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Dec 2, 2009

उदंती.com, दिसम्बर 2009


वर्ष 2, अंक 5, दिसम्बर 2009
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शालीनता का मोल नहीं लगता, पर उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।
- लेडी मांटेग्यू
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अनकही: छिति जल पावक गगन समीरा...


छिति जल पावक गगन समीरा...


उपरोक्त शब्दों से महाकवि तुलसीदास ने सरल भाषा में पंचतत्व के गूढ़ार्थ को स्पष्ट किया है। पंचतत्व के रूप में हमारे मनीषियों ने पर्यावरण के मुख्य निर्णायक अवयवों की पहचान हजारों वर्ष पहले ही कर ली थी। इतना ही नहीं हमारे पूर्वजों ने यह जानकर कि पर्यावरण के उचित संतुलन पर समूची प्रकृति का अस्तित्व निर्भर है, पर्यावरण के निर्णायक अवयवों को पूजनीय भी निर्धारित कर दिया था। बड़ी संख्या में वेदों की ऋचाओं में धरती, वृक्षों, नदियों, सूर्य, आकाश इत्यादि की स्तुति की गई है। कालांतर में प्रकृति के प्रति आस्था हमारी परंपरा का स्थायी अंग बन गई और आज तक चली आ रही है।
प्राकृतिक पर्यावरण के पूजनीय मानने का ही यह परिणाम था कि हमारे देश की समृद्धि की पूरे विश्व में ख्याति थी और इसे सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। विश्व में मान्यता थी कि भारत में दूध की नदियां बहती थीं। यह ख्याति अंग्रेजों के भारत में आने के पहले तक बरकरार रही।
हमारे पर्यावरण से बलात्कार अंग्रेजी राज में औद्योगीकरण के साथ प्रारंभ हुआ। रेलवे लाइन बिछाने के लिए जंगलों की बेहिसाब कटाई की गई। औद्योगिक उत्पादन के लिए लगाए गए कारखानों से निकलने वाला धुआं वायुमंडल प्रदूषित करने लगा और उनसे निकलने वाला रसायन मिश्रित जल नदियों को गंदा करने लगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से औद्योगीकरण में और तेजी आई और आज यह हालत हो गई है कि जनता के बड़े हिस्से को सांस लेने के लिए शुद्ध वायु और पीने के लिए शुद्ध जल नसीब नहीं है।
वास्तव में पर्यावरण का प्रदूषण एक वैश्विक संकट है अत: इसका उपचार भी वैश्विक स्तर ही संभव है। अर्थात विश्व के सभी राष्ट्रों को मिलकर ही इस संदर्भ में कठोर निर्णय लेने होंगे। अमरीका और यूरोप के देशों में जिस विशाल स्तर पर औद्योगीकरण हुआ है उतना ही अधिक इन विकसित राष्ट्रों ने पर्यावरण को प्रदूषित किया है और कर रहे हैं। न्यायोचित बात तो यह है कि जिन राष्ट्रों ने पर्यावरण को जितना अधिक नुकसान पहुंचाया है/ पहुंचा रहे हैं वे इतनी ही अधिक इसकी जिम्मेदारी लें। परंतु औद्योगिकीकरण के बलबूते पर विकसित अमरीका और योरप के देश अपनी धौंस दिखाकर विकासशील राष्ट्रों को भी समानरूप से जिम्मेदारी लेने का दबाव डाल कर इस मामले को टालते जा रहे हैं। आज हालत कितनी संकटपूर्ण बन गई है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पर्यावरण विशेषज्ञ यह चेतावनी दे रहे हैं कि अगले कुछ दशकों में मानव का अस्तित्व ही समाप्त होने की संभावना है।
पर्यावरण एक विश्वव्यापी व्यवस्था है जो पृथ्वी के दो ध्रुवों पर जमी बर्फ की मोटी परत (आइस कैप), समुद्रों से जल का वाष्पीकरण, वायुमंडल और सूर्य किरणों से निर्धारित होती है। पर्यावरण में तेजी से बढ़ते प्रदूषण से इन प्राकृतिक अवयवों के आपसी तालमेल में जो गड़बड़ी आई है उसका परिणाम हम विश्व के बढ़ते तापमान के रूप में भुगत रहे हैं। विश्व में तापमान का लेखा जोखा रखने की प्रथा सन 1850 से प्रारंभ हुई। इसके अनुसार 2009 में समाप्त हुआ दशक अभी तक का सबसे गरम दशक रहा है।
बढ़ते तापमान का घातक परिणाम है कि पृथ्वी के ध्रुवों पर लाखों साल से जमी बर्फ की परत तेजी से पिघल रही है और समुद्रों में जल का स्तर ऊपर उठ रहा है जिससे धरती के हिस्से डूबते जा रहे हैं। मालदीप जैसे अनेक देश जो दो समुद्र के बीच टापुओं के समूह हैं, पूरे के पूरे डूब जाएंगे। हमारे स्थानीय संदर्भ में तापमान के बढऩे का दुष्परिणाम है कि हिमालय के ग्लेशियर, गंगोत्री और यमुनोत्री, जो गंगा और यमुना को जन्म देते हैं, तेजी से पिघल रहे हैं। (प्रतिवर्ष 20 मीटर की गति से) गंगा और यमुना प्रदूषित हो चुकी हैं। अब तो इनके सूखने का संकट हमें घूर रहा है। सोचिये क्या होगा उस विशाल जनता का जो गंगा और यमुना से जीवन यापन करती हैं।
ऐसे भयानक संकट से निपटने के लिए क्या किया जाए? उत्तर स्पष्ट है। नदियों के प्रदूषण को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने के साथ-साथ हमें ऊर्जा उत्पादन के वैकल्पिक साधनों का विस्तार करना होगा। सूर्य किरणों और वायु से विद्युत उत्पादन के तरीकों की खोज कर ली गई है और इनसे पर्यावरण का प्रदूषण भी नहीं होता है फिर भी आजतक विद्युत उत्पादन के इन वैकल्पिक साधनों में भारत की क्षमता का सिर्फ 6 प्रतिशत ही कार्यान्वित किया गया। शेष विश्व में भी हालत कुछ ऐसी ही है।
पर्यावरण के प्रदूषण से आहत प्रकृति ने मौसम के चक्र को छिन्न- भिन्न करके आसन्न संकट का स्पष्ट संकेत दे दिया है। अपने देश ने ही अधिकांश क्षेत्र में सूखे के साथ-साथ कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और असम में भीषण बाढ़ की आपदा को देखा है। ऐसा ही दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका योरप और दक्षिण अमरीका के अनेक देशों को झेलना पड़ा है। आस्ट्रेलिया और उत्तरी अमरीका के विस्तृत वनक्षेत्र दावानल से भस्म हो गए हैं। इस प्रकार की आपदाओं में साल- दर -साल तेजी से वृद्धि होती जा रही है।
कोपनहेगन में इसी माह समाप्त हुए पर्यावरण संबंधी विश्व सम्मेलन के बारे में तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया। विश्व के 192 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के कोपनहेगन में जुटने के बावजूद भी कोई सर्वमान्य समयबद्ध कार्यक्रम पर समझौता नहीं हो पाने से यही सिद्ध होता है कि विश्व में किसी भी देश के नेताओं ने इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया है।
सब कुछ जानते हुए भी इस भयावह स्थिति से निपटने के लिए कुछ होता क्यों नहीं दिखता? कारण है राजनैतिक इच्छा- शक्ति की कमी। राजनैतिक इच्छा- शक्ति को जगाने का एकमात्र साधन है जनता द्वारा दबाव बनाना। समय आ गया है कि जनता इस संबंध में उचित कदम उठाए। क्योंकि पृथ्वी हमारी मां है। मां का दूध तो पिया जाता है लेकिन मां का खून नहीं पिया जाता!

- रत्ना वर्मा

पक्षी विज्ञान





हम किसी से कम नहीं
- डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
एक हैरतअंगेज घटना सुनिए। जून 2007 में एक मॉंकिगबर्ड एक महिला डाकिए को लगातार तीन सप्ताह परेशान करती रही। घटना साउथ गैरी प्लेस, टुल्सा, ओक्लाहामा, यूएसए की है। घटना असाधारण इसलिए है कि जहां कुत्तों के बारे में तो मशहूर है कि वे डाकियों (महिला-पुरुष दोनों) के बारे में चिंतित रहते हैं, मगर एक पक्षी, वह भी नन्ही-सी मॉंगिबर्ड ने न सिर्फ इस महिला डाकिए को पहचाना बल्कि उसका पीछा भी करती रही।
एक प्रयोग
व्यक्ति विशेष को पहचानना कोई असाधारण घटना नहीं है, यह बात हाल ही में किए गए एक वैज्ञानिक प्रयोग से $जाहिर होती है। शहरों में रहने वाली मॉंकिगबड्र्स जल्दी ही मनुष्यों को पहचानना सीख लेती है। हाल ही में डॉ. डगलस जे. लेवी और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र का विषय यही है। प्रयोग के तहत एक ही इन्सान को चार दिन तक रोज विश्वविद्यालय परिसर में बने मॉंकिकगबर्ड के घोंसले के साथ छेड़छाड़ करना था। मॉंिकगबर्ड ने शोरगुल मचा दिया, उस इन्सान पर हमला करने को झपटी और हर दिन उस पर झपटती रही। और हर दिन वह तभी हमला करने की कोशिश करती जब वह महिला घोंसले से पहले दिन की अपेक्षा ज्यादा दूरी पर होती। मगर पांचवे दिन जब एक अलग व्यक्ति घोंसले के नजदीक आया तो मॉंकिगबर्ड ने ठीक वही व्यवहार किया जो उसने पहले दिन पहले व्यक्ति के साथ किया था। और वही मॉंकिगबर्ड उस चौराहे से गुजरते सैकड़ों अन्य राहगीरों को लेकर सहज थी, बशर्ते कि वे उसके घोंसले से पर्याप्त दूरी पर रहें।
ये परिणाम दर्शाते हैं कि एक आम शहरी पक्षी, मॉंिकगबर्ड, जल्दी से मनुष्यों को पहचानना सीख लेती हैं। व्यक्ति विशेष द्वारा घोंसले के साथ 30-30 सेकंड की दो छेड़छाड़ इसके लिए पर्याप्त होती हैं। शोधकर्ता इस अध्ययन के आधार पर एक सामान्य निष्कर्ष निकालते हैं: 'शहरी पक्षी आम तौर पर प्रजनन में उच्च सफलता हासिल करते हैं हालांकि शहरी आबादी में घोंसले के शिकारियों की तादाद ज्यादा होती है। हमारा मत है कि मॉंकिगबर्ड की अनुभूति और तेजी से सीखने की क्षमता उन्हें नए पर्यावरण में सफलता के लिए तैयार करती हैं। अर्थात हमने जितना समझा था, पक्षी उससे $ज्यादा होशियार होते हैं।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डॉ. नाथन जे. एमरी पक्षियों की अक्लमंदी पर शोध करते रहे हैं। इस विषय को उन्होंने संज्ञानात्मक पक्षी विज्ञान नाम दिया है अर्थात पक्षियों में बुद्घि का विकास। औरसिर्फ मॉंिकगबर्ड से प्रभावित होना पर्याप्त नहीं है। एमरी बताते हैं कि पक्षी दृश्य छवियों के बीच भेद करने में असाधारण रूप से कुशल होते हैं।
कबूतर हवाई चित्रों, मनुष्यों, पेड़ों और पानी, कुर्सियों, कारों, व्यक्तियों, फूलों और निश्चित रूप से कबूतर की छवियों के बीच भेद कर सकते हैं। एक शोधकर्ता डॉ. वाटनबे का तो दावा है कि कबूतर पिकासो, सोनेट, चगाल और गॉग की पेंटिग्स को भी अलग-अलग पहचान लेते हैं। फिर अफ्रीकी भूरा तोता है जिसका नाम एलेक्स है। वह वैज्ञानिकों के बीच बहुत मशहूर है। वह तो अलग-अलग आकृतियों व पदार्थों से बनी लगभग 100 वस्तुओं को पहचान लेता था (जी हां हाल ही में उसकी मृत्यु हो गई।) एरिजोना विश्वविद्यालय की डॉ. आइरीन पेपरबर्ग, जिन्होंने उसका अध्ययन किया था, ने 'एलेक्स के अध्ययन: भूरे तोतों की संज्ञान व संप्रेषण क्षमताÓ
शीर्षक से एक पूरी किताब लिखी है।
हालांकि पक्षी बुद्घि सम्बंधी अधिकांश अध्ययन कबूतरों, तोतों, मुर्गियों, और बटेरों पर किए गए हैं मगर इनमें भी $ज्यादा ध्यान कौओं और तोतों को मिला है। इसका कारण यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि इन पक्षियों का अग्र मस्तिष्क साइ$ज में लगभग बंदरों और वनमानुषों के बराबर होता है।
एमरी बताते हैं कि यह तथ्य पक्षियों के अग्र मस्तिष्क पर एक नई रोशनी डालता है। पक्षी व्यवहार को सामाजिक इकॉलॉजिकल समस्याओं का समाधान करने हेतु अनुकूलन के रूप में देखा जा सकता है। यह लगभग स्तनधारियों के समकक्ष है। उनका हार्डवेयर (यानी भेजा) अलग है हालांकि यह भी उसी तरह की संरचना से विकसित हुआ है।
पेपरबर्ग का कहना है कि यदि स्तनधारियों के दिमाग आईबीएम पीसी जैसे हैं तो पक्षियों के दिमाग एपल मैकिंटोश के समान हैं। इन दोनों में वायंरिंग और प्रोसेंसिंग अलग- अलग है मगर अंतिम आउटपुट (यानी व्यवहार) एक जैसा है।
प्रमुख बात यह है कि सिर्फ दिमाग की साइ$ज को न देखा जाए। इसकी बजाय $ज्यादा उपयोगी नाप दिमाग की साइ$ज और शरीर की साइ$ज का अनुपात (भेजा-शरीर अनुपात) होगा। इसी अनुपात के आधार पर हम समझ सकते हैं कि क्यों नन्हे चूहे लगभग हमारे बराबर होशियार हो सकते हैं, या यह क्यों कहा जाता है कि चिपैंजी लगभग 6 वर्ष के बच्चे के बराबर बुद्घिमान होता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मस्तिष्क के अंदर के विभिन्न घटक भी काफी महत्वपूर्ण होते हैं। इसी के आधार पर प्रजातियों के बीच अंतर पैदा होते हैं। जैसे गाने वाले पक्षियों और कौओं के बीच या बटेर और मुर्गियों के बीच।
नसीहत
विडंबना यह है कि इन अध्ययनों से नसीहत यह मिलती है कि किसी व्यक्ति को 'बर्ड-ब्रेन्ड' यानी पक्षी-बुद्घि कहना अब कोई अपमान नहीं बल्कि तारीफ है। इसका एक उदाहरण यह है कि चिम्पैं$जी के समान कौए भी 'सहज- भौतिकी का उपयोग करते हैं और औ$जार बनाते हैं। यह बात सर्वविदित है कि कौए हुकनुमा टहनी की मदद से पेड़ों के सुराखों में इल्लियां निकाल लेते हैं। एक कौए का नाम बेटी था जिसका अध्ययन ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने किया था। यह कौआ तो एक तार से हुक बना लेता था और गिलास के पेंदे में रखे मांस के टुकड़े को उससे उठा लेता था। अगली बार जब आप पंचतंत्र, जातक कथाएं या इस तरह की कहानियां पढ़ेंगे तो आपको यह याद करके म़जा आएगा कि कथा और तथ्य काफी करीब हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

हिंदी और छत्तीसगढ़ी भाषा


- विनोद साव
आरंभ से छत्तीसगढ़ अंचल में शिक्षा का माध्यम हिंदी भाषा रही है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर स्नातक परीक्षाओं तक। मेडिकल और इंजीनियरिंग शिक्षा को छोड़कर हिंदी ही शिक्षा का उपयुक्त माध्यम मानी जाती रही है। सरकारी क्षेत्र में कार्यालयीन कामकाज के लिए भी जनता और सरकार के बीच की भाषा एकमात्र हिंदी ही रही है। शिक्षा माध्यम और सरकारी कामकाज के लिए इस अंचल में हिंदी का एकछत्र राज्य रहा, उसका वर्चस्व रहा और आज तक हिंदी का, उससे बढ़कर कोई बेहतर विकल्प नहीं तलाशा जा सका है। छत्तीसगढ़ अंचल की जनता हिंदी में रच बस गई है और सदैव यहां की जनता ने हिंदी को न केवल राष्ट्रभाषा के रुप में माना, बल्कि हिंदी को अपनी मातृभाषा जैसा सम्मान दिया है। यही कारण है कि स्कूल कॉलेज में प्रवेश के समय जब भी किसी छात्र ने प्रवेश पत्र पर अपनी मातृभाषा भरी तो उसने कभी छत्तीसगढ़ी नहीं लिखी और हमेशा हिंदी को ही अपनी मातृभाषा होना दर्शाया है। हिंदी को सीखते समय उसे कभी दुविधा नहीं हुई। हिंदी लिखने पढऩे और अपना हर कामकाज हिंदी में सरलता और सहजता पूर्वक वह करता आया है। बल्कि दूसरे हिंदी राज्यों की तुुलना में छत्तीसगढ़ में हिन्दी बोलने वालों की जुबान अधिक सधी हुई और संतुलित निकलती है। किसी देशज या स्थानीय ठेठपन से मुक्त यहां का जनमानस अच्छी खड़ी बोली का उच्चारण करते आया है किसी हिंदी सिनेमा के हीरो की तरह।
आज जब छत्तीसगढ़ एक स्वतंत्र राज्य बन गया है तब उसके विकास और उसकी रुपरेखा को लेकर विचार-विमर्श हो रहे हैं। सोच विचार के इन क्षणों में यह चिन्ता भी उभरकर आ रही है कि छत्तीसगढ़ राज्य की भाषा क्या होगी? हमारे सरकारी दफ्तरों में भाषा का स्वरुप कैसा होगा? हमारी शिक्षा का माध्यम क्या होगा?
तब यह देखा जायगा कि- देश को मिली आजादी के पहले से ही छत्तीसगढ़ में शिक्षा का माध्यम हिंदी रही है जो 1955 में मध्य प्रदेश बन जाने के बाद भी हिंदी और केवल हिंदी रही है। छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी आठ बरस से अब तक हिंदी ही हमारी एक मात्र भाषा है। हां यह ध्यान देने योग्य है कि पिछले दो-तीन दशकों से इस अंचल में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार भी बहुत बढ़ा है। इक्कीसवीं शताब्दी के मुहाने पर खड़े इस राज्य में ऐसा कोई जिला, तहसील या जनपद मुख्यालय नहीं बचा है जहां अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले विद्यालय न खुले हों। इस दिशा व दशा में कई कस्बे व गांव भी पहुंच चुके हैं। खेत खलिहानों के बीच बसे गांव में भी पब्लिक स्कूल दिखलाई दे जाता है। यूनिफार्म पहने, स्कूल बैग, वॉटर बैग और टिफिन बाक्स लटकाए बच्चों को 'हम्टी डम्टी सेट ऑन ए वालÓ गुनगुनाते हुए स्कूल जाते हुए देखा जा सकता है।
इन हालातों में अब सवाल छत्तीसगढ़ी बोली का है। विकास की इस तेजी में, आज के आधुनिक शिक्षा माध्यम में पढ़ी महत्वाकांक्षी पीढ़ी के सपनों में, आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के नित नये बदलते रुपों के बीच छत्तीसगढ़ी बोली कितना खरा उतरती है? यह देखना होगा कि छत्तीसगढ़ी बोली के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति देते हुए हमारी योग्यता और कार्य कुशलता का कितना सटीक ऑकलन हो पाता है! सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों के, होते निजीकरण के इस दौर में पेशेवर कम्पनियां 'प्लेसमेंटÓ करते समय हमारे छत्तीसगढ़ी ज्ञान के लिए कितना नम्बर देती हैं! शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, कला और खेलकूद में अपनी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाने में हमारी अपनी आंचलिक भाषा कितनी समर्थ हो पाती है! इन सभी कसौटियों पर अभी छत्तीसगढ़ी बोली को कसे जाने का अवसर आ रहा है। मिलने वाले इस सुनहरे, पर चुनौतीपूर्ण अवसर के सामने भाषा को भी अपना सामथ्र्य दिखाना होता है, उसे अपनी व्यावहारिक उपयोगिता सिद्घ करनी होती है। अपना राज तो पा लिया है पर अपना स्वतंत्र राज्य बन जाने के बाद ये चुनौतियां अब छत्तीसगढ़ी बोली के सामने आ खड़ी है।
यदा कदा ये मांगें उठती हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी होनी चाहिए। इस तरह की भावनात्मक मांगों के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि जिस तरह बंगाल की राजभाषा बंगाली है, गुजरात की गुजराती है, अन्य अहिंदी भाषी राज्यों की अपनी अपनी भाषाएं हैं उसी तरह छत्तीसगढ़ राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी क्यों ना हो? इस तर्क में यह ध्यान रखने योग्य है कि अहिंदी भाषी राज्यों की जिन भाषाओं से हम छत्तीसगढ़ी की तुलना कर रहे हैं, वह तुलना उपयुक्त नहीं है बल्कि उन भाषाओं की तुलना हिंदी से है। अहिंदी भाषी राज्य की भाषाओं की तुलना केवल हिंदी से ही की जा सकती है क्योंकि वे सब शब्दकोष, साहित्य और अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिंदी के समकक्ष हैं और हिंदी के साथ प्रतिस्पद्र्घा में खड़ी होती हैं। छत्तीसगढ़ी की तुलना यदि हम करते हैं तो उसे अवधी, ब्रज, भोजपरुी, मैथिल और मेवाड़ी बोली की तुलना में देखा जाना चाहिए जहां तुलसी, सूर, विद्यापति और मीरा पैदा हुई हैं। कबीर, रैदास, कुंभनदास हुए हैं, रहीम और रसखान जनमें हैं। इन महाकवियों ने अपनी- अपनी बोली में ऐसे अमर काव्य की रचना की हैं, जिनसे आंचलिक बोली में लिखी जाने वाली इन कृतियों से हिंदी का साहित्य संसार समृद्घ हुआ है। हिंदी साहित्य की समृद्घि का इतिहास आंचलिक बोली में लिखे साहित्य का इतिहास है। छत्तीसगढ़ी बोली में इस तरह की किसी महाकाव्यात्मक कृति के लिखे जाने की अभी प्रतीक्षा है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि छत्तीसगढ़ी एक मीठी बोली है। यहां के निवासियों की तरह यह बोली सीधी सादी और सरल लगती है। इसके स्वर में आत्मीयता और अंतरंगता की वही गूंज है जो छत्तीसगढ़ की माटी के रग- रग में बसी है। इस बोली में वही साफगोई और निश्छलता है जो हमारी रगों में कूट- कूट कर भरी है। इसका शब्द भंडार भी अनन्त है। यह हानोंं और कहावतों से उतनी ही भरी हुई है जितनी देश की कोई भी समृद्घ बोली है। इसके कई शब्दकोश और सामान्य ज्ञान सम्बंधी अनेक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। यह बंागला और उडि़या भाषा की तरह सीखने में आसान और बोलने सुनने में मधुर लगती है। यह देवनागिरी लिपि की मराठी और नेपाली से भी कहीं ज्यादा हिंदी के करीब है, बल्कि इतने करीब है कि प्रत्येक हिंदी भाषी को यह अपनी ही बोली लगती है। हर कोई जो हिंदी बोल लेता है वह छत्तीसगढ़ी पूरी तरह समझ लेता है और कुछ बोल भी लेता है। अहिंदी भाषी जन भी अन्य भाषाओं की तुलना में छत्तीसगढ़ी को जल्दी समझ लेते हैं। हिंदी के साथ अपनी विकट निकटता के कारण छत्तीसगढ़ की जनता को हिंदी पूरी स्वााभाविकता से स्वीकार्य और मान्य रही है। उसे हिंदी अपनी ही भाषा लगती रही है।
यह सदैव ध्यान में रखा जावे कि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान के पास अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिल और मेवाड़ी जैसी भरी पूरी बोलियां होने के बावजूद वहां की जनता ने हिंदी को ही अपनी सर्व स्वीकृत भाषा घोषित किया है। हिंदी पढऩा, हिंदी सीखना, हिंदी बोलना और हिंदी में सारे कामकाज निपटाना उनका सदा ही ध्येय और पाथेय रहा है। हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की अपनी आंचलिक बोलियां हैं लेकिन उन्होंने हिंदी को ही अपनी राजभाषा घोषित कर अपनी सफलता का मार्ग प्रशस्त किया है, तब छत्तीसगढ़ की जनता अपना हित सर्वव्यापी भाषा हिंदी में क्यों ना देखे। जब विभाजित मध्य प्रदेश में बुन्दलेखण्डी और मालवी बोली होने के बाद भी वहां हिंदी का परचम लहरा रहा है तो हम क्यों पीछे हो जाएं। हमारी ही तरह अलग हुए राज्य उत्तरांचल और झारखण्ड जब हिंदी की रोटी खा रहे हैं तब हम क्यों इससे मुंह मोड़े। जब इस देश के नौ राज्यों की भाषा हिंदी हैं तब दसवां राज्य और सही।
इन स्थितियों में यह बहुत सोच समझकर विचार किया जाना चाहिए कि इस नव प्रदेश की राजभाषा क्या हो? अगर हमारी आंचलिकता की पहचान छत्तीसगढ़ी से है तो राष्ट्रीयता का सूत्रपात हिंदी से ही संभव है। हिंदी के सहारे बढ़ाएंगे अपनी बोली छत्तीसगढ़ी को और छत्तीसगढ़ी समृद्घ करेगी हिंदी को।

संपर्क - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़- 491001
मोबाइल- 9907196626

इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं


इक तुम ही नहीं तन्हा उल्फत में मेरी रुसवा
इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं
इक सिर्फ हमीं मय को आंखें से पिलाते हैं
फिल्म 'उमराव जान' (1981) का यह गीत नवाबी अवध की 'तवायफ' को एक बेचारी के रूप में पेश करता है, जिसके प्रेमी को सभ्य समाज में बदनामी झेलनी पड़ती है। लेकिन यह बदनामी भारतीय सिनेमा में उत्तरी भारत की 'तवायफों' के कई जटिल रूपों का केवल एक चेहरा है जिसने लोकप्रिय कल्पना को उत्तेजित किया है।
नवाबी लखनऊ के पुराने बा$जार के चौक में एक कोठे के वारिस, छोटे मियां का कहना है, 'एक $जमाना था जब 'तवायफों' को शिष्टाचार और संस्कृति का शिखर माना जाता था। वे उत्तर भारतीय संगीत एवं नृत्य की संरक्षक थीं और उनका मेल-जोल कुलीन वर्ग के साथ था।'
उन 80 वर्षों के दौरान, जब लखनऊ अवध के नवाबों की राजधानी था, चौक के ये मकान - जहां ये औरतें रहतीं थीं और दरबार के समृद्घ उच्चवर्ग का मनोरंजन करती थींं - संगीत और सांस्कृतिक महफिलों का केंद्र हुआ करते थे। छोटे मियां दुखी होकर कहते हैं, आज, 'तवायफें' लगभग खत्म हो चुकी हैं। इस शब्द को पुन: परिभाषित कर दिया गया है और अब यह एक आम वेश्या पर भी लागू होता है। फिर भी, इतिहास उनके शानदार बीते दिनों का साक्षी है। अपनी अद्भुत राजनीतिक और सैनिक योग्यताओं के बल पर उत्तर प्रदेश में सरधाना रियासत की शासक बनने वाली, बेगम समरु, एक 'तवायफ' थीं। मोरन सरकार 1802 में महाराजा रंजीत सिंह की रानी बनीं। उन्हें कला और पत्रों का माहिर माना जाता था और उनके परोपकारों के लिए उनका काफी आदर किया जाता था। यहां तक कि महाराजा ने उनके चित्र वाले सिक्के तक चलवाए थे।
सन् 1856 में, ब्रिटिशों द्वारा अवध का संयोजन, इस मध्यकालीन प्रथा के लिए मौत की पहली घंटी के समान था। उनके संरक्षकों के न रहने से और 1857 में बागियों की सहायता करने के लिए ब्रिटिशों द्वारा स$जा मिलने, और उन्हें वेश्या का नाम दिए जाने के कारण, 'तवायफों' को जिंदा रहने के लिए बहुत बहादुरी से लड़ाई लडऩी पड़ी।
सन् 1913 के लखनऊ में, उनके बारे में लिखते हुए, स्थानीय इतिहासकार अब्दुल शरार ने पाया कि 'तवायफों' के संपर्क में आने से पहले, वे एक सभ्य और शालीन व्यक्ति नहीं थे।'
'तवायफों' का प्रभावशाली उच्चवर्गीय औरतों के रूप में रूतबा मुख्य रूप से उत्तरी भारत में था, जो 18वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सल्तनत के कम$जोर होने के दौर में और म$जबूत हुआ। हालांकि, तवायफ शब्द - जो अरबी भाषा के शब्द 'तैफा' का बहुवचन है जिसका अर्थ है 'समूह' - आज 'वेश्या' का पर्यायवाची बन गया है। यह इस शब्द का बहुत ही भ्रष्ट रूप है, एक $जमाने में कुलीन/महान प्रथा की झलक इसमें बिल्कुल नहीं है।
इतिहासकार वीना तलवार ओल्डनबर्ग, अपनी पुस्तक 'दि मेकिंग ऑफ कोलोनियल लखनऊ' में कहती हैं 'तवायफों' को वेश्या वृत्ति से जोडऩा, इस प्रथा को सबसे भ्रष्ट रूप में पेश करना है'।
जापान की गाीशाओं जैसी भूमिका निभाती, 'तवायफें' मनोरंजन करने वाली ऐसी औरतें थीं जो शेरो- शायरी, संगीत, नृत्य और गायकी में माहिर थीं और अक्सर उन्हें शिष्टाचार की विशेषज्ञ समझा जाता था। 18वीं शताब्दी आते- आते वे उत्तर में शिष्ट, सभ्य संस्कृति का केंद्रीय वर्ग बन गईं थीं।
दिल्ली में मुगल साम्राज्य के पतन ने इस प्रथा की कई मुखियाओं को अवध, हैदराबाद, रामपुर और भोपाल के नवाबों के दरबार की शोभा बनने पर म$जबूर कर दिया। 'नवाबी' संस्कृति के इन नए केंद्रों के अंदर, तवायफों को अमीर और शक्तिशाली कुलीन व्यक्तियों का समर्थन मिलने लगा और वे विलासितापूर्ण तथा सुसंस्कृत रहन- सहन का प्रतीक बन गईं। राजा बनने वाले, लखनऊ के आखिरी नवाब, वाजिद अली शाह, का एक 'तवायफ' व$जीरन के यहां काफी आनाजाना था। कहा जाता है कि जब उन्हें गद्दी मिली तो उन्होंने उसे अपने व$जीर, अली नकी खान, की आश्रिता बना दिया।
सन् 1856 में ब्रिटिशों द्वारा लखनऊ के संयोजन के बाद, भले ही उनका रुतबा उतना प्रभावशाली नहीं रहा, पर भारत की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई में 'तवायफों' की भूमिका का उल्लेख जरूर है। लखनऊ नगर निगम के रिकार्ड कक्ष में रखे 1858-77 के नागरिक कर लेजर में, 'तवायफों' को 'नाचने और गाने वाली लड़कियों' की पेशेवर और सबसे अधिक कर वाली श्रेणी में रखा गया था।
बागियों का दमन करने के बाद ब्रिटिशों ने जो संपत्तियां जब्त कीं, उस सूची में भी उनके नाम प्रमुखता से न$जर आए। ओल्डनबर्ग लिखती हैं, 'इन महिलाएं को, हालांकि साफतौर पर ये लड़ाई न करने वाली थीं, फिर भी उन्हें बागियों को भड़काने और उनकी आर्थिक सहायता करने के लिए सजा मिली।' युद्घ की लूट के इस माल का मूल्य अनुमानत: लगभग चार करोड़ (4 मिलियन) था।
19वीं शताब्दी में ब्रिटिशों द्वारा संयोजनों सेे भारत के बड़े हिस्सों पर कब्$जा करने के बाद, उत्तर भारत के जागीरदारी समाज में रची-बसी इस प्रथा का पतन हो गया। अपना आर्थिक समर्थन और संबद्घ सांस्कृतिक संदर्भ खोकर, 'तवायफें' जिंदा नहीं रह सकीं।
इसके साथ ही 'तवायफों' की वेश्याओं के तौर पर उपनिवेशवादी रचना भी शुरू हो गई। ब्रिटिशों ने लखनऊ और अन्य छावनी नगरों में उनके रजिस्टे्रशन और नियमित चिकित्सीय जांच लागू करने के लिए कानून पारित किए। उन्होंने सुंदर औरतों को 'कोठों' से उठा कर छावनियों में पटक कर, इस पूरी परम्परा को अमानवीय बनाया।
ऐसे दमन के बावजूद, 1947 में स्वतंत्रा प्राप्ति तक, 'कोठे' उच्च संस्कृति के लिए प्रभावशाली स्थान बने रहे। यदि ब्रिटिशों ने एक तेजी से गिरते, जागीरदारी और यौनिकता-अनअवरुद्घ समाज के प्रतीक के रूप में 'तवायफों' को परेशान करना शुरू किया, तो बढ़ते मध्यवर्ग के हस्तक्षेपों ने उनका नियमन, सुधार या अन्य तरीकों से उन्हें उपेक्षित करना चाहा।
स्वतंत्रता-पूर्व काल में स्थानीय मध्य-वर्ग के लिए औरतपन और मध्यवर्गीय नारीत्व के लिए स्थापित नए नैतिक नियमों का लखनऊ की 'तवायफों' ने उल्लंघन किया, यह 'अवध अखबार' में छपे अनेक लेखों से स्पष्ट था, जिन्होंने 'तवायफों' को खतरनाक बुरी लत की अग्रदूत के तौर पर पेश किया।
आमतौर पर इस नए मध्यवर्ग की जड़े उच्च मुस्लिम और 'नवाबी' परिवारों से नहीं थीं बल्कि 'तवायफों' जैसी परम्पराओं से बिल्कुल परे यह एक अलग ही वर्ग था। स्वयं 'तवायफें' भी अक्सर उन लोगों से मेलजोल नहीं रखना चाहती थीं, जो उनकी न$जरों मेंं 'असभ्य' होते थे या जिनमें शिष्टाचार की कमी होती थी।
आज 'तवायफों' की प्रथा वास्तव में खत्म हो गई है। लखनऊ में एक 'कोठे' के मालिक की वारिस, गुलबदन कहती हैं, 'इस शब्द को पुन: परिभाषित किया गया है ताकि यह एक आम वेश्या पर लागू हो सके'। 'लेकिन इन वेश्याओं में 'पुरानी तवायफों' जैसी कोई समानता नहीं है।
लोग यह बात भूल जाते हैं कि प्राचीनकाल की नगरवधुएं विभिन्न कलाओं की जन्मदाता थीं, या कम से कम उन्हें लोकप्रिय बनाने वाली थीं। उदाहरण के लिए, उन्हें 'दादरा', 'गजल' और 'ठुमरी' जैसी संगीत विद्याओं में महारत हासिल थी। 'कत्थक' नृत्य भी 'तवायफों' से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। बेहद तालमय और कभी- कभी भाव वाचक यह नृत्य शैली, उत्तरी भारत में सदियों से लोकप्रिय रही है।
सौभाग्य से, 'तवायफों' की कला उनके साथ ही समाप्त नहीं हुई। बल्कि, भाग्य की अजीब विडंबना से, जिस मध्यवर्ग ने इस प्रथा के विनाश की अगुवाई की थी, उसी ने 'तवायफों' की कला को बचाए रखा। आज, नृत्य उच्च मध्यवर्ग की विशिष्टता है और शास्त्रीय संगीत सीखना सिर्फ बहुत अमीर लोगों के बच्चों के लिए ही है। इस विकास की विडंबना को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
(विमेन्स फीचर सर्विस)

कोलेस्ट्रॉल घटाना है ?


सही जीवन शैली अपनाकर बिना कोई दवा लिए कुछ सप्ताहों के अंदर ही कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम किया जा सकता है, लेकिन आपको आपने आन- पान की आदत कुछ तो बदलनी होगी, यदि आप मौसमी सब्जियों, फलों और रेशेयुक्त खाद्य पदार्थ जैसे साबूत अनाज लें तो आपके रक्त में बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल का स्तर सामान्य हो सकता है।
प्रोफेशनल एसोसिएशन ऑफ जर्मन इंटरनिस्ट (बीडीआई) के सदस्य रिचर्ड रैडेेश्च का कहना है कि यदि आप कम शर्करा युक्त भोजन और स्वस्थ प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थो और मीठी दही का कम इस्तेमाल करने का साथ ही वसा से बचने के लिए मांस का सेवन कम कर दें व सही मात्रा में सही भोज्य पदार्थो का सेवन करें तो रक्त में कोलेस्ट्रॉल का स्तर नियंत्रित किया जा सकता है। खाने-पीने की स्वस्थ आदतों, व्यायाम और वजन में कमी करके रक्त में वसा के स्तर को कम करने में मदद मिलती है। तो आज से ही शुरू कर दीजिए। मौसमी फल और रेशेयुक्त भोजन।

पहाडिय़ों पर बसा कोंकण



-अभिषेक ओझा
2007 मेरे लिए कई मायनों में यादगार रहा। कुछ यात्राओं का भी इसे यादगार बनाने में योगदान रहा। अगर आप कम भीड़ और साफ सुथरी प्राकृतिक जगह की तलाश में है... तो आपको निराशा नहीं होगी। दिवेआगर निर्विवादित रूप से कोंकण का सबसे अच्छा बालू वाला समुद्रतट है वहीं हरिहरेश्वर के चट्टानयुक्त तट की कोई तुलना नहीं है।
दिवेआगर : व्यवसायिक रूप से पर्यटन स्थल के रूप में तेजी से विकसित हो रहे इस कोंकणी गांव में आप खूबसूरत समुद्री तट के अलावा कोंकणी मेहमानदारी का भी लुत्फ़ उठा सकते हैं। रेसोर्ट्स में रहने से अच्छा है की आप किसी के घर में रुक जाएं और वैसे भी दिवेआगर में यह एक आम प्रचलन है। अगर आप मांसाहारी हैं तो कोंकणी समुद्री भोजन का आनंद ले सकते हैं और अगर मेरी तरह शाकाहारी हैं तो भी आपके लिए बहुत कुछ मिलेगा। पर किसी के घर में रुकने के लिए आपको अग्रिम बुकिंग करनी पड़ेगी। मुम्बई और पुणे से पास होने के कारण वीकएंड पर लोग यहां जाना पसंद करते हैं और अगर लंबा वीकएंड हो या नववर्ष जैसे अवसर हो तो फिर बुकिंग तो करनी ही पड़ेगी। मैंने कुछ 25-30 जगह कॉल किया होगा। दिवेआगर मुम्बई से करीब 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मुम्बई-गोवा हाइवे पर मनगांव से दाहिनी तरफ़ मुड़ जाएं आप दिवेआगर पहुंच जायेंगे। अगर आप पुणे में रहते हैं तो चांदनी चौक से पौड रोड होते हुए दिवेआगर पहुंच सकते हैं... रास्ते में मुल्शी झील और तामिनी घाट में भी अच्छी जगहें हैं।
मैं आपको एक बात की गारंटी तो दे ही सकता हूं... आपको दिवेआगर से अच्छा समुद्रतट कोंकण क्षेत्र में नहीं मिलेगा। पूर्णिमा की रात थी और हम 12 बजे रात तक समुद्र के किनारे बैठे रहे। सबसे अच्छी बात ये थी की यहां अन्य पर्यटक स्थलों की तरह बोतल और प्लास्टिक नहीं दिखे... ग्रामीण परिवेश और साफ सुथरा, प्राकृतिक, दूर तक फैला हुआ समुद्र तट... इसके अलावा और क्या चाहिए छुट्टियां बिताने के लिए !
पर इतना तो स्पष्ट हो गया की ये जगह भी जल्दी ही बाकी जगहों की तरह व्यवसायिक और प्रदूषित हो जायेगी। और जहां ग्रामीण परिवेश में अभी भी लोग अपनी जरुरत से ज्यादा कमाने की भावना से ग्रसित नहीं हुए हैं। वहीं शहरों की तरह यहां भी ऐसे लोग बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं... जो हर सामने आने वाले आदमी से ही जिंदगी भर का खर्चा निकाल लेना चाहते हैं। अगर आपको रुकने की जगह नहीं मिल रही हो और कोई रिसॉर्ट वाला वहां के स्तर से 5 गुना ज्यादा मांग लें तो आप आश्चर्य मत कीजियेगा। वैसे कुल मिला के हमारी यात्रा अच्छी रही... बाकी जगहों एैसी-एैसी समस्याएं हो जाती हैं कि ये छोटी-मोटी समस्याएं भुलाने में कोई ज्यादा वक्त नहीं लगा।
अलीबाग - अलीबाग का नाम आपने जरूर सुना होगा... हिन्दी फिल्मों में अक्सर इसका जिक्र आता है। महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में स्थित अलीबाग के आस- पास कई खुबसूरत समुद्री तट हैं। पर सबसे प्रसिद्ध है... अलीबाग बीच। पुणे से लोनावाला-खोपोली-पेण होते हुए तकऱीबन 140 किलोमीटर कि यात्रा करने के बाद अलीबाग आता है। मानसून का समय हो तो ये रास्ता भी अपने आप में बड़ा खुबसूरत होता है। (वैसे पुणे- मुंबई के आस-पास मानसून के समय घुमने का मजा ही कुछ और है... मुंबई पुणे के बीच के एक्सप्रेस मार्ग पर भी काफ़ी अच्छे दृश्य देखने को मिलते हैं) अगर मुंबई से आना हो तो यहां तक सीधे जल मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है।
खुली हवा, ढेर सारे पक्षी और साफ़ दूर तक फैले हुए समुद्री तट के अलावा अलीबाग बीच पर स्थित 'कोलाबा किला' भी दर्शनीय है। (यह मुंबई के कोलाबा से भिन्न है) मुरुड- जलजीरा भी पास में ही स्थित है। समुद्र तट कि खूबसूरती तो आप तस्वीरों में देख ही सकते हैं। कोलाबा किला अलीबाग तट से करीब 2 किलोमीटर दूर समुद्र में स्थित है। लो टाइड (भाटा) हो तो पैदल या घोड़ा गाड़ी से आसानी से जाया जा सकता है नहीं तो नाव से जाना पड़ सकता है। कई बार ज्वार कि स्थिति में वहां जाना खतरनाक हो सकता है। वहां पर हुई दुर्घटनाओं तथा सावधान रहने कि चेतावनी आप जरूर ध्यान से पढ़ लें। (मैंने नहीं पढ़ा था पर आप ऐसी गलती मत कीजियेगा।)
किले का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने 17 वीं सदी के उत्तरार्ध में किया था। इस किले के निर्माण को शिवाजी की दूरदर्शिता और उनके जल सेना के उपयोग के प्रमाण के रुप में भी देखा जाता है। कहते हैं कि शिवाजी ने उसी समय नौ सेना की उपयोगिता समझ ली थी और ऐसे किलों के साथ-साथ उत्तम नौ-सैनिक बेड़े की व्यवस्था भी की थी। खंडहर का रूप ले चुके किले के अन्दर मीठे पानी का कुंआ है और गणेश भगवान का एक शांत मन्दिर...।
हरिहरेश्वर - दिवेआगर से श्रीवर्धन और फिर हरिहरेश्वर कुछ 30-35 किलोमीटर की यात्रा है। इस यात्रा की सबसे खुबसूरत बात ये है की ये लगभग पूरे समय समुद्र (अरब सागर) के किनारे-किनारे चलता है। बस दाहिनी तरफ़ देखते रहो और खुबसूरत समुद्री नज़ारा दिखता रहता है।
ये नजारे यात्रा को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बीच में मछुवारों के गांव से गुजरते समय बस थोड़ी देर के लिए नज़ारा छुटता है और इसी थोड़ी देर में ही मछली की तीखी गंध भी नाकों में प्रवेश करती है। तटीय क्षेत्र होने के कारण मुख्यत: यहां के जीवन-यापन पर मछली और नारियल का बहुत बड़ा योगदान दिखना स्वाभाविक ही है।
अगर आप धर्म में रूचि रखते है तो कुछ प्रसिद्ध मन्दिर भी हैं इस क्षेत्र में।
श्रीवर्धन का समुद्रतट है तो सुंदर! पर इस क्षेत्र के अन्य समुद्र तटों को देखने के बाद कुछ ख़ास प्रतीत नहीं होता। पर हरिहरेश्वर पहुंचने के बाद चट्टान वाला तट... आपको मोहित कर लेगा। अगर आप प्राकृतिक संरचना और नजारों के शौकीन हैं तो फिर निराशा का सवाल ही नहीं उठता। हरिहरेश्वर का प्रसिद्ध 'काल भैरव' शंकर भगवान का मन्दिर है। मन्दिर के समीप प्रदक्षिणा का मार्ग बना हुआ है।
धार्मिक भावना हो न हो अगर एक बार आप वहां तक गए हैं और इस मार्ग पर नहीं गए तो बहुत कुछ छुट जायेगा... एक तरफ़ अरब सागर और दूसरी तरफ़ लहरों से कटे-छंटे चट्टान... प्रकृति के खुबसूरत नमूने हैं। दो खड़े चट्टानों के बीच बनी सीढी से उतरना और फिर तट तक पहुंचना... अगर ज्वार का समय हो तो आप चट्टानों से टकराती हुई लहरों को भी देख सकते हैं। पर पत्थरों की संरचना भी अपने आप में बहुत खुबसूरत है। ऐसी मान्यता है की अगस्त मुनि का आश्रम यहां हुआ करता था।
इस मन्दिर के समीप ही महाराष्ट्र पर्यटन विभाग का रिसॉर्ट और एक अन्य खुबसूरत समुद्री तट है। यहां से चट्टानयुक्त और बालू दोनों के ही तट समीप ही हैं। एक-आध छोटे वाटर स्पोर्ट्स की भी व्यवस्था हैं।

समोसा माट साहब


- राधाकान्त चतुर्वेदी
मैं अपने बाल सखा बचपन के मित्र लंगोटिया यार प्रताप सिंह राठौर के साथ बैठकर टीवी पर समाचारों का आनंद ले रहा था। हम दोनों ही रिटायर होकर पेंशनयाफ्ता है और टीवी पर समाचार चैनलों को सर्वसुलभ और सस्ता (अक्सर अत्यंत सस्ते स्तर का भी) मनोरंजन का साधन भी मानते हैं। टीवी स्क्रीन पर स्वनामधन्य लालू प्रसाद आत्मुग्ध होकर बता रहे थे कि 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक बिहार पर राज करेगा लालूÓ यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है। लालू और आलू का समीकरण तो नितीश कुमार ने छिन्न- भिन्न कर दिया, परंतु आलू शब्द सुनते ही हमारे मन में कुछ- कुछ होने लगा।
बात असल में यह है कि हम दोनों ही मूलत: फर्रुखाबाद के निवासी है। गंगा मइया के आशीर्वाद से फर्रुखाबाद जिले की अत्यधिक उपजाऊ जमीन की मुख्य उपज आलू ही है। खरा खेल फर्रुखाबादी गंगा मइया में गोता लगा के आलू की ही दम पर खेला जाता है। 1960 के आस पास तक देश में आलू की कुल उपज का आधा भाग अकेले फर्रुखाबाद जिले में ही पैदा होता था। अब तो आलू की फसल देश के सभी राज्यों में होने लगी है।
हां तो बात हो रही थी आलू की और समोसे का जिक्र आते ही मेरे मन में कुछ- कुछ होने लगने की। हुआ यह कि आलू और समोसे से संबंधित बचपन की एक गुदगुदाने वाली याद मन में हिलोरे लेने लगी। मैं म्यूनिसिपिल स्कूल, फतेहगढ़ में छठी क्लास में पढ़ता था। फर्रुखाबाद जिले का मुख्यालय फतेहगढ़ है। म्यूनिसिपिल स्कूल एक सराय की इमारत में था। यह सराय अंग्रेजों ने 1857 से पहले बनवाई थी। फतेहगढ़ को भी उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजों ने ही मिलिटरी केन्टूनमेन्ट के रूप में बसाया था।
ये वो जमाना था जब माट साहब लोग (शिक्षक) अपनी विद्वत्ता तमाचों, घूंसो इत्यादि से छात्रों के तन मन पर अंकित करते थे। और तो और अभिभावक भी जो माट साहब छात्रों की हड्डी पसली तोडऩे में माहिर होते थे उन्हें उत्तम कोटि का शिक्षक मानते थे। हमारा विश्वास था कि सिलेबस में पहला आइटम शिक्षक के हाथों पिटाई थी। पाठ्य पुस्तकों का नंबर उसके बाद आता था।
ऐसे में स्कूल का सबसे प्रिय अंग था आधे घंटे का इंटरवल जिसमें हम लोग माट साहब लोगों के आतंक से मुक्त होकर खुली हवा मे सांस लेते थे। इस समय का सदुपयोग हम लोग अपने माट साहब लोगों के व्यक्तित्व और चरित्र की विशिष्टताओं की आलोचना चटखारे लेकर करते थे। इस आलोचना से हमारे तनमन पर माट साहब द्वारा लगाई चोटों पर मलहम भी लगता था।
हमारे इंटरवल के हीरो थे समोसा माट साब। थे तो वे सक्सेना साहब परंतु छात्रों में वे समोसा माट साब नाम से ही जाने जाते थे। मुझे भी उनका पूरा नाम नहीं मालूम। समोसा माट साब हरफन मौला शिक्षक थे। किसी कक्षा में वे हिंदी पढ़ाते थे, किसी को इतिहास, किसी को अंग्रेजी तो किसी कक्षा में भूगोल। मिसलेनियस टीचर।
इंटरवल होते ही सब शिक्षक तो टीचर्स रूम में चले जाते पर समोसा माट साहब जिस क्लास में पढ़ा रहे होते उसी के बाहर आकर खड़े हो जाते। मैं अपने दो तीन मित्रों के साथ किसी ऐसे पेड़ की आड़ में खड़े हो जाता जहां से समोसा माट साहब के क्रियाकलाप हम साथ देख सकें। समोसा माट साहब की उद्विग्न निगाहें किसी को ढूंढ रही होती। तभी हमारा सहपाठी कालीचरन समोसा माट साहब के सामने प्रगट होता। काली चरन को समोसा माट साहब काली चर्न पुकारते थे। उसे देखते ही समोसा माट साहब की बांछे खिल जाती और उसे एक दुअन्नी थमा कर उससे कहते बेटा फटाफट बढिय़ा वाले चार समोसे खूब ज्यादा सी चटनी डलवा के लाओ। कुत्ते की चाल से जाओ और बिल्ली की चाल से आओ। उधर काली चरन दौड़ता हुआ समोसे लेने जाता, इधर समोसा माट साहब ओठों पर जीभ फेरते हुए ऐसे चहलकदमी करने लगते जैसे खुराक मिलने के समय चिडिय़ाघर में टाइगर अपने कटघरे में इधर से उधर चलता रहता है। कालीचरन को समोसे का दोना लिए आते देख कर माट साहब क्लास रूम में कुर्सी पर जा बैठते और काली चरन समोसे रख देता। माट साहब श्रद्धावनत होकर समोसे सूंघते और सिहर उठते। इसके बाद माट साहब एक- एक करके चारों समोसे आंंखें मूंदकर देर तक चबाते हुए खाते। इस बीच कालीचरन एक लोटा पानी माट साहब के सामने रख जाता। समोसे खाने के बाद माट साहब उंगलियों से बची खुची चटनी चाटते और तब लोटे से पानी पीकर तृप्ति की डकार लेते। माट साहब के चेहरे पर तृप्ति का वह भाव होता जो कई दिन के भूखे व्यक्ति के चेहरे पर तब होता है जब उसे भरपेट भोजन मिल जाता है।
यह सीन रोज दोहराया जाता था। यह हमारा भी रोज का मनोरंजन था। जो अबाध रूप से चार वर्षों तक चलता रहा। कक्षा 9 के बाद अभिभावक के तबादले के कारण मुझे फतेहगढ़ से कानपुर जाना पड़ा। इसके बाद समोसा माट साहब के दर्शन का अवसर फिर कभी नहीं मिला। लेकिन मधुर स्मृतियों के एलबम में समोसा माट साहब की छवि अक्षुण्ण है। ऊपर का वृतांत पढ़कर लोग समझ जाएंगे कि जब भी समोसा मेरे सामने रखा जाता है मैं मुस्कुराता क्यों हूं।
अन्त में मैं यह भी स्वीकार करना चाहूंगा कि पूज्य समोसा माट साहब की मधुर स्मृति मुझे भी उतना आनंद देती है जितना समोसे माट साहब को देते थे।

संपर्क- डी-38, आकृति गार्डेन्स, नेहरू नगर, भोपाल (मप्र)
फोन नं. - 0755-2774675

तांबा


आयुर्वेद की महत्ता को वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया
भारतीय परिवार के रसोई में किसी जमाने में तांबे, पीतल, कांसे के बर्तन ही नजर आते थे। स्टील के बर्तन तो आधुनिक समय की देन है। दरअसल हमारी संस्कृति में तांबे, पीतल और कांसे के बर्तनों का इस्तेमाल करने के पीछे अनेक स्वास्थ्य संबंधी कारण छिपे हुए हैं।
भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के अनुसार तो नियमित रूप से तांबे के बर्तन में रखा हुआ पानी पीने से हमारा शरीर चुस्त-दुरूस्त रहता है तथा कब्ज एसिडिटी, अफारा, विविध चर्म-रोग, जोड़ों का दर्द इत्यादि शिकायतों से मुक्ति मिलती है। सवेरे उठकर बिना ब्रश किए हुए एक लीटर पानी पीना स्वास्थ के लिए हितकर होता है। आयुर्वेद की मानें तो ताम्र-धातु से निर्मित 'जल-पात्र' सर्वश्रेष्ठ माना गया है। तांबे के अभाव में मिट्टी का 'जल-पात्र' भी हितकर बतलाया गया है।
तांबा खाद्य- पदार्थों को जहरीला बनाने वाले विषाणुओं को मारने की क्षमता तो रखता ही है, साथ ही कोशिकाओं की झिल्ली और एंजाइम में हस्तक्षेप करता है, जिससे रोगाणुओं के लिए जीवित रह पाना संभव नहीं हो पाता है।
अब देश- विदेश के वैज्ञानिकों ने भी आयुर्वेद की इस महत्ता को साबित करने के लिए शोध करना प्रारंभ कर दिया है। नेचर में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन की नार्थम्बिया यूनिवर्सिटी के माइक्रोबायोलॉजिस्ट रॉब रीड ने अपनी भारत- यात्रा के दौरान तांबे के बर्तन में रखे पानी के फायदों के बारे में सुना और यह जाना कि यह पानी बीमारियों से कैसे बचाता है। उन्होंने यूनिवर्सिटी लौटकर इस तथ्य का परीक्षण करने का निर्णय किया। परीक्षण करते समय मिट्टी और तांबे के बरतनों में 'ई-कोली' रोगाणुओं वाला पानी भर दिया गया। परिणाम चौंकाने वाले थे। छह घंटों बाद तांबे के बर्तन में रखे पानी में इन रोगाणुओं की संख्या काफी कमी देखी गई। चौबीस घंटों के बाद पानी में नाम -मात्र के रोगाणु पाए गए, वहीं अड़तालीस घंटों के बाद इसमें रोगाणुओं की संख्या में काफी कमी देखी गई। रॉब ने सोसायटी फॉर जनरल माइक्रोबायोलॉजी की एडिनबरा में हुई बैठक में बताया कि रोगाणुओं का सफाया करने में तांबे [कॉपर] की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है।
ब्रिटेन के वैज्ञानिकों का कहना है कि स्टेनलैस स्टील के बर्तनों वाले रसोईघरों की अपेक्षा तांबे के बर्तनों से सुसज्जित रसोईघर हानिकारक जीवाणुओं से अधिक सुरक्षित होते हैं। उन्होंने कहा कि तांबे के बर्तन में ई-कोली जैसे खतरनाक जीवाणु नहीं पनप सकते। परीक्षणों से यह भी साबित हुआ है कि सामान्य तापमान में तांबा सिर्फ चार घंटे में ई-कोली जैसे हानिकारक जीवाणुओं को मार डालता है। इसके विपरीत स्टेनलैस- स्टील के धरातल पर जीवाणु एक महीने से भी ज्यादा समय तक जिंदा रह सकते हैं।
इसी प्रकार बर्मिघम के एक अस्पताल द्वारा कराए गए शोध से भी इसकी पुष्टि होती है कि यह आयुर्वेदिक मान्यता काफी हद तक सही है। अस्पताल ने एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में इसे साबित किया है। शोधकर्ताओं ने एक पारंपरिक शौचालय की शीट, नल के हैंडल एवं दरवाजे के पुश-प्लेट को हटाकर उनकी जगह तांबे से बने सामान लगा दिए। उन्होंने दूसरे पारंपरिक शौचालय की उपरोक्त वस्तुओं की सतह पर मौजूद जीवाणुओं के घनत्व की तुलना ताम्र वस्तुओं की सतह पर उपलब्ध जीवाणुओं के घनत्व से की। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ताम्र सतह पर उपलब्ध जीवाणु की संख्या गैर ताम्र सतह पर उपलब्ध जीवाणुओं की संख्या से 90 से करीब 100 फीसदी कम थी।
अध्ययन दल के प्रमुख यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल बर्मिघम (यूएचबी) के प्रोफेसर टॉम इलियट कहते हैं, 'बर्मिघम एवं दक्षिण अफ्रीका में परीक्षण से पता चलता है कि तांबे के इस्तेमाल से अस्पताल के भूतल को काफी हद तक हानिकारक जीवाणु से मुक्त रखा जा सकता है।' उन्होंने कहा कि कॉपर बायोसाइड के इस्तेमाल से जुड़े शोध से भी पता चलता है कि तांबा संक्रमण को दूर करता है। यही तथ्य ताम्र पात्रों पर भी लागू होती है।
इसीलिए तो पुराने जमाने में लोग कहते थे कि लोहे के बर्तन में रखा हुआ दूध तथा तांबे के बर्तन में रखा हुआ पानी पीने से व्यक्ति को कभी भी
यकृत (लीवर) तथा रक्त-संबंधी रोग नहीं होते तथा पेट की किसी भी प्रकार की बीमारी से पीडि़त को तांबे के बर्तन में रखा पानी ही पीना चाहिए। तो यदि आप अपच, भूख नहीं लगना, कब्ज होना, अल्सर इत्यादि शिकायतों से पीडि़त रहते हैं, तो अविलंब ताम्र-पात्र में रखा हुआ पानी पीना आरंभ कर दें।

ताम्रजल के लाभ
आयुर्वेद में रसरत्नसमुच्चय ग्रंथ के पांचवें अध्याय के श्लोक 46 में कहा गया है कि अंदर तथा बाहर से अच्छी तरह से साफ किए हुए तांबे या पीतल (यह मिश्र धातु 70 प्रतिशत तांबा और 30 प्रतिशत जस्ते का संयुग है) के बर्तनों में करीब आठ से दस घंटे तक रखे पानी में तांबे और जस्ते के गुण संक्रमित होते हैं और यह पानी (ताम्रजल) संपूर्ण शरीर के लिए लाभदायक होता है। इस ग्रंथ में तांबे-पीतल की धातुओं से बने बर्तन में तकरीबन आठ से दस घंटे रखा पानी पीना या ऐसे पानी में पकाए हुए व्यंजनों का सेवन करना सेहत के लिए फायदेमंद बताया गया है। तांबे तथा जस्ते के औषधीय गुण पानी में शामिल करने के लिए बर्तन का पूरी तरह से साफ - सुथरा होना अति आवश्यक है। इसलिए पानी रखने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले तांबे या पीतल के बर्तन हर एक दिन के बाद अच्छी तरह घिसकर चमकाने चाहिए। इसकेे लिए कि सी अच्छी कंपनी के माध्यम का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि काले बर्तनों में रखा हुआ पानी सेहत के लिए फायदेमंद नहीं रहता।
तांबे से शरीर को मिलने वाले लाभ- त्वचा में निखार आता है, कील-मुंहासों की शिकायतें भी दूर होती हैं। पेट में रहनेवाली कृमियों का विनाश होता है और भूख लगने में मदद मिलती है। बढ़ती हुई आयु की वजह से होने वाली रक्तचाप की बीमारी और रक्त के विकार नष्ट होने में सहायता मिलती है, मुंह फूलना, घमौरियां आना, आंखों की जलन जैसे उष्णता संबंधित विकार कम होते हैं। एसिडिटी से होने वाला सिरदर्द, चक्कर आना और पेट में जलन जैसी तकलीफें कम होती हैं। बवासीर तथा एनीमिया जैसी बीमारी में लाभदायक । इसके कफनाशक गुण का अनुभव बहुत से लोगों ने लिया है। पीतल के बर्तन में करीब आठ से दस घंटे पानी रखने से शरीर को तांबे और जस्ते, दोनों धातुओं के लाभ मिलेंगे। जस्ते से शरीर में प्रोटीन की वृद्घि तो होती ही है साथ ही यह बालों से संबंधित बीमारियों को दूर करने में भी लाभदायक होता है। (उदंती फीचर्स)

मुक्ता ये है मेरा दायरा...


मुक्ता दास का रूझान बचपन से ही कला के प्रति रहा है। स्कूल के समय से ही वे खाली समय में स्लेट पर अपनी कल्पनाओं को उकेरा करती थीं।
कला को अपना कैरियर बनाने के बारे में गंभीरता से आपने कब सोचा पूछने पर मुक्ता ने बताया कि उम्र बढऩे के साथ-साथ कला के प्रति मेरा रूझान और भी बढ़ता गया। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने खैरागढ़ यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया वहां अच्छे लोगों की संगति और कलात्मक वातावरण में रहकर कला में और भी निखार आता गया। यहां रहते हुए ही मुझे लगा कि यही मेरा कैरियर होगा।
अपने चित्रों के माध्यम से आप क्या अभिव्यक्त करना चाहती हैं पूछने पर मुक्ता कहती हैं कि खैरागढ़ का वातावरण बिल्कुल ही प्राकृतिक है। वहां शहरों की तड़क-भड़क व शोर नहीं है। वह एक साधना स्थल की तरह है और ऐसे वातावरण में रहते हुए मैं कब प्रकृतिमय हो गई पता ही नहीं चला। मेरे चित्रों में हवा पानी मिट्टी फूल, पत्ती, पतझड़, बसंत हर मौसम का असर रंगों एवं रेखाओं के माध्यम से दिखने लगा। मेरे चित्रों में नारी आकृति प्रकृति का ही रूप है। निजी जीवन के उतार चढ़ाव मेरे चित्रों में साफ नजर आते हैं। शादी के बाद मेरे चित्रों की एकल नारी के साथ-साथ एक पुरुष आकृति भी अनायास उभरने लगी। मुझे अलंकरण का भी बहुत शौक है और यह मेरे काम में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
मैं अनादि ब्रम्ह अर्थात इस सृष्टि को रचने वाले विश्वात्मा जो प्रकृति के रूप में चारों ओर व्याप्त है, पर विश्वास करती हूं और इसीलिए प्रयास करती हूं मेरे चित्रों में यही आध्यात्मिकता बनी रहे। निखरती रहे।
मुक्ता के चित्र कवि की कल्पना की तरह नजर आते हैं तभी तो वे कहती हैं कि लहरदार, घुमावदार उड़ती हुई सी बहती हुई रेखाओं में कार्य करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ये रेखाएं कैनवस से बाहर निकलने को आतुर होती हैं क्योंकि मुझे एक दायरे में बंधने से घुटन होती है। इस बात पर मुक्ता एक कविता के जरिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करती हैं-
ये है मेरा दायरा
और ये है मेरे हिस्से कि जगह
जहां मेरा रहना तय हुआ था
लेकिन अब क्या करूं
जब मैंने सचमुच में
पूरा आसमान देख लिया।
चित्रों के तकनीक के बारे में कहूं तो मैंने सभी प्रकार के रंगों में कार्य किया है और उस माध्यम का अपना अलग मजा है। मैंने आयल एवं एक्रेलिक में सबसे अधिक कार्य किया है। कभी-कभी नेपाली पेपर का उपयोग भी करती हूं।
शिक्षा के दौरान ही मैंने अपने सहपाठियों के साथ मिलकर बच्चों के लिए अनेक जगहों पर वर्कशाप किये। सन् 2002 में साथी समाज सेवी संस्था कोंडागांव बस्तर में बच्चों के लिए वर्कशाप किया जहां उन्हें पेंटिंग, क्राफ्ट, स्क्रीन प्रिटिंग आदि अनेक तरह की टे्रनिंग दी गई। इसके अलावा बनारस, जगदलपुर, मलाजखण्ड, भिलाई, खैरागढ़ आदि जगहों पर हमने- अनेक एक्जीबिशन किए, जहां कला को हमने वातावरण के साथ जोड़कर नए ढंग से दिखाने का प्रयास किया। यूनिर्वसिटी में ड्रामा, कविता पोस्टर, कविता बुक और अनेक तरह के फेस्टिवल (जैसे फिल्म फेस्टिवल) मना कर हमने कला को व्यापक रूप से विस्तारित करने की कोशिश की। इन सब कार्यक्रमों में 6 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला।
इसके बाद कुछ समय मैंने साथी समाज सेवी संस्था में डिजाइनर के तौर पर भी कार्य किया। वहां के कलाकारों के साथ मिलकर बस्तर के पारंपरिक डिजाइनों एवं तकनीक को लेकर ज्वेलरी डिजाइन किया। मास्क एवं पॉट्स में भी काफी कार्य किया। साथी में कार्य करते हुए इटली से आए डिजाइनरों के साथ भी कार्य करने का मौका मिला। यह बहुत अच्छा अनुभव था मेरे लिए।
इसके बाद अपनी निजी जरूरतों की पूर्ति के लिए पब्लिक स्कूल में आर्ट टीचर की नौकरी की। सोचा इस तरह मैं बच्चों के साथ काम कर पाऊंगी ( जिसकी मुझे हार्दिक इच्छा थी) और आर्ट फील्ड से भी जुड़ी रहूंगी, लेकिन स्कूल में आय तो हुई किन्तु बाकी के वो कार्य नहीं हो सके जो मैं चाहती थी। दरअसल आज के पब्लिक स्कूल केवल व्यवसाय का केंद्र बनकर रह गए हैं, अतएव तीन साल नौकरी करने के पश्चात मैंने नौकरी छोड़ खुद का कार्य करने का फैसला किया। ऐसा काम जिसे करने के बाद मन को शांति मिल रही है। जैसा पौधों को पानी देने के बाद लगता है। अब मैं फ्रीलॉन्स प्रेक्टिस करती हूं और बच्चों को आर्ट सिखाती हूं।
(उदंती फीचर्स)
मुक्ता दास
1 मार्च 1980 को छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में जन्मी मुक्ता दास वर्तमान में मास्क से जुड़ी हुई हैं। दुर्ग में पली बड़ी और प्रारंभिक शिक्षा भी यहीं से प्राप्त कर इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से बीएफए व एमएफए किया। एक्जीबिशन - मॉर्डन आर्ट गैलरी उड़ीसा 2004, नेहरू ऑर्ट गैलरी, भिलाई 1999-2004, ऑल इंडिया फाइन आर्ट एक्जीबिशन, लखनऊ 2000। कैम्प व वर्कशॉप - कलावत्र उज्जैन कैम्प 2001,
पता - मास्क, राम मंदिर के पास, न्यू शांति नगर, रायपुर (छ.ग.) 492001 मो. 09300983601, 09329551525। ईमेल - muktadas@ymail.com

इन्हें भी होता है दर्द का अहसास


प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने यह खोज की कि मनुष्यों की ही तरह पेड़ पौधों में भी प्राण होते हैं और वे भी अन्य प्राणियों की भांति कष्ट तथा पीड़ा अनुभव करते हैं।
डॉ. बोस ने अपनी नई खोजों का जगह-जगह प्रदर्शन किया। एक बार वे इंग्लैंड गए। वे प्रयोग द्वारा यह सिद्ध करना चाहते थे कि पौधों को भी जीवों की तरह पीड़ा का अनुभव होता है, नुकीली वस्तु चुभाने से उन्हें कष्ट होता है और जहर देने से वे मर जाते हैं। उनके प्रयोगों को देखने के लिए बहुत बड़ी संख्या में नर- नारी तथा वैज्ञानिक एकत्र थे।
डॉ. बोस ने सुईं लगा कर पौधे को जहर दिया। कुछ क्षणों में ही पौधे को मुरझा जाना था, परंतु वह ज्यों का त्यों रहा। उपस्थित वैज्ञानिक हंसने लगे, परंतु बोस शांत थे। उन्हें अपनी खोज पर पूरा विश्वास था। उन्होंने सोचा, 'अगर पौधे पर इस विष का असर नहीं हुआ तो मुझ पर भी नहीं होगा। मैं भी नहीं मर सकता।'
और डॉ. बोस ने स्वयं वह जहर पीने का निश्चय किया, ज्यों ही उन्होंने शीशी उठाई, एक व्यक्ति खड़ा हो गया और उसने स्वीकार किया कि उसने जहर के स्थान पर उसी रंग का पानी भर दिया था। बोस ने विष लेकर पुन: प्रयोग किया। पौधा धीरे- धीरे मुरझा गया। इस प्रकार उन्होंने अपनी खोज की सत्यता प्रमाणित कर दी। अपनी खोजों पर उन्हें अटूट विश्वास था, इसी कारण अनेक विरोधों और बाधाओं के बावजूद वे अनवरत लगनशील रहे और एक दिन समस्त विश्व को उन्हें मान्यता देनी पड़ी।
(सर्वोत्तम से)

वाह भई वाह


कशीदाकारी
एक बार श्याम भैंस खरीदने के लिए उसके मालिक के घर गया।
श्याम - भाई साहब, इस भैंस की कीमत क्या है।
मालिक- तीन हजार रुपये।
श्याम - भैया, तीन हजार रुपये तो इस भैंस के हिसाब से बहुत ज्यादा हैं
मालिक- वह कैसे?
श्याम- इस की एक आंख भी नहीं है।
मालिक- तुम्हें भैंस दूध देने के लिए चाहिए या इससे कशीदाकारी करवानी है।
दूध वाला
गांव के एक सरपंच ने वाटर सप्लाई के अफसर से शिकायत की कि, हमारे गांव में कई दिनों से पानी नहीं आ रहा है, जिसकी वजह से गांव के लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है।
अफसर- देखो सरपंच साहब, मैं आप की बात बिल्कुल नहीं मान सकता कि आपके गांव में पानी नहीं आ रहा है।
सरपंच- क्यों नहीं मान सकते?
अफसर - क्योंकि आप के गांव का दूध वाला मुझे हर रोज़ पानी मिला दूध दे कर जो जाता है।

रोचक


लक्ष्य के पार पहुंचा आंकड़ा
भारत सरकार ने 2010 तक 50 करोड़ लोगों को टेलीफोन सुविधा मुहैया कराने का लक्ष्य रखा था, लेकिन इस साल सितंबर में ही इसे हासिल कर लिया गया। इससे पता चलता है कि आम लोगों के बीच किस तेजी से टेलीफोन का इस्तेमाल बढ़ रहा है। इसमें मोबाइल और लैंडलाइन टेलीफोन दोनों शामिल हैं। और अगस्त माह में ही मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ बढ़ी है। दरअसल आज इन दोनों के बिना गुजारा भी नहीं है। अत: इनके इस्तेमाल करने वालों का आंकड़ा लक्ष्य से ज्यादा बढऩा कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यही वजह है कि सितंबर में टेलीफोन इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़कर 50 करोड़ नौ लाख हो गई जो अगस्त में 49 करोड़ 40 लाख थी। जबकि उसके अगले ही महीने 3.03 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।
भारत के टेलीकॉम नियामक प्राधिकरण ट्राई के अनुसार 50 करोड़ लोगों तक टेलीफोन की सुविधा पहुंचाने के लक्ष्य को 15 महीने पहले ही हासिल कर लिया गया है। इसके बाद देश की लगभग 1 अरब बीस करोड़ की जनसंख्या में से 43.50 प्रतिशत को टेलीफोन की सुविधा मिल गई है। वहीं वायरलेस टेलीफोन 40.31 फीसदी लोगों तक पहुंचा है। दुनिया को बहुत करीब लाने में इस तकनीक ने जबरदस्त कार्य किया है, और फिर बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण उपभोक्ताओं को आकर्षक पैकेज के साथ कम पैसे में बातचीत की सुविधा जो कंपनियां दे रही हैं उसके चलते तो यह सब होना ही है।

तस्वीर

- सआदत हसन मंटो
'बच्चे कहां हैं?'
'मर गए।'
'सबके सब?'
'हां, सबके सब। आपको आज उनके बारे में पूछने का क्यों ख्याल गया?'
'मैं उनका बाप हूं।'
'आप-ऐसा बाप खुदा करे कभी पैदा ही हो।'
'तुम आज इतनी $$फा क्यों हो- मेरी समझ में नहीं आता। घड़ी में रत्ती, घड़ी में माशा हो जाती हो। दफ्तर से थककर आया हूं और तुमने यह चख-चख शुरु कर दी है। बेहतर था कि मैं वहां दफ्तर में पंखे के नीचे आराम करता।'
'पंखा यहां भी है। आप आरामतलब हैं, यहीं आराम फरमा सकते हैं.'
'तुम्हारा गुस्सा कभी नहीं जाएगा। मेरा ख्याल है कि यह चीज तुम्हें दहेज में मिली थी।'
'मैं कहती हूं कि आप मुझसे इस किस्म की खुराफात बका कीजिए। आपके दीदों का तो पानी ही ढल गया है।'
'यहां तो सब कुछ ढल गया है। तुम्हारी वह जवानी कहां गई? मैं तो अब ऐसा महसूस करता हूं, जैसे सौ वर्ष का बुड्ढा हूं।'
'आप के कर्मों का नतीजा है। मैंने तो खुद को कभी बूढ़ा महसूस नहीं किया।'
'मेरे कर्म इतने काले तो नहीं, और फिर मैं तुम्हारा शौहर होते हुए क्या इतना भी महसूस नहीं कर सकता कि तुम्हारा हुस्न अब रू--मंजिल है।'
'मुझसे ऐसी जबान में गुफ्तगू कीजिए जिसको मैं समझ सकूं यह रू--ाल क्या हुआ?'
'छोड़ो इसे, आओ मुहब्बत-प्यार की बातें करें।'
'आपने अभी तो कहा था कि आपको ऐसा महसूस होता है जैसे सौ वर्ष के बूढ़े हैं।'
'भई, दिल तो जवान है।'
'आपके दिल को मैं क्या कहूं - आप इसे दिल कहते हैं। मुझसे कोई पूछे तो यही कहूंगी कि पत्थर का एक टुकड़ा है जो इस शख्स ने अपने पहलू में दबा रखा है और दावा यह करता है कि उसमें मुहब्बत भरी हुई है। आप मुहब्बत करना क्या जानें, मुहब्बत तो सिर्फ औरत ही कर सकती है।'
'आज तक कितनी औरतों ने मर्दों से मुहब्बत की है, जरा तारीख पढ़कर देखो। हमेशा मर्दों ने औरतों से मुहब्बत की और उसे निभाया। औरतें तो हमेशा बेव$फा रही हैं।'
'झूठ- इसका अव्वल झूठ, इसका आखिर झूठ। बेवफाई तो हमेशा मर्दों ने की है।'
'और वह जो इंग्लिस्तान के बादशाह ने एक मामूली औरत के लिए तख्त--ता छोड़ दिया था? वह क्या कोई फर्जी और झूठी दास्तान है।'
'बस एक मिसाल पेश कर दी और मुझ पर रौब डाल दिया।'
'भई, तारीख में ऐसी हजारों मिसालें मौजूद हैं। मर्द जब किसी औरत से इश्क करता है तो वह कभी पीछे नहीं हटता। कम्बख्त अपनी जान कुर्बान कर देगा, मगर अपनी महबूबा को जरा-सी भी हानि पहुंचने नहीं देगा। तुम नहीं जानती हो, मर्द में जबकि वह मुहब्बत में गिरफ्तार हो, कितनी ताकत होती है।'
'सब जानती हूं। आपसे तो कल अलमारी का जमा हुआ दरवाजा भी नहीं खुल सका, आखिर मुझे ही जोर लगाकर खोलना पड़ा।'
'देखो, जानम- तुम ज्यादती कर रही हो। तुम्हें मालूम है कि मेरे दाहिने बाजू में रीह (वायु) का दर्द था। मैं उस दिन दफ्तर भी नहीं गया था और सारा दिन और सारी रात पड़ा कराहता रहा था। तुमने मेरा कोई ख्याल नहीं किया और अपनी सहेलियों के साथ सिनेमा देखने चली गई।'
'आप तो बहाना कर रहे थे।'
'लाहौल विला- यानी मैं बहाना कर रहा था। दर्द के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा था और तुम कहती हो कि मैं बहाना कर रहा था, लानत है ऐसी जिंदगी पर।'
'यह लानत मुझ पर भेजी गई है।'
'आप तो हर वक्त रोते ही रहते हैं।'
'तुम तो हंसती रहती हो- इसलिए तुम्हें किसी की परवाह नहीं। बच्चे जाएं जहन्नुम में। मेरा जनााा निकल जाए, यह मकान जलकर राख हो जाए। मगर तुम हंसती रहोगी। ऐसी बेदिल औरत मैंने आज तक अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखी। '
'कितनी औरतें देखी है आपने अब तक?'
'हजारों, लाखों-सड़कों पर तो आज-कल औरतें ही औरतें नजर आती हैं।'
'झून बोलिए, आपने कोई कोई औरत खासतौर पर देखी है?'
'खासतौर पर से तुम्हारा मतलब क्या है?'
'मैं आपके राज खोलना नहीं चाहती, मैं अब चलती हंू।'
'कहां?'
'एक सहेली के पास, उससे अपना दुखड़ा बयान करूंगी। खुद रोऊंगी, उसको भी रूलाऊंगी- इस तरह कुछ जी हल्का हो जाएगा।'
'वह दुखड़ा जो तुम्हें अपनी सहेली से बयान करना है, मुझे ही बता दो। मैं तुम्हारे $गम में शरीक होने का वायदा करता हूं।'
'आपके वायदे?- कभी पूरे भी हुए हैं?'
'तुम बहुत ज्य़ादती कर रही हो। मैंने आज तक तुमसे जो भी वायदा किया, पूरा किया। अभी पिछले दिनों तुमने मुझसे कहा कि चाय का एक सेट ला दो, मैंने एक दोस्त से रूपए कर्ज लेकर बहुत बढिय़ा सेट खरीदकर तुम्हें ला दिया।'
'बड़ा अहसान किया मुझ पर। वह तो दरअसल आप अपने दोस्तों के लिए लाए थे। उसमें से दो प्याले किसने तोड़े थे, जरा यह तो बताइए? '
'एक प्याला तुम्हारे बड़े लड़के ने तोड़ा, दूसरा तुम्हारी छोटी बच्ची ने।'
'सारा इल्जाम आप हमेशा उन्हीं पर धरते हैं। अच्छा अब यह बहस बंद हो, मुझे नहा-धोकर कपड़े पहनना और जूड़ा करना है।'
'देखो, मैंने आज तक कभी सख्ती नहीं की। मैं हमेशा तुम्हारे साथ नर्मी से पेश आता रहा हूं। मगर आज मैं तुम्हें हुक्म देता हूंं कि तुम बाहर नहीं नहीं जा सकतीं।'
'अजी, वाह- बड़े आए मुझ पर हुक्म चलाने वाले- आप हैं कौन?'
'इतनी जल्दी भूल गई हो - मैं तुम्हारा खाविंद हूं।'
'मैं नहीं जानती खाविंद क्या होता है, मैं अपनी मर्जी की मालिक हूं। मैं बाहर जाऊंगी और जरूर जाऊंगी। देखती हूं मुझे कौन रोकता है?'
'तुम नहीं जाओगी, बस यह मेरा फैसला है।'
'फैसला अब अदालत ही करेगी।'
'अदालत का यहां क्या सवाल पैदा होता है। मेरी समझ में नहीं आता, आज तुम कैसी ऊटपटांग बातें कर रही हो। तुक की बात करो, जाओ नहा लो ताकि तुम्हारा दिमाग किसी हद तक ठंडा हो जाए।'
'आपके साथ रहकर मैं तो सिर से पांव तक बर्फ हो चुकी हूं।'
'कोई औरत अपने खाविंद से खुश नहीं होती। ख्वाह वह बेचारा कितना ही शरीफ क्यों हो। उसमें कीड़े डालना औरतों की आदत में दाखिल है। मैंने तुम्हारी कई खताएं और गलतियां माफ की हैं।'
'मैंने, खुदा के नाम पर बताओ तो कौन-सी खता की?'
'पिछले बरस तुमने शलजम की, रात की सब्जी बड़े ठाठ से पकाने का इरादा किया। शाम को चूल्हे पर हंडिया रखकर तुम ऐसी सोई कि सुबह उठकर जब मैं बावर्चीखाने मेें गया तो देखा कि देगची में सारे शलजम कोयला बने हुए हैं। उनको निकालकर मैंने अंगीठी सुलगाई और चाय तैयार की- तुम सो रही थीं।'
'मैं यह बकवास सुनने के लिए तैयार नहीं।'
'इसलिए कि इसमें झूठ का एक जर्रा नहीं। मैं अक्सर सोचता हूं कि औरत को सच और हकीकत से क्यों चिड़ है। मैं अगर कह दूं कि तुम्हारा बायां गाल तुम्हारे दाएं के मुकाबले कहीं ज्यादा मोटा है, तो शायद तुम मुझे सारी उम्र बख्शो- मगर यह हकीकत है, जिसे शायद तुम भी अच्छी तरह महसूस करती हो। देखो यह पेपरवेट कहीं रख दो, उठाकर मेरे सिर पर दे मारा तो थाना-पुलिस हो जाएगा।'
'मैंने पेपरवेट इसलिए उठाया था कि यह बिल्कुल आपके चेहरे के समान है। इसके अंदर जो हवा के बुलबुले-से हैं वे आपकी आंखें हैं- और यह जो लाल-सी चीज है, वह आपकी नाक है, जो हमेशा सुर्ख रहता है। मैंने जब आपको पहली बार देखा तो मुझे ऐसा लगा था जैसे आपको आंखों के नीचे जो गाय की आंखें हैं, एक काक्रोच औंधे मुंह बैठा है।'
'तुम्हारा जी हल्का हो गया।'
'मेरा जी कभी हल्का होगा। मुझे आप जाने दीजिए। नहा-धोकर मैं शायद यहां से हमेशा के लिए चली जाऊंगी।'
'जाने से पहले यह तो बता जाओ कि इस जाने का कारण क्या है?'
'मैं बताना नहीं चाहती, आप तो अव्वल दर्जे के बेशर्म हैं।'
'भई, तुम्हारी इस सारी गुफ्तगू का मतलब अभी तक मेरी समझ में नहीं आया। मालूम नहीं तुम्हें मुझसे क्या शिकायत एकदम पैदा हो गई है।'
'जरा अपने कोट की अंदरूनी जेब में हाथ डालिए।'
'मेरा कोट कहां है?'
'लाती हूं, लाती हूं।'
'मेरे कोट में क्या हो सकता है- व्हिस्की की बोतल- वह तो मैंने बाहर ही खत्म करके फेंक दी थी, लेकिन हो सकता है रह गई हो।'
'लीजिए, यह रहा आपका कोट।'
'अब मैं क्या करूं।'
'इसकी अंदर की जेब में हाथ डालिए और उस लड़की की तस्वीर निकालिए जिससे आप आजकल इश्क लड़ा रहे हैं।'
'लाहौल विला- तुमने मेरे औसान खता कर दिए थे। यह तस्वीर, मेरी जान, मेरी बहन की है, जिसको तुमने अभी तक नहीं देखा। अफ्रीका में है। तुमने यह खत नहीं देखा, साथ ही तो था- यह लो।'
'हाय, कितनी खूबसूरत लड़की है, मेरे भाईजान के लिए बिल्कुल ठीक रहेगी।'
सआदत हसन मण्टो
11 मई 1921 को समराला जिला लुधियाना में जन्म। शिक्षा अमृतसर और अलीगढ़ में हुई। मण्टो ने पहली कहानी 'तमाशा' जलियांवाला बाग की रक्तरंजित घटना से प्रेरित होकर लिखी थी। 1935 में उनका पहला कहानी संग्रह 'आतिशपारे' प्रकाशित हुआ। कहानियों के अतिरिक्त मण्टो ने नाटक, रेडियो वार्ताएं, निबंध, रेखाचित्र और व्यक्तिचित्र भी लिखे, और कुछ अनुवाद भी किये, जिनमें गोर्की की कहानियां उल्लेखनीय है। मण्टो अपने जीवन और साहित्य दोनों में विद्रोही थे, और उनके इस विद्रोही तेवर को समाज ने कभी बर्दाश्त नहीं किया। तथाकथित 'अश्लील' कहानियां लिखने के लिए मण्टो पर पांच मुकदमे चलाये गये, जो अपने आपमें एक रिकार्ड है। यह एक विचित्र संयोग है कि मण्टो ने एक फिल्म 'आठ दिन' में एक पागल मिलिटरी अफसर की छोटी-सी भूमिका की थी, और फिर अपने व्यक्तिगत जीवन में वे दो बार पागल हुए। 18 जनवरी 1955 को उनका निधन हुआ।