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Mar 1, 2023

4 मार्च- पुण्य तिथिः शिवरीनारायण और ठाकुर जगमोहन सिंह

 - प्रो. अश्विनी केशरवानी

  महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से भरपूर और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी के नाम से विख्यात शिवरीनारायण राजधानी रायपुर से 120 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह नगर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहाँ महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा उदाहरण है। इसीलिए इसे ‘प्रयाग’ जैसी मान्यता प्राप्त है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ‘श्री नारायण क्षेत्र’ और ‘श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र’ कहा गया है। ऐसे सांस्कृतिक नगर में ठाकुर जगमोहनसिंह का आना प्रदेश के बिखरे साहित्यकारों के लिए एक सुखद संयोग था। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही हिन्दी के विद्वानों का ध्यान छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु युगीन प्रवासी कवि, आलोचक और उपन्यासकार ठाकुर जगमोहन सिंह की ओर गया है। क्योंकि उन्होंने सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन् 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया है। यही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को ‘जगन्मोहन मंडल’ बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की दिशा भी दी। ‘जगन्मोहन मंडल’ काशी के ‘भारतेन्दु मंडल’ की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के साहित्यकार शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने लगे। उस काल के अन्यान्य साहित्यकारों के शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में हुआ है।

इस प्रकार उस काल में शिवरीनारायण सांस्कृतिक के साथ ही ‘साहित्यिक तीर्थ‘ भी बन गया था। द्विवेदी युग के अनेक साहित्यकारों- पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पं. शुकलाल पांडेय, नरसिंहदास वैष्णव, सरयूप्रसाद तिवारी ‘मधुकर’, ज्वालाप्रसाद, रामदयाल तिवारी, प्यारेलाल गुप्त, छेदीलाल बैरिस्टर, पं. रविशंकर शुक्ल, सुंदरलाल आदि ने शिवरीनारायण की सांस्कृतिक-साहित्यिक भूमि को प्रणाम किया है। मेरा जन्म इस पवित्र नगरी में ऐसे परिवार में हुआ है जो लक्ष्मी और सरस्वती पुत्र थे। पं. शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में मेरे पूर्वज गोविंदसाव को भारतेन्दु युगीन कवि के रूप में उल्लेख किया है-

रामदयाल समान यहीं हैं अनुपम वाग्मी।

हरीसिंह से राज नियम के ज्ञाता नामी।

गोविंद साव समान यहीं हैं लक्ष्मी स्वामी।

हैं गणेश से यहीं प्रचुर प्रतिभा अनुगामी।

श्री धरणीधर पंडित सदृश्य यहीं बसे विद्वान हैं।

हे महाभाग छत्तीसगढ़ ! बढ़ा रहे तब मान हैं।।

शिवरीनारायण का साहित्यिक परिवेश ठाकुर जगमोहन सिंह की ही देन थी। उन्होंने यहां दर्जन भर पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी। शबरीनारायण जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल के लोग, उनका रहन-सहन और व्यवहार उन्हें सज्जनाष्टक ‘आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय’ लिखने को बाध्य किया। भारत जीवन प्रेस बनारस से सन् 1884 में सज्जनाष्टक प्रकाशित हुआ। वे यहाँ के मालगुजार और पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा से अत्याधिक प्रभावित थे। भोगहा जी के पुत्र मालिकराम भोगहा ने तो ठाकुर जगमोहनसिंह को केवल अपना साहित्यिक गुरू ही नहीं बनाया बल्कि उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। उनके संरक्षण में भोगहा जी ने हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, उड़िया और उर्दू और मराठी साहित्य का अध्ययन किया, अनेक स्थानों की यात्राएँ की और प्रबोध चंद्रोदय, रामराज्यवियोग और सती सुलोचना जैसे उत्कृष्ट नाटकों की रचना की जिसका सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया। इसके मंचन के लिए उन्होंने यहाँ एक नाटक मंडली भी बनायी थी।

ठाकुर जगमोहन सिंह हिन्दी के प्रसिद्ध प्रेमी कवियों- रसखान, आलम, घनानंद, बोधा ठाकुर और भारतेन्दु हरिश्चंद्र की परंपरा के अंतिम कवि थे जिन्होंने प्रेममय जीवन व्यतीत किया और जिनके साहित्य में प्रेम की उत्कृष्ट और स्वाभाविक अभिव्यंजना हुई है। प्रेम को इन्होंने जीवन दर्शन के रूप में स्वीकार किया था। ‘श्यामालता’ के समर्पण के अंत में उन्होंने प्रेम को अभिव्यक्त किया है-‘‘अधमोद्धारिनि ! इस अधम का उद्धार करो, इस अधम का कर गहो और अपने शरण में राखो। यह मेरे प्रेम का उद्धार है। तूने मुझे कहने की शक्ति दी, मेरी लेखनी को शक्ति दी, तभी तो मैं इतना बक गया। यह मेरा सच्चा प्रेम है, कुछ उपर का नहीं जो लोग हंसे...।”

कहा जाता है कि विवाहित होकर भी उन्होंने एक ब्राह्मण महिला से प्रेम किया और उन्हें ‘श्यामा‘ नाम देकर अनेक ग्रंथों की रचना की। ‘श्यामालता’ (सन् 1885) को श्यामा को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है- मैंने तुम्हारे अनेक नाम धरे हैं क्योंकि तुम मेरे इष्ट हो और तुम्हारे तो अनेक नाम शस्त्र, वेद पुराण काव्य स्वयं गा रहे हैं तो फिर मेरे अकेले नाम धरने से क्या होता है। तुम्हारे सबसे अच्छे नाम श्यामा, दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, वैष्णवी, त्रिपुरसुन्दरी, श्यामा सुन्दरी, मनमोहिनी, त्रिभुवनमोहिनी, त्रैलोक्य विजयिनी, सुभद्रा, ब्रह्माणी, अनादिनी देवी, जगन्मोहिनी इत्यादि- इनमें से मैं तुम्हें कोई एक नाम से पुकार सकता हूँ। पर उपासना भेद से तथा इस काव्य को देख मैं इस समय केवल ‘श्यामा’ ही कहूँगा।

श्यामालता’ (सन् 1885) के छंदो को छत्तीसगढ़ और सोनाखान के रमणीक वन, पर्वतों और झरनों के किनारे रचा गया। इनमें 132 छंद हैं। प्रेमसम्पत्तिलता (सन् 1885) भी यहीं लिखा गया। इसमें 47 सवैया और 4 दोहा है। इसमें श्यामा और उसके वियोग का मार्मिक चित्रण है। इसी समय उन्होंने गद्य पद्य उपन्यास ‘श्यामास्वप्न’ की रचना की। इसे उन्होंने अपने मित्र बाबू मंगलप्रसाद को समर्पित किया है। इस उपन्यास की गणना खड़ी बोली के प्रारंभिक उपन्यासों में की जा सकती है। यह गद्य रचना होते हुए भी काव्यात्मक है। रचनाकार ने अपने भावों को अधिक मार्मिक और प्रभावशाली बनाने के लिए पद्यों का आश्रय लिया है। इसमें लेखक द्वारा रचित कवित्त तो हैं ही, इसके अलावा देव, बिहारी, कालिदास, तुलसीदास, गिरधर, बलभद्र, श्रीयति, पद्माकर तथा भारतेन्दु की रचनाओं का भी प्रयोग हुआ है। उन्होंने इसमें श्रीराम के दंडकवन जाने और रास्ते में सुन्दर वन, नदी और पर्वतादिक मिलने का सुन्दर वर्णन किया है-

बहत महानदि जोगिनी शिवनद तरल तरंग।

कंक गृध्र कंचन निकर जहं गिरि अतिहि उतंग।।

जहं गिरि अतिहि उतंग लसत शृंगन मन भाये।

जिन पै बहु मृग चरहिं मिष्ठ तृण नीर लुभाये।।

जोगिनी आज जोंकनदी और शिवनद शिवनाथ नदी के नाम से सम्बोधित होती हैं और शिवरीनारायण में महानदी से मिलकर त्रिवेणी संगम बनाती है। यहां पिंडदान करने से बैकुंठ जाने का उल्लेख शिवरीनारायण माहात्म्य में हुआ है-

शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।

पिण्ड दान वहां जो करे, तरो बैकुण्ठ जाय।।

सन् 1886 में ‘श्यामा सरोजनी’ की रचना हुई। इसमें 204 छंद है। श्यामा को समर्पित करते हुए इस पुस्तक में लेखक लिखते हैं-‘‘हृदयंगमे ! मनोर्थ मंदिर की मूर्ति ! लो यह श्यामा सरोजनी तुम्हें समर्पित है।

श्यामालता से इसकी छटा कुछ और है, वह श्यामालता थी- यह उसी लता मंडप के मेरे मानसरोवर की श्यामा सरोजनी है, इसका पात्र और कोई नहीं जिसे दूँ। हाँ एक भूल हुई कि श्यामास्वप्न एक प्रेमपात्र को समर्पित किया गया पर यदि तुम ध्यान देकर देखो तो वास्तव में भूल नहीं हुई, हम क्या करें, तुम अब चाहती हो कि अब ढोल पिटें, आदि ही से तुमने गुप्तता की रीति एक भी नहीं निबाही। हमारा दोष नहीं तुम्हीं बिचारो मन चाहै तो अपनी तहसीलदारी देख लो, दफ्तर के दफ्तर मिसलबंदी होकर धरे हैं, आप में कहकर बदल जाने की प्रकृति अधिक थी इसीलिए प्रेमपात्र को स्वप्न समर्पित कर साक्षी बनाया अब कैसे बदलोगी ? जाने दो इस पवारे से क्या-‘नेकी बदी जो बदीहुती भाल में होनी हुती सु तो होय चुकी री’ पर यह तुम दृढ़ बाँध रखना कि मैं यद्यापि तेरा वही सेवक और वही दास हूँ जिसको तूने इस कलियुग में दर्शन देकर कृतार्थ किया था- अब आप अपनी दशा तो देखिये मैं तो अब यही कहकर मौंन हो जाता हूँ।’

इससे प्रमाणित होता है कि उन्होंने अपने प्रेम में असफल होकर निराशा पायी। श्यामास्वप्न में श्यामा के दोनों प्रेमी कमलाकांत और श्यामसुन्दर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर कवि जगमोहन ही जान पड़ते हैं, कारण हाकिनी के प्रभाव से कारामुक्त कमलाकांत अचानक अपने को कविता कुटीर में पाते हैं जहाँ श्यामालता- कहीं सांख्य, कहीं योग, कहीं देवयानी के नूतन रचित पत्र बिखरे पड़े हैं। यह श्यामालता और देवयानी स्वयं जगमोहन सिंह की रचनाएँ हैं और सांख्य सूत्रों का आर्याछंदों में अनुवाद भी उन्होंने ही किया है। श्यामा सरोजनी के बाद कवि की किसी अन्य रचना का प्रकाशन नहीं हुआ है। जान पड़ता है कि प्रेम के उल्लास और फिर निराशा के आवेग में उन्होंने डेढ़-दो वर्ष में ही तीन-चार रचनाएँ रच डालीं फिर आवेश कम होने पर वे शिथिल पड़ गए। अंतिम रचना वे ‘जब कभी’ नाम से लिखते रहे, इसमें जब जैसी तरंग आई कुछ लिख लिया करते थे। यह गद्य पद्यमय रचना अपूर्ण और अप्रकाशित है। स्फुट कविताएँ और समस्या पूर्तियाँ भी इन्होंने की है लेकिन ये डायरी के पन्नों में कैद होकर प्रकाश में नहीं आ सकीं। ब्रजरत्नदास ने भी श्यामास्वप्न के सम्बंध में लिखा है- ‘कुछ ऐसा ज्ञात होता है कि ठाकुर साहब ने कुछ अपनी बीती इसमें कही है।’ उनकी बिरह की एक बानगी उनके ही मुख से सुनिए-

श्यामा बिन इत बिरह की, लागी अगिन अपार

पावस घन बरसै तरू ,बुझै न तन की झार।

बुझै न तन की झार मार निज बानन मारत

आँसू झरना डरन मरन को जो मुहिं जारत।

जारत अंत अनंग मीत बनि नीरद रामा

कैसे काटो रैन बिना जगमोहन श्यामा।

सन् 1884 में भारत जीवन प्रेस, बनारस से ‘सज्जनाष्टक’ प्रकाशित हुई थी। इसमें शिवरीनारायण के आठ सज्जन व्यक्तियों का वर्णन है। वे इसकी भूमिका में लिखते हैं- ‘इस पुस्तक में आठ सज्जनों का वर्णन है, जो शबरीनारायण को पवित्र करते हैं। आशा है कि इन लोगों में परस्पर प्रीति की रीति प्रतिदिन बढ़ेगी और ये लोग ‘सज्जन’ शब्द को सार्थक करेंगे। इसको मैंने सबके विनोदार्थ रचा है।  इसमें मंगलाचरण और शबरीनारायण को नमन करते हुए मंदिर के पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा के बारे में उन्होंने लिखा है-

है यदुनाथ नाथ यह सांचो यदुपति कला पसारी।

चतुर सुजन सज्जन सत संगत जनक दुलारी।।

दूसरे और तीसरे सज्जन शिवरीनारायण मठ के महंत स्वामी अर्जुनदास और स्वामी गौतमदास जी और चौथे पं. ऋषिराम शर्मा हैं। पाँचवे सज्जन यहाँ के लखपति महाजन श्री माखनसाव थे जो दो धाम की यात्रा सबसे पहले करके रामेश्वरम में जल चढ़ाकर पुण्यात्मा बने थे। छठे सज्जन सुप्रसिद्ध कवि और शिवरीनारायण माहात्म्य को प्रकाशित कराने वाले पंडित हीराराम त्रिपाठी, सातवें श्री मोहन पुजारी और आठवें लक्ष्मीनारायण मंदिर के पुजारी पंडित श्री रमानाथ थे। अंतिम तीन दोहा में उन्होंने पुस्तक की रचनाकाल और सार्थकता को लिखा है.

इसी प्रकार 21, 22 और 23 जून सन् 1885 में महानदी में आई बाढ़ और उससे शिवरीनारायण में हई तबाही का, महानदी के उद्गम स्थली सिहावा से लेकर अंत तक उसके किनारे बसे तीर्थ नगरियों का छंदबद्ध वर्णन उन्होंने ‘प्रलय’ में किया है। प्रलय सन् 1889 में जब वे कूचविहार के सेक्रेटरी थे, तब प्रकाशित हुआ था। इसमें दोहा, चैपाई, सोरठा, कुण्डलिया, भुजंगप्रयात, तोटक और छप्पय के 116 छंद है। इस बाढ़ में शिवरीनारायण का तहसील कार्यालय महानदी को समर्पित हो गया। उसके बाद सन् 1891 में तहसील कार्यालय जांजगीर में स्थानांतरित कर दिया गया और शिवरीनारायण को बाढ़ क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। देखिये कवि की एक बानगी-

पुनि तहसील बीच जहं बैठत न्यायाधीश अधीशा।

कोष कूप(क) पर भूप रूप लो तहं पैठ्यो जलधीशा।।37।।

उन्होंने ‘श्यामालता’ और ‘देवयानी’ की रचना की। ये दोनों रचना सन् 1884 में रची गयी और इसे श्यामास्वप्न और श्यामा विनय की भूमिका माना गया। श्यामास्वप्न एक स्वप्न कथा है- एक ऐसी फैन्टेसी जो अपनी चरितार्थता में कार्य-कारण के परिचित रिश्ते को तोड़ती चलती है। देश को काल और फिर काल को देश में बदलती यह स्वप्न कथा उपर से भले ही असम्भाव्य संभावनाओं की कथा जान पड़े लेकिन अपनी गहरी व्यंजना में वह संभाव्य असंभावनाओं का अद्भूत संयोजन है। श्यामास्वप्न के मुख पृष्ठ पर कवि ने इसे ‘गद्य प्रधान चार खंडों में एक कल्पना’ लिखा है। परन्तु अंग्रेजी में इसे ‘नावेल’ माना है। हालांकि इसमें गद्य और पद्य दोनों में लिखा गया है। लेकिन श्री अम्बिकादत्त व्यास ने इसे गद्य प्रधान माना है। उपन्यास आधुनिक युग का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य रूप है जिसे आधुनिक मुद्रण यंत्र युग की विभूति कह सकते हैं। मध्य युगीन राज्याश्रय में पलने वाले साहित्य में यह सर्वथा भिन्न है।

श्यामास्वप्न के सभी चरित्र रीतिकालीन काव्य के विशेष चरित्र हैं। कमलाकांत और श्यामसुंदर अनुकूल नायक हैं। श्यामा मुग्धा अनूठी परकीया नायिका है और वृन्दा उनकी अनूठी सखी है। रचनाकार ने सबको कवि के रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी कविताएँ श्रृंगार रस से सराबोर है। इससे इस उपन्यास का वातावरण रीतिकालीन परम्परासम्मत हो गया है और इसका कथानक जटिल बन पड़ता है।

शिवरीनारायण में ठाकुर जगमोहन सिंह
की स्मृति में निर्मित ग्रंथालय

 इसमें संदेह नहीं कि कमलाकांत और श्यामसुंदर दोनों जगमोहन सिंह के प्रतिबिंब हैं। जो भी हो, उनका संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन विस्तृत था। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी काव्यों का रस निचोड़कर श्यामास्वप्न में भर देने का प्रयत्न किया है। उनकी रचनाओं में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

श्यामास्वप्न और श्यामा विनय को एक साथ लिखने के बाद सन् 1886 में श्यामा सरोजनी और फिर सन् 1887 में प्रलय लिखा। इस प्रकार सन् 1885 से 1889 तक रचना की दृष्टि से उत्कृष्ट काल माना जा सकता है।

इसी प्रकार उन्होंने संवत् 1944 में पंडित विद्याधर त्रिपाठी द्वारा विरचित नवोढ़ादर्श को भारत जीवन प्रेस काशी से प्रकाशित कराया। इसके बारे में उन्होंने लिखा है-

रच्यौ सु रस श्रृंगार के अनुभव को आदर्श।

रसिकन हिय रोचक रसिक नवल नवोढादर्श।।

काशी में रहकर विद्याध्ययन करने से उन्हें जो लाभ हुआ वह अलग है लेकिन उन्हें सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र और पंडित रामलोचन त्रिपाठी की मित्रता का लाभ मिलना कम उपलब्धी नहीं है। उनकी यह मित्रता जीवन भर बनी रही। उन्होंने सन् 1876 में पंडित रामलोचन त्रिपाठी का ‘जीवन वृत्तांत’ प्रकाशित कराया था। ठाकुर जगमोहन सिंह की रचनाओं में भाषा का अपना एक अलग महत्त्व है जो उन्हें उनके समकालीन रचनाकारों से विशिष्ट बनाती है। उनकी भाषा बंधी बंधाई, कृत्रिम अथवा आरोपित भाषा नहीं है, वरन् जीवन रस में आकंठ डूबी हुई सहज, स्वाभाविक निर्मुक्त और निर्बंध भाषा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल उनके बारे में लिखते हैं- प्राचीन संस्कृत साहित्य से अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में रहने के  कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूप माधुर्य की जैसी सच्ची परख, सच्ची अनुभूति ठाकुर जगमोहन सिंह में थी, वैसी उस काल के किसी हिन्दी कवि या लेखक में नहीं थी। अब तक जिन लेखकों की चर्चा हुई है, उनके हृदय में इस भूखंड की रूप माधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेम और संस्कार नहीं था। परंपरा पालन के लिए चाहे प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो पर वहाँ उनका हृदय नहीं मिलता। अपने हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर जगमोहन सिंह ने श्यामा स्वप्न में व्यक्त किया है, उसकी सरसता निराली है।  प्राचीन संस्कृत साहित्य के रूचि संस्कार के साथ भारत भूमि की प्यारी रूपरेखा को मन में बसाने वाले वे पहले हिन्दी के लेखक थे। वे अपना परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं-

सोई विजय सुराघवगढ़ के राज पुत्र वनवासी।

श्री जगमोहन सिंह चरित्र यक गूढ़ कवित्त प्रकासी।।

ठाकुर जगमोहन सिंह का व्यक्तित्व एक शैली का व्यक्तित्व था। उनमें कवि और दार्शनिक का अद्भूत समन्वय था। अपने माधुर्य में पूर्ण होकर उनका गद्य काव्य की परिधि में आ जाता था। उनकी इस शैली को आगे चलकर चंडीप्रसाद हृदयेश, राजा राधिका रमण सिंह, शिवपूजन सहाय, राय कृष्णदास, वियोगीहरि और एक सीमा तक जयशंकर प्रसाद ने भी अपनाया था।

इतिहास के पृष्ठों से पता चलता है कि दुर्जनसिंह को मैहर का राज्य पन्ना राजा से पुरस्कार में मिला। उनके मृत्योपरांत उनके दोनों पुत्र क्रमशः विष्णुसिंह को मैहर का राज्य और प्रयागसिंह को कैमोर-भांडेर की पहाड़ी का राज्य देकर ईष्ट इंडिया कंपनी ने दोनों भाईयों का झगड़ा शांत किया। प्रयागसिंह ने तब वहाँ राघव मंदिर स्थापित कर विजयराघवगढ़ की स्थापना की। सन् 1846 में उनकी मृत्यु के समय उनके इकलौते पुत्र सरयूप्रसाद सिंह की आयु मात्र पाँच वर्ष थी। इसलिए उनका राज्य कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन कर दिया गया। सरयूप्रसाद ने  निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुये सन् 1857 में अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष किया। तब उन्हें कालेपानी की सजा सुनायी गयी। लेकिन उन्होंने आत्म हत्या कर ली। उस समय उनके पुत्र जगमोहन सिंह की आयु छह मास थी। अंग्रेजों की देखरेख में उनका लालन पालन और शिक्षा दीक्षा हुई। 09 वर्ष की आयु में उन्हें वार्ड्स इंस्टीट्यूट, कीन्स कालेज, बनारस में आगे की पढ़ाई के लिए दाखिल किया गया। यहाँ उन्होंने 12 वर्षो तक अध्ययन किया। देवयानी में उन्होंने लिखा है-

रचे अनेक ग्रंथ जिन बालापन में काशीवासी।

द्वादश बरस बिताय चैन सों विद्यारस गुनरासी।।

काशी में ही उनकी मित्रता सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र से हुई जो जीवन पर्यन्त बनी रही। मूलतः वे कवि थे। आगे चलकर वे नाटक, अनुवाद, उपन्यास आदि सभी विधाओं पर लिखा। श्यामास्वप्न उनका पहला उपन्यास है जो आज छत्तीससगढ़ राज्य का पहला उपन्यास माना गया है। उनकी पहचान एक अच्छे आलोचक के रूप में भी थी। ऋतुसंहार संभवतः उनकी प्रथम प्रकाशित रचना है। देवयानी में अपनी पुस्तकों की एक सूची उन्होंने दी है-

प्रथम पंजिका अंग्रेजी में पुनि पिंगल ग्रंथ बिचारा।

करै भंजिका मान विमानन प्रतिमाक्षर कवि सारा।।

बाल प्रसाद रची जुग पोथी खची प्रेमरस खासी।

दोहा जाल प्रेमरत्नाकर सो न जोग परकासी।।

कालिदास के काव्य मनोहर उल्था किये बिचारा।

रितु संहारहिं, मेघदूत पुनि संभव ईश कुमारा।।

अंत बीसई बरस रच्यो पुनि प्रेमहजारा खासों।

जीवन चरित समलोचन को जो मम प्रान सखा सो।।

सज्जन अष्टक कष्ट माहि में विरच्यौ मति अनुसारी।

प्रेमलता सम्पति बनाई भाई नवरस भारी ।।

एक नाटिका सुई नाम की रची बहुत दिन बीते।

अब अट्ठाइस बरस बीच यह श्यामालता पिरीते।।

श्यामा सुमिरि जगत श्यामामय श्यामाविनय बहोरी।

जल थल नभ तरू पातन श्यामा श्यामा रूप भरोरी।।

देवयानी की कथा नेहमय रची बहुत चित लाई।

श्रमण विलाप साप लौ कीन्हौ तन की ताप मिटाई।।

अंतिम समय में उन्हें प्रमेह रोग हो गया। तब डॉक्टरों ने उन्हें जलवायु परिवर्तन की सलाह दी। छः मास तक वे घूमते रहे। सरकारी नौकरी छोड़ दी और अपने सहपाठी कूचविहार के महाराजा नृपेन्द्रनारायण की आग्रह पर वे स्टेट कांउसिल के मंत्री बने। दो वर्ष तक वहाँ रहे और 04 मार्च सन् 1899 में उनका देहावसान हो गया। उनके निधन से साहित्य जगत को अपूरणीय क्षति हुई जिसकी भरपायी आज तक संभव नहीं हो सकी है।

सम्पर्कः ‘राघव’, डागा कालोनी, बरपाली चैंक, चांपा- 495671 (छत्तीसगढ़)

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