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Mar 1, 2023

उदंती.com, मार्च- 2023

वर्ष - 15, अंक – 

होली आई है!   

फणीश्वरनाथ रेणु

साजन! होली आई है!               

सुख से हँसना                           

जीभर गाना                              

मस्ती से मन को बहलाना        

पर्व हो गया आज-                  

साजन! होली आई है!               

हँसाने हमको आई है!

                                   इस अंक में

अनकहीः कुरीतियों का अंत कैसे हो? - डॉ.  रत्ना वर्मा

होली पर विशेषः रंगों की बौछार का आनंद - रमेशराज

कविता- 20 मार्च गौरैया दिवसः नीड़ बना ले - शशि पाधा

होली पर विशेषः नर-सिंह अवतार का व्यावहारिक पक्ष - प्रमोद भार्गव

कविता- 8 मार्च महिला दिवसः नारी तो सृजन है - प्रणति ठाकुर

कविताएँः 8 मार्च  महिला दिवसः ग्रामीण स्त्रियाँ - हरभगवान चावला

30 मार्च- रामनवमीः रामचरित मानस में पर्यावरण-संरक्षण - डॉ. लालचन्द गुप्त ‘मंगल’

यात्रा वृत्तांत- स्मृतियों में बैंगलोरः  जैसे बाग- बगीचे के झुरमुठ में झाँकना... - विनोद साव

कविता- 8 मार्च महिला दिवसः सोई हुई औरतें - डॉ. शिप्रा मिश्रा

ललित लेखः  चिठ्ठी आई है... - प्रियंका गुप्ता

18 मार्च- वैश्विक पुनर्चक्रण दिवसः प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान के लिए वैश्विक संधि

बाल कविता- 22 मार्च विश्व जल दिवसः पानी जीवन का आधार - डॉ. कमलेन्द्र कुमार

प्रदूषणः  सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध 

मिलेट्स का अंतर्राष्ट्रीय वर्षः मोटे अनाज से सुधरेगी दुनिया की सेहत - अपर्णा विश्वनाथ

स्वास्थ्यः भविष्य के लिए मोटा अनाज - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कहानीः सुचरिता - भारती बब्बर

व्यंग्यः रामगढ़ में गब्बर-गान - जवाहर चौधरी

लघुकथाः ख़ूबसूरती -  डॉ. उपमा शर्मा

कविता- 8 मार्च महिला दिवसः बोनसाई स्त्री - डॉ. शुभ्रा मिश्रा

पुण्य तिथि- 4 मार्चः शिवरीनारायण और ठाकुर जगमोहन सिंह - प्रो. अश्विनी केशरवानी

जीवन दर्शनः मोह के मायाजाल से मुक्ति  -विजय जोशी

अनकहीः कुरीतियों का अंत कैसे हो?

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

समाज में व्याप्त किसी रूढ़िवादी परंपरा के विरोध में जब कभी कोई अभियान आरंभ किया जाता है, तो समाज के सभी वर्ग उसका समर्थन करते हैं और दिल से चाहते हैं कि वह बुराई जल्द से जल्द खत्म हो; परंतु पिछले महीने असम सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ गिरफ्तारी का जो अभियान शुरू किया है, इसको लेकर अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली। 
दरअसल राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रिपोर्ट के अनुसार, सबसे ज्यादा मातृ और शिशु मृत्यु दर असम राज्य की है और इसका सबसे बड़ा कारण बाल- विवाह को माना गया है। इस आँकड़े से चिंतित असम राज्य कैबिनेट ने पिछले माह  ही 14 साल से कम उम्र की लड़कियों से शादी करने वाले को, यौन अपराधों से बच्चों के लिए संरक्षण अधिनियम, 2012 (पॉक्सो) के तहत गिरफ्तार करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। इसके बाद ही असम में हजारों की संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया और असम के मुख्यमंत्री का दावा है कि लोगों में बाल विवाह को लेकर जागरूकता आने लगी है। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार 2026 तक बाल विवाह को समाप्त कर देगी। 
परंतु असम सरकार द्वारा बाल विवाह रोकने के लिए किए जा रहे गिरफ्तारी के इस तरीके पर गुवहाटी हाईकोर्ट ने भी बेहद सख्त टिप्पणी की है, यह कहते हुए कि- ‘सरकार के इस अभियान ने लोगों की निजी जिंदगी में तबाही ला दी है’।
हुआ यह है कि इस अभियान के तहत असम में लगभग 3000 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। कई मामलों में बाल विवाह करने वाले आरोपियों के न मिलने पर पुलिस परिवार के दूसरे सदस्यों को पकड़कर ले गई है । यही नहीं किसी परिवार में वर्षों पहले भी बाल-विवाह हुआ है, तो उनके भी रिश्तेदार गिरफ्तारी के डर से छुपते फिर रहे हैं। यही वजह है कि कोई भी बाल विवाह को रोकने के इस तरीके का समर्थन नहीं कर रहा है।
 हम सभी जानते हैं कि बाल विवाह की समस्या आज की कोई नई समस्या नहीं है। अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों के चलते बाल-विवाह की कुप्रथा सदियों से चली आ रही है, जो आज बढ़कर एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है। बाल विवाह किसी भी बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में बाधक बनता है। शिक्षा के अवसर कम हो जाते हैं। कम उम्र में विवाह का लड़के और लड़कियों दोनों पर शारीरिक, बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव पड़ता है। हमारे देश में अभी भी लड़के और लड़की के बीच किए जा रहे भेदभाव के कारण इसका दुष्परिणाम लड़कियों पर अधिक पड़ता है। उन्हें घरेलू हिंसा, दुर्व्यवहार और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से भी लड़कियाँ ही सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। 
देश के विभिन्न राज्यों में इस समस्या को लेकर समय-समय पर विभिन्न अभियान चलाए जाते रहे हैं और जिसके सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं। आँकड़े भी इस बात की गवाही देते हैं कि यदि किसी सामाजिक कुरीति को दूर करने के लिए कारगर कदम उठाए जाएँ, तो किसी भी बुराई को समाप्त किया जा सकता है। जैसे- नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आँकड़ों के अनुसार 1992-93 में 20 से 24 साल उम्र की विवाहित महिलाओं में 54 फीसदी की शादी 18 साल से कम उम्र में हुई थी। यह अनुपात 2005-06 तक आते- आते 47 फीसदी और 2019-21 तक 23 फीसदी के आँकड़े पर आ गया है। 
बाल- विवाह को रोकने के लिए पहले से कानून हैं, कानून में कई बदलाव भी किए जाते रहे हैं । उसके बाद भी यह समस्या हमारे देश में बनी हुई है। सवाल  यह है कि बाल- विवाह को समाप्त करने का सबसे अच्छा तरीका क्या हो सकता है। जाहिर है मात्र कानून का डंडा दिखाकर इस बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता। हमारे कानूनविद् और समाजशास्त्री भी यह मानते हैं कि शिक्षा के बेहतर अवसर, स्वास्थ्य सम्बन्धी जागरूकता और आर्थिक विकास के साथ बाल विवाह का प्रचलन अब कम होते जा रहा है। इसमें समय अवश्य लगता है पर इसके परिणाम दूरगामी और स्थायी होते हैं। यदि असम सरकार भी गिरफ्तारी जैसे उपाय न अपना कर इन उपायों को गंभीरता से अपनाती तो असम राज्य सरकार को कोर्ट के साथ आम लोगों की ऐसी फटकार न मिली होती। 
असम में हो रहे बाल विवाह वहाँ की सामाजिक आर्थिक स्थिति के अनुसार अन्य राज्यों के मुकाबले अलग अवश्य हो सकते हैं पर उसे रोकने के लिए राजनीति पैंतरेबाजी अपनाना और जनता को जेल में भरना समस्या का इलाज नहीं है। यह जनता में आक्रोश ही बढ़ाएगा, ऐसा न हो कि एक सामाजिक समस्या राजनीति की भेंट चढ़ जाए। अतः बेहतर तो यही होगा कि कानून को अपनी जगह अपना काम करने दिया जाए और समाज में व्याप्त बाल विवाह के कारणों का अध्ययन कर परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न जागरूकता अभियान को बिना किसी फायदे नुकसान के समाज के हित में तेजी से चलाया जाए। समाज के कुछ मुद्दों को जब तक राजनीति से ऊपर रखकर नहीं देखा जाएगा समाज और देश की उन्नति संभव नहीं है। 
अतः आइए सब मिलकर सदियों से व्याप्त इस कुरीति को जड़- मूल से नाश करने में अपनी भागीदारी निभाएँ। यह तभी संभव है जब शासन- प्रशासन, कानून और विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ मिलजुलकर जिम्मेदारी पूर्वक इसके विरूद्ध काम करेंगी तो निश्चित ही देश बाल विवाह के मकड़जाल से मुक्त होगा।

होली पर विशेषः रंगों की बौछार का आनंद

 - रमेशराज

होली शरारत, नटखटपन, मनोविनोद, व्यंग्य-व्यंजना, हँसी-ठट्ठा, मजाक-ठिठोली, अबीर, रंग, रोली से भरा हुआ एक ऐसा त्योहार है जो रंगों की बौछार के मध्य अद्भुत आनंद प्रदान करता है। कुमकुम और गुलाल से रंगे हुए गाल गवाही देते हैं कि हर तरफ मस्ती ही मस्ती है। बूढ़े या जवान सबके अधरों पर बस एक ही तान-‘होली है भई होली है।’

 इस त्योहार से पन्द्रह दिन पूर्व और पन्द्रह दिन बाद तक हर कोई अद्भुत आनंद से भरा हुआ बस एक ही टेर लगाता है-‘होली खेल री गुजरिया, डालूँ में रंग या ही ठाँव री!’

 होली खेलने वाली हुरियारिन होली खेलते हुए मादक चितवन के वाणों के प्रहार सहते हुए कहती है-‘मति मारै दृगन के तीर, होरी में मेरे लगि जाएगी।’

 होली पर इतनी मस्ती क्यों छाती है? इसका सीधा-सीधा सम्बन्ध शीतलहर की ठिठुरन के बाद रोम-रोम को गुनगुनी सिहरन प्रदान करने वाले बदले हुए मौसम से होने के साथ-साथ किसान की पकी हुई फसल से भी है।

 इस पर्व का प्राचीन नाम ‘वांसती नव सस्येष्टि है अर्थात् वसंत ऋतु के नये अनाज से किया हुआ यज्ञ। तिनके की अग्नि में भुने हुए [अधपके ] शमोधान्य [ फली वाले अन्न ] को होलक कहते हैं। होली होलक का अपभ्रंश हैं।

 पौराणिक मतानुसार होलिका हिरण्यकशिपु

 नामक दैत्य की बहन थी। उसे वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकशिपु का एक पुत्र प्रह्लाद विष्णु का उपासक था। प्रह्लाद कहता था - ‘कथं पाखण्ड माश्रित्य पूजयामि च शंकरम।’ अर्थात् मैं पाखण्ड का सहारा लेकर शंकर की पूजा क्यों करूँ ? मैं तो विष्णु की पूजा करूँगा।’’

 हरिणकश्यपु ने प्रह्लाद की इस विष्णु-भक्ति से कुपित होकर एक दिन अपनी बहिन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठने को कहा। होलिका ने ऐसा ही किया। विष्णु की कृपा से होलिका तो अग्नि में जलकर भस्म हो गयी किन्तु प्रह्लाद बच गया।

 उक्त पौराणिक कथा से इतर यदि हम इस त्योहार के प्रचलन पर विचार करें तो किसी भी प्रकार के अन्न की ऊपरी परत को होलिका कहा जाता है और उसी अन्न की भीतरी परत (गिद्दी) को प्रह्लाद बोलते हैं | होलिका को माता इसलिए माना जाता है; क्योंकि वह इसी गिद्दी (गूदा) की रक्षा करती है। यदि यह परत न हो तो चना, मटर, जौ आदि का विकास नहीं हो सकता। जब हम गेहूँ-जौ आदि को भूनते हैं तो उसके ऊपर की परत अर्थात् होलिका जल जाती है और गिद्दी अर्थात् प्रह्लाद बचा रहता है। अधजले अन्न को होलिका कहा जाता है। सम्भवतः इसी कारण इस पर्व का नाम होलिकोत्सव है।

 होलिकोत्सव फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। होली वाले दिन घर-घर भैरोजी और हनुमान की पूजा होती है। पकवान, मिष्ठान, नमकीन सेब, गुजिया, टिकिया आदि स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किए जाते हैं। छोटी होली वाले दिन शाम को घर में तथा सार्वजनिक स्थल पर रखी होली की पूजा सूत पिरोकर और फेरे लगाकर की जाती है। रात्रि बेला में होली में आग लगाकर लोग कच्ची गेहूँ और जौ की बालियाँ भूनते हैं और भुनी हुई बालियों को एक दूसरे को भेंट कर गले मिलते हैं। ज्यों-ज्यों रात्रि ढलती है और बाद में सूरज अपनी गर्मी बिखेरता है, यह सारा मिलने-मिलाने का कार्यक्रम एक-दूसरे को रंगों  से सराबोर करने में तब्दील हो जाता है। पुरुष, नारियों पर पिचकारियों और बाल्टियों से रंग उलीचते हैं, नारियाँ पुरुषों पर डंडों की बौछार करती हैं। होली का पर्व हर हृदय पर प्यार की बौछार करता है। यह त्योहार वर्ण-जाति, ऊँच-नीच के भेद मिटाने वाला ऐसा पर्व है जिसमें हर कोई भाईचारे एवं आपसी प्रेम से आर्द्र होता है।

सम्पर्कः15/109, ईसानगर, अलीगढ़ , मो. 8171455889

कविताः 20 मार्च गौरैया दिवस - नीड़ बना ले


- शशि पाधा

अरी गौरैया, चुग ले दाना

जब तक रहते खेत हरे।

 

देर नहीं जब इन खेतों में

कंकर-पत्थर बिछ जाएँगे

गगन चूमते भवन मंजिलें

धूमिल बादल मँडराएँगे

अरी  गौरैया, नीड़ बना ले

जब तक दिखते पेड़ हरे।

 

जंगल-पर्वत, बाग़- बगीचे

पोखर- झरने कल की बात

न आँगन, न लटके छींके

न तसला, न नेह परात

अरी गौरैया प्यास बुझा ले

जब तक नदिया नीर बहे

 

सुनसुन तेरी चहक-कुहकुही

आँख खुली थी धरती की

पत्ती-पत्ती डाली- डाली

छज्जा-खिड़की हँसती सी

अरी गौरैया, जी भर जी ले

जब तक निर्मल पवन बहे।

होली पर विशेषः नर-सिंह अवतार का व्यावहारिक पक्ष

 - प्रमोद भार्गव
भारत का इतिहास दुनिया का प्राचीनतम इतिहास है। उन दिनों इतिहास लेखन की परंपरा नहीं थी। अतऐव जो भी राज्यों के शासक और शूरवीर थे, उनकी गाथाएँ रूपकों और अलंकरणों में गढ़कर सुनाए जाने की लोक-परंपराएँ आरंभ हो गई थीं। इस दृष्टि से विष्णु के नरसिंह अवतार से जुड़ी दो घटनाओं, एक ‘होलिका-दहन’ और दूसरी ‘नर-सिंह’ के विलक्षण रूप का व्यावहारिक पक्ष कुछ इस तरह संभव है। वराह अवतार में विवरण है कि हिरण्याक्ष नाम का दैत्य, ब्रह्मा जब सो रहे थे तब पृथ्वी को चुरा कर समुद्र में छिप गया था। विष्णु ने वराह के रूप में अवतरित होकर पृथ्वी को मुक्ति दिलाई। इससे विष्णु की लोक में प्रसिद्धि बढ़ने के साथ उनके अनुयायी भी बढ़ गए।

 हिरण्याक्ष की मौत से उसका भाई हिरण्यकशिपु व्याकुल हो उठा। विरक्ति और अवसाद से घिर गया। इस मानसिक व्याधि से मुक्ति के लिए कैलाश मानसरोवर पर जा पहुँचा। देवताओं ने इसे उचित अवसर माना और अपनी बिखरी सांगठनिक शक्तियों को एकजुट कर दैत्य-राज्य पर अचानक हमला बोल दिया। हिरण्यकशिपु की अनुपस्थिति में देवता जीत गए। किंतु इस जीत से उन्मादित होकर देवों ने भी वही भूलें कीं जो अकसर दैत्य करते रहे थे। विजय मद में चूर देवों ने हिरण्यकशिपु की गर्भवती पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया। देवताओं के इस कृत्य को ऋषियों ने अनैतिक व युद्व के नियमों के विपरीत माना और देवों की निंदा की। विष्णु ने भी इस कृत की भर्त्सना  की। इस निंदा से देवों को अपनी गलती का अनुभव हुआ। फलस्वरूप उन्होंने कयाधु को असुर-राज्य भेजने का निर्णय लिया। लेकिन कयाधु का अपने ही साम्राज्य में प्रत्यागमन असंभव हो गया। क्योंकि देवों से हुए इस युद्ध में हिरण्यकशिपु के अनेक निकटतम सभासद् व सेना-नायक हताहत हो चुके थे। स्वयं हिरणकशिपु अज्ञातवास पर थे। गोया, कयाधु को ऋषियों के आश्रम में ऋषि-पत्नियों के संग छोड़ दिया।

 कयाधु गर्भवती थी। नौ माह पूरे होने पर उसने पुत्र को जन्म दिया। ऋषियों ने इस सद्यजात शिशु का नाम प्रह्लाद रखा। जैसे-जैसे प्रह्लाद बड़ा हुआ वैसे-वैसे उसके बाल-मन पर देव संस्कृति और विष्णु भक्ति का प्रभाव पड़ता चला गया। कुछ वर्ष के पश्चात हिरण्यकशिपु को जब अपने दूतों से देवों के आक्रमण और कयाधु के अपहरण की जानकारी मिली तो उसका आक्रोशित होना स्वाभाविक था। वह इस सूचना के मिलते ही अपने नष्ट-भ्रष्ट कर दिए गए राज्य लौटा। उसने दौड़-धूप करके छिन्न-भिन्न हो गई सैन्य-शक्ति का फिर से पुनर्गठन किया और देव-सत्ता से लड़ने के लिए उद्यत हो गया। हालांकि हिरण्यकशिपु के राज्य में लौटने के बाद देवों ने कयाधु और प्रह्लाद को वापस भेज दिया था।

 सैन्य-शक्ति का पुर्नगठन होते ही हिरण्यकशिपु ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया। मद और भोग में डूबे देव पराजित हुए और इंद्रलोक पर हिरण्यकशिपु का अधिकार हो गया। हिरण्यकशिपु ने इंद्र के महल में रहकर समस्त देव शक्तियों को अपने नियंत्रण में ले लिया। तब देवों ने हिरण्यकशिपु को संधि के बहाने इंद्रलोक से विस्थापन का उपाय सोचा। गोया, ब्रह्मा के सभापतित्व में ब्रह्म-सभा हुई। सभा में दोनों पक्षों ने समझौते की दृष्टि से अपनी-अपनी शर्तें रखीं। देवों ने हिरण्यकशिपु की शक्ति, श्रेष्ठता और इंद्रलोक पर विजयश्री को स्वीकारा। साथ ही वचन दिया की भविष्य में कोई देव और न ही उनकी मित्र जातियाँ, दैत्य साम्राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे। देवो के मित्र मानव, गरुड़ और समुदाय के लोग हिरण्यकशिपु के राज्य और राज्य-भवनों पर दिन हो या रात, अस्त्र या शस्त्र से हमला नहीं बोलेंगे। हाथी या घोड़े पर सवार होकर भी राज्य और राजप्रासादों पर आक्रमण नहीं करेंगे। आकाशगमन करते हुए भी हमला नहीं करेंगे। देवों द्वारा ब्रह्मा के समक्ष इन वचनों के पालन की सौगंध लेने पर हिरण्यकशिपु ने देवलोक का परित्याग कर दिया।

इस वचनबद्धता के उपरांत देवों की तरफ से निश्चिंत हुआ हिरण्यकशिपु अपने राज-काज और परिवार पर ध्यान केंद्रित करने लगा। किंतु प्रह्लाद की विष्णु-भक्ति और देव-संस्कृति के प्रति उसकी आसक्ति से हिरण्यकशिपु अचंभित रह गए। अपने ही घर में अपने ही संतति से मिल रही चुनौती ने दैत्यराज को मानसिक रूप से परेशान कर दिया। हिरण्यकशिपु समझ गया कि ऋषियों के आश्रम में पलने के दौर में प्रह्लाद के अपरिक्व अवचेतन में विष्णु के स्थापित मूल्यों की यह प्रतिच्छाया नियोजित ढंग से प्रक्षेपित की गई है। प्रह्लाद के मन-मस्तिष्क से इस छाया को मिटाने के कई प्रयत्न किए। उसे धमकाया। राज्योचित सुविधाओं से पृथक् कर देने की चेतावनी दी। परंतु प्रह्लाद की मनस्थिति कभी नहीं बदलने वाली नियति बनी रही। तत्पश्चात प्रह्लाद को मौत की नींद सुला देने का निर्णय लिया। इस हेतु उसके शयन-कक्ष में सर्प छोड़े गए। उसे पर्वत-चोटियों से फेंका गया। लेकिन प्रह्लाद था कि मरा नहीं। इतने उपायों के बाद भी जब प्रह्लाद नहीं मरा तो जन-मानस में यह भाव जागने लगा कि प्रह्लाद की अदृश्य रूप में  श्रीहरि विष्णु रक्षा कर रहे हैं और वह उनकी अनुकंपा से मृत्युञ्जयी हो गया है। मृत्यु के इन प्रयासों ने प्रह्लाद के मन में विपरीत असर डाला। परिणामस्वरूप वह देव-संस्कृति का मुखर प्रवक्ता बन गया।

     अनार्य संस्कृति का उपासक हिरण्यकशिपु यह कैसे बरदाश्त करता कि उसका अपना खून ही देश की मान्यताओं और मूल्यों पर कुठाराघात करे? गोया, हिरण्यकशिपु की सहनशाीलता जबाव दे गई। अंत में उसने अपनी बहन होलिका पर प्रह्लाद को मृत्यु के हवाले कर देने का कठिन दायित्व सौंप दिया। होलिका आग से खेलने में सिद्धहस्त थी। अर्थात वह ऐसे तकनीकी उपाय जानती थी, जिनका प्रयोग कर आग, गर्म तेल व पानी का उस पर कोई असर नहीं होता था। अग्नि-रोधी वस्त्रों के निर्माण और उन्हें पहनकर आग की लपटों से खेलने और खौलते तेल अथवा पानी में उतर जाने में भी वह दक्ष थी। हालांकि होलिका ने बालक प्रह्लाद के साथ इस तरह का धत-कर्म करने में आना-कानी की, लेकिन जब शासक हिरणकशिपु ने ऐसा ही करने का आदेश दिया तो होलिका मजबूर हो गई। आखिरकार प्रह्लाद उसका भतीजा था। गोया, उसका हृदय हा-हाकार कर उठा। उसका मातृत्व जाग उठा। फलस्वरूप उसने जो अग्नि-रोधक रसायन थे, उनका लेप स्वयं के शरीर पर करने की बजाय प्रह्लाद के शरीर पर कर दिया। जिस चूनरी को ओढ़कर उसे खौलते तेल में प्रह्लाद को लेकर उतरना था, उसे प्रह्लाद के अंग-वस्त्र बनाकर पहना दिया और स्वयं वैसी ही साधारण चूनरी ओढ़ ली। नतीजतन जब वह तेल के खोलते कड़ाहे में प्रह्लाद को गोदी में लेकर उतरी तो स्वयं तो जल मरी, किंतु प्रह्लाद बच गया। बुआ थी, अपने भतीजे को अपने ही हाथों कैसे मार देती ? युग-परिवर्तन से पहले जो संक्रमणकाल आता है, उस कालखंड में सर्वस्व न्योछावर की बानगियाँ आम हो जाती हैं।  होलिका का यह आत्मघाती बालिदानी स्वरूप हमारी लोक-परंपरा में आज भी बदस्तूर है। हम होली के अवसर पर होलिका के दहन होने के उपरांत उसकी भस्म को भभूत के रूप में सेवन करते हैं।

प्रह्लाद के आश्चर्यजनक ढंग से बच जाने के संदेश से जहाँ हिरण्यकशिपु का क्रोध चरम पर पहुँच गया, वहीं जनता ने इसे विष्णु-भक्ति का चमत्कार माना। फलस्वरूप अनेक जन-समुदाय प्रह्लाद के पक्ष में आकर खड़े हो गए। इसी दौरान जन-समूहों को सूचना मिली कि क्रोध की ज्वाला के वशीभूत हुआ हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मारने के लिए महल में प्रयत्नशील है। इस संदेश के मिलते ही जन-समूह सभी मर्यादाओं और बाधाओं का उल्लंघन करते हुए महल में प्रवेश कर गए। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद की इस लोकप्रियता और उससे उपजे जन-विद्रोह से लगभग अनभिज्ञ था। अलबत्ता हिरण्यकशिपु तलवार से जब प्रह्लाद की गर्दन धड़ से अलग करने के लिए आगे बढ़ा, वैसे की आक्रोशित और अराजक हुए नरों (मनुष्यों) के समूह ने हिंसा की तरह निर्दयी होकर हिरण्यकशिपु पर चारों ओर से हमला बोल दिया। इस प्रकार इस नर+ सिंह अर्थात् नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को मौत के घाट उतार दिया।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

कविताः 8 मार्च महिला दिवस - नारी तो सृजन है

 - प्रणति ठाकुर

नारी तो सृजन है ।

है पिता के स्नेह और

माँ की मधुर ममता से सिंचित,

वो तो उनकी कल्पना और

प्रेम का सुन्दर मिलन है ।

नारी तो सृजन है ।

 

माँ, बहन, बेटी, सखी,

सहधर्मिणी और प्रेयसी है,

सुरचित, सुन्दर नीड़ की

निर्मात्रि, सुखदा, श्रेयसी है,

वो तो स्वप्नों का सदन है।

नारी तो सृजन है ।

 

कल के सुन्दर स्वप्न को

अपने रुधिर से सींचती है,

विघ्न -बाधाओं से भिड़

उसको हृदय से भींचती है,

देवदारु और वटवृक्षों की

वो जननी, भुवन है ।

नारी तो सृजन है ।

 

है सदा उपेक्षिता

उत्पीड़िता और शोषिता वो,

स्वप्न के अपने सदन से,

है सदा निर्वासिता वो,

वो तो अपने सद्विचारों, संस्कारों

का रुदन है ।

नारी तो सृजन है!

नारी तो सृजन है!!

कविताएँः 8 मार्च महिला दिवस - ग्रामीण स्त्रियाँ


 - हरभगवान चावला

1.

थककर लेटीं ग्रामीण स्त्रियाँ

पति या पुत्र की पदचाप सुनते ही

तुरन्त उठकर यूँ बैठ जाती हैं

कि कहीं पकड़ा न गया हो

उनके लेटने का गुनाह।

2.

ग्रामीण स्त्रियों की नींद में

जाग्रति हमेशा मौजूद रहती है

नींद में भी उन्हें ख़याल रहता है

कि कहीं कटड़ा न पी जाए

रात में अपनी माँ का सारा दूध

कि कहीं साँड चर न जाएँ खेत

कि कहीं राख होने से बची न हो कोई चिंगारी

कि कहीं किवाड़ की साँकल खुली न रह गई हो

कि कहीं नशे की झोंक में फिसल न जाए पति

कि कहीं भूखा तो नहीं सो गया हो कोई बच्चा

बार-बार जागती है ग्रामीण स्त्रियों की नींद पर

ग्रामीण स्त्रियाँ नींद न आने की शिकायत नहीं करतीं।

3.

ग्रामीण स्त्रियों को सुनती है

रात में होने वाली बारिश की

सबसे पहली बूँद की आवाज़

सबसे पहले वे चूल्हा ढकती हैं

फिर उपलों को भीतर घसीटती हैं

फिर सँभालती हैं बाहर छूटे कपड़े

बस इतनी ही देर वे बारिश से

सब्र करने की मनुहार करती हैं।

4.

जैसे-जैसे बढ़ती है

ग्रामीण स्त्रियों की उम्र

इनकी गोद बड़ी होती जाती है

आँखें उदास।

सम्पर्कः 406, सेक्टर-20, सिरसा-125055 ( हरियाणा)

30 मार्चः रामनवमी- रामचरित मानस में पर्यावरण- संरक्षण

 - डॉ. लालचन्द गुप्त ‘मंगल’

परि़+आङ्+वृञ (वरणे) +ल्युट् (अन) = ‘पर्यावरण का अर्थ है- चारों ओर से आच्छादित करने वाला; जिससे हम आवृत्त है; जो हमारे चारों ओर विद्यमान है। पर्यावरण को पंचतत्त्व /पंचभूत (धरती, जल, तेज, वायु आकाश) द्वारा निर्मित प्राकृतिक जगत् भी कह सकते हैं। यह दुनिया, यह पर्यावरण, यह प्रकृति अन्योन्याश्रित एवं अविभाज्य अंग की तरह कार्य करती है। पर्यावरण का यह स्वरूप, संतुलित आकार-प्रकार हमारे अस्तित्व और विकास के लिए आवश्यक ही नहीं. अनिवार्य भी है। ध्यान रहे, जब इस पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है अथवा कर दिया जाता है, तो यह प्रदूषण का रूप धारण करके मानव-जीवन के लिए अनिष्टकारी हो उठता है। आज समूचा विश्व पर्यावरण-प्रदूषण की विभीषिका को भोगने के लिए अभिशप्त है, क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन एवं दुरुपयोग से पर्यावरण-प्रदूषण एवं प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई है। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन परत की क्षीणता तथा परमाणु हथियारों का प्रतिस्पर्धात्मक निर्माण एवं दुरुपयोग आदि इस पर्यावरण-प्रदूषण के मुख्य कारक है ।

यहीं यह बताना भी उचित रहेगा कि अतीतकालीन भारत में भी नारायणास्त्रों, पाशुपतास्त्रों और ब्रह्मास्त्रों आदि का प्रयोग होता रहा है, लेकिन, आज के हथियारों के सामने, इन्हें बाल-पतंग के समान माना गया है--फलस्वरूप उस काल में पर्यावरण- प्रदूषण की कोई गंभीर समस्या कभी दिखाई नहीं पड़ी।

स्मरण रहे विश्व-राजनेता चिन्ता करें, न करे, संवेदनशील साहित्यकार तो चिन्ता करता ही है। यही कारण है कि संसार में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ में भी शुद्ध पर्यावरण और उसके संरक्षण की मनोरम झाँकियाँ देखने को मिलती हैं। वस्तुतः, भारतीय वाङ्मय में, अनादिकाल से ही, प्रकृति की अर्चना-आराधना की अनवरत भावधारा बहती रही है। ‘सुजलाम्, सुफलाम्, शस्यश्यामलाम्’ वाली पृथ्वी से हमारे साहित्यकारों के आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं। इस दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास का योगदान भी अप्रतिम माना जाएगा।

तुलसीदास ने मानव को शरीर और मन का संघात मानते हुए उसकी शारीरिक शुचिता और स्वास्थ्य पर उतना ही बल दिया है, जितना मानसिक पवित्रता और आचरण की मर्यादा पर। उन्होंने मानव-शरीर को सब जीवधारियों के शरीर से उत्कृष्ट माना है। काकभुशुण्डि के आश्रम में, सत्संग-लाभ के दिनों, गरुड़ ने उनसे जो सात प्रश्न पूछे थे, उनमें से पहला यही था कि संसार में सबसे दुर्लभ शरीर किसका है

? उत्तर में काकभुशुण्डि ने मानव-काया को सर्वोत्कृष्ट बताते हुए उसे, सभी चराचर प्राणियों के लिए स्पृहणीय बताया था; क्योंकि यह मानव-काया ही है, जो मंगलकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति प्रदान करने वाली है तथा नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है -

नर तन सम नहि कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत तेही ।।

नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी । ग्यान विराग भगति सुभ देनी ।।

- मचरितमानस, 7/120 (ख)

तुलसी के अनुसार, जो लोग इस शरीर का दुरुपयोग करते हैं, वे पारसमणि को गँवाकर काँच के टुकड़े ही प्राप्त करते हैं--

काँच किरच बदले तें लेही । कर ते डारि परसमनि देहीं ।।

-रामचरितमानस, 7/120 (ख)

शारीरिक स्वास्थ्य की चरम परिणति मानसिक संतुलन में होती है । अंगरेज़ी की भी एक प्रसिद्ध कहावत है – ‘sound mind in a sound body’, यह तथ्य भी सर्वज्ञात ही है कि मनुष्य का समग्र व्यवहार मन द्वारा ही निर्धारित और संचालित होता है। तुलसी के अनुसार, जब परिवेश की विकृति मन को विकृत-कलुषित कर देती है, तो मनुष्य के वचन और कर्म में भी विकृति आ जाती है -

वचन विकास, करतबउ खुआर, मनु

विगत-विचार, कलिमल को निधानु है ।

- कवितावाली, 7/64

वास्तव में, वैचारिक विकृति ही समस्त विकृतियों की जड़ है। काम, क्रोध, मोह, मद आदि मनोरोगों से मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न होती है, जो सारे भ्रष्टाचारों की जड़ है । कहना न होगा कि कलियुग में इनका प्राबल्य है-

साँची कहौ, कलिकाल कराल!

मैं ढारो-बिगारो तिहारो कहा है।

काम को, कोह को, लोभ को मोह को

मोहि सों आनि प्रपंच रहा है ।।

-कवितावली, 7/101

लोभ मोह काम कोह कलिमल घेरे है। - कवितावली. 7/174

इस प्रकार, विचार और आचार के विकृति विस्तार को देखकर तुलसी युग को मलयुग तक कह डाला है -

नाम- ओट अब लगि बच्यो, मलयुग जग जेरो ।

- विनयपत्रिका, 146/4

तुलसीदास ने मानसिक और शारीरिक विकृतियों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध माना है। मानसिक विकृति से बुद्धि-बल का तो क्षय होता ही है, शारीरिक तेजस्विता भी क्षरित हो जाती है।

इमि कुपथ पग देत खगेसा । रहन तेज तन बुधि बल लेसा ।।

- रामचरितमानस, 3/27

तुलसी का व्यक्तित्व मांगलिक तत्त्वों से विनिर्मित है, इसलिए वे अमंगलकारी तत्त्वों के सहज विरोधी है। फलस्वरूप रामचरितमानस के प्रथम श्लोक में ही उन्होंने वर्णों, अर्थों रसों, छन्दों और मंगलों की सृष्टि करने वाली वाणी और विनायक की स्तुति करके अपना जीवन-दर्शन स्पष्ट कर दिया है -

वर्णानामर्थ संधानां रसानां छन्दसामपि ।

मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ।। 

   - रामचरितमानस, 1/1

तुलसी के राम मंगल के भवन और अमंगल का परिहार करने वाले हैं -

मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ।।

- रामचरितमानस 1/111(2)

इसीलिए तुलसीदास -

होइहहि रामचरन अनुरागी कलिमल रहित सुमंगल भागी ।।

- रामचरितमानस, 1/14 (6)

इन राम के राज्य में निवास करने वाले लोगों की शारीरिक, मानसिक और आचारिक स्थिति का वर्णन तुलसीदास ने इस प्रकार किया है-

बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग ।

चलहिं सदा पावहि सुखहि नहिं भय सोक न रोग ।।

- रामचरितमानस, 7/20

दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि व्यापा ।।

- रामचरितमानस, 7 /20 (1)

अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब विरुज सरीरा ।।

 - रामचरितमानस 7/20 (3)

इसका कारण क्या है? इसका कारण है. यहाँ विद्यमान स्वच्छ-स्वस्थ परिवेश, निर्मल-उज्ज्वल वातावरण और गुणकारी सुखकारी पर्यावरण उदाहरण स्वरूप, तुलसी साहित्य में प्राकृतिक शक्तियों, पर्वतों, वनों वृक्षों, आश्रमों, जलाशयों और तीर्थों आदि के प्रति गहन आत्मीयता और पूजा भावना के दर्शन होते हैं। गंगा, यमुना, सरयू आदि नदियों, चित्रकूट पर्वत प्रयागराज तीर्थ काशी और अयोध्या आदि नगरीय तीर्थों की स्तुतियाँ गाई गई हैं। दैहिक, दैविक, भौतिक ताप हरने वाली देवनदी गंगा को तो जगन्माता तक कहा गया है-

तो बिनु जगदम्ब गंग, कलिजुग का करित ?

- विनयपत्रिका. 19 (3)

वस्तुतः, प्राकृतिक जीवन की यह सकारात्मक योजना मानस में यत्र-तत्र सर्वत्र उपलब्ध है। यहाँ कंद, मूल, फल का सेवन तो होता ही है, यथावसर दूध, दही, शहद और अंकुरित अन्न आदि भी प्रयोग में लाए जाते हैं । तुलसी के राम जहाँ भी विश्राम करते हैं, वहाँ पर्णकुटी का निर्माण अवश्य करते हैं और कुशा तथा कोमल पत्तियों की सौंधरी (शय्या बिछाते हैं। उनके मार्ग में पढ़ने वाला शायद ही कोई ऐसा जलाशय, नदी या सरोवर हो, जिसमें उन्होंने सीता-लक्ष्मण सहित, स्नान न किया हो । राम-लक्ष्मण द्वारा वटवृक्ष के दूध से जटाएँ बनाने का उल्लेख भी मिलता है -

सकल सौच करि राम नहावा । सुचि सुजान बट छीर मगावा ।।

अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए ।।

- रामचरितमानस, 2/93 (2)

सीता को, राम के साथ, प्राकृतिक परिवेश कितना पारिवारिक और आत्मीय लगता है, उसका भव्य चित्रण मानस में उपलब्ध है, देखिए -

परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा । प्रिय पिरवार कुरंग विहंगा ।।

सास ससुर सम मुनितय मुनिवर । असनु अमिय सम कद मूल फर।।

नाथ साथ सौंधरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई ।।

- रामचरितमानस, 2/139 (3)

स्पष्ट है कि तुलसी ने सारे जग को सीता- राममय मानकर ही मानस की रचना की है ‘सिय राममय सब जग जानी’ वाले संसार में किसी भी प्रकार की विकृति की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे जगत् में तो विकृति नहीं, संस्कृति ही बसती है । तुलसी का रामकाव्य इसका ज्वलंत प्रमाण है ।

अन्त में, यह अवश्य कहना चाहूँगा कि प्रकृति और पर्यावरण की तन-मन-धन से पूजा-अर्चना करने वाला मेरा यह देश आज दुर्भाग्य से, पर्यावरण प्रदूषण की भयावह परिस्थितियों से घिरा हुआ है। हम भूल चुके हैं कि पंचभूतों के संतुलित चक्र से ही यह ब्रह्माण्ड संचालित है और जितने दिनों तक यह पृथ्वी बचेगी उतने दिनों तक ही हम और हमारी भावी पीढ़ियाँ बचेंगी। जब तक मन रूपी हाथी, विषय-रूपी दावानल में जलता रहेगा, तब तक जन-कल्याण संभव नहीं है। इसलिए वाह्य एवं आंतरिक पर्यावरण की सुरक्षा, सात्विकता, महत्ता और उपयोगिता को जानने-समझने के लिए रामचरितमानस रूपी सरोवर में गोते लगाना ही श्रेयस्कर रहेगा -

मनकरि, विषय-अनल बन जरई ।

होइ सुखी जौं एहि सर परई ।।

- रामचरितमानस, 1/34(4)

सम्पर्कः डॉ. लालचन्द गुप्त ‘मंगल’, मंगल भवन, 1218/13, शहरी सम्पदा, कुरुक्षेत्र-136 118 (हरियाणा). 01744-225374, 227236, 09896707075

यात्रा वृत्तान्तः स्मृतियों में बैंगलोर जैसे बाग- बगीचों के झुरमुट में झाँकना...

 - विनोद साव

अपनी स्मृतियों में बैंगलोर को खंगालना वैसे ही है जैसे बाग-बगीचों के झुरमुट में उसे झाँकना। हम यहाँ तीसरी बार आए थे, पहली बार 1982 में 18 दिनों की सम्पूर्ण दक्षिण भारत यात्रा में एक विशेष बस से आए थे। रात हमारे टूरिस्ट एजेंट ने हमें एक साफ-सुथरे गुरुद्वारे में रुकवा दिया था। गुरुद्वारा प्रबंधक ने कहा था कि “यहाँ दाढ़ी बनाना मना है।”

रात हम यहाँ सो गए थे। जब मॉर्निंग वॉक के लिए बाहर निकले तब हम इस अनूठे शहर को देखते रह गए थे जैसे हम किसी शहर में नहीं किसी सुन्दर उपवन में विचरण कर रहे हों। हर घर और उनकी दीवारें सुन्दर- सुन्दर फूलों, बेल-बूटों से ढकी हुई थी। उनके मकान मकानों की तरह नहीं किसी हरियाली से सजे आधुनिक रिसोर्ट या कॉटेज की तरह लगते। ऐसे लगता जैसे हम किसी शहर में नहीं किसी विशाल उद्यान में चले जा रहे हों जिसके मार्ग चौराहे सब फूलों-फ़व्वारों से भरे हुए हैं। तब जाना कि ऐसे ही नहीं इस शहर को ‘गार्डन सीटी’ कहा गया है। यहाँ वनस्पति उद्यानों का विशाल बगीचा ‘लालबाग’ है। बाहर ठेलों में इस बाग के फल फूल बिकते हैं। चालीस साल पहले तब एक रुपये बोतल में अंगूर के मीठे ताजे रस मिल गए थे। जब पीने बैठे तब कई बोतलें खाली हो गईं।

अपने शीतल सदाबहार मौसम और हर किस्म की सुविधाओं के कारण सेवानिवृति के बाद रहने बसने के लिए यह हमेशा उपयुक्त शहर रहा है इसलिए इसे पेंशनर्स पैराडाइज़ कहते हैं। यहाँ के बाजारों और शहरी इलाकों के मकान देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले कहीं अधिक सुन्दर और कलात्मक हैं। अब भले ही यह ऑटोमोबाइल प्रदूषण के कारण कम शीतल होता जा रहा है जैसे पुणे पहले हो चुका है। ट्रैफिक जाम एक बड़ी समस्या हो गई है। अब हम लोग व्हाइटफील्ड में रुकते हैं। इस इलाके का  नाम यूरोपीय और एंग्लो इंडियन एसोसिएशन के संस्थापक डी.एस. व्हाइट के नाम पर है। यह आई.टी.हब है और यहाँ रियल एस्टेट का बड़ा कारोबार है।

तब बैंगलोर के सिनेमाहॉल बड़े भव्य और खूबसूरत थे। बैंगलोर के इतिहासकार सुरेश मूना कहते हैं - ‘कभी यहाँ डेढ़-सौ सिनेमाहाल थे। हमने वहाँ के सबसे भव्य टाकीज ‘राज-राजेश्वरी’ को देखा था जहाँ एशिया का पहला 70- एम एम पर्दा लगा था। दिलीपकुमार-अमिताभ बच्चन दो दिग्गज अभिनेताओं के शक्ति प्रदर्शन से भरी फिल्म ‘शक्ति’ हमने देखी। हम फिल्म ‘कुली’ की बहुचर्चित अमिताभी दुर्घटना के बाद पहुँचे थे। बैंगलोर रेलवे स्टेशन में ‘कुली’ की शूटिंग हुई थी। जिसके बाद इंदिरा गाँधी भी उस घायल हीरो को देखने बैंगलोर के अस्पताल आ पहुँची थीं। तब हाथ जोड़ते हुए उन्होंने कागज में लिखकर इंदिराजी को दिया “आई कान्ट स्पीक” तब इंदिरा जी ने उनके माथे को अपने स्नेहसिक्त हाथों से छूते हुए कहा था “बट आई कैन स्पीक माय चाइल्ड।”

उस समय बैंगलोर का गाइड हमें घुमाते हुए बोल उठा था “लेडिज एंड जेंटलमैन.. बैंगलोर सिटी का पापुलेशन 35 लाख है, जैसे अमिताभ का एक फिल्म के लिए रेट 35 लाख है।”

हम घूमते हुए एक तीस मंजिली इमारत में पहुँच गए थे जिसके 29वें और 30वे माले पर अमज़द खान का “टॉप कॉपी’ रेस्तराँ था।

इस बार भी हम यशवंतपुर से पहले एलंका स्टेशन में उतरकर जब व्हाइटफील्ड जा रहे थे, तब रास्ते में एक मूर्तिकार कन्नड़ फिल्मों के दिवंगत सुपरस्टार डॉ. राजकुमार और उनके बेटे की मूर्ति बना रहे थे। उन्हें किसी सार्वजनिक स्थल में स्थापित करने के लिए। यहाँ फिल्मों के अभिनेता समाजसेवाओं से जुड़े रहे और इसलिए राजनीति में उन्होंने सफलता पाई।

बैंगलोर बम्बई की तरह का दूसरा शहर है। यहाँ एक बॉम्बे ग्रांट रोड भी है। इस शहर ने बम्बई (मुंबई) की तरह डिजिटल और सॉफ्टवेयर उद्योग, फैशन, सिनेमा और क्रिकेट में बड़ी रुचि ली और बैंगलोर को देश का ऐसा रोजगारपरक केंद्र बना दिया है कि इधर युवाओं की दौड़ देखते बनती है। नौजवान मानते हैं - “यह एक ऐसा शहर जहाँ मस्ती भरी छुट्टियों के लिए सारी सुविधाएँ मौजूद हैं। इसके प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ आधुनिक जीवन शैली का मिलन दुर्लभ है।” यद्यपि बैंगलोर की भीड़ को देखने से वह ग्लैमर दिखाई नहीं देता जो मुंबई-पुणे या दक्षिण के दूसरे बड़े शहरों में दिखाई देता है। आम कन्नड़  भद्रजन, सीधे सरल व बनाव-शृंगार से दूर दिखाई देते हैं लेकिन उनका शहर बैंगलोर तो पूरी तरह चकाचक और खूबसूरत है। उन्नति की दौड़ में कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद को पीछे छोड़ रहा है।

जब यह मैसूर राज्य था तब यहाँ के मुख्य सचिव वैज्ञानिक विश्वेश्वरैया थे उन्होंने इस शहर में ऐसी वैज्ञानिक चेतना भर दी कि हर नए विज्ञान और अन्वेषण की दृष्टि से यह नगर अपने विकास और उन्नति को तय कर रहा है। देश की अग्रणी सूचना प्रौद्योगिकी (IT) निर्यातक के रूप में अपनी भूमिका के कारण बैंगलोर को व्यापक रूप से भारत की सिलिकॉन-वैली या भारत की आई टी राजधानी के रूप में माना जाता है।

विश्वेश्वरैया ने वैज्ञानिक सिद्धांतों को लेकर एक म्यूजियम बनाया था  जिसे चार दशकों पहले जब देखा था इसमें चार खंड थे। प्रत्येक खंड में प्रदर्शित चीजों के सामने एक स्विच लगा था और उनका नाम एक पट्टिका पर अंकित किया गया था। स्विच दबाने पर मशीन का हर भाग काम करने लगता। इसके बिजली वाले खंड में एक गुड़िया थी। जो नाचती रहती थे और जब कोई उसे पकड़ने की कोशिश करता था वह गायब हो जाती थी। एक बेसिन में पानी का टैब लगा था जिसमें एक छेद से रोशनी पड़ती थी। रोशनी को हाथ से रोक देने पर पानी आने लगता था। बच्चों से लेकर बड़ों-बूढ़ों तक की रुचि की बहुत-सी चीजें यहाँ गिनीं नहीं जा सकती थीं, जिनके आकर्षण और काम अद्वितीय थे। सिनेमा, मशीन, टेलीफोन, टेलीग्राफ, कोयले की खानें, कागज बनाने के ढंग, दूरबीनें, माइक्रोस्कोप सब यहाँ प्रदर्शित थे। आज यह वैज्ञानिकता बैंगलोर में लोगों के जीवन में कदम कदम पर है और उद्योग-कारोबारों में एकदम हाइटेक है।

पिछले समय हम इसके एयरपोर्ट से रायपुर गए थे। इसका केम्पेगौड़ा हवाई अड्डा भारत का तीसरा सबसे व्यस्त हवाई अड्डा है।  विजयनगर साम्राज्य के सामन्त केम्पेगौडा ने इस क्षेत्र में मिट्टी से बने क़िले का निर्माण कर बेंगलुरु शहर की नींव डाली थी। फिर हैदरअली और टीपू सुल्तान ने लकड़ी का महल बनवाया। टीपू के एक समर पैलेस को हमने चामराजपेट में देखा।

इस बार राजधानी एक्सप्रेस से नागपुर निकले तो बैंगलोर के के.एस.आर.रेलवे स्टेशन से हमने ट्रेन पकड़ी। KSR- क्रांतिवीर संगोल्ली रायन्ना एक बहादुर देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी थे जिनके नाम से रेलवे स्टेशन है। स्वाधीनता संग्राम के समय दुश्मनों ने उन्हें बरगद के पेड़ में लटकाकर मारा गया था।

बैंगलोर का शिक्षा और विज्ञान इनके धर्म आश्रमों को दिशा देता है। जहाँ इनके गुरु स्वामी महाराज कल्याणकारी सेवाओं में जुटे हुए हैं। उत्तर भारत के आश्रम गुरुओं की तरह नहीं जो अपनी करनी से जेल में जा बैठे हैं और आजीवन कारावास भुगत रहे हैं। यहाँ के ज्यादतर आश्रम स्कूल, अस्पताल की स्थापना के साथ कौशल कुटीर केन्द्रों में रोजगारपरक प्रशिक्षण दे रहे हैं। यह शहर केवल सूचना तकनीक ही निर्यात नहीं करता बल्कि भोजन खिलाने में भी टेक्नोलॉजी का सहारा ले रहा है।

हम इंदिरा नगर बैंगलोर के एक ऐसे रेस्तराँ में आ बैठे हैं जहाँ खाना रोबोट परोस रहे हैं। यहां पाँच रोबोट और तीन खिलौना ट्रेन है जिसमें ग्राहकों के आदेश के हिसाब से खाना परोसा जाता है। बैठक व्यवस्था के बीचोंबीच ट्रैक है जिसमें रोबोट चलते हैं। कभी कभी इसके पाँचों रोबोट एक के पीछे एक निकलते हैं। कभी कोई अपने ग्राहक को अकेला परोसने आ जाता है। यहाँ महिलाओं के साथ बच्चे बड़े उत्साह से आते हैं। वे खाना लेकर खड़े रोबोट के साथ अपनी सेल्फी लेते हैं। ये रोबोट महिलाओं की पोशाक में हैं। हमने थाई क्विजिन का आइटम ऑर्डर किया था जिसे लेकर आने वाली रोबोट का नाम ‘किटी’ था। रेस्तरां में बैठे हुए लोग उसे वैव करते हुए पुकार उठे थे ‘हाय किटी’।

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग, मो। 9009884014