-राहुल सिंह
छत्तीसगढ़ में जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण, तालाबों के साथ विद्यमान है और इसलिए तालाब स्नान, पेयजल और अपासी (आबपाशी या सिंचाई) आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति के साथ जन-जीवन और समुदाय के बृहत्तर सांस्कृतिक संदर्भयुक्त बिन्दु हैं। अहिमन रानी और रेवा रानी की गाथा तालाब स्नान से आरंभ होती है। नौ लाख ओडिय़ा, नौ लाख ओड़निन के उल्लेख सहित दसमत कइना की गाथा में तालाब खुदता है और फुलबासन की गाथा में मायावी तालाब है। एक लाख मवेशियों का कारवां लेकर चलने वाला लाखा बंजारा और नायकों के स्वामिभक्त कुत्ते का कुकुरदेव मंदिर सहित उनके खुदवाए तालाब, लोक-स्मृति में खपरी, दुर्ग, मंदिर हसौद, पांडुका के पास, रतनपुर के पास करमा-बसहा, बलौदा के पास महुदा जैसे स्थानों में जीवन्त हैं।
खमरछठ (हल-षष्ठी) की पूजा के साथ प्रतीकात्मक तालाब-रचना और संबंधित कथा में तथा बस्तर अंचल की लछमी जगार गाथा में तालाब खुदवाने संबंधी मान्यता और सुदीर्घ परम्परा का संकेत है। सरगुजा अंचल में कथा चलती है कि पछिमहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाए थे और राजा बालंद, कर के रूप में खीना लोहा वसूलता और जोड़ा तालाब खुदवाता। उक्ति है- सात सौ फौज, जोड़ा तलवा; अइसन रहे बालंद रजवा। विशेषकर पटना (कोरिया) में कथन है- सातए कोरी, सातए आगर। तेकर उपर बूढ़ा सागर।
यह रोचक है कि छत्तीसगढ़ में आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, लोनिया, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब निर्माण में महत्वपूर्ण होती है और उनकी विशेषज्ञता तो काल-प्रमाणित है ही। छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के समय किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा खुदवाए गए उसके नाम स्मारक बहुसंखय 'लंकेटर तालाब' अब भी जल आवश्यकता की पूर्ति और राहत कार्य के संदर्भ सहित विद्यमान हैं।
छत्तीसगढ़ की प्रथम हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के सन 1900 के मार्च-अप्रैल अंक का उद्धरण है- 'रायपुर का आमा तालाब प्रसिद्ध है। यह तालाब श्रीयुत सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत में 17000 रु. खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसकी ओर ध्यान देवे।'
छत्तीसगढ़ के ग्रामों में तालाबों की बहुलता इतनी कि 'छै आगर छै कोरी', यानि 126 तालाबों की मान्यता रतनपुर, मल्हार, खरौद, महन्त, नवागढ़, अड़भार, आरंग, धमधा जैसे कई स्थानों के साथ सम्बद्ध है। सरगुजा के महेशपुर और पटना में तथा बस्तर अंचल के बारसूर, बड़े डोंगर, कुरुसपाल और बस्तर आदि ग्रामों में 'सात आगर सात कोरी' (147) तालाबों की मान्यता है, इन गांवों में आज भी बड़ी संख्या में तालाब विद्यमान हैं। छत्तीस से अधिक संख्या में परिखा युक्त मृत्तिका-दुर्ग (मिट्टी के किले या गढ़) जांजगीर-चांपा जिले में ही हैं, इन गढ़ों का सामरिक उपयोग संदिग्ध है किन्तु गढ़ों के साथ खाई, जल-संसाधन की दृष्टि से आज भी उपयोगी है।
अहिमन शुकलाल प्रसाद पांडे की कविता 'तल्लाव के पानी' में-
गनती गनही तब तो इहां ल छय सात तरैया हे,
फेर ओ सब मां बंधवा तरिया पानी एक पुरैया हे।
न्हावन छींचन भइंसा-मांजन, धोये ओढऩ चेंदरा के।
ते मा धोबनिन मन के मारे गत नइये ओ बपुरा के॥
पानी नीचट धोंघट धोंघा, मिले रबोदा जे मा हे।
पंडरा रंग, गैंधाइन महके, अउ धराउल ठोम्हा हे।
कम्हू जम्हू के साग अमटहा, झोरहातै लगबे रांधे,
तुरत गढ़ा जाही रे भाई रंहन बेसन नई लागे।
भीमादेव, बस्तर में पाण्डव नहीं, बल्कि पानी के देवता हैं। जांजगीर और घिवरा ग्राम में भी भीमा नामक तालाब हैं। बस्तर में विवाह के कई नेग-चार पानी और तालाब से जुड़े हैं। कांकेर क्षेत्र में विवाह के अवसर पर वर-कन्या तालाब के सात भांवा घूमते हैं और परिवारजन सात बार हल्दी चढ़ाते हैं। दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय भी ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है।
छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा भी है, जिसे अनुष्ठान (लोकार्पण का एक स्वरूप) के बाद ही उसका सार्वजनिक उपयोग आरंभ होता था। विवाहित तालाब की पहचान सामान्यत: तालाब के बीच स्थित स्तंभ से होती है। इस स्तंभ से घटते-बढ़ते जल-स्तर की माप भी हो जाती है। कुछ तालाब अविवाहित भी रह जाते हैं, लेकिन ऐसे तालाबों का अनुष्ठानिक महत्व बना रहता है क्योंकि ऐसे ही तालाब के जल का उपयोग चिन्त्य या पीढ़ी पूजा के लिए किया जाता है। जांजगीर-चांपा जिले के किरारी के हीराबंध तालाब से प्राप्त काष्ठ-स्तंभ, उस पर खुदे अक्षरों के आधार पर दो हजार साल पुराना प्रमाणित है। इस उत्कीर्ण लेख से तत्कालीन राज पदाधिकारियों की जानकारी मिलती है।
तालाबों के स्थापत्य में कम से कम मछन्दर (पानी के सोते वाला तालाब का सबसे गहरा भाग), नक्खा या छलका (लबालब होने पर पानी निकलने का मार्ग), गांसा (तालाब का सबसे गहरा किनारा), पैठू (तालाब के बाहर अतिरिक्त पानी जमा होने का स्थान), पुंछा (पानी आने व निकासी का रास्ता) और मेढ़-पार होता है। तालाबों के प्रबंधक अघोषित-अलिखित लेकिन होते निश्चित हैं, जो सुबह पहले-पहल तालाब पहुंचकर घटते-बढ़ते जल-स्तर के अनुसार घाट-घठौंदा के पत्थरों को खिसकाते हैं, घाट की काई साफ करते हैं, दातौन की बिखरी चिरी को इकट्ठा कर हटाते हैं और इस्तेमाल के इस सामुदायिक केन्द्र के औघट (पैठू की दिशा में प्रक्षालन के लिए स्थान) आदि का अनुशासन कायम रखते हैं।
तालाबों के पारंपरिक प्रबंधक ही अधिकतर दाह-संस्कार में चिता की लकड़ी जमाने से लेकर शव के ठीक से जल जाने और अस्थि-संचय करा कर, उस स्थान की शांति- गोबर से लिपाई तक की निगरानी करते हुए सहयोग देता है और घंटहा पीपर (दाह-क्रिया के बाद जिस पीपल के वृक्ष पर घट-पात्र बांधा जाता है) के बने रहने और आवश्यक होने पर इस प्रयोजन के वृक्ष-रोपण की व्यवस्था भी वही करता है। ऐसे व्यक्ति मान्य उच्च वर्णों के भी होते हैं।
तालाबों का नामकरण सामान्यत: उसके आकार, उपयोग, चरित्र पर आधारित होता है, इनमें खइया, नइया, पचरिहा, खो-खो, पनपिया, सतखंडा, अड़बंधा, डोंगिया, गोबरहा, पुरेनहा, देउरहा, पथर्रा, कारी, पंर्री, भट्ठा तालाब, कटोरा तालाब, नवा तालाब जैसे नाम हैं। नामकरण उसके चरित्र-इतिहास और व्यक्ति नाम पर भी आधारित होता है, जैसे- फुटहा, दोखही, भुतही, छुइहा, फूलसागर, मोतीसागर, रानीसागर, राजा तालाब, गोपिया, भीमा आदि। जोड़ा नाम भी होते हैं, जैसे- भीमा-कीचक, सास-बहू, मामा-भांजा, सोनई-रूपई। बरात निकासी, आगमन व पड़ाव से सम्बद्ध तालाब का नाम दुलहरा पड़ जाता है।
पानी और तालाब से संबंधित ग्राम-नामों की लंबी सूची है इनमें उद, उदा, दा, सर (सरी भी), सरा, तरा (तरी भी), तराई, ताल, चुआं, बोड़, नार, मुड़ा, पानी आदि जलराशि-तालाब के समानार्थी शब्दों के मेल से बने गांवों के नाम आम हैं। जल अभिप्राय के उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम के कुछ उदाहरण बछौद, हसौद, तनौद, मरौद, रहौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, बलौदा, मालखरौदा, चिखलदा, बिठलदा, रिस्दा, परसदा, फरहदा हैं। जल अभिप्राय के सर, सरा, सरी, तरा, तरी, के मेल से बने ग्राम नाम के उदाहरण बेलसर, भड़ेसर, लाखासर, खोंगसरा, अकलसरा, तेलसरा, बोड़सरा, सोनसरी, बेमेतरा, बेलतरा, सिलतरा, भैंसतरा, अकलतरा, अकलतरी, धमतरी है। तालाब समानार्थी तरई या तराई तथा ताल के साथ ग्राम नामों की भी बहुलता है। कुछ नमूने डूमरतराई, शिवतराई, पांडातराई, बीजातराई, सेमरताल, उडऩताल, सरिसताल, अमरताल हैं। चुआं, बोड़ और सीधे पानी जुड़कर बने गांवों के नाम बेंदरचुआं, घुंईचुआं, बेहरचुआं, जामचुआं, लाटाबोड़, नरइबोड़, घघराबोड़, कुकराबोड़, खोंगापानी, औंरापानी, छीरपानी, जूनापानी जैसे ढेरों उदाहरण हैं। तालाबों और स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है तो जलराशि सूचक बंद के मेल से बने कुछ ग्राम नाम ओटेबंद, उदेबंद, कन्हाइबंद, बिल्लीबंद, टाटीबंद जैसे हैं। तालाब अथवा जल सूचक स्वतंत्र ग्राम-नाम तलवा, झिरिया, बंधवा, सागर, डबरी, डभरा, गुचकुलिया, कुंआ, बावली, पचरी, पंचधार, सेतगंगा, गंगाजल, नर्मदा और निपनिया भी हैं।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी का नाम महानदी और सरगुजा में महान नदी है तो एक जिला मुख्यालय का नाम महासमुंद है और ग्राम नाम बालसमुंद (बेमेतरा) भी है लेकिन रायपुर जिले के पलारी ग्राम का बालसमुंद, विशालकाय तालाब है। जगदलपुर का तालाब, समुद्र या भूपालताल बड़ा नामी है।
कार्तिक, ग्रहण, भोजली, मृतक संस्कार के साथ नहावन और पितृ-पक्ष की मातृका नवमी के स्नान-अनुष्ठान, ग्राम-देवताओं की बीदर-पूजा, अक्षय-तृतीया पर बाउग (बीज बोना), विसर्जन आदि और पानी कम होने जाने पर मतावल, तालाब से सम्बद्ध विशेष अवसर हैं। हरेली की गेंड़ी को पोरा (भाद्रपद अमावस्या) के दिन तालाब का तीन चक्कर लगाकर गेंड़ी के पउवा (पायदान) का विसर्जन तालाब में किए जाने का लोक विधान है और विसर्जित सामग्री के समान मात्रा की लद्दी (गाद) तालाब से निकालना पारम्परिक कर्तव्य माना जाता है। गांवजल्ला (ग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर) लद्दी निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। पानी सूख जाने पर तालाब में झिरिया (पानी जमा करने के लिए छोटा गड्ढ़ा) बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है।
तालाब की सत्ता, उसके पारिस्थिति की-तंत्र के बिना अधूरी है, जिसमें जलीय वनस्पति- गधिया, चीला, रतालू (कुमुदनी), खोखमा, उरई, कुस, खस, पसहर, पोखरा (कमल), जलमोंगरा, ढेंस कांदा, कुकरी कांदा, पिकी, जलीय जन्तु सीप-घोंघी, जोंक, संधिपाद, चिडिय़ा (ऐरी), मछलियां, उभयचर आदि और कहीं-कहीं ऊद व मगर भी होते हैं। जलीय जन्तुओं को देवतुल्य सम्मान देते हुए सोने का नथ पहनी मछली और लिमान (कछुआ) का तथ्य और उससे सम्बद्ध विभिन्न मान्यताएं तालाब की पारस्थितिकी सत्ता के पवित्रता और निरंतरता की रक्षा करती हैं। जल की रानी, मछलियों के ये नाम छत्तीसगढ़ में सहज ज्ञात होते हैं- डंडवा, घसरा, अइछा, सोढि़हा या सोंढ़ुल, लुदू, बंजू, भाकुर, पढिऩा, भेंड़ो, बामी, काराझिंया, खोखसी या खेकसी, झोरी, सलांगी या सरांगी, डुडुंग, डंडवा, ढेंसरा, बिजरवा, खेगदा, तेलपिया, ग्रासकाल। तालाब जिनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी जबान पर कटरंग, सिंघी, लुडुवा, कोकिया, रेछा, कोतरी, खेंसरा, गिनवा, टेंगना, मोहराली, सिंगार, पढिऩा, भुंडी, सांवल, बोलिया या लपची, रुखचग्घा, केवई, मोंगरी, पथर्री, चंदैनी, कटही, भेर्री, कतला, रोहू और मिरकल मछलियों के नाम भी सहज आते हैं।
सामुदायिक-सहकारी कृषि का क्षेत्र- बरछा, कुसियार (गन्ना) और साग-सब्जी की पैदावार के लिए नियत तालाब से लगी भूमि, पारंपरिक फसल चक्र परिवर्तन और समृद्ध-स्वावलंबी ग्राम की पहचान माना जा सकता है। बंधिया में आबपाशी के लिए पानी रोका जाता है और सूख जाने पर उसका उपयोग चना, अलसी, मसूर, करायर उपजाने के लिए कर लिया जाता है।
तालाब स्नान के बाद जल अर्पित करने के लिए शिवलिंग, मंदिर, देवी का स्थान- माताचौंरा या महामाया और शीतला की मान्यता सहित नीम के पेड़, अन्य वृक्षों में पीपल (घंटहा पीपर) और आम के पेड़ों की अमरइया आदि भी तालाब के अभिन्न अंग होते हैं।
छत्तीसगढ़ में तालाब के साथ जुड़े मिथक, मान्यता और किस्सों में झिथरी, मिरचुक, तिरसाला, डोंगा, पारस-पत्थर, हंडा-गंगार, पूरी बरात तालाब में डूब जाना जैसे पात्र और प्रसंग तालाब के चरित्र को रहस्यमय और अलौकिक बनाती है। तालाब से जुड़ी दंतकथाओं में पत्थर की पचरी, मामा-भांजा की कथा, राहगीरों के उपयोग के लिए तालाब से बर्तन निकलना और भैंसे के सींग में चीला अटक जाने से किसी प्राचीन निर्मित या प्राकृतिक तालाब के पता लगने का विश्वास, जन-सामान्य के इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति करता है।
3 comments:
धरती की प्यास बुझते हैं तालाब -राहुल कुमार सिंह का लेख आंखे खोलनेवाला है ; लेकिन करें क्या इस भूमाफ़िया युग में लालची लोग तालाबो को पाटकर भावन बनाने में लगे हैं ।भूमिगत जल का दोहन करके नई मुसीबत खड़ी कर रहे हैं। कुछ लोगों का लोभ आनेवाले समय में एक-एक बूँद पानी के लिए तरसा देगा । सरकारें जन सामान्य के साथ नहीं हैं। बोतलबन्द पानी पीकर योजनाएँ बनती रहेंगी और आम आदमी दो बूँद जल के लिए हलकान रहेगा ।
इस तरह के लेख प्रकाशित करके आप पावन यज्ञ कर रही हैं , रत्ना जी !
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
हमारे जीवन में तालाब कितना महत्व रखते हैं, आज मानव को यह जान लेना बेहद जरुरी हो गया है. हमारी पुरानी संसकृति हमे प्रकॄति के संवर्धन की शिक्षा देती है लेकिन हम इस धरती की लूट खसोट में लगे हुए हैं.. प्राकृतिक आपदाये किसी न किसी रुप में हमे सचेत करती है किन्तु इन्सान के लालच ने उसे इतना गिरा दिया कि उसकी सोचने की शक्ति क्षीण हो चुकी है...बहुत ्ही विचारोत्तेजक लेख के लिए अभार!
बहुत ही सुन्दर एवं प्रशंसनीय आलेख. आप ही देखिये अपने छत्तीसगढ़ में "ओउद" से अंत होने वाले गाँवों में अब कितने तालाब बच गए हैं.
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