- डॉ. गीता गुप्त
जाने क्यों लगा, वसन्त के कदमों की आहट हुई...। मन्द- मन्द बहती शीतल पवन ने सुबह की किरणों के साथ उसका स्वागत किया। पंछियों के कलरव ने मंगलाचार किया। खुले आसमान के नीचे खड़े होकर मैंने बाहें पसार दीं- आओ, आओ स्वागत है तुम्हारा ... मेरे- उपवन में ही नहीं, सृष्टि के रोम- रोम में, जन-जन के मन प्राण में समा जाओ। अपना सौन्दर्य, अपनी सुवास बिखेरो। पौष माह की शीतल लहर से ठिठुरे प्राणियों की नसों में अद्भुत ऊर्जा और ऊष्मा का संचार कर दो...। मैंने प्रार्थना की- वासन्ती बयार पुलकित करे तन-मन को, जीवन को, धरती के कण- कण को महकाए...। पर जाने कहां ठिठका हुआ है वसन्त? सामने नहीं आ रहा।
हमेशा तो ऋतुओं की गली से गुजरता है जीवन। खिलखिलाता है वासन्ती छटा बिखेरते फूलों के संग। बारिश की बूंदों में भीगता हुआ गुनगुनाता है, शीत के झोंकों से सिहरकर प्रियतम के सान्निध्य की ऊष्मा में चहकता है और कालचक्र घूमता चला जाता है अनगिनत संदेश देता हुआ। संकेतों की भाषा में कितना-कितना कुछ कह जाती हैं ऋतुएं? मन तितलियों की तरह भागता रहता है उनके पीछे उन्मुक्त और सौन्दर्यमय क्षणों में कुछ भी नहीं सूझता मधुर सुर-ताल के सिवा...।
क्यों लग रहा है, यह सब गुजरे जमाने की बात हो गयी? इस बरस कहीं दिखाई नहीं दे रहा वसन्त। दरवाजे पर दस्तक ने भ्रमित कर दिया। कदमों की आहट ने भी भरमाया। वह तो जाते हुए शिशिर की पद- चाप थी। दस्तक थी प्रलय-पीडि़त हृदयों की, जो पूछ रही थीं- वसन्त कहां आया? किसके हृदय में हर्षोल्लास का संचार हुआ? नगर तो वीरान हैं, बस्तियों में सन्नाटा है, उजड़े हुए घर की दीवारों-दहलीजों पर उदासी पसरी हुई है और पीड़ा के अथाह समन्दर में डूबा हुआ है विरक्त मन।
जंगल कट गये। हरियाली किताब के पन्नों पर दिखने वाली चीज होती जा रही है। गेंदे या सेवन्ती के पीले फूलों से सजी गोरियां गांवों, कस्बों में होंगी, नगर में कहीं दिखाई नहीं देतीं। वसन्त का राग-रंग, उल्लास की छटा बिखेरती प्राकृतिक सुषमा न जाने कहां विलीन हो गयी? वे नायिकाएं नहीं दिखतीं, जो इस मादक ऋतु में अपने प्रियतम को संदेश भेजती कागा से कहती थीं-
कागा सब तन खाइयो, चुन - चुन खइयो मांस।
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।।
अब न तो कागा की कांव- कांव है, न कोयल की कूक। प्रियतम को संदेस भेजने के लिए आज की मुग्धा नायिकाओं के पास मोबाइल है, एसएमएस और फैक्स है। वे गीतों में अपनी विरह व्यथा गाकर दूसरों को नहीं सुनातीं, सीधे प्रिये को संदेश देती हैं।
कितना बदल गया है समय? न प्रकृति की मोहक छटा है, न जंगल- नदियां, खेत- खलिहान। पपीहे की पिउ- पिउ, न कोयल की कूहू- कुहू। औद्योगीकरण ने निगल लिए सब जंगल, नदियां, बाग- बगीचे, खेत- खलिहान और हरियाली। धरती का सौन्दर्य निहारने के लिए समय नहीं है किसी के पास। आदमी व्यस्त है बहुत। वह मशीन हो गया है। रिश्तों की सुगंध उसके जीवन से गायब हो गयी है। वह अपनी भाषा में संवाद करना भूल गया है। अजनबीयत के दौर में जो रहा है। प्रकृति, मनुष्यता, पशु, पक्षी सबसे अनजान। ऐसे में किसके पास आये वसन्त?
पहाड़ नंगे खड़े हैं, पेड़ कट गये जंगलों से। हरियाली रूठ गयी। पलाश जाने कहां दहकते होंगे अब? पंछी कहां चहकते होंगे? पता नहीं। गमलों में पेड़ उगाने लगे हैं लोग। पशु-पक्षी चिडिय़ाघरों में मनोरंजन का समान हो गये हैं। पेड़- पौधे बोनसाई की शक्ल में प्रदर्शनी की शोभा हो गये। अब कोयल कहां बैठकर गाए? पंछी कहां चहचहाएं?
जिस वसंत की महिमा का गान पन्त, निराला आदि महाकवियों ने किया, मनोहर प्रकृति की गोद में बैठकर आम्र-वृक्षों पर सुशोभित बौर की मादक गंध का पान करते हुए जिसके स्वागत और सम्मान में कभी मैंने भी ललित निबंध लिखे- आज उसके बारे में लिखने के लिए सामग्री का अभाव है। आज कहां है वह वसन्त?
शांति निकेतन में अभी भी होता है वसन्तोत्सव। विद्यार्थी जीवन में हमने भी वनस्थली में खूब वसन्त पर्व मनाए। वासन्ती परिधान में सज-धजकर वसन्त की अगवानी करते हुए ऋतुराज के गीत गाये और परीक्षा के पूर्व पूजा अर्चना कर विद्या बुद्धि की कामना की।
अब नहीं मनाते विद्यालयों-महाविद्यालयों में विद्यार्थी यह पर्व। उन्हें नहीं मालूम कि वसन्त पंचमी गंगावतरण का भी दिन माना गया है कि यह पर्व रति, वेद, विद्या, शारदा, प्रकृति देव और लीलाधर कृष्ण के पूजन के लिए जाना जाता हैं। अब विद्यार्थी नहीं करते आराधना विद्या और वाणी की देवी सरस्वती की, नहीं मांगते बुद्धि-विवेक। वे वेलेन्टाइन डे मनाते हैं। सरस्वती की उन्हें आवश्यकता नहीं। वैज्ञानिक साधनों, अधकचरा पाश्चात्य संस्कृति और दूरदर्शन ने बच्चों की मासूमियत छीनकर उन्हें समय से पहले बालिग बना दिया है। वे फूल-पत्ते, ऋतु, प्राचीन पर्व-त्योहारों, देवी देवताओं को नहीं जानते। वे जानते हैं शक्तिमान को ऐसे कथानायकों और खलनायकों को, जो हथियार चलाते हैं- खून खराबा करते हैं, हिंसा, आगजनी, तोडफ़ोड़ करते हैं और चमत्कारिक शक्ति के स्वामी प्रतीत होते हैं। वहीं उनके आदर्श हैं।
किसी के पास समय नहीं है कि ठहरकर जीवन मूल्यों के बारे में सोचे- ऋतुओं, प्रकृति, सौन्दर्य और प्रेम के बारे में सोचे, जिससे यह जीवन इतना सुन्दर और स्पृहणीय है कि कवि कह उठा-
सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर
मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
आज वातावरण में हिंसा, आतंक, भय, घृणा, अपराध और अनाचार व्याप्त है। यांत्रिक जीवन जीने वाले मनुष्य की संवेदना लुप्त हो गयी है। प्रकृति की सुन्दरता उसे नहीं मोहती, फूलों की सुवास नहीं बांधती, प्राकृतिक उपादानों में छिपे मूल्यवान संदेश वह नहीं ग्रहण करता। उसकी आंतरिक कोमलता में परिणत हो गयी है, हृदय-निर्झर सूख गया है। उसका महत्वाकांक्षी मन सदैव कल्पना लोक में विचरण करता है, अपनी सांस्कृतिक चेतना और जीवन-मूल्यों में नहीं रमता। अपनी मिट्टी की सोंधी महक, पानी की मिठास और संबंधों की ऊष्मा भूला बैठा है वह। उसे सब कुछ चाहिए भौतिक समृद्धि की शक्ल में वसन्त नहीं।
मैं लिखना चाहती हूं वसन्त पर। मेरे लिखने से क्या होगा वसन्त का? पढऩे की फुर्सत किसे है? सोचने की जहमत कौन उठाएगा? मेरा उदास मन लौटा लाना चाहता है मनुष्य को प्रकृति के कोमल संसर्ग में जहां माधुर्य है, प्रेम है, संवेदना है और है सरस अनुभूतियों का निस्सीम विस्तार। पांच सितारा संस्कृति के प्रदूषण और पाश्चात्य जीवनशैली के अंधानुकरण में अपनी गौरवपूर्ण सांस्कृतिक पहचान खोकर क्या हासिल होगा उसे?
अपनी अवहेलना बर्दाश्त नहीं कर सकता कोई। शायद इसीलिए वसन्त भी छिप गया है कहीं। औपचारिकता निभाने के लिए भी नहीं आना चाहता। मानव नहीं समझता, संवेदनशून्य हो गया है लेकिन प्रकृति तो संवेदनशील है। इसीलिए आज पुरवैया उदास है, फूल बेरौनक हैं, कोयल चुप है। अनागत वसन्त की प्रतीक्षा में, सन्नाटे में शोर की तरह मेरी व्यथित पुकार गूंज रही है - लौट आओ... लौट आओ, वसन्त...।
2 comments:
डा.गीता गुप्त की वसंत की चाह पढ़ कर अच्छा लगा बधाई उदंती को धन्यवाद.
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से
Post a Comment