होली शरारत, नटखटपन, मनोविनोद, व्यंग्य-व्यंजना,
हँसी-ठट्ठा, मजाक-ठिठोली, अबीर, रंग, रोली से भरा हुआ एक
ऐसा त्योहार है जो रंगों की बौछार के मध्य अद्भुत आनंद प्रदान करता है। कुमकुम और
गुलाल से रंगे हुए गाल गवाही देते हैं कि हर तरफ मस्ती ही मस्ती है। बूढ़े या जवान
सबके अधरों पर बस एक ही तान-‘होली है भई होली है।’
इस त्योहार से पन्द्रह दिन पूर्व और पन्द्रह दिन
बाद तक हर कोई अद्भुत आनंद से भरा हुआ बस एक ही टेर लगाता है-‘होली खेल री गुजरिया, डालूँ में रंग या ही ठाँव री!’
होली खेलने वाली हुरियारिन होली खेलते हुए मादक
चितवन के वाणों के प्रहार सहते हुए कहती है-‘मति मारै दृगन के तीर, होरी में मेरे लगि जाएगी।’
होली पर इतनी मस्ती क्यों छाती है? इसका सीधा-सीधा सम्बन्ध शीतलहर की ठिठुरन के बाद रोम-रोम को गुनगुनी सिहरन प्रदान करने वाले बदले हुए मौसम से होने के साथ-साथ किसान की पकी हुई फसल से भी है।
इस पर्व का प्राचीन नाम ‘वांसती नव सस्येष्टि है
अर्थात् वसंत ऋतु के नये अनाज से किया हुआ यज्ञ। तिनके की अग्नि में भुने हुए
[अधपके ] शमोधान्य [ फली वाले अन्न ] को होलक कहते हैं। होली होलक का अपभ्रंश हैं।
पौराणिक मतानुसार होलिका हिरण्यकशिपु
नामक दैत्य की बहन थी। उसे वरदान था कि वह आग
में नहीं जलेगी। हिरण्यकशिपु का एक पुत्र प्रह्लाद विष्णु का उपासक था। प्रह्लाद
कहता था - ‘कथं पाखण्ड माश्रित्य पूजयामि च शंकरम।’ अर्थात् मैं पाखण्ड का सहारा
लेकर शंकर की पूजा क्यों करूँ ? मैं तो विष्णु की पूजा
करूँगा।’’
हरिणकश्यपु ने प्रह्लाद की इस विष्णु-भक्ति से
कुपित होकर एक दिन अपनी बहिन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठने को
कहा। होलिका ने ऐसा ही किया। विष्णु की कृपा से होलिका तो अग्नि में जलकर भस्म हो
गयी किन्तु प्रह्लाद बच गया।
होलिकोत्सव फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन
मनाया जाता है। होली वाले दिन घर-घर भैरोजी और हनुमान की पूजा होती है। पकवान, मिष्ठान, नमकीन सेब, गुजिया,
टिकिया आदि स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किए जाते हैं। छोटी होली वाले
दिन शाम को घर में तथा सार्वजनिक स्थल पर रखी होली की पूजा सूत पिरोकर और फेरे
लगाकर की जाती है। रात्रि बेला में होली में आग लगाकर लोग कच्ची गेहूँ और जौ की
बालियाँ भूनते हैं और भुनी हुई बालियों को एक दूसरे को भेंट कर गले मिलते हैं।
ज्यों-ज्यों रात्रि ढलती है और बाद में सूरज अपनी गर्मी बिखेरता है, यह सारा मिलने-मिलाने का कार्यक्रम एक-दूसरे को रंगों से सराबोर करने में तब्दील हो जाता है। पुरुष,
नारियों पर पिचकारियों और बाल्टियों से रंग उलीचते हैं, नारियाँ पुरुषों पर डंडों की बौछार करती हैं। होली का पर्व हर हृदय पर
प्यार की बौछार करता है। यह त्योहार वर्ण-जाति, ऊँच-नीच के
भेद मिटाने वाला ऐसा पर्व है जिसमें हर कोई भाईचारे एवं आपसी प्रेम से आर्द्र होता
है।
सम्पर्कः15/109,
ईसानगर, अलीगढ़ , मो. 8171455889
2 comments:
अच्छी जानकारी
सुंदर आलेख
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