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Feb 17, 2010

जीवन- शैली


जल बिच मीन पियासी रे...
- अरुण कुमार शिवपुरी
आजकल की जीवनशैली फ़ास्ट ट्रैक पर चलती है। हर कोई दौड़ता नजर आता है। वे होशियार भी हैं और अपने में केंद्रित भी। उसे अपनों से कम ही मतलब होता है। यही वजह है कि आज का आदमी जीवन की सुन्दरता व सुख शान्ति से काफी हद तक महरूम हो गया है। संबंध और रिश्ते ऊपरी हो गए हैं और मतलब पर टिके हैं। इंसान अब धन कमाने व बटोरने में उम्र भर लगा रहता है। इसके अलावा जीवन में होता ही क्या है? यह बात और है कि लक्ष्मी चलायमान होती है कहीं भी सदा टिकी नहीं रहती। सरस्वती का वास अलग होता है।
अब घर और समाज के वातावरण में नैतिक मूल्यों का शायद ही कोई स्थान हो। कोचिंग और गाइड बुक्स के सहारे बच्चे जीवन की सीढ़ी पर चढ़ते हैं। पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों, लेखों और मुंशी प्रेमचंद की कहानियों व उपन्यासों को पढऩे की किसको जरूरत है। मीरा के पद, कबीर व रहीम के दोहे और रसखान का कृष्ण प्रेम उनसे कोसों दूर है।
चाल्र्स लैम्ब, रॉबर्ट लुई स्टीवेन्सन का लेखन, फैज़ अहमद 'फैज़' और रघुपति सहाय 'फिराक' गोरखपुरी की कविता, शायरी से भी वे शायद ही वाकिफ हों। आप टीवी चैनल्स व आजकल के गायकों को देख-सुनकर समझते होंगे कि उच्चारण को कितनी अहमियत दी जाती है। जूथिका राय के भजनों व जगमोहन (मित्रा) के गीतों को सुनने का अब किसके पास समय व रूझान है। गान्धार मूर्तिकला की क्या $खासियतें हैं और उस पर किस विदेशी कला का प्रभाव है, इसको जानकर आज की युवा पीढ़ी क्या करेगी।
स्कूलों में बच्चों को जो शिक्षक मिलते हैं, उनमें पहले जैसा समर्पण, सच्चाई व आदर्श व्यक्तित्व कम ही झलकता है। बाकी रही सही कसर टीवी, फिल्में, समाज और घर का वातावरण पूरी कर देते हैं।
युवा होते ही लोगों का जीवन उद्देश्य मात्र धन इकट्ठा करना रह जाता है, जो कि आजकल की कमरतोड़ महंगाई में सही माना जाता है। गाड़ी, बंगला, मोबाइल, इसप्लिट एसी, एलसीडी टीवी जुटाने व हांगकांग, बॉस्टन की यात्रा में उसका जीवन निकल जाता है। फिर भी मानव की स्थिति 'जल बिच मीन पियासी रे, मोहे देखत आवे हांसी' जैसी दिखती है। जीवन में सार्थकता की कमी खलती रहती है। जीवन- मूल्यों को छोडऩे पर आदमी जीवन की राह पर अकेला होता जाता है। सब कुछ हासिल करके भी उसके अन्दर खालीपन बना रहता है। तुलसीदास की 'ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनियां' की सुख सुन्दरता से वह वंचित रहता है।
महाराजा टीकमगढ़ ने अयोध्या में संगमरमर का कनक भवन बनवाया है, जहां रामजन्म स्तुति अति सुन्दर होती है। 'भये प्रकट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी। हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप निहारी।' यह संस्कार बच्चों को अब कम ही सिखाये जाते हैं।
आजकल तरह- तरह के डे (दिन) मनाये जाते हैं
मदर्स डे, फादर्स डे, जाय ऑफ गिविंग वीक। पर इन अवसरों पर लोग तस्वीरें खिंचवाकर नुमाइश ज्यादा करते हैं। यह एक औपचारिकता है जो निभाई जाती है। माता-पिता और जरुरतमंदों की स्थिति जस की तस रहती है।
अब अब्दुर रहीम खाने खाना जैसे लोग आपको ढूंढे नहीं मिलेंगे। अकबर के नौ रतन, मनसबदार, विद्वान व दानी थे, तुलसीदास के पूछने पर उन्होंने जवाब दिया था 'देनहार कोई और है, भेजत है दिन रैन। लोग भरम हम पर करें, तासों नीचे नैन।' दान देते वक्त वो निगाहें नीचे कर लेते थे, ताकि दान लेने वाले के मन में हीन भावना न आए तथा उनके स्वयं के मन में दम्भ न आने पाए।
फै•ज ने जीवन का वर्णन कुछ यूं किया है-
'जिंदगी क्या किसी मु$फलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं।'

बढ़ती उम्र में हम इंतजार करते है कि कोई उसके पास आये, कोई पाती आये, लोगों में अपनेपन को तलाशते हैं। मिर्जा गालिब ने इस स्थिति को यूं दर्शाया है -
'शमा जलती है हर रंग में सहर होने तक।'
अब आपको बनावट नजर आयेगी, संबंधों में कोई गहरापन नहीं मिलेगा। अपनत्व, आदर भाव, लिहाज, समर्पण, नैतिक सत्मार्ग अतीत के हो गये हैं।
'झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया
काहे का ताना काहे की भरनी...
दास कबीर जतन से ओढयो'
ज्यों कि त्यों धर दीनी चदरिया'

इसको समझने वाले आपको कम ही मिलेंगे।
संपर्क - ई-1 /172, अरेरा कॉलोनी, भोपाल - 462016, मोबाइल - 09425687444

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