जवाहरलाल नेहरू को लिखा महात्मा गांधी का पत्र
05 अक्टूबर, 1945
चि. जवाहरलाल,
तुमको लिखने को तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूं। अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था। आखिर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखने का पसंद किया।
पहली बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है उसकी है। अगर वह भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए। क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रुकता है। मैंने कहा है कि 'हिन्द स्वराज' में मैंने लिखा है उस राज्य पद्धति पर मैं बिलकुल कायम हूं। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है, लेकिन जो चीज मैंने सन् 1909 में लिखी है उसी चीज का सत्य मैंने अनुभव से आज तक पाया है। आखिर में एक ही उसे मानने वाला रह जाऊं, उसका मुझको जरा-सा भी दु:ख न होगा। क्योंकि मैं जैसे सत्य पाता हूं उसका मैं साक्षी बन सकता हूं। 'हिन्द स्वराज' मेरे सामने नहीं है। अच्छा है कि मैं उसी चित्र को आज अपनी भाषा में खेंचू। पीछे वह चित्र सन् 1909 जैसा ही है या नहीं, उसकी मुझे दरकार न रहेगी, न तुम्हें रहनी चाहिए। आखिर में तो मैंने पहले क्या कहा था, उसे सिद्ध करना नहीं है, आज मैं क्या कहता हूं वही जानना आवश्यक है। मैं यह मानता हूं कि अगर हिन्दुस्तान को कल देहातों में ही रहना होगा, झोपडिय़ों में, महलों में नहीं। कई अरब आदमी शहरों और महलों में सुख से और शांति से कभी रह नहीं सकते, न एक-दूसरों का खून करके- मायने हिंसा से, न झूठ से यानी असत्य से। सिवाय इस जोड़ी के (यानी सत्य और अहिंसा) मनुष्य जाति का नाश ही है, उसमें मुझे जरा-सा भी शक नहीं है। उस सत्य और अहिंसा का दर्शन केवल देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं। वह सादगी चर्खा में और चर्खा में जो चीज भरी है उसी पर निर्भर है। मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उल्टी ओर ही जा रही दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है। हो सकता है कि हिन्दुस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके। मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मारफत जगत को बचाने की कोशिश करूं। मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए- अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है। आखिर तो जगत व्यक्तियों का ही बना है। बूंद नहीं है तो समुद्र नहीं है। यह तो मैंने मोटी बात ही कहीं- कोई नई बात नहीं की।
लेकिन 'हिन्द स्वराज' में भी मैंने यह बात नहीं की है। आधुनिक शास्त्र की कदर करते हुए पुरानी बात को मैं आधुनिक शास्त्र की निगाह से देखता हूं तो पुरानी बात इस नए लिबास में मुझे बहुत मीठी लगती है। अगर ऐसा समझोगे कि मैं आज के देहातों की बात करता हूं तो मेरी बात नहीं समझोगे। मेरे देहात आज मेरी कल्पना में ही हैं। आखिर में तो हर एक मनुष्य अपनी कल्पना की दुनिया में ही रहता है। इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा- शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अंधेरे कमरे में जानवर की जिन्दगी बसर नहीं करेगा, मर्द और औरत दोनों आजादी से रहेंगे और सारे जगत के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे। वहां न हैजा होगा, न मरकी (प्लेग) होगी, न चेचक होंगे। कोई आलस्य में रह नहीं सकता है, न कोई ऐश-आराम में रहेगा।
सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी। इतनी चीज होते हुए मैं ऐसी बहुत-सी चीज का ख्याल करा सकता हूं जो बड़े पैमाने पर बनेगी। शायद रेलवे भी होगी, डाकघर, तारघर भी होंगे। क्या होगा, क्या नहीं उसका मुझे पता नहीं। न मुझको उसकी फिकर है। असली बात को मैं कायम कर सकूं तो बाकी आने की और रहने की खूबी रहेगी और असली बात को छोड़ दूं तो सब छोड़ देता हूं।
उस रोज जब हम आखिर के दिन वर्किंग कमेटी में बैठे थे तो ऐसा कुछ फैसला हुआ था कि इसी चीज को साफ करने लिए वर्किंग कमेटी 2-3 दिन के लिए बैठेगी। बैठेगी तो मुझे अच्छा लगेगा, लेकिन न बैठे तब भी मैं चाहता हूं कि हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ लें। उसके दो सबब हैं। हमारा संबंध सिर्फ राज कारण का नहीं है। उससे कई दरजे गहरा है। उस गहराई का मेरे पास कोई नाप नहीं है। वह संबंध टूट भी नहीं सकता। इसलिए मैं चाहूंगा कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझते हैं। हम दोनों हिन्दुस्तान की आजादी के लिए ही जिन्दा रहते हैं, और उसी आजादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा। हमें किसी की तारीफ की दरकार नहीं है। तारीफ हो या गालियां- एक ही चीज हैं। खिदमत में उसे कोई जगह ही नहीं है। अगर मैं 125 वर्ष तक सेवा करते-करते जिन्दा रहने की इच्छा करता हूं तब भी मैं आखिर में बूढ़ा हूं और तुम मुकाबले में जवान हो। इसी कारण मैंने कहा है कि मेरे वारिस तुम हो। कम से कम उस वारिस को मैं समझ लूं और मैं क्या हूं वह भी वारिस समझ ले तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा।
और एक बात। मैंने तुमको कस्तूरबा ट्रस्ट के बारे में और हिन्दुस्तानी के बारे में लिखा था। तुमने सोचकर लिखने को कहा था। मैं पाता हूं कि हिन्दुस्तानी सभा में तो तुम्हारा नाम है ही। नाणावटी ने मुझको याद दिलाया कि तुम्हारे पास और मौलाना साहब के पास वह पहुंच गया था और तुमने अपने दस्तखत दे दिए हैं। वह तो सन् 1942 में था। वह जमाना गुजर गया। आज हिन्दुस्तानी कहां है उसे जानते हो। उसी दस्तखत पर कायम हो तो मैं उस बारे में तुमसे काम लेना चाहता हूं। दौड़-धूप की जरूरत नहीं रहेगी, लेकिन थोड़ा काम करने की जरूरत रहेगी।
कस्तूरबा स्मारक का काम पेचिदा है। ऊपर जो मैंने लिखा है वह अगर तुमको चुभेगा या चुभता है तो कस्तूरबा स्मारक में भी आकर तुमको चैन नहीं रह सकेगा, यह मैं समझता हूं।
आखिर की बात शरत बाबू के साथ जो- कुछ चिनगारियां फूटी हैं वह है। इससे मुझे दर्द हुआ है। उसकी जड़ मैं नहीं समझ सका। तुमको जो कहा है इतना ही है बाकी कुछ नहीं रहा है तो मुझे कुछ पूछना नहीं है। लेकिन कुछ समझाने जैसा है तो मुझको समझने की दरकार है।
इस सबके बारे में अगर हमें मिलना ही चाहिए तो हमारे मिलने का वख्त निकालना चाहिए।
तुम बहुत काम कर रहे हो, स्वास्थ्य अच्छा रहता होगा। इन्दु ठीक होगी।
बापू के आशीर्वाद
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