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Mar 31, 2009

उदंती.com मार्च 2009

उदंती.com, 
वर्ष 1, अंक- 8, मार्च 2009  

जो मनुष्य समय नष्ट करता है वह जीवन का मूल्य नहीं जानता।
-चाल्र्स डार्विन

अनकही/ महिलाओं की हिस्सेदारी
समाज / महिला बेटी की पैदाइश... आज भी दुख का कारण? - विनीता बाल
इंटरनेट / अभिव्यक्ति गलत ट्रैक पर सरपट दौड़ती गाड़ी... ब्लाग- संजय तिवारी
यात्रा संस्मरण / बस्तर मैंने देखा.. एक समृद्ध संस्कृति को ...-अंजीव पांडे
छोटा पर्दा/ समाज.......रोक सकेगी इस कुरीति को बालिका-वधू?-तनु शर्मा
बाजार / गुडिय़ा 50 साल की बार्बी -उदंती फीचर्स
मुद्दा / राजनीतिछत्तीसगढ़ को अमरकंटक ....- आचार्य रमेन्द्र नाथ मिश्र
कलाकार/ भारती बंधु कबीर को गाते हैं पांच भाई - रमेश शर्मा
नारी शिक्षा/ समानता सात साल में पूरा होगा? ... सहस्त्राब्दी
अभियान / मुझे भी आता है गुस्सा पर्यावरण की होली न जलाएं - सुजाता साहा
कला / चित्रकार वंदना परगनिहा : नारी सौन्दर्य का चित्रण - उदंती फीचर्स
समय / दो रंग 1.जीवन का नृत्य 2. जब मौन ... - शैफाली
21वीं सदी के व्यंग्यकार हिन्दी में मनहूस रहने की परंपरा - ज्ञान चतुर्वेदी
वे डूब जाते हैं रंग बिरंगे ...


वे डूब जाते हैं रंग- बिरंगे कपड़ों की मस्ती में


जर्मनी में कार्निवल की धूम देखते ही बनती है। इस दौरान रंगों की कुछ वैसी ही छटा देखने को मिलती हैं जैसी होली के दौरान भारत में उसी तरह की मस्ती होती है और लोगों में उसी तरह का उत्साह होता है। बस फर्क इतना है कि कार्निवल में वहां के लोग रंग से नहीं खेलते बल्कि रंग बिरंगी ड्रेस पहनते हैं।

जर्मनी में राइनलैंड और कई दूसरे इलाक़ों में कार्निवल के सबसे महत्वपूर्ण त्योहार में कोई तितली बना तो कोई फूल। कोई शेर तो कोई बिल्ली। कोई दरबान बनकर ही ख़ुश रहा तो कोई शहंशाह बना फिरता रहा। इस पर्व पर जर्मन के शहरों में अचानक बेशुमार समुद्री लुटेरे, जादूगरनियां, पादरी और काउब्वॉय दिखाई देते हैं पर सचमुच में नहीं, कार्निवल की मस्ती में डूबे लोग इन ड्रेसों को पहने घूम रहे हैं।

कार्निवल पर ज़्यादातर लोग पारंपरिक ड्रेस पहनना ही पसंद करते हैं। अब कोलोन के सबसे पुराने और प्रभावशाली कार्निवल क्लबों में से एक रेड स्पार्क को ही लीजिए। यह क्लब 1823 में बना था, और इस क्लब के सदस्य जो ड्रेस पहनते हैं वह ठीक वैसी ही है जैसी कि 18वीं सदी में कोलोन के पुलिस कर्मियों की वर्दी हुआ करती थी। लाल जैकेट और सफेद पैंट, लड़कियों के लिए स्कर्ट्स। इस क्लब के तकऱीबन 250 सदस्य हैं और सभी के पास इस तरह की ड्रेस या कहिए वर्दी है। कार्निवल में ड्रेस तैयार कराने के लिए हर सदस्य को साढ़े तीन हजार यूरो यानी तकरीबन सवा दो लाख रुपए खर्च करने पड़े हैं। लेकिन क्लब के प्रवक्ता डीठर ज़ारी कहते हैं कि उनका पैसा पूरी तरह वसूल होता है। वह कहते हैं, 'जब आप इस वर्दी को पहनते हैं, तो आपकी तमाम तकलीफे और चिंताएं दूर हो जाती हैं। यह एक अद्भूत अहसास होता है, क्योंकि आप इसे पहनकर एक अलग ही इंसान बन जाते हो। और भला कार्निवल के दौरान क्या चाहिए।

कार्निवल की कुछ पारंपरिक ड्रेसों से अलग कुछ लोग नई ड्रेसें भी आज़माते हैं, जो परियों की कहानियों, फि़ल्मों और फ़ंतासी के किरदारों से जुड़ी होती हैं। एलेना ने अपनी ड्रेस ख़ुद ही तैयार की। उसकी लंबी ड्रेस काली और उस पर पंख लगे थे, वह कहती हैं, 'मैं इस साल काली परी बनी हूं क्योंकि मैंने सोचा कि हर कोई सफ़ेद परी के कपड़े पहनता हैं तो क्यों न काली परी बना जाए।

हेल्गा रेश कार्निवल के दौरान ड्रेसों पर एक किताब लिख चुकी हैं। कार्निवल मनाने के लिए वह कुछ नसीहतें भी देती हैं, 'जब कार्निवल आता है तो आपको कुछ हटकर पहनना होता है। म्यूनिख के मुक़ाबले कोलोन में ख़ास बात यह है कि आपकी ड्रेस मज़ाकिया और मसखरी होनी चाहिए। जरूरी नहीं कि वह सेक्सी हो। कोलोन में बेहतर होगा आप जोकर बनिए या फिर औरतें आदमियों के कपड़े पहनें। मसलन सैनिक या फिर समुद्री लुटेरे।'

ब्राजील के शहर रिओ डि जेनेरिओ के हॉट कार्निवल से अलग जर्मनी में जब कार्निवल मनाया जाता है तो मौसम काफ़ी ठंडा होता है। इसलिए बहुत से लोगों ने अपने लिए ऐसी ड्रेसें चुनी जो उन्हें गर्म रख सकें। मसलन भालू, खऱगोश या फिर फर वाले मेंढक।

जब बात कार्निवल की आती है तो आर्थिक संकट का कहीं कोई असर नजऱ नहीं आता। ज़्यादातर लोग अपने लिए कार्निवल की अच्छी सी ड्रेस के लिए कम से 40 यूरो यानी ढ़ाई हज़ार रुपये ख़र्च करने को तैयार हैं। येक्केन को पूरे साल अपने लिए ऐसी बेहतरीन ड्रेस की तलाश रहती हैं जिसे आने वाले कार्निवल पर पहन सकें। दरअसल येक्केन का मतलब होता है भांड और यह वह उपाधि है जो राइनलैंड के कार्निवल मसखरे अपने आपको देते हैं।

स्ट्रीट यानी गलियों और सड़कों पर कार्निवल की शुरूआत जिस गुरुवार को हुई इस दिन को महिला कार्निवल के नाम से भी जाना जाता है। दरअसल इस दिन महिलाओं का राज होता है। पारंपरिक तौर पर वे पुरुषों की टाई काटती हैं। कई तो इन कटी हुई टाइयों को ट्रॉफ़ी के तौर पर संजोकर भी रखती हैं।

कार्निवल में अब धीरे-धीरे भारतीय ड्रेसों का भी चलन बढ़ रहा है। कई बार आपको हिंदुस्तानी राजा महाराजा दिखते हैं तो कहीं तलवार लिए और घोड़े पर सवार होने को बिल्कुल तैयार दूल्हा। कहीं सजना के साथ जाने के लिए सजी संवरी दुल्हन और हाथों में चूड़ा और सलवार कमीज पहने लड़कियां। बेशक यह सब यहां दिन ब दिन लोकप्रिय होती बॉलीवुड फि़ल्मों का असर है।

Mar 30, 2009

गलत ट्रेक पर सरपट दौड़ती गाड़ी ब्लॉग

गलत ट्रेक पर सरपट दौड़ती गाड़ी ब्लॉग

पूरी दुनिया में इंटरनेट में हिस्सेदारी जताने के लिए

जिन दो तत्वों ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई है

उसमें पहला है ईमेल और

दूसरा है ब्लाग।


- संजय तिवारी


पूत के पांव पालने में दिखते हैं। लेकिन पूत के पांव पालने तक पहुंचे इसके लिए पूत का स्वस्थ प्रसव होना जरूरी होता है। हिन्दी ब्लागरी के साथ ऐसा नहीं हुआ। हिन्दी ब्लाग प्रसव की पीड़ा झेलकर अस्तित्व में आये जरूर लेकिन आज ब्लाग एक अच्छे विचार के गर्भपात हो जाने जैसे हैं। किसी विचार का इतने कम समय में अप्रांसगिक हो जाना बहुत पीड़ादायक है। हिन्दी ब्लाग के विकास के लिए जिन औजारों का इस्तेमाल किया गया वही औजार इसके पतन के कारण भी हो गये।

ब्लाग शब्द से तात्पर्य निकलता है विचारों की मुक्त अभिव्यक्ति। पूरी दुनिया में इंटरनेट में हिस्सेदारी जताने के लिए जिन दो तत्वों ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई है उसमें पहला है ईमेल और दूसरा है ब्लाग। सेना के दायरे से बाहर निकलकर इंटरनेट जब आम आदमी के हाथ में आया तो उसे शायद ठीक से पता भी नहीं था कि वह इस माध्यम का ठीक से कैसे उपयोग करे। एचटीएमएल आधारित वेबसाईटों का नब्बे का दशक इसकी बड़ी उपयोगिता का रास्ता नहीं खोल रहा था। लेकिन उसी दौर में सर्च इंजनों का उदय हुआ। सबसे पहले याहू नाम से एक डायरेक्टरी शुरू हुई जो बाद में सर्च इंजन बन गया। कई और छोटे सर्च इंजन आये लेकिन गूगल के अस्तित्व में आने से पूरा खेल बदल गया। सर्च इंजन के तौर पर गूगल बड़ी तेजी से स्थापित हो रहा था लेकिन शायद उसके निवेशकों की चिंता गूगल को ज्यादा आधार देने की थी। इसलिए सबसे पहला और बड़ा प्रयोग गूगल ने ईमेल के रूप में किया। उसने ईमेल को सामान्य सूचना भेजने से आगे निकालकर उसे गूगल की समस्त सेवाओं का आधार बना दिया। ब्लागर उन्हीं सेवाओं में एक सेवा थी। हिन्दी ब्लाग का पतन उस हिन्दी समाज की कमजोरी की निशानी है जो संभावनाओं को हादसों में बदलने में सिद्धहस्त हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि हम चुनौतियों और हादसों को भी संभावनाओं में बदल देते।

ब्लागर का अस्तित्व और अनेक आविष्कारों की तरह ही एक गैराज से हुआ था। विचार यह था कि एक ऐसा वेब पेज बनाया जाए जहां सबके अपने पासवर्ड हों और लोग उस जगह आकर अपनी बात कह सकते हों। उनके विचार पर बहस हो सके। चर्चा हो सके। गूगल के चतुर निवेशकों ने ब्लागर की संभावनाओं को भांप लिया और इसे मुंहमांगी कीमत देकर खरीद लिया। गूगल ने एक और बड़ा काम यह किया कि उसने अपना सारा डाटाबेस यूनिकोड में तैयार करवाया जिसके कारण उसको दुनिया भर की भाषाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का मौका मिल गया। हिन्दी को इसी यूनिकोड शब्दावली के कारण वेब पर व्यापक उपस्थिति का मौका मिला था और 2003 में ही हिन्दी का पहला ब्लाग अस्तित्व में आ गया था। 2005-06 में यूनिकोड सुविधा और लिखने के मुफ्त स्थान के कारण अपना पैर जमाने में कामयाब हो गये।

ब्लागर की ही तर्ज पर एक और ब्लाग सेवाप्रदाता वर्डप्रेस ने भी मुफ्त में स्थान देना शुरू कर दिया और यहां भी यूनिकोड (यूटीएफ-8) का ही उपयोग होता था जिसके कारण यहां भी ब्लाग बनाये जा सकते थे। आज हिन्दी के ज्यादातर ब्लाग इन्हीं दो ब्लाग सेवा प्रदाताओं के प्लेटफार्म पर बने हैं। और विस्तार में जाने से पहले एक बात समझ लीजिए- ब्लाग असल में इंटरनेट की उस छिपी हुई ताकत से पनपे हैं जिन्हें सबडोमेन कहा जाता है। इंटनरनेट पर जब हम कोई वेबसाईट रजिस्टर्ड करते हैं तो वह हमें असीमित सब-डोमेन बनाने की क्षमता भी प्रदान करता है। अगर हमारे सर्वर में जगह है तो हम किसी एक खास डोमेन लाखों, करोड़ों सबडोमेन बनाने की इजाजत दे सकते हैं। वर्डप्रेस, जो कि मुख्यरूप से ब्लाग लेखन के लिए सीएमस विकास के काम में लगी है, उसका मल्टीयूजर साफ्टवेयर इस्तेमाल करके कोई भी व्यक्ति अपने डोमेन पर असीमित ब्लाग बनाने की सुविधा दे सकता है। इसलिए अब ब्लाग कोई अचंभा नहीं हैं। यह एक सामान्य तकनीकि जोड़-तोड़ है और यह भी समझ में आने लगा है कि एक बड़े व्यावसायिक सोच का हिस्सा है। आप जिस डोमेन पर सबडोमेन के रूप में अपना ब्लाग बनाते हैं आपके द्वारा किये गये सारे काम-काज पर आखिरकार उसी का दावा होता है। लेखक को यह सुविधा है कि उसे मुफ्त में तकनीकि, स्पेश और दूसरी सुविधाएं मिल जाती हैं और डोमेन मालिक को यह फायदा होता है कि उसका डोमेन तेजी से विकास करता है जिसका फायदा उसे दूसरे कई तरीकों से प्राप्त होता है।

यहां यह समझना जरूरी है कि हिन्दी ब्लागरों ने पहले चरण में जिस मुफ्त की सेवा का उपयोग किया उसके आगे का रास्ता क्या हो सकता था? उसके आगे दो रास्ते निकलते हैं। पहला, थोड़े दिनों में आप मुफ्त की सेवा से अपने आप को मुक्त कर लेते हैं और दूसरा जैसे ही ब्लाग का गणित आपकी समझ में आता है आप उसके आगे निकल जाते हैं। तीन-चार सालों का आप अगर हिन्दी ब्लाग का लेखा-जोखा लें तो आपको पता चलेगा कि यह गलत ट्रैक पर सरपट दौड़ती गाड़ी है जो गन्तव्य से उलट जा रही है। हिन्दी के पहले चरण में लोगों के सहयोग से खड़ा होने और दूसरों को खड़ा करने की मानसकिता काम कर रही थी। इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों ने एक दूसरे को सहयोग करके हिन्दी ब्लागर की एक नयी जमात पैदा की। क्योंकि हिन्दी समाज केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि तकनीकि रूप से पिछड़ा हुआ है इसलिए इस तरह का शुरूआती सहयोग हिन्दी ब्लागरी के लिए बहुत मददगार साबित हुआ।

देखते ही देखते हिन्दी के सक्रिय ब्लागरों की संख्या हजारों में हो गयी। कल तक वेबसाईट का जो तिलिस्म केवल वेब डेपलपरों के कब्जे में था ब्लाग ने उसे तोड़ दिया। लोगों को एक ऐसा माध्यम मिल गया था जिसके जरिए वे अपने आप को अभिव्यक्त कर सकते थे, और लिखे को लोगों तक पहुंचाने के लिए एग्रीगेटर की कल्पना भी साकार हुई जहां सारे ब्लागरों के लिखे हुए को क्रम से एक जगह इकट्ठा किया जाता था। यह हिन्दी ब्लागों का अपना सर्च इंजन था।
यह दूसरी सेवा भी जज्बे से ओत-प्रोत थी। हिन्दी के चार प्रमुख एग्रीगेटर हैं जो केवल जज्बे से ही चल रहे हैं। इनके पीछे कोई व्यावसायिक गणित नहीं है। इसलिए लिखने से लेकर प्रचार तक हिन्दी के ब्लागों को ऐसा प्लेटफार्म मिल गया था जहां उनको किसी भी प्रकार का कोई पूंजीनिवेश नहीं करना था। लेकिन मुफ्त की यही मानसकिता हिन्दी ब्लागरी के लिए सुविधा के साथ-साथ संकट भी हो गयी। पूंजीवाद के इस भयानक युग में मुफ्त की ऐसी सेवाओं का क्या जनहित के लिए उपयोग हो सकता था? शायद सबसे अच्छा उपयोग हो सकता था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मुफ्त की वस्तु के साथ हम कैसा व्यवहार करते हैं? आमतौर पर हम उसकी कद्र नहीं करते। प्रकृति ने मनुष्य के लिए जो भी जरूरी है उसे मुफ्त ही उपलब्ध करवाया है। लेकिन मनुष्य सबसे ज्यादा अनादर उन्हीं निधियों का करता है जो उसे सहज और मुफ्त उपलब्ध हैं। ब्लाग भी ऐसी ही मानसिकता का शिकार हो गया। हमने इसे जनहित में उपयोग करने की बजाय निजी कुंठा और व्यक्तिगत दुराग्रह का माध्यम बना दिया। जाहिर सी बात है ऐसा कोई भी माध्यम कहीं नहीं जाता। ब्लाग जो नहीं कर पाये हो सकता है आनेवाले समय में हिन्दी वेबसाईटें वह काम कर सकें। वे शायद बेहतर नतीजा दे पायेंगी क्योंकि वे न तो मुक्त होंगे और न ही मुफ्त। ब्लाग के प्लेटफार्म से शुरू करके कुछ वेबसाईटों ने इसकी पूरी संभावना दिखा दी है। फिलहाल तो ब्लाग ऐसे सांड़ की शक्ल ले चुका है जिससे दूध की अपेक्षा करना हमारी निरा मूर्खता के अलावा कुछ नहीं है।

ब्लाग नये मीडिया की संभावना लेकर आये थे। एक ऐसा मीडिया जो जिम्मेदार हाथों में जायेगा तो बहुत अर्थकारी परिणाम देगा। लेकिन आप ब्लाग को देखें तो साफ दिखता है कि यह गैर-जिम्मेदार हाथों में चला गया है। जिनसे उम्मीद थी उन्होंने ही इसे धता बता दिया है। ब्लागरी को बढ़ाने के जितने उपाय किये गये वही उपाय इसके पतन के कारण बनते जा रहे हैं। इसलिए पैदा होने के दो-चार साल में ही ब्लाग अनर्थकारी रूप धारण कर चुके हैं। इसका दोष तकनीकि को नहीं है। इसका दोष उनको भी नहीं है जो निजी उत्साह के कारण ब्लागरी को बढ़ाने का काम कर रहे थे। यह उस हिन्दी समाज की कमजोरी की निशानी है जो संभावनाओं को भी हादसों में तब्दील कर देने में सिद्धहस्त है। जबकि होना यह चाहिए कि हम चुनौतियों और हादसों को भी संभावनाओं में बदल देते। ब्लाग से आगे निकलकर वेबसाईट तक पहुंचने के रास्तों की तलाश हिन्दी को इंटरनेट की उस क्रांति से जोड़ देता जिसकी पूरी संभावना समाज और युग दोनों में मौजूद है। दुख के साथ ही सही यह मानना पड़ेगा कि फिलहाल हम यह मौका चूक गये हैं। एक अच्छे विचार के साथ हमने व्यभिचार किया है। हम ब्लाग को हिन्दी और समाज दोनों की बेहतरी का माध्यम बना सकते थे। हम वह नहीं कर पाये। लेकिन निराशा के इसी गर्भ में आशा के बीज भी छिपे हैं।

Mar 21, 2009

इस अंक के रचनाकार


आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्र
44 वर्षों से अध्यापन से सम्बद्ध रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर। पूर्व विभागाध्यक्ष इतिहास, प्राचीन भारतीय, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग व संकाय। पूर्व अध्यक्ष मध्यप्रदेश इतिहास परिषद, भोपाल। साहित्य, इतिहास, संस्कृति आदि पर लेखन, संपादन एवं प्रकाशन। संप्रति - अध्यक्ष, महाकौशल, मध्यप्रदेश इतिहास परिषद (1920), सदस्य छत्तीसगढ़ी राज्यभाषा आयोग छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर पता : विश्वविद्यालय परिसर रायपुर। फोन : 0771-2262636, मो. 98271 79479

रमेश शर्मा
शिक्षा - बीए, बीजे, 1983 से सक्रिय पत्रकारिता, युगधर्म रायपुर से शुरुआत, 1985 में दिल्ली प्रस्थान, वहां 1986-88 तक सुमन सौरभ पत्रिका का प्रभार, फिर दो वर्षों तक जमकर फ्रीलासिंग और नगण्य नौकरियां करते हुए 1991 में राष्ट्रीय सहारा में ठहराव मिला, राज्य बनते ही 2003 में छत्तीसगढ़ वापसी, खबरों और विश्लेषण में खास दिलचस्पी संप्रति - ब्यूरो प्रमुख, राष्ट्रीय सहारा दैनिक, छत्तीसगढ़। ईमेल : sharmarameshcg@gmail.com



अंजीव पांडे

जन्म तिथि - 01.01.1968, कार्य - अमृत संदेश में बतौर संवाददाता पत्रकारिता के कैरियर में कदम रखा। पत्रकारिता को तकनीकी रूप में समझने का मौका नवभारत, नागपुर से मिला। यहां लगभग 10 वर्ष तक संपादकीय विभाग के विभिन्न डेस्क पर कार्य किया। सकारात्मक और रचनात्मक पत्रकार के रूप में पहचान। युगधर्म, नागपुर तथा दैनिक भास्कर नागपुर से भी अल्प समयावधि के लिए संलग्न रहा। संप्रति- जनसत्ता, रायपुर में सिटी चीफ के पद पर कार्यरत। पता - जनसत्ता, आदर्श नगर, विधानसभा मार्ग, मोवा, रायपुर (छ.ग.) फोन (का.) 0771-2284929
ईमेल : anjeevpandey@yahoo.com

शैफाली

शिक्षा- माइक्रोबायोलॉजी में स्नातक कार्य- वेबदुनिया डॉट कॉम में तीन वर्षों तक उप-सम्पादक, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन कार्यक्रमों में संचालन, स्वतंत्र लेखन। रूचि- काव्य सृजन, काव्य पठन, अमृता प्रीतम, ओशो साहित्य एवं आध्यात्म का अध्ययन करना पता- शैफाली (नायिका), c/o विनय नायक, 22, संगम कॉलोनी, बलदेव बाग, जबलपुर (म.प्र.)।

जया जादवानी


जया जादवानी हिन्दी की उन विरल लेखिकाओं में से है जिनकी रचनाएं मनुष्य के अंतर्मन की यात्राएं करती हैं। अनुभूतियों के कोमल संपदनों को बुनने वाली जया का जन्म 1 मई 1959 कोतमा में हुआ। जीवन की रागात्मकता का उत्सव रचने वाली, उसे आध्यात्म प्रत्ययों की रोशनी में देखने वाली जया को तत्वमसि उपन्यास से लोकप्रियता मिली। उनके कथा संग्रह अन्दर के पानियों ने कोई सपना बहता है, मुझे होना है बार-बार, उससे पूछो, मैं अपनी मिट्टी में खड़ी हूं कांधे पे अपना हल लिए, की कहानियों ने प्रतिभूत कर देनेवाली संवेदना अर्पित की है। उनके कविता संग्रह मैं शब्द हूं, अनंत संभावनाओं के बाद भी और उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य इसका परिचायक है। उनकी कई कहानियों पर वृत्तचित्र बने हैं, वे कई संस्थानों से पुरस्कृत हुई हैं । उन्होंने हिमालय के अत्यंत बीहड़ व मनोरम स्थल की यात्राएं की हैं। उनके भीतर एक ऐसी आतुरता और भावाकुलता सांस लेती है जो सदैव किसी अच्छी रचना के लिए प्रतिश्रुत रहती है। इन दिनों वे बी-1/36 वीआईपी स्टेट, विधानसभा मार्ग रायपुर छत्तीसगढ़ में रहती हैं।

संजय तिवारी

संजय तिवारी के अनुसार अभी तक मानव सभ्यता ने जितने भी मीडिया माध्यमों का उपयोग किया है उनमें से अनूठा, प्रभावी और सर्वगुण संपन्न है इंटरनेट। विस्फोट.कॉम के माध्यम से वे जनहित के मुद्दों को उठाने का कार्य कर रहे हैं। पठन के लिये वे पसंद करते है रामचरित मानस, श्रीमद्भगवतगीता, योग वशिष्ठ, कर्म संन्यास, भारत की आत्मा, राग दरबारी, मुंशी प्रेमचंद, कबीर, एक वायलिन समंदर के किनारे एवं भक्ति योग सागर।
ईमेल : sanjaytiwari07@gmail.com

बेटी की पैदाइश आज भी दुःख का कारण?



भारतीय महिला वैज्ञानिकों की स्थिति अन्य विकसित और विकासशील देशों की महिला वैज्ञानिकों से बहुत अलग नहीं है। बल्कि महिला वैज्ञानिकों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है लगभग वैसी ही परिस्थितियां अन्य भारतीय कामकाजी महिलाओं के साथ भी बनती हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात करें तो भारतीय महिला वैज्ञानिकों की कमी का जि़क्र उनकी सालाना फोरम की बैठक में ही हुआ करता था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीज़े बदल रही हैं, वह भी बेहतरी की दिशा में। वर्ष 2003 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली ने भारत में विज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रही महिलाओं की स्थिति का पता लगाने के लिए एक समिति का गठन किया था। लगभग इसी समय इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंस, बैंगलूर ने भी कुछ इसी तरह के व्यापक उद्देश्यों को लेकर विज्ञान में कार्यरत महिलाओं के संबंध में एक पैनल गठित किया था। यद्यपि भारतीय महिला भौतिक शास्त्रियों ने 1999 से ही अंतर्राष्ट्रीय नवाचारों में कंधे-से-कंधा मिलाकर अपनी हिस्सेदारी शुरू कर दी थी। इससे भी बहुत पहले सन् 1973 में ही इंडियन वीमेन सांइन्टिस्ट एसोसिएसन (आईडब्ल्यूएसए) की स्थापना मुम्बई में हो चुकी थी। जिसकी सदस्य संख्या 2000 से ज़्यादा है।

यह दु:खद है कि इतनी जल्दी शुरुआत हो चुकने और 2000 की सदस्य संख्या के बाबजूद आईडब्ल्यूएसए ने महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में आगे लाने के लिए सक्षम दबाव समूह की तरह काम नहीं किया। स्कूल छोडऩे की ऊंची दर, विज्ञान के क्षेत्र में कुशल महिलाओं की कमी, रोजगार के कम अवसरों और तरक्की की न्यून संभावनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर एक चिंताजनक विषय के रूप में 21वीं सदी में ही लिया गया।

इस क्षेत्र में एक बड़ा कदम उठाते हुए विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी मंत्रालय ने दिसम्बर 2005 विज्ञान में महिलाओं पर एक टास्क फोर्स गठित किया। इसका प्रमुख कार्य ऐसी सलाह देना था जो लैंगिक समानता लाने, महिलाओं की क्षमताओं के हो रहे नुकसान को बचाने और महिलाओं को विज्ञान एक कैरियर के रूप में अपनाने हेतु प्रोत्साहित करने में मददगार हो।
भारतीय महिला वैज्ञानिकों की स्थिति अन्य विकसित और विकासशील देशों की महिला वैज्ञानिकों से बहुत अलग नहीं है। बल्कि महिला वैज्ञानिकों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है लगभग वैसी ही परिस्थितियां अन्य भारतीय कामकाजी महिलाओं के साथ भी बनती हैं।

भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाओं की भूमिका पुरुष के सहयोगी या अधीनस्थ की रही है। परिवार में उसका मुख्य काम अन्य लोगों की देखभाल करना और सेवा करना है, न कि पैसे कमाना। हर परिवार बालिका के आगमन पर खुशी नहीं मनाता जैसा कि वर्ष 2001 की जनगणना से प्राप्त लिंग अनुपात के आंकड़े बताते हैं। आंकड़ों के अनुसार शहरी भारत में 0- 6 वर्ष के बीच 1000 बालकों पर सिर्फ 906 बालिकाएं हैं।
अलबत्ता, शहरी मध्यम वर्गीय परिवार अपनी लड़कियों को शिक्षा दिलाने, उन्हें स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्रियां दिलाने के प्रति उत्साहित हैं। वर्ष 2001-02 में भारतीय विश्वविद्यालयों में विज्ञान क्षेत्र में हुए कुल नामांकन का 39.4 प्रतिशत हिस्सा लड़कियों का था। लेकिन विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त करने से सामाजिक सोच नहीं बदलता। विज्ञान में एक उच्च शिक्षित मां अपने बच्चे की शिक्षा के समय उसकी अच्छी मददगार ज़रूर साबित हो सकती है लेकिन उसे इतनी स्वतंत्रता नहीं है कि अपनी उन्हीं क्षमताओं का उपयोग बाहर एक नौकरी में कर सके। ऐसे परिवारों में भी, जहां महिलाएं काम कर रही हैं और अपनी आय से परिवार की बेहतर जीवन शैली में भरपूर योगदान दे रही हैं, वहां भी उनकी आय को सिर्फ द्वितीयक आय के रूप में ही देखा जाता है। शहरी मध्यम वर्गीय भारत का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है और ये उन्हीं परिवारों का समूह है जो विज्ञान और टेक्नॉलॉजी को सबसे ज़्यादा महिला कर्मी उपलब्ध करा रहा है।

यदि सभी शिक्षित मध्यम वर्गीय कामकाजी महिलाओं की समस्याएं एक ही सामाजिक मानसिकता की उपज हैं तो ऐसे में महिला वैज्ञानिकों को अलग से विशेष तरजीह देने की ज़रूरत बनती है क्या? मुझे लगता है कि उनके विशेष कामकाज के चलते शायद यह ज़रूरत बनती है। विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधानकर्ता का काम एक ऐसा काम है जिसमें खोज के विषय के बारे में लगातार पढ़ते रहना पढ़ता है, चिंतन करना पड़ता है, लगातार अपने ज्ञान को उन्नत करते हुए उसे सूत्रबद्ध करना पड़ता है। इस क्षेत्र में सम्मानजनक उत्पादकता हासिल करने के लिए अत्यधिक मानसिक दबाव होता है और समय की ज़रूरत पड़ती है।

यदि विज्ञान से जुड़ी महिलाओं से 8 घण्टे के सामान्य कार्यालयीन समय की ही उम्मीद की जाए क्योंकि उसके ऊपर घर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियां भी हैं तो वह अपने कार्यक्षेत्र में अन्य लोगों से मिलने-जुलने व अन्य काम करने का समय नहीं निकाल पाएगी और बहुत हद तक संभावना है कि वह अपने पुरुष सहकर्मियों के बराबर सफल नहीं हो सकेगी।

यदि नौकरी मिलने के बाद भी महिला वैज्ञानिक स्वयं को और अपने नियोक्ता को कार्य संतुष्टि नहीं दे पाती तो इसमें नुकसान किसका है? वास्तव में यह सिर्फ संस्था और कर्मचारी का नहीं बल्कि समाज का भी नुकसान है क्योंकि ये महिलाएं काफी खर्च करके तैयार किए गए कार्यकर्ता दल की सदस्य हैं। सामान्यतया उनका प्रशिक्षण या तो शासकीय या शासकीय सहायता प्राप्त संस्थाओं में हुआ होता है। विज्ञान और टेक्नॉलॉजी में स्नातकोत्तर उपाधि हो या डॉक्टरेट, इसे करने वाले व्यक्ति द्वारा और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सरकार द्वारा काफी धन खर्च किया जाता है। और अब यदि यह महिलाकर्मी अनुत्पादक साबित हो या उसका पूरा और सही उपयोग न हो, तो यह राष्ट्रीय सम्पदा की भारी क्षति है।
क्या किया जाए?
हाल ही में यह बात देखने में आई कि विज्ञान स्नातक कोर्सेज़ में दाखिला लेने वाले लड़के और लड़कियों के अनुपात में शहरी मध्यम वर्गीय परिवारों में ज्यादा अंतर नहीं है। इनमें बहुत अधिक और दुखद अंतर सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों में देखा जाता है जहां लड़कियों का स्कूलों में प्रवेश ही बहुत कम संख्या में हो पाता है। आगे बढऩे पर यह संख्या तो और भी निम्न स्तर तक पहुंच जाती है। इसी तरह का एक बड़ा महिला श्रम शक्ति का नुकसान डॉक्टरेट व उसके बाद देखा जा सकता है।

जीव विज्ञान की कुछ प्रतिष्ठित संस्थाओं से प्राप्त आंकड़ों से जो तस्वीर बनती है उसके अनुसार पीएचडी के लिए होने वाले कुल नामांकन में से 50 प्रतिशत महिलाएं हैं। इन संस्थाओं में फैकल्टी के रूप में लगभग 25 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं। प्राकृतिक विज्ञान की अन्य शाखाओं में भी लगभग यही आंकड़े होंगे। विज्ञान के क्षेत्र में ऊंची से ऊंची डिग्रियां लेने में आगे रहने के बावजूद केवल कुछ महिलाएं ही क्षमता के अनुरूप व्यावसायिक अवसर प्राप्त कर पाती हैं। स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब इतना सब कुछ करने के बाबजूद बच्चों के लालन-पालन की सारी जि़म्मेदारी सिर्फ उन्हीं के सिर थोप दी जाती है। इस प्रकार भारतीय विज्ञान संगठन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती विज्ञान में उच्च शिक्षित महिलाओं की उपलब्धता की नहीं है, बल्कि यह है कि उन्हें चुनकर काम में शामिल करें और नौकरी में बरकरार रखें।

यदि कोई शादीशुदा युगल इस क्षेत्र में नौकरी कर रहा है या नौकरी की तलाश कर रहा है तो हमारे पास कुछ ऐसी नीतियां होनी चाहिए कि उन्हें एक ही संस्थान या शहर में काम उपलब्ध कराया जा सके। किसी व्यक्ति के संभावित नियोक्ता यह कदम उठा सकते हैं कि उसकी पत्नी/पति को भी वहीं रोजग़ार मिल जाए ताकि कार्य बल में महिलाओं का प्रवेश बढ़ाया जा सके। परिसर में ही रहने की व्यवस्था यकीनन उनके जीवन स्तर को सुधार सकती है। परिसर में ही घर देते समय संस्थाएं महिलाओं को वरीयता दें। यदि अच्छे साफ-सुथरे बाल गृह और डे-केयर होम्स जैसी सुविधाएं घर या कार्य स्थल के नज़दीक उपलब्ध कराई जा सकें तो यह एक और मददगार कदम होगा। बच्चे जब तक कुछ बड़े न हो जाएं तब तक उन्हें शिशु पालन भत्ता उपलब्ध कराना एक अन्य सुविधा हो सकती है। महिलाओं के लिए स्वस्थ और अनुकूल वातावरण उन्हें काम के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। इसके लिए संस्था में समय-समय पर जेंडर संवेदनशीलता कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। यौन उत्पीडऩ एक बहुत ही संवेदनशील समस्या है किन्तु अभी तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया है। इसके लिए त्वरित और संवेदनशील कदम उठाना ज़रूरी हैं। किसी भी संस्था में काम का महिला- अनुकूल वातावरण और समुचित सुरक्षा उपलब्ध कराना संस्था प्रमुख की जि़म्मेदारी होनी चाहिए।

विकल्प ज़रूरी

कुछ महिलाएं पोस्ट-डॉक्टरल प्रशिक्षण के बाद विज्ञान से अपना नाता तोड़ लेती हैं क्योंकि एक अंतराल के बाद उन्हें फिर से काम नहीं मिल पाता। इस प्रकार से प्रशिक्षित महिला शक्ति की हानि को कम से कम किया जाना चाहिए। देश के विभिन्न हिस्सों में अलग- अलग तरह के रिफ्रेशर कोर्स चलाए जा सकते हैं, इस तरह से स्थानीय रोजग़ार की ज़रूरतों को भी पूरा किया जा सकता है। कुछ ऐसे नए क्षेत्रों का सृजन किया जा सकता है जहां विज्ञान में मिली शिक्षा का अधिक लाभ मिल सके। जैसे - विधि और पेटेन्ट नियम की जानकारी, विज्ञान पत्रकारिता आदि। कई ऐसे काम हैं जो पार्ट-टाइम आधार पर दो कर्मचारियों द्वारा आसानी से किए जा सकते हैं। ऐसे कार्यों के लिए दो महिलाओं का चयन कर उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। यह एक सकारात्मक कदम होगा। कुछ काम ऐसे भी होते हैं जिनके कार्य समय में शिथिलता दी जा सकती है या उन्हें घर से भी करने की छूट दी जा सकती है। ऐसे कामों में महिलाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

पितृत्व अवकाश जो प्रत्येक बच्चे के जन्म के बाद पिता को उपलब्ध कराया जाता है, भारत में बहुत ही कम लोग इसका लाभ उठाते हैं। इसमें कुछ सुधार करते हुए इन छुट्टियों को चाइल्ड केयर के नाम से बढ़ाकर कुछ वर्षों का किया जा सकता है ताकि इसका वास्तव में सदुपयोग हो सके और महिलाओं को भी रोजग़ार में अपनी पुरानी स्थिति को बरकरार रखने में मदद मिल सके। इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि कामकाजी महिलाओं को काम में बहुत से विकल्पों की ज़रूरत होती है। ऐसे में योजना बनाने और उन्हें लागू करने वालों की यह जि़म्मेदारी बनती है कि उन्हें विविध विकल्प उपलब्ध कराएं।

फायदा किसे होगा

महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में बनाए रखने और उन्हें वापस लाने के लिए अपनाए जाने वाले ऐसे उपायों और तरीकों की घोषणाएं बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं। ऐसा होने पर ही उन सरकारी एवं शासकीय वित्त-पोषित संस्थाओं का वास्तविक मतलब भी निकल सकेगा।

पिछले एक दशक पर नजऱ डालें तो विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे ज़्यादातर विकास निजी संसाधनों से हो रहे हैं। इनमें सूचना प्रौद्योगिकी, दवा कंपनियों, क्लीनिकल शोध संस्थाओं और बायोटेक संस्थानों और रोजग़ार के अवसरों का सृजन हो रहा है। ये इसी प्रकार आगे भी प्रगति करते रहेंगे क्योंकि वर्तमान वैश्विक मंदी ज़्यादा दिनों नहीं टिकने वाली। ऐसे परिवेश में प्रशिक्षित महिलाओं को कुछ अतिरिक्त सुविधाएं देकर कार्य में बरकरार रखना निजी संस्थाओं के लिए भी लाभप्रद होगा।

ऐसे उपायों की सिर्फ घोषणा कर देना ही काफी नहीं है बल्कि एक ऐसे निगरानी तंत्र की ज़रूरत भी होगी जो दक्षता संवर्धन के लिए उपलब्ध कराई जा रही सेवाओं को लागू करने के आंकड़े इक_े कर प्रत्येक पांच वर्षों में इनका परीक्षण और प्रभाव का अध्ययन करे, आवश्यक होने पर इनमें बदलाव की सिफारिश करें। महिला शक्ति के बिखराव को रोककर उसका संचय कर विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही प्रशिक्षित महिलाओं के अनुपात को बढ़ाना सिर्फ महिलाओं के हित में ही नहीं बल्कि पूरे समाज के हित में है। इससे न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था को फायदा होगा बल्कि सामाजिक विकास भी आएगा। जितनी अधिक महिलाएं आर्थिक स्तर पर स्वतंत्र, स्वायत्त और आत्मनिर्भर होंगी, समाज में उतनी बेहतर लिंग समानता स्थापित हो पाएगी। (स्रोत फीचर्स)

महिलाओं की हिस्सेदारी


महिलाओं की हिस्सेदारी
- डॉ.रत्ना वर्मा
पिछले दिनों महिलाओं की कार्य क्षमता को लेकर एक रिपोर्ट में बताया गया कि अन्य देशों की तुलना में भारत के कॉरपोरेट जगत में ऊंचे पदों पर बहुत कम महिलाएं पहुंच पाती हैं। यद्यपि रिपोर्ट यह भी कहता है कि पिछले पांच साल में कॉरपोरेट जगत में महिलाओं की हिस्सेदारी 14 फीसदी बढ़ी है। अब यदि इस आंकड़े को देखें तो यह भारत जैसे देश, जहां आज भी बालिका वधू जैसे धारावाहिक के माध्यम से बाल विवाह जैसी समस्या को सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है जहां लड़की पैदा होने पर आज भी खुशियां नहीं मनाई जाती, और अगले साल छोरा कहते हुए उसे पैदा होते ही मार दिया जाता है, तथा शिक्षित कही जाने वाली बिरादरी में मेडिकल साइंस ने उन्हें भ्रूण में ही लड़की को मार देने की सुविधा उपलब्ध करा दी है, जहां आज भी प्रति वर्ष पांच हजार से भी अधिक लड़कियां दहेज के नाम पर मार दी जाती हों तथा हर तीसरे मिनट में जहां एक महिला बलात्कार की शिकार होती है वहां के कॉरपोरेट जगत में यदि महिलाओं की संख्या में पांच वर्ष के भीतर 14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है तो यह तो खुशी की बात हुई । यदि कॉरपोरेट जगत को महिलाओं के लिए सबसे ऊंचा पायदान माना जा रहा है तो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वह अन्य क्षेत्रो में भी पूर्व के मुकाबले आगे बढ़ी है।

दरअसल हम भारतीय महिलाओं की स्थिति को अन्य देशों के मुकाबले बहुत ही निम्न स्तर की मानते हैं पर ऐसा है नहीं। यूरोपीय संघ के आकड़ों के अनुसार यूरोप में भी महिलाओं और पुरुषों के बीच आय में भारी अंतर है। जर्मनी में यह अंतर गत वर्ष प्रति घंटा 23 प्रतिशत था, अर्थात वहां पुरुषों को महिलाओं से साढ़े सत्तरह प्रतिशत अधिक मिलता है। वैसे आय में लैंगिक विषमता वाले देशों में जर्मनी से भी खराब पांच देश और हैं, आस्ट्रिया, नीदरलैंड, साइप्रस, चेक गणतंत्र और एस्तोनिया। दरअसल भारत की तरह ही अन्य देशों में भी पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण महिलाएं पूर्णकालिक नौकरी नहीं कर पाती, इसके लिए वहां की सामाजिक संस्था ने मांग की है कि वे समान काम के लिए समान वेतन दें और महिलाओं को उच्च पदों पर जाने का अवसर दें।

भारत की कामकाजी जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के कब्जे में है, यहां की ग्रामीण महिलाएं जहां खेती से जुड़े व्यवसाय का हिस्सा हैं तो शहर में वे विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी कर रही हैं। यह जरुर है कि कॉरपोरेट सेक्टर के उच्च पदों पर कुछ चुनिंदा महिलाओं ने ही एक विशेष मुकाम हासिल किया है। लेकिन यहां तक पंहुचने के लिए उसे बहुत कुछ खोना भी पड़ा है, अर्थात उसके लिए घर- परिवार और बच्चों के लिए समय निकालना मुश्किल होता है। भारत की सबसे अमीर महिला बायोटेक कंपनी की मालिक किरण मजूमदार शॉ ने अपना व्यवसाय एक गैराज से शुरु किया था, जिन्हें तब एक बैंक ने अपना व्यवसाय शुरु करने के लिए लोन देने से भी मना कर दिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि महिलाओं को पुरुषों की तरह अनुकूल परिस्थितियां दी जाएं तो वह किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से मुकाबला कर सकती हैं।

विभिन्न शोधों के जरिए भी यह प्रमाणित हो चुका है कि महिला कर्मचारी, पुरुष की अपेक्षा अपने कार्य के प्रति अधिक गंभीर होती हैं। वह नियत समय पर कार्यालय आती है, अपना कार्य समय पर खत्म करती है और व्यर्थ की गप्पबाजी में समय नहीं गवाती जबकि पुरुष चाय, सिगरेट और गॉसिप के बहाने बाहर निकलते हैं, पान ठेलों पर खड़े होकर घंटों व्यर्थ गंवा देते हैं। फिर भी पुरुषों के मुख से उन्हें यह सुनने को मिलता है कि महिलाएं तो कार्यालय अपना समय काटने आती हैं। इसके विपरीत इस तथ्य से सब वाकिफ हैं कि महिलाओं की वजह से संस्थान में अनुशासन की स्थापना होने के साथ ही लोगों में कार्य करने की क्षमता का विस्तार होता है। बहुत से कार्यालयों में महिलाओं की भर्ती ही इसलिए की जाती है ताकि कार्यालय में शालीनता का वातावरण बना रहे।

सच तो यह है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या और भी बढ़ेगी, यदि सरकार उनकी प्रकृति के अनुसार उन्हें उचित सुविधाएं दे। कई देशों में सरकार एक नौकरीपेशा मां को उसके बच्चे के एक वर्ष होने तक सवैतनिक छुट्टी की सुविधा देती है ताकि वह अपने बच्चे की परवरिश ठीक से कर सके। अब कई अन्य सुविधाओं का विस्तार भी किया जा रहा है, जिसमें पिता की भी भूमिका को शामिल किया जा रहा है। हमारे देश में महिला उद्धार एवं महिला अधिकारों को लेकर ढेरों योजनाएं बनायी गयी हैं और नित नई-नई घोषणाएं की जाती रही हैं, पर अभी तक इससे कोई ठोस लाभ उन्हें मिल पाया हो यह नजर नहीं आता। यहां के कई प्राईवेट सेक्टर में तो स्थिति यह है कि गर्भवती महिलाओं को सवैतनिक एक माह की छुट्टी भी नहीं दी जाती, यदि वह इसकी मांग करती है तो उसे नौकरी से ही हाथ धोना पड़ता है। जबकि सरकारी तौर पर छह माह के मातृत्व आवकाश की घोषणा हो चुकी है। शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना चाह कर भी वह अकेली पड़ जाती है।

यह भी सत्य है कि स्त्रियों को हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी का अधिकार पाने की प्रत्येक कोशिश में कदम-कदम पर विरोध का सामना करना पड़ता है। यह विरोध पहले तो स्वयं उसके घर परिवार से शुरु होता है फिर समाज से होते हुए, अंतत: उस जगह तक पहुंच जाता है जिसे कोई महिला अपने पसंदीदा कार्यक्षेत्र के रूप में चुनती है। यह विरोध कहीं प्रत्यक्ष और मुखर होता है तो कहीं पर परोक्ष और दबा हुआ, दोनों ही स्तरों पर वह सामाजिक ऊंच-नीच के मनोविज्ञान से प्रेरित होता है। अभी भी हमारे मध्यमवर्गीय परंपरागत परिवारों में लड़की के लिए नौकरी की बात उठने पर उसे स्वयं अपनी इच्छा से क्षेत्र चुनने का अधिकार नहीं दिया जाता। जाहिर है हमारे भारतीय परिवारों में भी बहुत कम परिवार इस बात की स्वीकारोक्ति देते हैंं कि एक मां, एक पत्नी, एक बेटी, एक बहू अपनी नौकरी की खातिर अपने पति, बच्चों और परिवार की उपेक्षा करे। दरअसल आज भी न सिर्फ भारत में बल्कि अन्य देशों में भी काम करने वाली महिला को एक अच्छी मां नहीं माना जाता। इस मानसिकता को बदलने के लिए जरुरी है कि नियोक्ताओं पर कानूनी शिकंजा कसा जाए ताकि उन्हें महिलाओं के साथ भेदभाव करने से रोका जा सके।

फिर भी अनेक मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने के बाद, दोहरी जिम्मेदारी निभाते हुए महिला ने यह साबित कर दिया है कि वह कमजोर नहीं है। बदलते सामाजिक परिवेश और शिक्षा के बढ़ते ग्राफ के कारण स्त्री स्वावलंबन की ओर बढ़ी है इसमें दो मत नहीं।




मैंने देखा... एक समृद्ध संस्कृति को लुप्त होते

मैंने देखा... एक समृद्ध संस्कृति को लुप्त होते
-अंजीव पांडे

यात्रा तो यात्रा ही होती है, चाहे वह सुनियोजित हो या फिर अचानक। यह यात्रा थी बस्तर के धूर नक्सली इलाकों की। मैंने क्यों की यह यात्रा? इसका जवाब तो आज भी मेरे पास नहीं है।

यह बयानी है एक यात्रा की, एक ऐसी यात्रा जिसकी न शुरुआत निर्धारित थी और न ही अंत। फिर भी यात्रा तो यात्रा ही होती है, चाहे वह सुनियोजित हो या फिर अचानक। यह यात्रा थी बस्तर के धूर नक्सली इलाकों की। मैंने क्यों की यह यात्रा? इसका जवाब तो आज भी मेरे पास नहीं है। लेकिन इतना अवश्य है कि नागपुर से रायपुर आने के बाद नक्सली समस्या पर काफी काम किया, कई रिपोर्ट भी प्रकाशित हुईं। नक्सली समस्या, सलवा जुडूम और अलगाववादी ताकतों के छद्म मनोवैज्ञानिक युद्ध पर बड़ी-बड़ी फिलासाफी परोसते समय एक कसक तो हमेशा मन में बनी रहती थी कि मैंने आज तक अपनी आंखों से इस समस्याग्रस्त इलाके को नहीं देखा है।

बस्तर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को नजदीक से देखने-जानने की इच्छा तो कई वर्षों से थी ही। साथ ही नक्सली इलाके का दौरा करने की बात दिमाग में कौंधी। मैंने बीजापुर के एक उत्साही पत्रकार शेख इस्माइल (बब्बू खान) को फोन किया और बस यूं ही बन गई इस यात्रा की योजना। रात 11 बजे रायपुर के पंडरी बस स्टैंड से स्लीपर कोच की बस में बैठ गया। बस में सोते हुए कब गीदम पहुंच गए पता ही नहीं चला। सुबह लगभग 7.30 बजे गीदम में बस से उतरने के बाद पहले इच्छा हुई कि दिन भर वहीं विश्राम किया जाए। वहां मुझे एक लाज दिखा। वहां दो तल तक मैंने आवाज लगाई लेकिन कोई नहीं आया तो मैं वापस सड़क पर आ गया। एक महिला खड़ी थीं। उनसे बीजापुर जाने के लिए साधन के सबंध में पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि बीजापुर की बस थोड़ी ही देर में आएगी। उन्होंने बताया कि वे भी भैरमगढ़ तक उसी बस में जाएंगी। थोड़ी ही देर में बस आ गई और मैं उसमें बैठ गया। सफर के दौरान मैंने कोट पहन रखा था। मुझे काफी बाद में समझ में आया कि कोट पहनना मुझे उस क्षेत्र के लोगों से अलग करने का परिधान था। गीदम से बीजापुर तक का रास्ता काफी खराब था। पता चला कि नक्सली इस मार्ग को बनने नहीं दे रहे हैं। खैर उस ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर बस दौड़ रही थी। मुझे नींद आ रही थी लेकिन कैसे सो सकता था। हड्डी टूटने का डर बना हुआ था। भैरमगढ़ आने के पहले ही मैं बस की केबिन में आकर बैठ गया।

सुबह करीब 10.30 बजे मैं बीजापुर पहुंचा तो बाबूभाई अपनी मोटरसाइकिल में मुझे लेने के लिए खड़े थे। तुरंत उन्होंने मुझे गेस्ट हाउस पहुंचाया। बीजापुर में एक ही गेस्ट हाउस है। वह वन विभाग का है, जहां दो कमरे हैं। अब एक जिला मुख्यालय का यह हाल हो तो उस जिले के अन्य स्थानों का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। जिला मुख्यालय की हालत एक समृद्ध तहसील से भी बुरी थी। मुझे समझ में आने लगा था कि बस्तर को मिलने वाले अरबों रुपयों से किसका विकास हुआ है। वह पूरा दिन विश्राम का था। गेस्ट हाउस में ही केयर टेकर ने खाना बनाकर खिला दिया। पूरे 24 घंटे मैंने विश्राम किया। शाम को मैं पैदल बीजापुर शहर देखने के लिए निकला। कुल मिला कर मुझे यह अहसास हो गया कि नक्सलियों से त्रस्त आदिवासियों के विकास का दावा सिर्फ दावा है। इसलिए मैंने अपनी यात्रा का उद्देश्य बदल डाला। पहले यह योजना थी कि मैं नक्सलियों और नक्सली समर्थकों से भी मिलूंगा लेकिन बाद में मैंने फैसला किया कि मैं अपनी यात्रा सुरक्षा बलों और पुलिस को मिलने वाली सुविधाओं और राहत शिविरों की हालत तक ही सीमित रखूंगा।

मस्तिष्क में इसकी स्पष्ट रूपरेखा बनने के बाद मैंने बीजापुर के पुलिस अधीक्षक को अपने आने की सूचना देना ही मुनासिब समझा। दोपहर में अंकित गर्ग (पुलिस अधीक्षक) और श्री दास (अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक) से मुलाकात हुई। मैंने उन्हें बताया कि मैं राहत शिविर जा रहा हूं लेकिन मुझे कोई शासकीय मदद नहीं चाहिए क्योंकि यह मेरा नितांत निजी दौरा है और मैं जमीनी हकीकत अपनी आंखों से देखना चाहता हूं। श्री गर्ग ने मुझे कुछ सलाह दी जिन्हें मैंने सहर्ष स्वीकार किया। उस दिन शाम को गंगालूर निकलने का कार्यक्रम था। लेकिन जो टैक्सी गंगालूर जाती थी वो छूट गई। शाम करीब पौने चार बजे इच्छा हुई कि मोटर साइकिल से ही चला जाऊं। मेरे साथ जो स्थानीय लोग थे वे मुझे मना कर रहे थे। तब मैंने दास साहब से सलाह ली, उन्होंने कहा कि अगर 5 मिनट के भीतर आप निकल सकते हैं तो निकल जाइए, अन्यथा कल जाइयेगा। खैर उस दिन भी मुझे बीजापुर में ही रहना पड़ा।

इस बीच बीजापुर में एक निजी विद्यालय भी देखने गया। और बाबूभाई ने मुझे बीजापुर से सटे राहत शिविर दिखाए। शिविर क्या था - एक पंक्ति में घर बने थे, जहां आदिवासी संस्कृति के कोई झलक नजर नहीं आ रही थी। बस्तर के गांवों की जैसी कल्पना मेरे मन में थी वैसा यहां कुछ भी नहीं था। सब ओर एक सन्नाटा था। वहां से नजदीक ही एक छोटी सी पहाड़ी दिख रही थी। पता चला कि उस पहाड़ी पर जो जंगल है, वहां नक्सलियों का कब्जा है। वहीं से आकर नक्सलियों ने बीजापुर के मुर्गााजार मोहल्ले में तीन लोगों की हत्या कर दी थी। बीजापुर जिला महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुश्री नीनाजी से भी मुलाकात हुई। वहां रहने वाले हर व्यक्ति की तरह नीनाजी की भी आंखों में कुछ कर दिखाने की व्याकुलता दिखी। यह दुखद था कि बीजापुर में एक अच्छा जिला अस्पताल भी नहीं है जबकि मुठभेड़ या नक्सली वारदातों में काफी लोग यहां घायल होते हैं।

बीजापुर में रहते हुए तीसरे दिन तक यह साफ हो गया था कि यहां मुझे न कैलेंडर देखना है और न ही समय। बस आगे बढ़ते जाना है। तीसरे दिन ब-मुश्किल दोपहर 12.30 टैक्सी मिली। वहां का बस स्टैंड भी ऐसा है कि अगर दो बस खड़ी हो जाए तो तीसरी गाड़ी वहां प्रवेश नहीं कर सकती। ... तीसरे दिन मेरा गंगालूर का सफर शुरू हुआ और मैंने बाबूभाई से विदाई ली। एक स्कूल की शिक्षिका भी बगल में बैठी थीं। सामने की ड्राइवर वाली सीट के साथ चालक सहित हम 6 लोग बैठे थे। उस कमांडर जीप में छत पर भी लोग बैठे थे। सब यात्री मिलाकर उस गाड़ी में लगभग 45 से 50 लोग सवार थे। ऐसा सफर करते हुए मुझे रोमांच का अनुभव भी हो रहा था। रास्ते में साथ यात्रा कर रहीं शिक्षिका मुझे बताते जा रही थीं कि किस प्रकार सड़क किनारे के गांव उजड़ गए हैं। उजड़े गांव नजर आ रहे थे। सड़क के दोनों ओर एसपीओ, जिला सशस्त्र पुलिस बल और सीआरपीएफ की टुकडिय़ां लगातार गस्त करती भी दिखीं। पोंजेर, जुगमबुड़ा, पदेड़ा जैसे कितने ही गांव नक्सली त्रासदी के कारण उजड़ गए हैं। खंडहर देख कर इमारत के बुलंद होने का अहसास हो रहा था। फिल्मों में चलने वाले फ्लैश बैक के सीन की तरह मेरी आंखों में भी इस गांव पर हमले से पहले के दृश्य घूम रहे थे। ये उजड़े गांव जैसे अपनी कहानी स्वयं कहते लग रहे थे कि यहां भी कभी खुशहाली थी, हमारे गांव में नाच गाना और उत्सव का माहौल होता था।

अब इस मार्ग की 23 कि.मी. की सड़क को कांक्रीट का बनाया जा रहा है इसे पुलिस विभाग ही बनवा रहा है क्योंकि पीडब्ल्यूडी विभाग के अधिकारी वहां आने से कतराते हैं। जंगल के बीच हमारी टैक्सी चलती रही। कभी तेज तो कभी धीमी। तभी एक चेक पोस्ट आया जहां सीआरपीएफ के जवान सर्चटावर में नजर आए। पता चला कि यह चेरपाल राहत शिविर है। जिस घर को सीआरपीएफ के जवान कब्जा किए हुए हैं वहां रहने वाला पूरा परिवार विस्थापित होकर बीजापुर चला गया है। ...यहां से सीधे गाड़ी गंगालूर पहुंची। वहां उतरने के बाद आस- पास जरूर कुछ छोटी-छोटी दुकानें दिखीं, वहां मुझे रमेश (छद्म नाम) से मुझे मिलना था। उन्हें खोजने में कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। मेरे बैठते ही उन्होंने मुझे चाय पिलाई और फिर शुरू हो गया लोगों से मिलने-जुलने का सिलसिला। किसी ने आकर बताया कि गंगालूर थाने के थानेदार सिगार मुझे लेने चेरपाल तक गए हैं। अब उनसे मिलना भी जरूरी हो गया था अत: मैं सीधे थाने पहुंच गया। मैंने देखा वह पूरा थाना परिसर एक छावनी से कम नहीं था। वहां मेरा स्वागत मीठे ताजे पपीता से किया गया। वहां से हम राहत शिविर घूमने निकले। जहां बाजार के रुप में मात्र दो-चार दुकानें हीं थीं के पास पहुंचने पर मुझे सीआरपीएफ का शिविर दिखाई दिया। मेरे अनुरोध पर थानेदार सिगार मुझे कमांडेंट शकील खान से मिलवाने ले गए। वहां करीब एक घंटे तक उनसे चर्चा हुई। चर्चा का मुख्य केंद्र था अलगाववादियों और देशद्रोहियों द्वारा किया जाने वाला छद्म मनोवैज्ञानिक युद्ध। शाम हो चुकी थी, सूरज ढलने लगा तो मैंने दोनों अधिकारियों से विदा ली और फिर राहत शिविरों में रह रहे लोगों के बीच चला गया। मैं शुरु से लेकर अब तक सुनते आए बस्तर के आदिवासी संस्कृति की झलक पाने की लालसा लिए घूम रहा था कि कहीं तो यहां जीवन का वह उल्लास बचा होगा जो इनके जीवन में, इनके रग- रग में समाया होता था। पर मुझे कहीं न वैसा हाट- बाजार मिला, न वहां के पारंपरिक मुर्गे की लड़ाई और न ही आदिवासियों द्वारा खुशी से झूमते हुए किए जाने वाले गीत- नृत्य की झलक। लेकिन इनकी ऐसी स्थिति से रुबरू होने के बाद अपनी इस सोच पर मुझे खुद पर ही शर्म आई कि खौफ के साये में जीते इन आदिवासियों से भला मैं कैसे यह उम्मीद कर सकता हूं कि खुशियों की झलक मुझे देखने को मिलेगी? हां इस जगह पर आकर मुझे महुआ शराब की संस्कृति जरूर जीवित दिखी। मैं कई घरों में गया। हरेक ने अपने-अपने तरीके से मेरा स्वागत किया। सभी ने अपनी परेशानियां बताईं। उन लोगों को मुझसे आशा थी कि मैं उनकी बात सरकार तक पहुंचा सकता हूं। रात के 9 बज चुके थे। अब रात्रि विश्राम का इंतजाम करना था। मेरी इच्छा थी कि मैं किसी आदिवासी के घर पर ही रुक जाऊं, लेकिन थाने में ही मेरे रुकने की व्यवस्था कर दी गई थी।

करैत से सामना

वापसी में थाने की ओर लौटते समय मेरे साथ गांव के एक सज्जन थे जिनके हाथ में टार्च था। वे थोड़ी-थोड़ी देर में टार्च जलाते चल रहे थे। अचानक उन्होंने मुझे धक्का दिया और चिल्ला कर कहा साहब आगे मत बढऩा। मेरी तो समझ में कुछ नहीं आया लेकिन उन्होंने टार्च जला कर दिखाया, सामने लगभग 4 फुट लम्बा करैत सांप था जो बहुत ही धीरे-धीरे चल रहा था। मेरी हालत कांटो तो खून नहीं । वह करैत सांप शायद सर्पयोनी से मुक्ति चाहता था। हल्ला सुन कर कुछ एसपीओ बाहर निकल आए और उन्होंने एक ही वार में सांप को मार डाला। दूसरे दिन सुबह उस सांप की विधिवत अंतिम क्रिया की गई।

एसपीओ के साथ कुछ क्षण

रात को मेरे भोजन की व्यवस्था एसपीओ ने ही की थी। काफी स्वादिष्ट भोजन बना था। भोजन बनते और खाते तक मैं इन जाबांज युवाओं की व्यथा-कथा सुनता रहा। एक बात साफ थी कि इन लोगों में कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। ठीक वही जज्बा जो आजादी के समय स्वतंत्रता सेनानियों को हुआ करता था। इस पूरे सफर में अगर कोई बेखौफ दिखा तो विशेष पुलिस अधिकारियों का यह समूह ही था। बाकी सबके चेहरे पर खौफ का साया मंडरा रहा था। इन एसपीओ को न तो अपनी जान की फिक्र है और न ही अपने सूरतेहाल की। मैं मन ही मन उनके इस जज्बे को नमन करता रहा।

महिलाओं को जागरूक कर रही हैं सिस्टर जूली गंगालूर से मिलकर मैं वापस बीजापुर लौट आया और दूसरे दिन भोपालपट्टनम के लिए रवाना हुआ। मोदकपाल, कोंगूपल्ली, संगमपल्ली, चेरपल्ली जैसे गांव से गुजरते हुए मेरी यात्रा बढ़ रही थी। बीजापुर से आगे मद्देड़ तक तो गोंड़ी बोली सुनाई दे रही थी लेकिन चरपल्ली आते तक आंध्र की तेलुगू संस्कृति का असर भी दिखने लगा था। पहनावे से लेकर बोली तक में फर्क था। यहां नक्सलियों का आतंक तो है लेकिन इस पूरे रास्ते में उसका असर ज्यादा दिखा नहीं। शायद इसका कारण यहां सलवा जुडूम जैसे किसी आंदोलन का न होना है। वैसे भी सलवा जुडूम आंदोलन के बाद नक्सलियों ने भी अपने तेवर में नरमी लाई है।

रात लगभग 8 बजे मैं भोपालपट्टनम पहुंचा। यहां भी स्थिति गंभीर है। यहां भी थाना, छावनी बना हुआ है। पुलिस के जवान बैरक बना कर रहते हैं। यहां के नागरिकों में इतनी दहशत है कि वे थाने नहीं आ सकते। अगर वे थाना पहुंचे तो नक्सली परेशान करते हैं। अब मैं पुलिस थाने में प्रवेश कर चुका था तो बाहर निकलने का सवाल ही नहीं था। रात वहीं विश्राम किया। दूसरे दिन दोपहर में भोजन के बाद यहां के टीआई कंवर साहब और एएसआई देवांगन जी ने मुझे इंद्रावती नदी के किनारे तक छोड़ दिया। यहां से मैंने पैदल इंद्रावती नदी पार की और पातागुड़म नामक गांव तक पहुंचा। वहां से महाराष्ट्र राज्य परिवहन निगम की बस में बैठकर सिरोंचा गया। सिरोंचा से आलापल्ली, चंद्रपुर होते हुए मैं नागपुर पहुंचा। लगभग 7 दिनों तक के लगातार सफर के बाद अपने परिवार के बीच था।

इस पूरी यात्रा में मुझे सबसे अधिक निराशा हुई राहत शिविरों की हालत देख कर। इसके अलावा पुलिस थानों में रहने वाले जवानों की स्थिति देखकर लगा कि इन लोगों को इस नारकीय जीवन से मुक्ति कब मिलेगी। आदिवासियों में मुझे एक ही परिवर्तन दिखाई दिया, पहले यहां के आदिवासी पुरुष लंगोट पहनते थे और अब वे लुंगी लपेटते हैं। आजादी के बाद आदिवासी क्षेत्रों का विकास यानी लंगोट से लुंगी तक।

रोक सकेगी इस कुरीति को बालिका-वधू

रोक सकेगी इस कुरीति को बालिका-वधू
बस इच्छा यही है कि इसकी चमक उन अंधे मां बापों की आंखे खोलने में कामयाब हो जो अंधविश्वासों और कुरीतियों को अपने तर्कों की तलवारें चलाते हुए अपने बच्चों को होम किए जाते हैं....
-तनु शर्मा

बात करें अगर छोटे पर्दे की तो कुछ बात करने लायक नजर नहीं आता....चारों तरफ वही रंगे-पुते नकली और भयावह सास-बहू के चेहरे .......वही एक-एक शॉट के दस-दस रीटेक्स दिखाना.... जब तक कि कोई चैनल ही ना बदल दे......

लेकिन इन सबके उलट चैनल कलर्स पर आने वाला सीरियल बालिका-वधू अपनी लोकप्रियता की सारी सीमाएं लांघ चुका है......बेदम और उबाऊ हो रहे छोटे पर्दे पर बालिका-वधू एक ताज़ी सांस की तरह आया....

इस सीरियल में सब कुछ इतना गुंथा हुआ है कि कहीं कोई कमज़ोर कड़ी नजऱ नहीं आती ....बेहद सादगी के साथ इसका प्रैजेंटेशन, सभी किरदारों का सशक्त अभिनय, केंद्रीय पात्र आनन्दी का भोलापन और मां साब की भूमिका में सुलेखा सीकरी का किरदार इसमें जान डाल देता है।

पूरा सीरियल राजस्थान की पृष्ठभूमि में रचा गया है, हर चीज़ पर इतनी बारीकी से ध्यान दिया गया है....कि कहीं कोई कमी नजऱ नहीं आती......।

लेकिन एक बात जो थोड़ा कचोटती है वो ये है कि क्या सामाजिक बुराई -बाल विवाह--को दिखाने का थोड़ा भी लाभ समाज को मिलेगा...... टीआरपी मिल रही है, पैसा मिल रहा है, लेकिन क्या सामाजिक जागरुकता आ रही है ...... क्या वे मां-बाप जो इसे देख रहे है, पसंद कर रहे हैं......अपने आप को रोक पाएंगे जब आखा तीज़ आएगी और ना जाने कितने ही मासूम आनन्दी और जगिया की तरह इस बंधन में बांध दिए जाएंगे.....।

शायद किसी को याद भी नहीं होगा कि कुछ सालों पहले मध्यप्रदेश के धार जि़ले में एक महिला अधिकारी के हाथ काट दिए गए थे.... जो बाल विवाह जैसी कुरीति का विरोध कर रही थी..... मुझे पूरा विश्वास है कि कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ होगा और किसी को सज़ा नहीं मिली होगी..... क्योंकि हम सब अपनी कानून व्यवस्था के बारे में बखूबी जानते हैं..... हमारे यहां कानूनी तौर पर अवैध घोषित कुरीतियां मरती नहीं हैं.. कोई वक्त गुजर कर भी सचमुच नहीं गुजरता।

इस सीरियल में आनंदी अनगिनत सवाल पूछती है लेकिन उसके जवाब उसे नहीं मिलते.... वह कमसिन, कोमल और निर्मल है और उसके ज़हन में हज़ार सवाल उठते हैं।

इस सीरियल में कहीं कोई कमी नहीं सब कुछ एक खूबसूरत जड़ाऊ हार की तरह.... बस इच्छा यही है कि इसकी चमक उन अंधे मां बापों की आंखे खोलने में कामयाब हो जो अंधविश्वासों और कुरीतियों को अपने तर्कों की तलवारें चलाते हुए अपने बच्चों को होम किए जाते हैं....

राज्य सरकारें भी बातें बड़ीं-बड़ीं करती है लेकिन कुरीतियों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाती...... वोट बैंक के होव्वे ने ही इन कुरीतियों को पाला है और बढ़ावा दिया है।

email- tanusharma100@gmail.com

रंग -बिरंगी दुनिया

50 साल की बार्बी
दुनियाभर की लड़कियों के जीवन का अभिन्न अंग और उनकी सबसे अच्छी दोस्त बार्बी गुडिय़ा ने 09 मार्च 2009 को अपने जीवन के पचास वर्ष पूरे कर लिए। छोटी उम्र की लड़कियों के जीवन में रंग भरती और उनके सपनों को पूरा करती बार्बी सबकी चहेती है। बार्बी का मुख्य आकर्षण उसकी सुडौल काया, तीखे नैन नक्श, खूबसूरत लंबे बाल एवं उसके आकर्षक कपड़े हैं। इन सभी विशेषताओं ने कई पीढिय़ों से लड़कियों को मोहित
कर रखा है।

कुछ चीजें देश, काल और समय से परे यूनिवर्सल होती हैं, ऐसी ही एक छवि है बार्बी डॉल की जो दुनिया भर की बालिकाओं को पिछले 50 साल से लुभा रही है। जी हां दुनिया की नंबर वन फैशन गुडिया बार्बी ने इस वर्ष 9 मार्च को अपने जीवन के पचास साल पूरे कर लिए। दुनिया भर में लाखों बच्चियों की पसंदीदा गुडिय़ा आज भी बिल्कुल सुन्दर और जवान है। दरअसल अपने इस लम्बे कैरियर में बार्बी लगभग 12 देशों के लोगों और उनकी संस्कृति को अपना चुकी है।

नौ मार्च 1959 को न्यूयार्क में अमेरिकन अन्र्तराष्ट्रीय खिलौना मेले में बार्बी को पहली बार दुनिया के सामने लाया गया था, तब से लेकर अब तक बार्बी और दुनिया के बच्चों के प्यार की कहानी चलती आ रही है। यह एक पहली ऐसी गुडिय़ा है जो युवती के रुप में प्रस्तुत की गई है। और अब 50 साल की हो जाने के बाद भी उतनी ही जवां उतनी ही सुंदर बनी हुई है।

अमेरिका में आज भी 3 से लेकर 10 साल तक की 70 फीसदी बच्चियों के पास बार्बी है। दुनिया में हर सेकेंड तीन बार्बी बिकती है। अब आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि बार्बी दुनिया भर के बच्चों के लिए क्या मायने रखती है।

बार्बी को जन्म देने वाली

बार्बी गुडिय़ा को जन्म देने वाली रुथ हैंडलर थीं। हैंडलर ने इस खूबसूरत गुडिय़ा का नाम अपनी बेटी बारबरा के नाम पर रखा था। बार्बी का जन्म उस वक्त हुआ था जब हैंडलर ने अपनी बेटी को बच्चों के खिलौनों की जगह फैशन मॉडलों के कटआउट के साथ खेलते हुए देखा था। बार्बी के अलावा हैंडलर ने बार्बी के बॉयफ्रेंड केन की रचना के साथ बार्बी की बहन स्किपर और अन्य कई पात्र भी बनाए थे। जिनका नामकरण उन्होंने अपने नाती-पोतों के नामों के आधार पर किया था। बार्बी की यह जन्मदाता हैंडलर ने अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि बार्बी को बनाने के पीछे यह विचार था कि इस गुडिय़ा के माध्यम से हर छोटी बच्ची वह हो सके जिसकी वह कल्पना कर सके। साथ में ही बार्बी यह भी दर्शाती है कि औरतों के पास विकल्प है।

पचासवें साल पर एंजिला का लुक
बार्बी के पचास साल पूरे होने पर जर्मनी के नुरेमबर्ग में 60वें इंटरनेशनल टॉय फेयर में बार्बी को जर्मनी की पहली महिला चांसलर एंजिला मार्केल (54) का लुक दिया है। अब बार्बी डॉल उन्हीं की तरह ब्लॉन्ड बॉब कट हेयर स्टाइल और क्रिस्पी टेलर्ड जैकेट पहने नजर आएगी। मैटल कनाडा ने मशहूर डिजाइनर ब्रैंड्स की मदद से बार्बी थीम पर प्रॉडक्ट लाइंस तैयार की हैं।

विवादों से बढ़ी लोकप्रियता

बार्बी को लेकर जितने भी विवाद हुए वे इसकी लोकप्रियता को ही साबित करते थे। अक्सर यही दलील दी जाती कि बच्चे इसे कॉपी करने की कोशिश करते हैं। 1992 में मैटल कंपनी ने टीन टॉक बार्बी लॉन्च की। इस टॉकिंग बार्बी के कुछ डायलॉग से ही विवाद खड़ा हो गया। बार्बी के बेहद स्लिम फिगर को लेकर भी खूब आलोचनाएं हुईं। पैरंट्स की दलील रही कि उनकी बेटियां कहीं एनरॉक्सिक न हो जाएं।

कुछ मुस्लिम देशों ने इसे पश्चिमी संस्कृति का हमला कहकर इसका बहिष्कार करते हुए बार्बी को मात देने 'फुल्ला', 'सारा' व 'डारा' जैसी दूसरी डॉल लॉन्च की। इनका कहना था कि बार्बी इस्लाम के आदर्श के मुताबिक नहीं है। 2003 में सऊदी अरब में बार्बी डॉल की बिक्री रोक दी गई। प्रतिद्वंद्वी ब्रैट्ज डॉल्स से मिल रही टक्कर के बावजूद बार्बी बाज़ार पर पकड़ बनाए हुए है।

एक सेकेंड में तीन बॉर्बी डॉल की बिक्री

पहली बार बार्बी डॉल ब्लॉन्ड या ब्रूनेट हेयर कट वाली जेब्रा डिजाइन का स्विमसूट पहने थी। तब इसे टीनएज फैशन मॉडल के रूप में प्रचारित किया गया और पहले ही साल में इसकी बिक्री ने 3 लाख 50 हजार बार्बी डॉल का आंकड़ा छू लिया। कुछ समय पहले मैटल कंपनी की ओर से दावा भी किया गया कि दुनिया में हर एक सेकंड में तीन बार्बी डॉल खरीदी जाती हैं। अब तक दुनिया के 150 से भी ज्यादा देशों में करीब एक अरब से ज्यादा बार्बी डॉल बिक चुकी हैं। बीते पचास साल में बार्बी के इस क्रेज को बरकरार रखने के लिए कंपनी ने काफी मेहनत की। बार्बी के फिगर से लेकर उसके चेहरे, आंखों के उभार और बालों के स्टाइल में काफी तब्दीली हो चुकी है। बार्बी को अब तक सौ से ज्यादा कैरियर मिल चुके हैं।

बढ़ती लोकप्रियता के चलते बार्बी के साथ उसकी एसेसरीज, बुक्स, फैशन आइटम और विडियो गेम्स भी बने। बार्बी ऐंड दि डायमंड कैसल नाम से बार्बी पर एनिमेशन फिल्म भी बनाई गई। 1974 में न्यूयॉर्क सिटी के टाइम्स स्क्वेयर के एक हिस्से का नाम एक सप्ताह के लिए बार्बी बोलीवर्ड कर दिया गया था। बार्बी पर लिखे गए नॉवेल्स में बार्बी की कहानी को तरह-तरह से गढ़ा गया है। बॉयफ्रेंड केन के अलावा उसके कई दोस्त और पेट्स हैं। नैशनल रिटेल फेडरेशन की ओर से 2006 में पैरंट्स पर कराए गए सर्वे के मुताबिक बार्बी लड़कियों की पसंदीदा टॉय है।

बार्बी ने दिया जीवन जीने का मकसद

जीवन के सतरंगी सपनों की सैर कराती बार्बी ने कई लड़कियों को जीवन जीने का मकसद दिया है। न्यूयॉर्क की नैन्सी पारसन्स का कहना है कि उसकी बड़ी बहन ने बचपन में बार्बी को नर्स की पोशाक में देखा था, जिसका यह असर हुआ है कि वो स्वयं आज एक नर्स है। इसी प्रकार न जाने कितनी लड़कियां अंतरिक्ष यात्री, आर्मी, डॉक्टर, राष्ट्रपति पद की दावेदार, गोताखोर और न जाने क्या-क्या बनने की ठान चुकी होंगी।
(उदंती फीचर्स)

हिन्दी में मनहूस रहने की परंपरा


बीसवीं सदी में हिंदी व्यंग्य की समृद्ध परंपरा रही है जिसे अंतिम और निर्णायक रूप से परसाई युग माना गया। इस बीते युग ने हिंदी व्यंग्य की जो पुख्ता जमीन तैयार की है उस जमीन पर खड़े रहना भी बाद की पीढ़ी के व्यंग्य लेखकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। आज जब इक्कीसवी सदी का एक दशक निकलने को है तब आज के सक्रिय व्यंग्यकारों के लिए लिखने का मतलब है अपनी दमदार पुरखौती के सामने खड़े होना। कविता की ही तरह यह विकट चुनौती व्यंग्य लिखने वालों के सामने भी है। कुछ इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर व्यंग्य का यह स्तंभ '21 वीं सदी के व्यंग्यकारÓ शुरु किया जा रहा है जिसमें हम आज के सक्रिय व्यंग्य कर्मियों को लगातार छापने के बहाने व्यंग्य की आगे की संभावनाओं को तलाशने का भी यत्न करेंगे। हर लेखक की रचना हमें चर्चित व्यंग्यकार विनोद साव के सौजन्य से प्राप्त होगी, माकूल टिप्पड़ी के साथ। इस पहली कड़ी की शुरुआत हम ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य से कर रहे हैं।

ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य साहित्य में पिछले दो दशकों से सक्रिय हैं। हिंदी व्यंग्यकारों की भीड़ में ज्ञान का लेकन तकरीबन 'ए फेस एबव द काउड' की तरह है। हिंदी व्यंग्य अपनी विरासत को और कितना समृद्ध कर पाया है यह चर्चा बाद में होगी पर प्रकाशन की दृष्टि से ज्ञान चतुर्वेदी समृद्ध हुए हैं और फिलहाल पत्र-पत्रिकाओं में छाए हुए हैं। इसमें संदेह नहीं कि ज्ञान ने बगैर आलोचकों के समर्थन के अपनी जमीन को खुद पुख्ता किया है। कथ्य, भाषा और शैली के स्तर पर भी वे एक प्रयोगधर्मी लेखक बनकर उभरे हैं। उनकी भाषा में एक खास किसम का दरदरापन है। लगता है वे बिगड़ी हुई शक्तियों पर बघनखा पहनकर मार करना चाहते हैं, वह भी उनकी छाती पर सवार होकर बघनखे से उनकी छाती खुरचते हुए। उनका यही निजी और मौलिक दरदरापन उन्हें अपने समय के लेखकों से अलग खड़ा करता है, उन्हें अपनी ज्यादा प्रभावकारी मुद्रा में। व्यंग्य लिखते समय उनमें एक खास किसम की मस्ती भी होती है, उनकी इसी मस्ती से भरी हुई एक रचना 'हिंदी में मनहूस रहने की परंपरा' यहां प्रस्तुत हैं।

हिन्दी में मनहूस रहने की परंपरा

                                                                                           -ज्ञान चतुर्वेदी

हिंदी साहित्य में गंभीर रहने पर विकट जोर है। साहित्य के स्तर से ज्यादा जोर मनहूसियत की मात्रा पर। आप अच्छा साहित्य रचें और ज्यों-ज्यों अच्छा रचते जायें, त्यों-त्यों और गंभीर होते चले जायें- हिंदी में यह अलिखित नियम-सा है। और बाकायदा इसे माना तथा सराहा जाता है। धीरे-धीरे हुआ यह है कि यह नियम इस कदर हिंदी साहित्य जगत पर काले कानून की तरह छा गया है कि सारा जोर गंभीर रहने पर हो गया है, साहित्य रचना प्रासंगिक नहीं रहा। आप रचें, न रचें या जैसा रचना हो रचें। बहुत से लोग यहां मात्र इसी कारण से बड़े पाये के साहित्यकार कहलाये जाने लगे क्योंकि उनमें गंभीरता कूट-कूटकर भरी थी। वे बचपन से ही मनहूसियत के शिकार थे, उदास रहते थे, झोले जैसा लम्बा- सा मुंह लटकाये घूमते थे, गोष्ठियों में यूं जाते थे, मानों किसी के उठावने पर पहुंचे हों- बस, इन्हीं कारणों से वे हिंदी के ख्यातनाम साहित्यकार हुए।

हिंदी साहित्यकार का एक विशिष्ट पोज है। आप हिंदी की किताबें उठाकर देखिये, यदि उसमें लेखक का फोटो छपा होगा, तो आप उसे देखकर मेरी बात समझ पायेंगे। हर लेखक मनहूसियत की सीमा तक गंभीर। वह न जाने कहां देख रहा है तथा न जाने क्या सोच रहा है - पर सोचते हुए नितांत गंभीर हैं, सो कोई ऊंची बात ही सोच रहा होगा, ऐसा जतला रहा है वह। हिंदी में मनहूसियत को ऊंचे चिंतन की निशानी मान लिया गया है। एक जमाने में हिंदी साहित्याकारों, विशेषतौर पर कवियों के बीच फोटो खिंचवाने का एक पोज बड़ा लोकप्रिय हुआ करता था, जिसमें वे अपनी ठुड्डी के नीचे हाथ के पंजे का सहारा देकर उदास आंखों से उस ओर देखकर फोटो खिंचाते थे, जिस ओर प्राय: फोटोग्राफर के स्टूडियो में कंघा-शीशा लटका रहता है। छायावादी कवियों में तो खैर यह अत्यंत लोकप्रिय पोज हुआ करता था, पर बाद के बहुत से प्रगतिशील मित्रों ने भी ऐसे गंभीर फोटो खिंचवाये और कविता, कहानी आदि के साथ छपवाये। अच्छी रचना के साथ ऐसा फोटो आम पाठक पर एक रुआब-सा छांटता, उसे थानेदारी अंदाज में धमकाया हुआ आगाह करता था कि बेट्टा, हमें अपने जैसा आम आदमी मत समझ लेना। लेखक एक विशिष्ट जन है, यह सिद्ध करने के लिए ऐसे फोटो काफी थे। वैसे हाथ पर ठुड्डी रखकर कितनी देर ठीक-ठाक चिंतन किया जा सकता है, यह अपने आप में चिंता का विषय हो सकता है। मैंने तो रखकर देखा। पहले तो ठुड्डी पर उगी दाढ़ी के पैने बाल ही गडऩे लगे, और सारा ध्यान उस तरफ ही चला गया। फिर हाथ दर्द करने लगा। फिर भी मैंने गंभीर चिंतन की जी-तोड़ कोशिश जारी रखी, तो गर्दन टेढ़ी होने लगी। एकमात्र गंभीर या जैसा भी कहिये वैसा विचार जो इस प्रकार बैठकर मेरे मन में आया, वह यही था कि यार कब तक ऐसा बना बैठा रहेगा तू- ठीक से क्यों नहीं बैठता? और यह रोना मुंह क्या बनाये हैं तू?

बाप मर गया क्या? बात क्या है? उदास क्यों है? यह गंभीरता का क्या चक्कर है? तो मेरे से तो नहीं सधा। पर मैंने देखे हैं ऐसे हिन्दी के पुरोधा, जो घंटों ऐसे ही पोज में बैठे-बैठे पुरी गोष्ठी निकाल देते हैं। वे न केवल ऐसी सायास मनहूसियत ओढ़ते हैं, वरन लगातार चौतरफा देखते रहते हैं कि आस-पास वाजिब असर हो रहा है या नहीं? और असर होता भी है। हिन्दी साहित्य में यह नुस्खा अचूक है। असर होता ही है। लोग दूर से हाथ पर टिकी ठुड्डी या घुटनों तक लटक आये मुंह को देखकर ही बता सकते हैं कि इस गोष्ठी में कौन कितना बड़ा साहित्यकार है। यूं भी ऐसी मुद्रा साधना आसान नहीं है। मेहनत तथा साधना लगती है। शुरु-शुरु में आप कुछ मिनटों तक ही ऐसा कर पाते हैं और थोड़ी देर बाद अपनी औकात अर्थात् ही-ही, ठी-ठी पर आ जाते हैं। पर ज्यों-ज्यों हिन्दी साहित्य में गहरे धंसते हैं, त्यों-त्यों आप इसे लम्बे समय तक प्राणायाम की भांति खींचना सीख जाते हैं। धीरे-धीरे आप पूरी गोष्ठी या सामारोह ही इसी मनहूसियत के साथ सफलतापूर्वक निकाल ले जाना सीख जाते है। फिर एक दिन वह भी आता है कि आपको मनहूसियत में ही मजा आने लगता है। तब आप हिन्दी साहित्य के साथ सफलतापूर्वक निकाल ले जाना सीख जाते हैं। फिर एक दिन वह भी आता है कि आपको मनहूसियत में ही मजा आने लगता है। तब आप हिंदी साहित्य की एक अनिवार्य शर्त वह भी मानने लगते हैं कि आपको मनहूस होना ही होगा। साहित्य रचने और गंभीर रहने के बीच सीधा तार जोड़ लेते हैं आप। आपको डर लगने लगता है कि गंभीर नहीं रहे तो अच्छा साहित्य नहीं रच पायेंगे आप, या आपके रचे साहित्य को शायद कोई गंभीरता से लेगा नहीं। पहले आप गोष्ठियों, सार्वजनिक स्थानों तथा लोगों के सामने ही गंभीर रहते हैं ताकि लोग आपको अच्छा हिंदी लेखक मानें, परंतु फिर यह आपकी आदत हो जाती है। आप पूरे मनहूस हो जाते हैं और यही कारण है कि हिंदी साहित्यकारों की पत्नियां प्राय: हिन्दी साहित्य के विरुद्ध हैं, जिसने उनके अच्छे खासे पति को ऐसा मातमी बना दिया।

हिन्दी लेखकों के परिचय में प्राय: कहा जाता है कि अमुकजी हिन्दी कहानी के (या कविता या नाटक या जिस भी विधा के फटे में वे अपनी डेढ़ टांग फंसाये बैठे हो, उसके) गंभीर प्रणेता हैं। कैसे हैं वे? बड़े गंभीर हैं वे। वे गंभीरतापूर्वक कहानी लिख रहे हैं, सो महान हैं। उनका फोटो देखकर बच्चे मां से चिपक जाते हैं और मां 'उई मां' करने लगती है। वे जो अभी गोष्ठी में पधारे, वे जो अभी कॉफी हाउस से निकले, वे जो अभी मुख्यमंत्री के बंगले में अपनी किताब की सरकारी खरीद का डौल जमाकर बाहर आये, वे जो अभी चोरी की रचना को फेरबदल कर अपनी बनाकर डाक के बंबे में डालकर पान की दुकान पर खड़े हुए, वे जो अपने समकालीन लेखक की अच्छी रचना पढ़कर जल-भुन गये और उसकी टांग खींचने के लिए कूच कर रहे हैं, वे जो अपना सारा कचरा समेटकर ग्रंथावली के कचरेदान में डालने ले जा रहे हैं, वे जो पुरस्कारों के शिकार पर निकले हैं, वे जो उस कमेटी की बैठक से निकलकर इस कमेटी में बैठे ऊंघ रहे हैं, वे जो कस्बा-कस्बा हिंदी कहानी-कविता आदि की दुर्दशा का रोना फस्र्ट क्लास का किराया वसूलते तथा चेला-चांटी पनपाते रोते घूम रहे हैं, वे जो हिंदी साहित्य के उदीयमान हैं, वे जो हिंदी साहित्य में मात्र शौकीन तबीयत के कारण घुसे हैं और इसे ताशपत्ती की भांति मानते हैं, वे जो तुकबंद हैं, वे जो अपनी उसी कहानी-कविता या व्यंग्य को अपने चार अलग-अलग संकलनों में डालकर किताबों का ढेर तैयार कर रहे हैं, वे जो जहां-जहां भी जैसी भी 'हिंदी कर रहे हैं'- वे तथा ये, इन सबमें एक ही बात समान है कि ये सभी गंभीर हैं। हिंदी में तो भई, जो करना, गंभीर होकर करना। कुछ नहीं भी करना, तो गंभीर होकर ही करना। बिना महसूस दिखे हिंदी में गुजारा नहीं। बड़ा सरल-सा सिंद्दात है। मुंह लटकाइये और रुआंसे होकर हिंदी साहित्य के दरवाजे की घंटी बजाइये। वे झांकेंगे और मनहूसियत नापने का फीता आपके लटके मुंह पर लगाकर नापेंगे, फिर मुस्कराकर कहेंगे कि आइये, हिंदी साहित्य में पधारिये। बस, यही एक दुर्लभ क्षण होगा, जब वे मुस्करायेंगे। वरना तो एक सतत स्यापा है, जो हिन्दी साहित्यकारों के बीच चल रहा है।

ए-40, अलकापुरी, भोपाल- 462024

आलेख

छत्तीसगढ़ को अमरकंटक क्यों नहीं मिलना चाहिए
- आचार्य रमेन्द्र नाथ मिश्र

छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के दौरान काफी प्रयास किया गया था कि अमरकंटक को छत्तीसगढ़ में शामिल कर लिया जाए। तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में अजीत जोगी ने भी इस मामले में काफी रुचि ली थी, पर उस समय मध्यप्रदेश के दिग्गज नेताओं के विरोध की वजह से सफलता नहीं मिल पाई थी। अब अपनी दूसरी पारी में छत्तसीगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने भी अमरकंटक को छत्तीसगढ़ से जोडऩे के मुद्दे पर कहा है कि अमरकंटक से यहां के लोगों की भावनाएं जुड़ी हुईं हैं तथा हम इसका सम्मान करते हैं और सरकार इसके लिए हर संभव कोशिश करेगी।

छत्तीसगढ़ देश का एक ऐसा भू-भाग है जो उत्तर- पूर्व पश्चिम भारत को जोड़ता है। यह सांस्कृतिक एकता की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। अतीत से अद्यतन यहां पर सर्व धर्म सम भाव एवं सामाजिक समरसता की भावना रेवा (नर्मदा), चित्रोत्तपला (महानदी) के निरंतर प्रवाहमयीं जलधारा के सदृश्य विद्यमान है। प्राचीनकाल से लेकर महारानी विक्टोरिया के प्रत्यक्ष प्रशासन के पूर्व तक अमरकंटक छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहां के एक गढ़ करक्कट्टी से जुड़ा एवं पेंड्रागढ़ के अंतर्गत अमरकंटक रहा है। यह समूचा क्षेत्र रतनपुर के हैहयवंशी राजाओं के अधिकार में सदियों तक रहा तथा उनके पराभव के बाद मराठा शासकों के अधिकार में आया। नागपुर के भोसला राजा रघुजी तृतीय के प्रशासन के अंतर्गत छत्तीसगढ़ प्रांत में अमरकंटक था। यह सब ऐतिहासिक दस्तावेज हैं जो प्रमाणित करते हैं कि अमरकंटक छत्तीसढ़ के भूभाग में आता है।

रतनपुर राज्य के इतिहासकार बाबू रेवाराम की कृति तवारिख श्री हैहय वंशी राजाओं की तथा पं. शिवदत्त शास्त्री के रतनपुर आख्यान छत्तीसगढ़ी की कृति में अमरकंटक का उल्लेख कुछ इन शब्दों में हुआ है- लाफा, विंध्याचल, मेकल, तुम्मानखोल, नर्मदा, अमरकंटक क्षेत्र रतनपुर राज्य की परिसीमा में था। यहां के राजा जीवन के अंतिम दिनों में तपस्या करने के लिए अमरकंटक में रहते थे। राज पाट अपने युवराज पुत्र को सौंप देते थे। गंगा तीर्थ नर्मदा या श्री क्षेत्र अमरकंटक में रतनपुर के राजा यज्ञ भी करते थे। अधिकांश राजा इस पुण्य भूमि में मृत्यु को प्राप्त करते थे।

छत्तीसगढ़ सीमा घाट क्षेत्र अमरकंटक लांजी तक बताया गया है। सन् 1838 के भोंसला राजा के समय के कागजात के बस्ते से जो जानकारी मिली है उससे यह पिंडरा नर्मदा नदी के तीर में मेकल पहाड़ है। तपस्वी लोग बहुत रहते आये ऐसा कहा जाता है। सबब, उस जगह में भी तपस्या किये होंगे। यह पिंडरा (पेंड्रा) मेकल पहाड़ के घाट पर बसा है अत: पुराण में मेकल पहाड़ और नर्मदा महात्म व नर्मदा खंड पुरान में आवती है। केंदा पहाड़ी जगा है नर्मदा का तट वही पुन्य भूमि है ना जाने बहुतेरे जोगी लोग तपस्या किये होंगे, जग्य भी ऋषि लोग किये होंगे।

अमरकंटक को छत्तीसगढ़ में क्यों होना चाहिए इसके कई और भी प्रमाण हमारे इतिहस में दर्ज हैं जैसे रतनपुर के राजा ने पेंड्रा जमींदारी की स्थापना 15वीं शताब्दी (संवत् 1533 ई व 1476) के उत्तरार्ध में किया था। इसके अलावा 1860 में रायपुर के डिप्टी कमिश्नर एवं 1867 के चीजम की रिपोर्ट में अमरकंटक का उल्लेख मिलता है। यूरोपीय यात्री कैप्टन ब्लंट ने 1795 में इस अंचल की यात्रा की थी। जनरल कंर्निधम की रिपोर्ट में भी इस अंचल की यात्रा की जानकारी मिलती है। 1857 की क्रांति में सोहागपुर में बेरन साहब (बेरन वॉम मेयरन) ने विप्लवकारियों के दमन का प्रयास किया था, जिसमें रीवां राज्य का सहयोग रहा। क्रांति के बाद पेंड्रा जमीदारी के दक्षिण-पश्चिम सीमावर्ती अमरकंटक को अंग्रेजों ने दबावपूर्ण जमीदार से लेकर रीवां के राजा को सहयोग के फलस्वरूप उपहार में दे दिया था। इसके बाद भी अंग्रेजी राज के अंतर्गत छत्तीसगढ़ पीडब्ल्यूडी विभाग द्वारा पेंड्रा से अमरकंटक तक सड़क बनाई गई थी, क्योंकि तीर्थ यात्री इसी मार्ग से अमरकंटक जाते थे और उनकी सुरक्षा का दायित्व पेंड्रा के जमींदार पर रहता था।
उपरोक्त उद्धरणों से यह प्रतीत होता है कि प्राचीन पांडुलिपियों में रतनपुर की लौकिक परंपरा में अमरकंटक छत्तीसगढ़ का अविभाज्य अंग रहा है। इस संबंध में यदि अन्य कोई अभिलेखीय प्रमाण, ताम्र पत्र आदि हैं तो उनका अध्ययन किया जाना चाहिए जैसे रींवा राजा के अभिलेखागार के स्त्रोतों का अध्ययन होना चाहिए ताकि तथ्य और सत्य उजागर हो सके। कुल मिलाकर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक दृष्टि से अमरकंटक आज भी छत्तीसगढ़ से संबंद्ध है। इस नाते अमरकंटक को छत्तीसगढ़ राज्य में होना चाहिए।

आज अमरकंटक की जनता छत्तीसगढ़ राज्य में रहना चाहती है। उनके जीवन यापन के साधन पेंड्रा रोड से ही संपादित होते हैं।
संयोगवश छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश में एक ही विचारधारा की सरकार है अत: समस्या का समाधान सकारात्मक रूप से भी हो सकता है। नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक जो छत्तीसगढ़ में है इस सत्य को स्वीकारते हुए मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा के गौरव को भी स्वीकारना है, क्योंकि नर्मदा का समग्र अधिकांश भाग तो मध्यप्रदेश में ही है। यदि यह नर्मदा गुजरात में जाकर समुद्र में मिलती है तो वह क्षेत्र गुजरात का ही रहेगा। तो क्या गुजरात भी अमरकंटक पर दावा करे। अत: इसे राजनीतिक परक विचारों से दूर रखकर जनता के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक भावनाओं के परिप्रेक्ष्य में महान नदी नर्मदा की महानता को अक्षुण रखा जाए। हमें उसे भौगोलिक सीमा से परे राष्ट्र की धरोहर के रूप में हमें स्वीकारना होगा। अमरकंटक में उपलब्ध कल्चुरी कालीन मंदिर भी इस बात के घोतक हैं कि सांस्कृतिक दृष्टि से उस युग में भी सामंजस्य एवं सद्भावना की भावना नीहित थीं।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राष्ट्र के ही एक अंग हैं। अत: भेद भाव न करते हुए इसे छत्तीसगढ़ का अमरकंटक के रूप में यथार्थ बोध को आत्मसात करना होगा। भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर नर्मदा के उद्गम से लेकर कपिलधारा तक उस पार मध्यप्रदेश में रहे और इस पार को छत्तीसगढ़ राज्य की सीमारेखा के रूप में भी स्वीकारा जा सकता है। इससे दोनों राज्यों को फायदा होगा। पर्यटन की दृष्टि से विकास का अवसर मिलेगा और तब लोग अमरकंटक के महत्व को अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिपादित करने में सहभागी बनेंगे। अमरकंटक में सोननदी, गुलबकावली का बगीचा नर्मदा कुंड, कपिल धारा तथा दूध धारा तथा कल्चुरी कालीन मंदिर जैसे स्थल हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इस पुण्य स्थल के दर्शन से सर्वजनीय लाभ होगा। संप्रति यही सद्भाव एक सार्थक पहल होगा।

छत्तीसगढ़ से प्रति वर्ष 30 हजार पर्यटक

1065 मीटर की ऊंचाई पर विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमालाओं के बीच
स्थित हरा-भरा अमरकंटक प्रसिद्ध तीर्थ और पर्यटन स्थल है।
क्या खास: जलेश्वर महादेव, सोनमुड़ा, भृगु कमंडल, धूनी पानी, दुग्धधारा,
नर्मदा का उद्गम, नर्मदा मंदिर व कुंड, कपिलधारा, दूधधारा, माई की
बगिया, सर्वोदय जैन मंदिर।
धार्मिक महत्व: नर्मदा को समर्पित कई मंदिर, कल्चुरि काल के मंदिर,
जैन मंदिर और नर्मदा कुंड।
शहर से दूरी: कटनी बिलासपुर रेल लाइन पर पेंड्रा से 42 कि.मी.।
बिलासपुर से बाई रोड 110 कि.मी.।
कितने पर्यटक: हर माह छत्तीसगढ़ से करीब 25 से 30 हजार पर्यटक
अमरकंटक पहुंचते हैं।