तो मैंने पहले क्या कहा था, उसे सिद्ध करना नहीं है, आज मैं क्या कहता हूं वही जानना आवश्यक है। मैं यह मानता हूं कि अगर हिन्दुस्तान को कल देहातों में ही रहना होगा, झोपडिय़ों में, महलों में नहीं। कई अरब आदमी शहरों और महलों में सुख से और शांति से कभी रह नहीं सकते, न एक-दूसरों का खून करके- मायने हिंसा से, न झूठ से यानी असत्य से। सिवाय इस जोड़ी के (यानी सत्य और अहिंसा) मनुष्य जाति का नाश ही है, उसमें मुझे जरा-सा भी शक नहीं है। उस सत्य और अहिंसा का दर्शन केवल देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं। वह सादगी चर्खा में और चर्खा में जो चीज भरी है उसी पर निर्भर है। मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उल्टी ओर ही जा रही दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है। हो सकता है कि हिन्दुस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके। मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मारफत जगत को बचाने की कोशिश करूं। मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए- अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है। आखिर तो जगत व्यक्तियों का ही बना है। बूंद नहीं है तो समुद्र नहीं है। यह तो मैंने मोटी बात ही कहीं- कोई नई बात नहीं की।
लेकिन 'हिन्द स्वराज' में भी मैंने यह बात नहीं की है। आधुनिक शास्त्र की कदर करते हुए पुरानी बात को मैं आधुनिक शास्त्र की निगाह से देखता हूं तो पुरानी बात इस नए लिबास में मुझे बहुत मीठी लगती है। अगर ऐसा समझोगे कि मैं आज के देहातों की बात करता हूं तो मेरी बात नहीं समझोगे। मेरे देहात आज मेरी कल्पना में ही हैं। आखिर में तो हर एक मनुष्य अपनी कल्पना की दुनिया में ही रहता है। इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा- शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अंधेरे कमरे में जानवर की जिन्दगी बसर नहीं करेगा, मर्द और औरत दोनों आजादी से रहेंगे और सारे जगत के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे। वहां न हैजा होगा, न मरकी (प्लेग) होगी, न चेचक होंगे। कोई आलस्य में रह नहीं सकता है, न कोई ऐश-आराम में रहेगा।
सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी। इतनी चीज होते हुए मैं ऐसी बहुत-सी चीज का ख्याल करा सकता हूं जो बड़े पैमाने पर बनेगी। शायद रेलवे भी होगी, डाकघर, तारघर भी होंगे। क्या होगा, क्या नहीं उसका मुझे पता नहीं। न मुझको उसकी फिकर है। असली बात को मैं कायम कर सकूं तो बाकी आने की और रहने की खूबी रहेगी और असली बात को छोड़ दूं तो सब छोड़ देता हूं।
उस रोज जब हम आखिर के दिन वर्किंग कमेटी में बैठे थे तो ऐसा कुछ फैसला हुआ था कि इसी चीज को साफ करने लिए वर्किंग कमेटी 2-3 दिन के लिए बैठेगी। बैठेगी तो मुझे अच्छा लगेगा, लेकिन न बैठे तब भी मैं चाहता हूं कि हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ लें। उसके दो सबब हैं। हमारा संबंध सिर्फ राज कारण का नहीं है। उससे कई दरजे गहरा है। उस गहराई का मेरे पास कोई नाप नहीं है। वह संबंध टूट भी नहीं सकता। इसलिए मैं चाहूंगा कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझते हैं। हम दोनों हिन्दुस्तान की आजादी के लिए ही जिन्दा रहते हैं, और उसी आजादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा। हमें किसी की तारीफ की दरकार नहीं है। तारीफ हो या गालियां- एक ही चीज हैं। खिदमत में उसे कोई जगह ही नहीं है। अगर मैं 125 वर्ष तक सेवा करते-करते जिन्दा रहने की इच्छा करता हूं तब भी मैं आखिर में बूढ़ा हूं और तुम मुकाबले में जवान हो। इसी कारण मैंने कहा है कि मेरे वारिस तुम हो। कम से कम उस वारिस को मैं समझ लूं और मैं क्या हूं वह भी वारिस समझ ले तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा।
और एक बात। मैंने तुमको कस्तूरबा ट्रस्ट के बारे में और हिन्दुस्तानी के बारे में लिखा था। तुमने सोचकर लिखने को कहा था। मैं पाता हूं कि हिन्दुस्तानी सभा में तो तुम्हारा नाम है ही। नाणावटी ने मुझको याद दिलाया कि तुम्हारे पास और मौलाना साहब के पास वह पहुंच गया था और तुमने अपने दस्तखत दे दिए हैं। वह तो सन् 1942 में था। वह जमाना गुजर गया। आज हिन्दुस्तानी कहां है उसे जानते हो। उसी दस्तखत पर कायम हो तो मैं उस बारे में तुमसे काम लेना चाहता हूं। दौड़-धूप की जरूरत नहीं रहेगी, लेकिन थोड़ा काम करने की जरूरत रहेगी।
कस्तूरबा स्मारक का काम पेचिदा है। ऊपर जो मैंने लिखा है वह अगर तुमको चुभेगा या चुभता है तो कस्तूरबा स्मारक में भी आकर तुमको चैन नहीं रह सकेगा, यह मैं समझता हूं।
आखिर की बात शरत बाबू के साथ जो- कुछ चिनगारियां फूटी हैं वह है। इससे मुझे दर्द हुआ है। उसकी जड़ मैं नहीं समझ सका। तुमको जो कहा है इतना ही है बाकी कुछ नहीं रहा है तो मुझे कुछ पूछना नहीं है। लेकिन कुछ समझाने जैसा है तो मुझको समझने की दरकार है।
इस सबके बारे में अगर हमें मिलना ही चाहिए तो हमारे मिलने का वख्त निकालना चाहिए।
तुम बहुत काम कर रहे हो, स्वास्थ्य अच्छा रहता होगा। इन्दु ठीक होगी।

बापू के आशीर्वाद

वाह भई वाह


ओवरटाइम
टिंगू: पहले तो सिर्फ रात को ही मच्छर काटते थे, अब तो दिन में भी काटने लगे हैं।
मिंकू: तूने ये रिसेशन के बारे में नहीं सुना क्या? पूरे वर्ल्ड में मंदी की मार ऐसी है कि इंसान तो क्या, अब मच्छरों को भी दिन-रात काम करना पड़ रहा है।
रिस्टार्ट
एक दिन एक मेकेनिकल इंजीनियर, इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर, केमिकल इंजीनियर और एक कंप्यूटर इंजीनियर एक ही कार में शहर में घूम रहे थे, अचानक ही कार कुछ टूटने की आवाज़ के साथ बंद हो गई।
मेकेनिकल इंजीनियर ने कहा 'मुझे लगता हैं चेचिस राड टूट गई हैं '
केमिकल इंजीनियर ने कुछ सोचकर कहा 'मुझे लगता हैं, इंजन को पर्याप्त गैस नहीं मिल पा रही है।
'इलेक्ट्रिक इंजीनियर बोला' कहीं स्पार्क हुआ होगा, कुछ गड़बड़ लगती है गाड़ी के इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम में।
'तीनों मुड़े पीछे बैठे कम्प्यूटर इंजीनियर की तरफ, और उससे पूछा- तुमको क्या लगता हैं।'
तो कंप्यूटर इंजीनियर ने कहा 'मुझे लगता हैं कि हम सभी को गाड़ी से बाहर निकल कर दोबारा अन्दर बैठ जाना चाहिऐ, ताकि गाड़ी रिस्टार्ट हो सके'

जीवन- शैली


जल बिच मीन पियासी रे...
- अरुण कुमार शिवपुरी
आजकल की जीवनशैली फ़ास्ट ट्रैक पर चलती है। हर कोई दौड़ता नजर आता है। वे होशियार भी हैं और अपने में केंद्रित भी। उसे अपनों से कम ही मतलब होता है। यही वजह है कि आज का आदमी जीवन की सुन्दरता व सुख शान्ति से काफी हद तक महरूम हो गया है। संबंध और रिश्ते ऊपरी हो गए हैं और मतलब पर टिके हैं। इंसान अब धन कमाने व बटोरने में उम्र भर लगा रहता है। इसके अलावा जीवन में होता ही क्या है? यह बात और है कि लक्ष्मी चलायमान होती है कहीं भी सदा टिकी नहीं रहती। सरस्वती का वास अलग होता है।
अब घर और समाज के वातावरण में नैतिक मूल्यों का शायद ही कोई स्थान हो। कोचिंग और गाइड बुक्स के सहारे बच्चे जीवन की सीढ़ी पर चढ़ते हैं। पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों, लेखों और मुंशी प्रेमचंद की कहानियों व उपन्यासों को पढऩे की किसको जरूरत है। मीरा के पद, कबीर व रहीम के दोहे और रसखान का कृष्ण प्रेम उनसे कोसों दूर है।
चाल्र्स लैम्ब, रॉबर्ट लुई स्टीवेन्सन का लेखन, फैज़ अहमद 'फैज़' और रघुपति सहाय 'फिराक' गोरखपुरी की कविता, शायरी से भी वे शायद ही वाकिफ हों। आप टीवी चैनल्स व आजकल के गायकों को देख-सुनकर समझते होंगे कि उच्चारण को कितनी अहमियत दी जाती है। जूथिका राय के भजनों व जगमोहन (मित्रा) के गीतों को सुनने का अब किसके पास समय व रूझान है। गान्धार मूर्तिकला की क्या $खासियतें हैं और उस पर किस विदेशी कला का प्रभाव है, इसको जानकर आज की युवा पीढ़ी क्या करेगी।
स्कूलों में बच्चों को जो शिक्षक मिलते हैं, उनमें पहले जैसा समर्पण, सच्चाई व आदर्श व्यक्तित्व कम ही झलकता है। बाकी रही सही कसर टीवी, फिल्में, समाज और घर का वातावरण पूरी कर देते हैं।
युवा होते ही लोगों का जीवन उद्देश्य मात्र धन इकट्ठा करना रह जाता है, जो कि आजकल की कमरतोड़ महंगाई में सही माना जाता है। गाड़ी, बंगला, मोबाइल, इसप्लिट एसी, एलसीडी टीवी जुटाने व हांगकांग, बॉस्टन की यात्रा में उसका जीवन निकल जाता है। फिर भी मानव की स्थिति 'जल बिच मीन पियासी रे, मोहे देखत आवे हांसी' जैसी दिखती है। जीवन में सार्थकता की कमी खलती रहती है। जीवन- मूल्यों को छोडऩे पर आदमी जीवन की राह पर अकेला होता जाता है। सब कुछ हासिल करके भी उसके अन्दर खालीपन बना रहता है। तुलसीदास की 'ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनियां' की सुख सुन्दरता से वह वंचित रहता है।
महाराजा टीकमगढ़ ने अयोध्या में संगमरमर का कनक भवन बनवाया है, जहां रामजन्म स्तुति अति सुन्दर होती है। 'भये प्रकट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी। हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप निहारी।' यह संस्कार बच्चों को अब कम ही सिखाये जाते हैं।
आजकल तरह- तरह के डे (दिन) मनाये जाते हैं
मदर्स डे, फादर्स डे, जाय ऑफ गिविंग वीक। पर इन अवसरों पर लोग तस्वीरें खिंचवाकर नुमाइश ज्यादा करते हैं। यह एक औपचारिकता है जो निभाई जाती है। माता-पिता और जरुरतमंदों की स्थिति जस की तस रहती है।
अब अब्दुर रहीम खाने खाना जैसे लोग आपको ढूंढे नहीं मिलेंगे। अकबर के नौ रतन, मनसबदार, विद्वान व दानी थे, तुलसीदास के पूछने पर उन्होंने जवाब दिया था 'देनहार कोई और है, भेजत है दिन रैन। लोग भरम हम पर करें, तासों नीचे नैन।' दान देते वक्त वो निगाहें नीचे कर लेते थे, ताकि दान लेने वाले के मन में हीन भावना न आए तथा उनके स्वयं के मन में दम्भ न आने पाए।
फै•ज ने जीवन का वर्णन कुछ यूं किया है-
'जिंदगी क्या किसी मु$फलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं।'

बढ़ती उम्र में हम इंतजार करते है कि कोई उसके पास आये, कोई पाती आये, लोगों में अपनेपन को तलाशते हैं। मिर्जा गालिब ने इस स्थिति को यूं दर्शाया है -
'शमा जलती है हर रंग में सहर होने तक।'
अब आपको बनावट नजर आयेगी, संबंधों में कोई गहरापन नहीं मिलेगा। अपनत्व, आदर भाव, लिहाज, समर्पण, नैतिक सत्मार्ग अतीत के हो गये हैं।
'झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया
काहे का ताना काहे की भरनी...
दास कबीर जतन से ओढयो'
ज्यों कि त्यों धर दीनी चदरिया'

इसको समझने वाले आपको कम ही मिलेंगे।
संपर्क - ई-1 /172, अरेरा कॉलोनी, भोपाल - 462016, मोबाइल - 09425687444

साहित्यकार के हसीन सपने



- काशीपुरी कुंदन
जब से भिड़ाऊरामजी पद्मश्री से विभूषित हुए हैं मेरा मन पद्मश्री की दुनिया में ठीक उसी तरह भटक रहा है जैसे कुर्सी विहीन नेता कुर्सी के लिए। भिड़ाऊराम द्वारा उच्चारित अनमोल वाणी मेरे कानों में आज भी दादाजी की सीख की तरह गूंज रही है। यदि आप पद्मश्री या पुरस्कार के मुंतजिर हैं तो घबराने की जरूरत नहीं है, पुरस्कार बिकता है, दूल्हे जैसा। जो भी पुरस्कार लेना चाहते हैं या जिसके काबिल अपने आपको समझते हैं उसकी प्राप्ति सीमा में घुसिए और उसका आनंद उठाइए।
धीरे- धीरे मेरा मन छुटका चोर की तरह, जो छोटी- छोटी चोरियों के हुनर जानने- आजमाने के बाद डाका डालने की कला में महारत हासिल कर लेता है, उसी प्रकार छोटे- छोटे पुरस्कार हड़पने के गुर जानने से लेकर बड़े से बड़े पुरस्कार हथियाने के हसीन ख्वाब देखने लगा। इस हसीन ख्वाब का आनंद शुरू- शुरू में मैं रात्रि में लेता था। कहते हैं जिस किसी शरीफजादा को इसका चस्का लग जाए तो यह ड्रग से भी खतरनाक लत साबित होती है। इसीलिए मैं आजकल केजुअल लीव लेकर खूबसूरत सपने देखता हूं। फिर भी मन नहीं भरता है।
इसी सिलसिले में दिन के बारह बजे मुगेंरीलाल के हसीन सपने की तरह हम भी देखने लगे कि राष्ट्रपति भवन का सील लगा हुआ लिफाफा लिए डाकिया मेरे द्वार खड़ा है। उसके हाथ से लिफाफा मैं झटक लेता हूं, आनन फानन में उसके अन्दर चमकदार कागज में मुद्रित इबारत बांचते ही मेरे मुंह से अनायास सीटी बजने लगता है। सुरीली सीटी को सुनकर मेरी श्रीमती की निद्रा भंग हो जाती है, निद्रा भंग होने पर वह ऐसे गुर्राती है जैसे कोई मंत्री संसद भंग हो जाने पर। लेकिन मेरे हाथों में शानदार चमकदार लिफाफा देखकर अपने क्रोध को जब्त कर मुझे बच्चों सा भुलावा देकर लिफाफा मेरे हाथों से झटक लेती है। चूंकि धोखे से प्राथमिक ंिवद्यालय की शोभा बढ़ा चुकी है अस्तु वह ऐसे खुश होती है जैसे किसी कंजूस को रास्ते में पड़ा पैसा मिल जाए या कोई दावत का न्यौता दे जाए। बेचारी ने बमुश्किल रात बिताई। इतनी खुशी उसे मुझसे शादी करने पर नहीं हुई थी। तड़के चार बजे इस धमाकेदार समाचार को पड़ोस में प्रसारित करने के लिए वायरलेस को भी पीछे छोड़ गई। बच्चे औकात से लम्बी फेहरिस्त बनाने में मशगूल हो गए। कुन्दनजी पद्मश्री से विभूषित होने वाले हैं। खबर दावानल की तरह मुहल्ले से होते हुए समूचे शहर में फैल गई। तमाम शुभाशुभचिंतकों की हम तेरे हैं तेरे ही रहेंगे की मुद्रा में मेरे घर के सामने लम्बी लाइन लगने लगी। अखबार वाले जो मेरी रचनाओं को कूड़ेदान को सादर समर्पित कर देते हैं वे मोटे अक्षरों में प्रख्यात व्यंग्यकार कुन्दनजी पुरस्कृत मुख्यपृष्ठ पर छापकर गौरवान्वित होने लगे। इन्टरव्यू के लिए पत्रकार दल पहुंचने लगे। मेरे चित्र कई पोज में उतारी जाने लगी।
सबसे अनोखी बात यह हुई -उधारी वालों के डर से मैं सन्यास लेने की मानसिकता बना चुका था वे मेरी खुशामद करने लगे। पुन: उधारी देने के लिए मेरे घर के चक्कर मारने लगे। श्रीमती ने भी वक्त हाथ से नहीं जाने दिया और इस प्रकार के जितने भी हितैषी, सेवा- भावी विचारधारा के प्राणी थे सबको उन्होंने जी भर के अवसर दिया। नतीजा सभी हितैषियों ने उपहारों से घर को लबालब भर दिया।
मुझे बाजे गाजे के साथ स्थानीय रेल्वे प्लेटफार्म पर राष्ट्रपति भवन यानी दिल्ली जाने के लिए छोड़ा गया। इतने आत्मीय स्वागत को देखकर मेरा मूड फिर से शादी करने का बन रहा था कि श्रीमतीजी ने आदतन आदेश दिया- सुनो जी पुरस्कार का धन प्राप्त होते ही तत्काल बैंक ड्राफ्ट भेज देना, आजकल हमारे देश में चोर- उचक्कों की कमी नहीं है कब किसको कंगाल बना दे, दूसरी बात साथ में रूपये लेकर इतनी लम्बी यात्रा करना भी विश्वसनीय नहीं रह गया है। रेलों, बसों का भी कोई भरोसा नहीं रहा, कब किस नदी में समा जाएं। भगवान करे ऐसी-वैसी बात न हो मगर भविष्य को कौन जानता है। दूसरी बात आजकल मुआवजे में भी दम नहीं रह गया है। हवाई यात्रा करते तो कुछ और बात थी। श्रीमतीजी की बातों से मेरा विश्वास पुख्ता हो चला था कि उसे मेरे पुरस्कृत होने या मुझे मान- सम्मान मिलने की खुशी नहीं थी वरन पुरस्कार की धन राशि प्राप्त होने पर थी, जिससे वह अपनी मनपंसद की वस्तुएं खरीद सके।
खैर साहब भारतीय रेल का सुख भोगते कभी प्रभु को याद करते और कभी हनुमान चालीसा पढ़ते हुए दिल्ली का सुहाना सफर तय करने लगे। स्टेशन के स्वास्थ्यवर्धक छोले-भटुरे गटकने के साथ ही मुफ्त में हिचकोले खाते, व्यायाम करते हम रेल परम्परानुसार सिर्फ तीन घंटे विलम्ब से दिल्ली प्लेटफार्म पर उतरने की गरज से सर्वसुविधा युक्त रेलगाड़ी को छोडऩे का मूड बनाने लगे। गजगामिनी सी रेगती हुई रेल प्लेटफार्म पर खड़ी हो गई। सहयात्रीगण एक- एक कर अतिक्रमण किए सीटों को छोडऩे लगे गोया अतिक्रमण हटाओ शुरू हो गया हो। हमने भी अपने समान की सुध ली कि हमारे होश उड़ गए, घिग्घी बंध गई, किस्मत फूटी निकली, उठाईगिरी से खानदानी ताल्लुकात रखने वाले जरूरतमंद चोर भाई ने मित्रो से काम चलाऊ सरकार की तरह उधार ली गई अटैची सहित कपड़े, बटुए राष्ट्रपति भवन का आमंत्रण पत्र आदि पर हाथ साफ कर दिया था। मेरे पास रेल पटरियों पर लेटकर राष्ट्रपति भवन जाने के बदले मुफ्त में स्वर्ग जाने के अलावा और कोई चारा नहीं था परंतु एक टिकिट कलेक्टर यमराज की तरह सामने ही खड़ा था। लाख स्पष्टीकरण देने के बावजूद टी.टी.आई ने मेरी एक न सुनी और मुझे बिना टिकिट यात्रा करने के जुर्म में रेलयात्री से जेलयात्री होने का सुअवसर प्रदान कर दिया ।
सलाखों के बीच पद्मश्री से अंलकृत होने के हसीन सपने देखने के बदले हकीकत के आंसू बहाने लगा। दिमाग में अनेक विचार आने- जाने लगे, उसी तरह जैसे कर्ज लेने बाद नहीं पटाने पर कर्जदारों का आना-जाना जारी हो जाता है। कभी मन ही मन डाक वालों को कोसने लगता कि डाक परम्परानुसार डाक के डाकू इस लिफाफे को भी डकार गए होते तो आज चुल्लू भर पानी में डूबने की नौबत नहीं आती। दूसरी जब तक लार्ड डलहौजी के वंशज, साहित्य के मठाधीश व्यवस्था पर कुडंली मारे हुए बैठे रहेंगे तब तक प्रतिभाओं की हत्या होती रहेगी और हमारे जैसे प्रतिभा सम्पन्न निरीह साहित्यकार सिर्फ हसीन सपने देखते और बेचते रहेंगे जैसे पुख्ता विचार जोर मारने ही वाला था कि मेरे सात वर्षीय बालक ने यह कहते हुए मुझे जगा दिया कि पापा उठो फीस नहीं भरने के कारण मेरा नाम स्कूल से कट गया है।
संपर्क- मातृछाया, मेला मैदान राजिम,
जिला-रायपुर (छ.ग.) पिन -493885
मो.नं.-9893788109
व्यंग्यकार के बारे में ...
छत्तीसगढ़ में धमतरी और राजिम दो ऐसे कस्बे रहे हैं जहां साहित्यिक सरगरमियां खूब रही हैं। राजिम में पुरुषोत्तम अनासक्त जैसे व्यंग्य कथाओं के गंभीर लेखक हुए हैं। पिछले तीन दशकों से वहां काशीपुरी कुंदन सक्रिय हैं। जो अनासक्त के ठीक विपरीत ध्रुवांत के लेखक हैं। वे मंचों के प्रसिद्घ हास्य कवि हैं। साथ ही गद्य व्यंग्य भी वे लिखते हैं। अभी अभी उनका व्यंग्य संग्रह 'भ्रष्टाचार के शलाका पुरुष' छप कर आया है। काशीपुरी कुंदन की रचनाओं में 'विट' है। वे व्यंग्य के साथ हास्य को पिरोना जानते हैं। इसलिए उनकी व्यंग्य रचनाएं हास्य की तरफदारी करती हैं। यहां प्रस्तुत उनकी रचना 'साहित्यकार के हसीन सपने' उनकी लेखन प्रकृति का एक प्रमाण है। आज राजनेताओं की तरह साहित्यकार भी समीकरण बाज हो गए हैं और पुरस्कार हथियाने के लिए वे किस तरह के गणित बिठाते हैं और कैसे कैसे गठजोड़ करते हैं। कुछ ऐसी ही प्रवृत्तियों की ओर यहां लेखक का इशारा है।
- विनोद साव

रामी


- डॉ. दीप्ति गुप्ता
देवयानी की नींद निगलती हुई दूर से लहराती घडिय़ाल की टन टन टन टन। सुबह के चार बजे थे। सहसा उंघता हुआ चौकीदार शेरसिंह कड़ाके की सर्दी में अपने बरसों पुराने फौजी ओवरकोट से चिपटता हुआ लालटेन और लाठी सम्भाल कर कालेज के निकट ही कुछ ऊंचाई पर टीचर्स हॉस्टल के नीचे वाले क्वार्टर की ओर चला। शेर सिंह की उम्र साठ के लगभग है लेकिन जीवन के प्रति जीवंत दृष्टिकोण के कारण उसका हंसता हुआ चेहरा उसकी उम्र से दस वर्ष कम दिखता है। उम्र के इस थके मोड़ पर पहुंचने वाले, इस चौकीदार की चिलगोज़े जैसी आंखों से अभी भी मसखरी और चुस्ती टपकती है। क्वार्टर में पहुंचते ही शेरसिंह ने सबसे पहले दड़बे में फडफ़ड़ाती, चहकती मुर्गियों को दाना पानी दिया, फिर फटे टाट के पर्दे को हटाकर बरामदे में घुसते ही उसकी नजर उस कोने की ओर गई, जो जगह की कमी के कारण एक छोटे से रसोईघर में परिवर्तित कर दिया गया था। अधबुझे चूल्हे के पास उसकी पत्नी रामी अपने चीथड़ों में दुबकी बैठी थी। उसने शेरसिंह के लिए चाय का गिलास तैयार कर रखा था। शेर सिंह ने गर्माहट पाने के लिए पास पड़ी एक छोटी सी लकड़ी से राख को कुरेदते हुए कहीं-कहीं चमक पडऩे वाले अंगारों को देखकर चूल्हे में एक दो बार फूंक मारी और चाय का गिलास थामकर बैठ गया। दोनों पति-पत्नी कबूतर और कबूतरी की तरह पास बैठे हुए धीरे- धीरे चाय सुड़कने लगे।
शेर सिंह से एकदम विपरीत रामी के चेहरे पर समय ने दु:ख और विषाद की अमिट रेखाएं खींच दी हैं। पिछले चार वर्षों से जैसे वह एकाएक मौन में चली गई है। तब से आज तक देवयानी ने रामी को कभी भी किसी से एक शब्द भी बोलते नहीं देखा। देवयानी को लगता, या तो रामी के शब्द चुक गए हैं या उसकी बोलने की इच्छा मर गई है। उसके उस अस्वाभाविक मौन तथा चेहरे पर गहरा आई रूग्ण उदासी के कारण कोई उसे विक्षिप्त तो कोई प्रेताभिभूत बताता है। कई बार शेरसिंह के कमरे से आवाजें आती, जो रात भर देवयानी का पीछा करती रहतीं। आज तक कोई डाक्टर व वैद्य रामी की सलोनी मुखाकृति की उन बीमार रेखाओं को स्वस्थ नहीं कर पाया।
देवयानी सोचती कि रामी के जीवन में आए उस बदलाव का क्या कारण होगा? उसकी मोटी पपोटों वाली छोटी आंखों में उठता गिरता भावों का ज्वार-भाटा, रामी के अन्तस में घुमड़ते किसी तूफान का स्पष्ट संकेत देता, लेकिन शब्दों की अभिव्यक्ति के बिना उसे समझ पाना कठिन था। देवयानी ने रामी के उस अटूट मौन को अक्सर एक दर्द भरे कुमांऊनी गीत में टूटते देखा था। रामी के दर्दीले स्वर में रचा बसा यह गीत 'म्यारा मैता का देस ना बासा, घुघूति रूमझूम' देवयानी के भीतर दूर-दूर तक विचारों और नए- नए अनुमानों के ऐसे विकट झाड़ झंखाड़ खड़े कर देता जिनमें रामी के दु:ख को जान लेने के लिए उसका व्याकुल मन उलझकर रह जाता। देवयानी ने कितनी बार एक कुशल मनोविश्लेषक की भांति मीठे, तीखे और कड़वे प्रसंगों द्वारा रामी के अन्तस को झकझोर कर उसे मन की व्यथा उगल देने को मजबूर कर देना चाहा, किन्तु हठयोगी की तरह रामी ने कभी भी अपनी मौन समाधि को न तोड़ा। एक बार न जाने कैसे रामी, देवयानी के बहुत कहने पर एक लोक गीत 'बेडू पाको बारहमासा, काफल पाको चैता मेरी छैला' को उच्च स्वर में गा उठी थी, लेकिन उसके दर्द भरे स्वर ने उस थिरकते गीत को जैसे एक साथ कई पतझड़ों से लाद दिया था।
ठीक साढ़े नौ बजे तैयार होकर देवयानी जैसे ही हास्टल की सीढिय़ों से नीचे उतरने लगी तो एकाएक चिडिय़ा कि तरह फुदकती 'नौनी' ने तश्तरी से ढके कटोरे में कुछ लिए, देवयानी का रास्ता रोक लिया, और बोली -
'दीदी, मां ने आपके लिए अरसा भेजा है।'
रामी का वो स्नेह, ममता भरा अपनत्व देवयानी के दिमाग में फिर विचारों के अनगिनत बुलबुले उठाने लगा। कैसी प्रेममयी है यह विक्षिप्त, भूली- भटकी रामी, या प्रेताभिभूत नारी? देवयानी को लगता कि या तो रामी के विषय में लोगों की धारणाएं सरासर गलत हैं, और यदि सही है तो उसे संतुलित व्यक्ति की भांति उसकी पसंद की चीज भेजना कैसे याद रहता है। देवयानी के लिए दिल की अतल गहराइयों में डूबकर कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देने वाला आश्चर्य थी रामी। देवयानी ने प्यार से नौनी के हलके से चपत जड़ते हुए कहा- 'जा रसोई में मेरी जाली की अलमारी में रख आ। अभी उप्रेती दीदी कमरे में ही हैं।' मिनट भर प्रतीक्षा भरी मुद्रा में खड़ी देवयानी ने नौनी के कमरे से लौट आने पर खट- खट सीढिय़ां उतर कर कॉलेज का रास्ता पकड़ लिया। रामी कैसी भी हो, वह अभी भी नियमित रूप से स्कूल की सभी अध्यापिकाओं को पानी पिलाने की ड्यूटी पूरी निष्ठा से निभाती है। हाथ में पानी से भरे गिलासों की ट्रे थामे, एक पैर पर कुछ अधिक जोर देकर धीरे-धीरे सपाट चाल चलती रामी कभी- कभी तो एकदम रोबोट नजऱ आती है।
आज रविवार है। लेकिन रवि तो पिछले एक सप्ताह से ईद का चांद बना हुआ है। आज भी सघन कोहरे की मोटी चादर ओढ़े जैसे अटूट निद्रा में सोया हुआ है। हवा के स्पर्श से ऊंचे- ऊंचे चीड़ के पेड़ों की संगीतमयी झनझनाहट, लिहाफ में लिपटे होने पर भी शरीर में एक सर्द सिहरन तरंगायित कर रहीं है। कोहरे ने समूचे परिवेश को इतना उबाऊ और शिथिल बना दिया है कि परिन्दे भी अपने घोंसलों में निस्पन्द पड़े हैं। दूर बादलों से घिरी पहाडिय़ां मुंह निकालकर झांकती हुई, अलसाई सी नजऱ आ रही हैं।
तभी बरामदे में कोई गम्भीर स्वर गूंजा। देवयानी ने देखा कि शेरसिंह हांफता हुआ प्रिंसिपल मिस जंगपांगी से कह रहा है-'बहनजी, रामी इडर आया क्या ओ सबेरे चार बजे से गायब है। शब जगह देख आया, मिलता ही नहीं।Ó इससे पहले कि उसकी बात खत्म होती, देवयानी लपककर शेरसिंह के क्वार्टर में नौनी के पास पहुंच गई। नौनी रूआंसी, खामोश खड़ी थी। देवयानी का दिल किसी दुर्भागी आशंका से भर उठा। दिमाग में एक साथ बुरे ख्यालों के हजारों कैक्टस उग आये। देवयानी झटपट नौनी को साथ लेकर ठण्डी सड़क से होती हुई टिफिन टॉप की ओर चल पड़ी, जिधर- जिधर मन ने कहा, उधर ही वे दोनों चलते गये। लगभग सभी ओर उनकी आंखें हर- एक दरख्त, हर- एक पत्ते को भेदकर रामी को खोज लेने आतुर हो रही थीं।
रामी को खोजने में अभी दो घण्टे से अधिक समय नहीं बीता था, लेकिन देवयानी को लगा जैसे दो युग बीत गए और इस एहसास ने उसके दिल में निराशा की सर्द परतें जमानी शुरू कर दीं। आस पास कहीं भी जरा सी भी आहट होती तो वे दोनों सजग हो, आशा भरी दृष्टि से उधर ही दौड़ पड़तीं। कोहरे की धुन्ध में एक फुट दूर की वस्तु भी साफ नजर नहीं आ रही थी। कभी कोई जंगली चूहा ढालानों पर पड़े सूखे पत्तों को खडख़ड़ाता निकल जाता तो कभी कोई गिलहरी पेड़ों के झुरमुट से सरसराती हुई तेजी से गुजर जाती।
एक पल के लिए सुस्ताने को खड़ी हुई देवयानी, जमीन पर पड़े बेडूफल को चुगती हुई नौनी को शून्य दृष्टि से निहारने लगी कि तभी रामी का चिरपरिचित स्वर कहीं से अंधेरे में आशा की रूपहली किरण की तरह उभरा। देवयानी के हृदय में जैसे हजारों सुर्ख बुरांस एक साथ खिल उठे। सधे स्वर में उठती गिरती रामी की मधुर आवाज... कितनी मिठास...कितना दर्द है उसके गाने में। देवयानी और नौनी उस आवाज के सहारे चिकने स्लेटी पत्थरों पर सावधानी से कदम रखती हुईं आगे बढ़ीं और कुछ ही दूरी पर चीड़ के पेड़ों के नीचे से निकल कर धीरे- धीरे चलती रामी को आगे जाते हुए देखा।
'रामी, ओ रामी रूको'। देवयानी की पुकार से रामी के पांव ठिठक गये। रामी ने पलटकर सूनी आंखों से देवयानी को देखा और अभिवादन में हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। नौनी दौड़ कर उससे लिपट गई और बोली - 'माजी, तू कख गए छे। पिताजी, ई दीदी तिते खुजाणा छै। घोर चल। मिथे भूख लगणी छे।' और रामी यंत्रवत सी देवयानी के साथ नौनी का हाथ थामें हुए लौट पड़ी। रामी की नासिका में झूलता बुलाक देवयानी के ऊपरी होंठ पर एक अस्वभाविक सी खुजली का आभास देने लगा। उसके गले में पड़ी लाल मूंगे व काली चरेऊ की माला देवयानी की जुबान तक आने वाले अनेक प्रश्नों को उसके गले में ही घोंटने लगी। देवयानी का मन हुआ कि रामी को डांटे, या धीरे से धमकाए। आखिर उसने सुबह से सबको इस तरह परेशान क्यूं कर डाला। लेकिन उससे कुछ कहना तो जंगल में रोने जैसा है। दूर-दूर तक भटक कर थका देवयानी का मन कुछ भी समझ पाने में असमर्थ सा, एक अजीब से दमघोटू एहसास को पीने लगा। विचार के ताने बाने में उलझी देवयानी रामी को लेकर हॉस्टल पहुंच चुकी थी। कई जोड़ी आंखे इधर- उधर से रामी को देखने के लिए उठी और एकाएक गायब हो गई। रामी एक अपराधी की सी चाल से रेंगती हुई नौनी के साथ क्वार्टर की ओर चली गई।
गहरी नींद में सोई देवयानी एकाएक किसी की दर्दनाक चीख से उठ बैठी। घड़ी में देखा तो रात के 12.30 बजे थे। बाहर कहीं दूर गीदड़ों की 'हुंआ हुंआ' वातावरण को मनहूस बना रही थी। रात के सन्नाटे में झींगुरों की झनझनाहट भरी संगीतमयी चिकमिक ने उस परिवेश को अधिक रहस्यमय बना दिया था। तभी एक भयावह चीख रात की नीरवता को पार करती हुई, देवयानी के हृदय में कहीं गहराई से धंसती चली गई। देवयानी को समझते देर नहीं लगी - नि:सन्देह वह रामी की ही आवाज थी। वही ओझा की झाड़ फूंक और दर्द से छटपटाती रामी! उसका मन हुआ कि तुरन्त नीचे जाकर रामी को अपनी बाहों में समेट कर अभय दान दे दे। देवयानी किसी द्वन्द्व में उलझी बहुत समय तक वैसे ही बैठी रही। फिर निढाल सी बिस्तर पे पसर गई। उसे नहीं मालूम कि कब उसकी आंख लगी।
सवेरा हुआ तो रामी का चेहरा अनायास ही देवयानी की आंखों के सामने नाचने लगा। बिजली की गति से बिस्तर छोड़कर, शाल लपेटती हुई वह सम्मोहित सी शेरसिंह के क्वार्टर की ओर लपकी। इससे पहले कि वह रामी के करीब पहुंच पाती, बाहर ही उसे शेरसिंह और नौनी का करूण विलाप सुनाई पड़ा। धड़कते दिल से वह कमरे में पहुंची तो देखा रामी चिर निद्रा में सोई थी। उसके चेहरे की उदास रेखाओं में पहले से भी अधिक दु:ख और पीड़ा घुली थी। मरने से पूर्व उसने ओझा की झाड़- फूंक की जिस पीड़ा को भोगा था, शायद वही उसके मुख पर उभर आयी थी।
देवयानी के भीतर घुमड़ती घनीभूत पीड़ा, ओझा और शेरसिंह के प्रति क्रोध का ज्वालामुखी बनने लगी। किन्तु उस विदा के क्षण पथराये वातावरण में कुछ भी कर पाने में असमर्थ देवयानी का नपुंसक क्रोध आंखों से आंसू बनकर बह निकला। देवयानी को लगा कि रामी का दर्द भरा स्वर 'म्यार मैता का देस ना बासा घुघूति रूमझूम' चारों दिशाओं में चीख-चीख कर रो रहा है। शेरसिंह के अंधविश्वास के कारण प्रेताभिभूत समझी जाने वाली रामी ओझा की झाड़ फूंक की बलि चढ़ चुकी थी। उसकी मौत मुक्ति नहीं वरन एक प्रश्न-चिन्ह बनकर समाज के मस्तक पर चिपक गई थी!!!

खेलने के दिन


- कमल चोपड़ा
स्टोर खिलौनों से भर गया था। पत्नी का विचार था कि उन्हें किसी कबाड़ी के हाथों बेच दिया जाए और जगह खाली कर ली जाए, क्योंकि बच्चे बड़े हो गए हैं और अब उन खिलौनों की तरफ देखते भी नहीं थे। कुछ को छोड़कर ज्यादातर खिलौने नए जैसे ही थे। वह झुंझलाकर बोला था 'हर साल बच्चों का बर्थ-डे मनाते रहे और जब ढेर खिलौने आते रहे, तब भी दूसरों के बर्थ-डे पर बाजार से खरीद खरीदकर नए देते रहे....ढेर तो लगना ही था। कबाड़ी क्या देगा....सौ-पचास?'
बाबूजी ने सुझाया 'जो हुआ, सो हुआ। हमारे बच्चों का बचपन खिलौनों में बीता बस, यही संतोष की बात है। अब यह है कि अगर कहो, तो मैं ये खिलौने ले जाकर किन्हीं गरीब बच्चों में बांट आऊं? और कुछ नहीं, तो एक नेक काम ही सही....।'
वे कुछ नहीं बोल पाए थे। बाबूजी इसे दोनों की सहमति समझकर सभी खिलौने लेकर चल दिए।
बड़े उत्साह के साथ वे इंडस्ट्री एरिया के पीछे बनी झुग्गियों की ओर चल दिए। कितने खुश होंगे वे बच्चे इन खिलौनों को पाकर। रोटी तो जैसे-तैसे वे बच्चे खा ही लेते हैं। तन ढंकने के लिए कपड़े भी मांग तांगकर पहन ही लेते हैं, पर खिलौने उन बेचारों के नसीब में कहां? उनके चेहरे खिल उठेंगे, आंखें चमक जाएंगी खिलौने देखकर....उन्हें खुश होता देखकर मुझे कितनी खुशी होगी। इससे बड़ा काम तो कोई हो ही नहीं सकता...।
झुग्गियों के पास पहुंचकर उन्होंने देखा मैले फटे कपड़े पहने दो बच्चे सामने से चले आ रहे हैं। उन्हें पास बुलाकर उन्होंने कहा 'बच्चो, ये खिलौने मैं तुम लोगों के बीच बांटना चाहता हूं.....इनमें से तुम्हें जो पसंद हो, एक-एक खिलौना तुम ले लो.....बिल्कुल मुफ्त...।'
हैरान होकर बच्चों ने उनकी ओर देखा, फिर एक-दूसरे की तरफ देखा, फिर अथाह खुशी भरकर खिलौनों को उलट-पुलटकर देखने लगे। उन्हें खुश होता देखकर बाबूजी की खुशी का ठिकाना न रहा। कुछ ही क्षणों में बाबूजी ने देखा- दोनों बच्चे कुछ सोच में पड़ गए। उनके चेहरे बुझते से चले गए।
'क्या हुआ?' एक बच्चे ने खिलौने को वापस उनके झोले में डालते हुए कहा 'मैं नहीं ले सकता। मैं इसे घर ले जाऊंगा, तो मां-बाप समझेंगे कि मैने मालिक से ओवरटाइम के पैसे उन्हें बिना बताए ले लिये होंगे और उनका खिलौना ले आया होऊंगा... वे नहीं मानेंगे कि किसी ने मुफ्त में दिया होगा। शक में मेरी तो पिटाई हो जाएगी।'
दूसरा बच्चा खिलौनों से हाथ खींचता हुआ बोला, 'बाबूजी, खिलौने लेकर करेंगे क्या? मैं फैक्टरी में काम करता हूं। वहीं पर रहता हूं। सुबह मुंहअंधेरे से देर रात तक काम करता हूं। किस वक्त खेलूंगा? आप ये खिलौने किसी 'बच्चे' को दे देना।'

अनर्थ
चीख बहुत दूर- दूर तक सुनी थी लोगों ने। चीखने के बाद तिवारी जी बाकायदा चिल्लाने लगे थे अनर्थ....घोर अनर्थ.....महापाप...महापाप।
कुछ ही क्षणों में आ जुटी भीड़ को वहां ऐसा हौलनाक सा कुछ भी घटित हुआ नहीं दिख रहा था। क्या हुआ? हुआ क्या है?
कांपती काया और सूखते गले से बमुश्किल बोल पाए वह- यहां सामने की दुकान वाले ने भगवान जी की मूर्ति बीच सड़क पर दे मारी। टुकड़े-टुकड़े हुए पड़े हैं भगवान जी..... देखो।
फटे पुराने कैलेण्डर और कागज वगैरह को झाड़ू से बाहर करता हुआ सामने वाली दुकान का मालिक दुकान के बाहर लोगों को जुटा देखकर सहम गया था। पहले इस दुकान का मालिक कोई हिन्दू था जो दो दिन पहले अपनी दुकान दूसरे धर्म के इस दुकानदार को बेच गया था। नया दुकानदार आज आकर इसकी साफ सफाई कर रहा था।
फिर चीखे तिवारी जी वो देखो भगवान जी के कैलेंडर को झाड़ू मार रहा है ये विधर्मी..... इधर भगवान जी के टुकड़े पैरों के नीचे आने लगे हैं..... डरे सहमे दुकानदार ने कहा माफ कीजिये माफ कीजिए ... पैरों के नीचे कुछ नहीं आएगा.... मैं इस कचरे को इक_ा करके अग्नि के सुपुर्द कर दूंगा...
भगवान जी को कूड़ा कह रहा है? मारो साले को..... लोगों का गुस्सा दुकानदार पर उतरने लगा। लहुलुहान दुकानदार सड़क पर बिछा दिया गया। उसका लहू भगवान जी के टुकड़ों को भिगाने लगा था। उसकी दुकान को अग्नि के सुपुर्द कर दिया गया। आग फैलती जा रही थी। मामला धर्म का था। शटर गिरने लगे। भगदड़ मच गई।
दूसरे धर्म वालों के हत्थे न चढ़ जाए, सोचकर तिवारी जी भी उल्टे पांव घर की ओर दौड़ पड़े। पकड़ो मारो का शोरगुल और धर्म के जयकारे और शोरगुल उनका पीछा कर रहा था।
दूसरे धर्म वालों के नारे की आवाजें नजदीक आती लगी तो तिवारी जी और तेज दौडऩे लगे। टूटी हुई चप्पलें दौडऩे में रूकावट डालने लगीं तो उन्होंने चप्पल उतारकर फेंक दी और पूरा दम लगाकर नंगे पैर दौडऩे लगे।
अचानक उनके नंगे पैर में कोई चीज चुभी। तब तक वे घर के नजदीक पहुंच चुके थे। दर्द से बिलबिला उठे वे। झुककर उन्होंने वह चीज उठाई। किसी का गले में लटकने वाला बड़ा सा लॉकेट था जिस पर भगवान जी की तस्वीर थी। एक हाथ से उन्होंने अपने पैर को सहलाया। दूसरे हाथ से भगवान जी के चित्र वाला लॉकेट सड़क पर दे मारा। लॉकेट लुढ़कता हुआ नाली में जा गिरा। इस बार तिवारी जी की चीखें नहीं निकली।