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May 11, 2016

उदंती.com मई- 2016

उदंती.com   मई- 2016


जीवन की लम्बी यात्रा में, खोये भी हैं मिल जाते,
जीवन है तो कभी मिलन है, कट जाती दु:ख की रातें।
                - जयशंकर प्रसाद


May 10, 2016

उफ ये गर्मी!!!

 उफ ये गर्मी!!! 
                          
- डॉ. रत्ना वर्मा

आजकल बातचीत में राजनीति के अलावा किसी बात पर सबसे ज्यादा चर्चा होती है तो वो है गर्मी या फिर कभी भी किसी भी समय आ जाने वाले अंधड़ और छींटे- बौछार के बाद बिजली के बंद हो जाने से भीषण गर्मी से परेशान लोगों की व्यथा। अब तो सोशल मीडिया किसी भी विषय पर बातचीत करने का सबसे अच्छा माध्यम बन गया है। कुछ सेकेंड में ही हम दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं और लोगों की राय जान सकते हैं।
अत: वहाँ भी गर्मी पर चिंतन जारी है। कुछ लोग गंभीरता से इस विषय पर बात कर रहे हैं और काम भी कर रहे हैं साथ ही दुनिया भर में हो रहे मौसम के बदलाव के लिए चेतावनी दे रहे हैं। जैसे फेसबुक में हाशिये पर हमारे एक  पत्रकार साथी ने चिंता जताते हुए लिखा है-  उफ गरमी है, पर क्यों है- इसलिए कि कांक्रीट- सीमेंट के मकानों में हवा कहाँ, बंद गुब्बारे की तरह... दरअसल ये नकल उन ठंडे देशों की है, जहाँ थोड़ी गरमाहट के लिए तरसते हैं... मुझे याद आता है गाँव का मकान, खपरैल वाला, मिट्टी की मोटी दीवारें, छन कर आती धूप और हवा... जब जाती है बिजली कूलर, पंखे की अनुपयोगिता पता चलती है... कुछ सोचने के लिए तैयार है क्या हम...
इस संदर्भ में मुझे भी याद आ रहा है- 80 के दशक में पर्यावरण को लेकर पत्र- पत्रिकाओं में जो लेख प्रकाशित होते उसमें हमारे जाने- माने पर्यावरणविद् चिन्तक चेतावनी देते नजर आते थे कि धरती को हरा- भरा, स्वच्छ, हवादार और साँस लेने लायक बनाकर रखना है और आने वाली पीढ़ी हमें न कोसे इसके लिए अभी से बचाव के साधन अपनाने होंगे। सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दिया जाता था कि जंगलों को बचाया जाए, ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएँ, बड़े बाँधों पर रोक लगाई जाए, धुँआँ उगलते कल-कारखानों पर लगाम कसी जाए, मोटर-गाडिय़ों से निकलने वाले हरीले गैसों को रोका जाए और बढ़ते हुए शहरीकरण में उग आए कांक्रीट के कई- कई मंज़िला भवनों को न बनाने दिया जाए। यह वह दौर था जब ग्लोबल वार्मिंग पर चिंता प्रकट करने की शुरूआत नहीं हुई थी।
पर आज जो स्थिति है वह सबके सामने है। हमने धरती का इतना दोहन किया कि आज पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं, पानी के सारे परम्परागत स्रोतों को हमने खत्म कर दिया है। तालाबों को पाट कर बड़े- बड़े व्यावसायिक मॉल बना दिए।  पेड़ काट- काट कर धरती को हमने बंजर बना दिया है, शहर तो शहर अब तो गाँव में भी कांक्रीट के मकान बनने लगे हैं, वहाँ भी अब खपरैल वाले छप्पर बनाना मँहगा पडऩे लगा है। शहरीकरण, औद्यौगीकरण और विकास की दौड़ में हमारे परम्परागत व्यवसाय भी तो विलुप्त होते जा रहे हैं। हमारे घरेलू उद्योगों को बड़े- बड़े कल-कारखानों ने लील जो लिया है।

पहले गाँव में जो घर बनाए जाते थे उनमें मिट्टी को पोटी परत से छबाई की जाती थी, ताकि गर्मी के मौसम में घर ठंडा रहे। धूप, हवा, पानी के लिए भी पर्याप्त व्यवस्था रहती थी। अब तो ए सी लगाने के चक्कर में पूरा घर चारो तरफ से बंद कर दिया जाता है। मिट्टी की मोटी दीवरों वाला घर तो मैंने अपनी नानी के घर में देखा है ,जो उनके न रहने पर अब टूट कर गिर गया है। मुझे लगता है जिन गाँवों में मिट्टी की मोटी दीवारों वाले घर आज बच रह गए हैं ,उन्हें धरोहर के रूप में सँजोकर रखा जाना चाहिए ; क्योंकि नई पीढ़ी को यह पता ही नहीं चलेगा कि उनके दादा- परदादा किस तरह से बिना ए सी और कूलर के हवादार घरों में रहते थे। एक समय था जब हम छत और आँगन में सोकर पूरी गर्मी आसमान में तारे गिनते और सप्त ऋषियों को देखकर दादी- नानी से कहानी सुनते हुए बिताते थे। आज इस सुख से हम वंचित हैं। और जिस तरह से हमने अपने पर्यावरण को नुकसान पँहुचा दिया है, वे दिन लौटकर भी नहीं आने वाले। देर से ही सही पर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि शुद्ध हवा पानी हमें मिलती रहे, ऐसा कुछ करने का प्रयास करें।
इधर पिछले कुछ वर्षों से एक नई हवा चली है- गर्मी की छुट्टियों में लोग पर्यटन के लिए नदी पहाड़ की ओर रूख किया करते हैं ताकि गरम प्रदेश में रहने वालों को कुछ राहत मिल सके। आजकल लोग नदी पहाड़ के साथ साथ ऐसे गाँव की ओर भी छुट्टियाँ मनाने जाने लगे हैं जहाँ उन्हें स्वच्छ वातावरण तो मिले ही साथ ही गाँव जैसी शांति और माहौल भी मिले। पर्यटकों के इसी रूझान को देखते हुए पर्यटन के क्षेत्र में एक नया पैर्टन शुरू हो गया है. प्रकृति के साथ साथ जीवन की सादगी भी नजर आए ऐसे रिसॉर्ट बनने लगे हैं । घास -फूस की झोपड़ी का आभास देते रिसॉर्ट। अंदर से जरूर वे सर्वसुविधायुक्त होते हैं ; पर माहौल वहाँ गाँव का ही होता है।
कहने का तात्पर्य यही कि हम जब अपने घर बनाते हैं ,तो मिट्टी की दीवार और छत में खपरैल लगाने के बारे में सोचते ही नहीं, वह पूरा कांक्रीट का ही होगा। लेकिन जब छुट्टियों में राहत के कुछ पल पाना होता है तो हम गाँव के मिट्टी की वही सोंधी खूशबू की तलाश करते हैं। अमिया की छाँह, रस्सी के झूले और चौबारे।  इतना ही नहीं चूल्हे में बनी सोंधी खूशबू वाली साग रोटी की चाह भी रखते हैं.... आखिर क्यों? इसीलिए न कि इन सबसे हमें कहीं न कहीं अपनी मिट्टी से जुड़े होने का आभास होता है। लोगों को यह भी कहते सुना है कि रिटायरमेंट के बाद गाँव में रहने का मन करता है ताकि सुकून की जिन्दगी जी सकूँ।
सवाल वही है कि फिर हम किस तरह के विकास और आधुनिकता के पीछे भाग रहे हैं? उस ओर जहाँ जाने का बिल्कुल भी मन ही नहीं है, जहाँ सुकून नहीं है। विकास की अँधी दौड़ हमें किसी ऐसी जगह नहीं ले जा सकती जहाँ हम यह कह सकें कि हाँ ये वही जगह है जिसकी मुझे तलाश थी। 

अंतरिक्ष में चहलकदमी

      अंतरिक्ष में चहलकदमी
         लम्बाई बढ़ी, उम्र घटी
                        - शर्मिला पाल
इंसान रोज नए-नए रहस्यों को सुलझाने में जुटा रहता है। ब्रह्माण्ड में आज क्या, कैसे, क्यों और आगे क्या, यह जानने की जिज्ञासा वैज्ञानिकों को चैन से नहीं रहने देती है। और जब इन रहस्यों की कुछ जानकारियाँ सामने आती हैं तो आम इंसान तो क्या खुद वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
ऐसा ही तब हुआ जब अमेरिका के अंतरिक्ष वैज्ञानिक स्कॉट केली 340 दिन अंतरिक्ष में बिताने के बाद धरती पर लौटे। स्वाभाविक रूप से मन में यह सवाल उठता है कि इतने लंबे समय तक वे अंतरिक्ष में कैसे रहे होंगे, उनपर क्या प्रभाव पड़ा होगा। दिलचस्प बात यह पता चली कि उनकी लम्बाई दो इंच बढ़ गई थी, जबकि उम्र 10 मिली सेकंड घट गई थी। उन्होंने यह भी बताया कि वहाँ पर रहकर अंतरिक्ष यात्री कैसे अंतरिक्ष में चहलकदमी करते हैं।
जब कोई अंतरिक्ष यात्री मिशन पर जाता है तो उसके लिए तैयारियाँ काफी पहले से ही शुरू हो जाती हैं।
स्पेस सूट
अंतरिक्ष यात्री खुद को अंतरिक्ष की परिस्थितियों के मुताबिक ढालने लगते हैं। इस दौरान उनके खानपान से लेकर पोशाक तक का ख्याल रखा जाता है। सामान्य पोशाक और स्थितियों में अंतरिक्ष में कदम नहीं रखा जा सकता। आपने देखा होगा अंतरिक्ष यात्री हमेशा एक खास तरह की ड्रेस पहनते हैं। एक भारी-भरकम सूट और उस पर हेलमेट और ऑक्सीजन मास्क भी लगा रहता है। अंतरिक्ष में अंतरिक्ष यात्रियों को यही सूट पहनना पड़ता है। इसे स्पेस सूट कहते हैं। स्पेस सूट की बदौलत ही अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष के प्रतिकूल माहौल में जीवित रह पाते हैं।
इस स्पेस सूट को तैयार करने के लिए वैज्ञानिकों ने बहुत मेहनत और शोध किया है। यह सूट उस कपड़े से नहीं बना होता है, जिसे हम और आप पहनते हैं। अंतरिक्ष की स्थितियों का आकलन करने के बाद यह सूट तैयार किया जाता है। इस सूट को पहनने के बाद शरीर का तापमान और बाहरी वातावरण से शरीर पर पडऩे वाला दबाव नियंत्रित रहता है। इसके साथ ही यह सूट इस तरह से बनाया जाता है कि यह एक कवच के समान अंतरिक्ष में मौजूद हानिकारक किरणों से शरीर की रक्षा करे। इस सूट के अंदर ही एक लाइफ सपोर्ट सिस्टम होता है, जिससे अंतरिक्ष यात्री को शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त होती है। इस सूट के अंदर गैस और द्रव पदार्थों को रीचार्ज और डिस्चार्ज करने की व्यवस्था भी होती है। इस सूट में ही अंतरिक्ष यात्री वहाँ से एकत्रित किए गए ठोस कणों को सुरक्षित रख सकते हैं।
विशेष तरह के दरवाज़े
जब कोई अंतरिक्ष यात्री यान से निकलकर अंतरिक्ष में कदम रखता है, तो उसे स्पेस वॉक कहते हैं। 18 मार्च, 1965 को रूसी अंतरिक्ष यात्री एल्केसी लियोनोव ने पहली बार स्पेस वॉक की थी। आज समय-समय पर अंतरिक्ष यात्री स्पेस वॉक के लिए अंतर्राट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से बाहर जाते हैं। स्पेस वॉक पर जाते समय वे एक विशेष प्रकार की पोशाक पहनते हैं जो उन्हें अंतरिक्ष में सुरक्षित रखती है। वहाँ हवा का अभाव होने के कारण इन स्पेस सूट के अंदर ही ऑक्सीजन की व्यवस्था रहती है जिससे वे सांस लेते हैं। सांस के तौर पर सिर्फ ऑक्सीजन लेने से अंतरिक्ष यात्री के शरीर से पूरी नाइट्रोजन बाहर निकल जाती है। यदि उनके शरीर में ज़रा-सी भी नाइट्रोजन हो तो उससे स्पेस वॉक के दौरान अंतरिक्ष यात्री के शरीर में नाइट्रोजन का बुलबुला बन सकता है। इस बुलबुले से उनके जोड़ों में तेज़ दर्द हो सकता है। यह स्पेससूट उन्हें वॉक पर जाने से कई घंटे पहले ही पहन लेना पड़ता है। यह सूट इतना बड़ा होता है कि इसे पहनकर अभ्यास करना ज़रूरी होता है, ताकि वे सहज हो जाएँ और सूट से जुड़ी तकनीकी बातों को समझ लें। इतना ही नहीं, स्पेस सूट अंतरिक्ष यात्री को सामान्य तापमान उपलब्ध कराता है। अंतरिक्ष में तापमान शून्य से 200 डिग्री कम या 200 डिग्री अधिक भी हो सकता है।
इन तैयारियों के बाद अंतरिक्ष यात्री स्पेस वॉक के लिए तैयार रहते हैं। इस वॉक के लिए यान से वे एयरलॉक से बाहर निकलते हैं। एयरलॉक में दो दरवाज़े होते हैं। जब अंतरिक्ष यात्री यान के अंदर होते हैं तो एयरलॉक इस तरह बंद होता है कि अंदर की जऱा-सी भी हवा बाहर न जाने पाए। जब अंतरिक्ष यात्री स्पेस वॉक के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं तो वे एयरलॉक के पहले दरवाज़े से बाहर जाते हैं और पीछे से उसे मज़बूती से बंद कर दिया जाता है। इसके बाद वे एयरलॉक का दूसरा दरवज़ा खोलते हैं। स्पेस वॉक करने के बाद फिर एयरलॉक से ही वे यान के अंदर आते हैं।
घर की याद
अंतरिक्ष यात्रियों में घर से दूर रहने का तनाव या होमसिकनेस जैसा भाव उत्पन्न होने लगता है। आम तौर पर मिशन के चौथे महीने में अंतरिक्ष यात्री घर लौटना चाहता है। वे स्पेस स्टेशन में रहकर थक जाते हैं और अपने परिवार वालों से मिलना चाहते हैं। अब नासा के ज़्यादातर अभियान छह महीने से लेकर साल भर के होते हैं। नासा इसलिए अब ज़्यादा चॉकलेट पुडिंग भेजने पर विचार कर रहा है।
इतना ही नहीं अलाबामा में बैठी ज़मीनी टीम को इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के अंतरिक्ष यात्रियों की इधर-उधर गुम हो चुकी चीज़ों पर भी नज़र रखनी होती है। यह स्पेस प्रोग्राम का सबसे मुश्किल काम होता है। अंतरिक्ष यात्री अपना सामान इधर-उधर रखकर भूल जाते हैं। ज़्यादातर समय चीज़ें सुराखों में फंसी हुई मिलती हैं। ज़ाहिर है, एक अंतरिक्ष यात्री के साथ में हज़ारों का सपोर्ट स्टॉफ काम करता है।
स्लीप सेंटर
लोगों के मन में हमेशा यह जानने की जिज्ञासा रहती है कि अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में कैसे रहते होंगे। अंतरिक्ष में गुरुत्त्वाकर्षण का प्रभाव खत्म हो जाता है, ऐसे में उन्हें किन परेशानियों का सामना करना पड़ता होगा। अंतरिक्ष यात्री क्या खाना खाते होंगे। उनका वॉशरूम कैसा होता होगा? उनका बिस्तर कैसा होता है?
अमूमन अंतरिक्ष यात्री 4 से 6 घंटे सोते हैं। यान में स्लीप सेंटर होता है। स्लीप सेंटर एक छोटे फोन बूथ की तरह होता है, जिसमें स्लीपिंग बैग होता है। स्लीप सेंटर में कंप्यूटर, किताबें और खिलौने भी रख सकते हैं। ब्रश करते समय पानी भी बुलबुलों की तरह उड़ता है। यान में हाइड्रेटेड और डिहाइड्रेटेड सभी तरह का भोजन होता है। असलियत यह है कि अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजने का एक अहम मकसद होता है पृथ्वी से कई किलोमीटर दूर अंतरिक्ष में रहते हुए मनुष्यों पर उन परिस्थितियों का असर देखना। यदि मनुष्य को कभी स्पेस में, ग्रहों या उपग्रहों पर लंबे समय तक रहना है, तो यह पता होना ज़रूरी है कि अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने का इंसान पर असर क्या होता है। लेकिन खुद अंतरिक्ष यात्रियों पर हो रहे प्रयोगों के असर पर नर रखता कौन है? अंतरिक्ष यात्रियों के हर पल की हरकत और उनपर हो रहे असर को जाँचती है हज़ारों विशेषज्ञों की एक टीम, जो नासा के कंट्रोल हब या फिर नासा पेलोड ऑपरेशन्स इंटीग्रेशन सेंटर के नाम से जानी जाती है।
कंट्रोल हब
अमेरिका के अलाबामा स्थित एक सैन्य अड्डे से संचालित इस कंट्रोल हब में एक समय में आठ पुरुष और महिलाएँ होती हैं। उनकी नज़रें कंप्यूटर मॉनिटर्स पर जमी होती हैं और चेहरों पर आँकड़ों का बोझ स्पष्ट नज़र आता है। यह सेंटर दरअसल इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के वैज्ञानिक प्रयोगों का नियंत्रण केंद्र है जहाँ चौबीसों घंटे काम होता है। पेलोड कम्यूनिकेशन्स मैनेजर सैम शाइन कहती हैं कि हम वैज्ञानिकों और स्पेस स्टेशन के अंतरिक्ष यात्रियों के बीच सम्पर्क सेतु का काम करते हैं। शाइन उन लोगों में शामिल हैं जो इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के वैज्ञानिकों से सीधे बात करते रहते हैं। यह काफी मुश्किल होता है- भाषायी अंतर होता है, टाइम ज़ोन का अंतर होता है; कई बार इटली के अंतरिक्ष यात्री को कोई जानकारी देनी होती है, तो कई बार किसी जर्मन यात्री से जानकारी लेनी होती है।
2011 में 100 अरब डॉलर की लागत से तैयार हुए इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में अमेरिका, रूस, जापान और यूरोपीय प्रयोगशालाएँ हैं और इसमें काम करने वाले अंतरिक्ष यात्री अब छह माह से एक साल तक वहाँ बिताते हैं।
शाइन कहती हैं, आप विज्ञान की किसी भी शाखा का नाम लें, हम उसके किसी न किसी विषय पर ज़रूर रिसर्च कर रहे होंगे। हम सूक्ष्म गुरुत्व अनुसंधान से लेकर पौधों की वृद्धि और तरल धातुओं के गुणों की समझ तक के बारे में प्रयोग कर रहे हैं।
एक अह्म अध्ययन इन परिस्थितियों में हड्डियों और मांसपेशियों के वेस्टेज पर हो रहा है। अंतरिक्ष यात्रियों पर पृथ्वी से बाहर धातु के बक्से में रहने, कृत्रिम भोजन खाने, रिसाइकिल किए मूत्र को पीने और महीनों तक चंद अंतरिक्ष यात्रियों के साथ रहने का असर भी देखा जाता है। ये वे अहम अध्ययन हैं जिनके बाद तय होगा कि मनुष्य अंतरिक्ष में, ग्रहों-उपग्रहों पर कितनी देर रह सकता है। इतना ही नहीं, महीनों तक पृथ्वी से दूर रहने से सम्बंधित मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन भी किया जा रहा है।
कई बार स्पेस स्टेशन के निवासी शिकायत करते हैं कि उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है। शाइन कहती हैं कि ऐसी सूरत में पता किया जाता है कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं। फिर उन्हें कम्फर्ट भोजन दिया जाता है और उनकी स्थिति को देखा जाता है। शाइन के मुताबिक नियंत्रण केन्द्र की कोशिश होती है कि वे उन्हें घर जैसा महसूस कराएँ।
सुरक्षा भी ज़रूरी
स्पेस वॉक के दौरान अंतरिक्ष यात्री खुद को यान के करीब रखने के लिए टेदर का इस्तेमाल करते हैं। यह रस्सी की तरह होता है, जिसका एक सिरा स्पेस वॉक करने वाले से और दूसरा यान से जुड़ा होता है। टेदर यात्री को अंतरिक्ष में यान से काफी दूर जाने से रोकता है। इसके अलावा अंतरिक्ष यात्री सेफर (सिम्प्लीफाइड एड फॉर इवीए रेसक्यू) भी पहनते हैं। इसे पीठ पर थैले की तरह पहना जाता है। स्पेस वॉक के दौरान यदि अंतरिक्ष यात्री से बंधी रस्सी खुल जाए और वह यान से काफी दूर जाने लगे, तो यह सेफर उसे वापस यान में लौटने में मदद करता है। स्पेस वॉकर सेफर को जॉय स्टिक से नियंत्रित करता है।
अंतरिक्ष में पहला स्पेस वॉक करने वाले अंतरिक्ष यात्री थे रूस के एल्केसी लियोनोव। उन्होंने 8 मार्च 1965 को पहली बार 10 मिनट तक स्पेस वॉक किया था। अंतरिक्ष यान एंडेवर के साथ गए अंतरिक्ष यात्री को इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में विशेष पोशाक में कार्बन डाऑक्साइड गैस भर जाने के कारण तय समय से पहले स्पेस वॉक खत्म करनी पड़ी थी। अब तक दुनिया के कई देशों के कई अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में स्पेस वॉक कर चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

मौसम

         सूखे के प्रकोप में भारत
देश गंभीर सूखे की चपेट में है। लगातार दो मानसून कमज़ोर रहे हैं और भीषण गर्मी ने हालात को और बिगाड़ दिया है। बताते हैं कि देश के जल भंडार अपनी क्षमता से 20 प्रतिशत ही भरे हैं।
उम्मीद यह की जा रही है कि इस वर्ष का अच्छा मानसून हालात को बेहतर बनाएगा। मगर कई लोग मानते हैं कि बात सिर्फ मानसून की नहीं है बल्कि विकास की प्राथमिकताओं की भी है। भारत की अर्थव्यवस्था आज भी काफी हद तक बरसात पर निर्भर है। आज भी करीब दो-तिहाई खेती बरसात के पानी पर टिकी है। कुछ हिस्सों में ज़रूर सिंचाई का विकास हुआ है मगर इसकी वजह से देश में भूजल भंडारों का अति दोहन हो रहा है, भूजल भंडार खाली होते जा रहे हैं।
खेती को सूखे से सुरक्षित करने के प्रयासों में गंभीरता नजऱ नहीं आती। विशेषज्ञों ने सलाह दी है कि सरकार को चाहिए कि वह किसानों को कम पानी से उगने वाली फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन दे, मगर सरकार गन्ने जैसी पानी डकारने वाली फसलों को सबसिडी दे-देकर पानी के दुरुपयोग को बढ़ावा दे रही है।
नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर साइन्स, टेक्नॉलॉजी एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ की राजेकारी रैना का मत है कि सघन सिंचाई पर आश्रित खेती से परहेज़ करने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं जबकि ज़रूरत इस बात की है कि हम स्थानीय फसली विविधता का लाभ उठाएँ।
बरसाती पानी को सहेजने के प्रयासों में भी कोई संजीदगी नज़र नहीं आती। खाली होते भूजल भंडारों के पुनर्भरण या उनके तर्कसंगत उपयोग की दिशा में हम ज़्यादा आगे नहीं बढ़े हैं। हालांकि अब यह सर्वमान्य है कि रूफ वॉटर हार्वेस्टिंग जैसे उपाय युद्ध स्तर पर करने की ज़रूरत है किंतु धरातल पर बहुत कम काम देखने को मिलता है।
विकास बैंक ने 2013 के एक अध्ययन में बताया था कि भारत में ग्लोबल वार्मिंग के असर दिखने भी लगे हैं। यदि धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो तीक्ष्ण गर्मी की अवधियाँ बढ़ेंगी और मानसून का पूर्वानुमान भी मुश्किल होता जाएगा। मानसून के बेतरतीब होने की संभावना भी ज़ाहिर की गई है, और कुछ हद तक इसके प्रमाण मिलने भी लगे हैं। विकास बैंक की रिपोर्ट के अनुसार तापमान बढऩे की वजह से 2040 तक फसलों के उत्पादन में उल्लेखनीय कमी आ सकती है। (स्रोत फीचर्स)

आनेमलई

                  आनेमलई

             बाघों के लिए संरक्षित क्षेत्र
                            - पी. एन. सुब्रमणियन
ऊटी जाने का कार्यक्रम बना था. मैं तो अकेला ही था परन्तु छोटे भाई का परिवार भी साथ था. नाश्ता वास्ता कर गाडी में बैठने के बाद भाई ने कहा अपन रात तक वापस आ जायेंगे. हमने कहा यार ऊटी में कमसे कम एक रात दो दिन बिताये बगैर वापस आने का कोई मतलब नहीं होगा. उसने अपनी लाचारी बतायी. दूसरे ही दिन कोई महत्त्वपूर्ण बैठक थी. सो उसने प्रस्ताव रखा. उतनी ही दूरी पर एक और जगह है आनेमलई ‘ (हाथियों का पहाड़), हमने प्रस्ताव को झट मान लिया. हम तो घुमंतू ठहरे. कहीं भी चलो पर कहीं दूर ले चलो.
आनेमलई कोयम्बतूर से दक्षिण   में  ५६ किलोमीटर की दूरी पर है. 40 किलोमीटर चलने के बाद पोल्लाची नामकी एक बस्ती आती है और वहाँ से दाहिनी ओर आनेमलई के लिए रास्ता कटता है. रुकावट के लिए खेद है, बीच में पोल्लाची आ गया. लेकिन उसे तो आना ही था. यहाँ भारत की सबसे बड़ी गुड की मंडी है और यहाँ का जानवरों का बाज़ार भी दक्षिण भारत में सबसे बड़ा है. 
आनेमलई वास्तव में पश्चिमी घाट पर्वत श्रंखला का एक हिस्सा है आगे जाकर इसी पर्वत श्रंखला में भारत की सबसे ऊंची चोटी (हिमालय के बाद) आनामुडी कहलाती है जिसकी ऊँचाई 8842 फीट है. आनेमलई तो मात्र 800 फीट की ऊँचाई पर ही है परन्तु चारों तरफ सदा बहार जंगलों से घिरा है. वैसे तो यह क्षेत्र बाघों के लिए आरक्षित है परन्तु यहाँ हाथियों का भी आवास है. यहाँ से एरविकुलम राष्ट्रीय उद्यान (Eravikulam National Park), चिन्नार वन्य प्राणी अभयारण्य (Chinnar Wildlife Sanctuary), परम्बिकुलम  वन्य प्राणी अभयारण्य (Parambikulam Wildlife Sanctuary), और बगल के इंदिरा गांधी वन्य प्राणी अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यान (Indira Gandhi Wildlife Sanctuary and National Park) आसानी से जाया जा सकता है जो सभी केरल प्रांत में पड़ते हैं.
पोल्लाची पहुँच कर हम लोगों ने आनेमलई जाने वाली सड़क पकड़ ली थी. वहाँ से अब दूरी 16 किलोमीटर रह गयी थी. करीब 7/8 किलोमीटर के बाद ही हमें स्वागत द्वार दिखा. वहाँ एक जांच चौकी भी बनी थी. एक सूचना पट्ट दिखा  ’परम्बिकुलम  वन्य प्राणी अभयारण्य’. आनेमलईऔर परम्बिकुलम दोनों के लिए एक ही रास्ता था. उसी जगह किनारे एक महिला फल आदि बेच रही थी. वहाँ से खरीदे गए चीकू बहुत ही मीठे और स्वादिष्ट थे.
यहीं से उस रक्षित वन क्षेत्र की सीमा प्रारंभ हो जाती थी. आगे जंगलों में से गुअजरना हुआ, फिर घाट वाली पहाड़ी.  दूर दूर तक केवल बाँसों के जंगल ही दिख रहे थे और वे भी अच्छे मोटे और लम्बे लम्बे.
दुपहर खाने के वक्त हम लोग टॉप स्लिप’  पर पहुँच गए थे. टॉप स्लिप वह जगह है जहाँ से किसी समय सागौन के गोलों को पहाड़ की तली तक लुका दिया जाता था. यहाँ सभी निजी वाहनों को खड़ा कर दिया जाता है. इसके आगे जाना हो तो जंगल विभाग से वाहन किराये पर लेना पड़ता है. यहाँ पर्यटकों के लिए आवासीय व्यवस्था भी अच्छी बनी है.  रात्रि विश्राम करने वालों को जीप भी किराये से मुहैया करायी जाती है. यहाँ आनेवाले पर्यटक दो प्रकार के हैं; एक ऐसे जो पिकनिक या मौज मस्ती के लिए आते हैं और दूसरे, गंभीर किस्म के जो इन जंगलों/वन्य प्राणियों  का बारीकी से अध्ययन करना चाहते हैं. ऐसे लोगों का यहाँ आना पूर्व नियोजित रहता है. वे पहले से ही जंगल में कॉटेज, वाहन आदि आरक्षित करा लेते हैं. हम तो पहली श्रेणी  के थे. वहाँ के सूचना केंद्र से पूछ ताछ करने पर पता चला कि जंगल में भ्रमण के लिए बस की व्यवस्था तो है परन्तु आवश्यक संख्या में पर्यटकों के न होने से उस दिन वह सेवा बंद थी. विकल्प के तौर पर हाथी की सवारी की जा सकती थी, परन्तु वे अभी जंगल से पहली या दूसरी फेरी कर लौटे नहीं थे. एक हाथी के लिए 400 रुपये देय  था. हम लोगों ने एक हाथी के लिए पर्ची  कटवा ली.   वहाँ एक कैन्टीन  भी थी और जंगल महकमे के कर्मियों के लिए आवास भी बने थे. अब क्योंकि भू को तो लगना ही था, हम लोगोंने कैन्टीन  का सदुपयोग किया.
कैन्टीन  के पिछवाड़े कई शूकर घूम रहे थे. हमारे भाई को थोडा अचरज हुआ. सीधे पुनः सूचना केंद्र में बैठे रेंजेर  महोदय से पूछा  गया कि वे शूकर क्या जंगली थे. उसने संजीदगी से कहा, मजाक न समझें, वे वास्तव में जंगली ही हैं. यहाँ खाने को आसानी से मिल जाता है इसलिए वे निडर होकर चले आते हैं. हमने भी अपना कौतूहल दूर किया और जाना कि उस जंगल में ३५० से अधिक हाथी हैं और शेरों  की संख्या १८ हैं. इसके अतिरिक्त, तेंदुए, चीतल, साम्भर, गौर, मेकाक बन्दर आदि भी बड़ी संख्या में हैं.  पक्षियों की तो बहुत सारी प्रजातियाँ हैं. यह भी जानकारी मिली कि जंगल विभाग का ही एक बाड़ा  है जिसमें 100 के लगभग हाथी रहते हैं. उन्हें सुबह छोड़ दिया जाता है और वे जंगल में भ्रमण कर शाम तक अपने डेरे में पहुँच जाते हैं. उन्हें देखना हो तो सुबह आना पड़ता है.
हम सभी हाथी की सवारी पहली बार करने जा रहे थे. हमें बैठा कर जंगल के अन्दर ले जाया गया परन्तु देखने के लिए कुछ बड़ी बड़ी पहाड़ी गिलहरियाँ दिखीं और कुछ मेकाक बन्दर जो बहुत ही जल्द आँखों से ओझल भी हो गए.  आधे घंटे के बाद ही हाथी को लौटा दिया गया और हम यह चाह भी रहे थे क्योंकि झटकों से तकलीफ हो रही थी, हालाकि चारों तरफ के हरे भरे जंगल बड़े सुहावने लग रहे थे. हाथी से उतर कर सीधे अपनी गाडी का रुख किया और लौट आये थे. कदाचित आनेमलाई जाने के लिए  अप्रेल का महीना उपयुक्त नहीं था.

खेल

             छत्तीसगढ़ के पारम्परिक खेल
छत्तीसगढ़ लोक खेलों का प्रदेश है। यहाँ की संस्कृति में सैकड़ों लोक खेलों का प्रचलन मिलता है। कृषि कार्य पर निर्भर यहाँ के निवासियों के लिए मनोरंजन का मुख्य साधन ही खेल है, जो उन्हें सहज में ही उपलब्ध हो जाता है।
छत्तीसगढ़ में प्रचलित पारम्परिक खेलों के उद्भव से सम्बन्धित किसी भी तरह के प्रमाण उपलब्ध नहीं है, परन्तु शिव पुराण में भगवान शिव और पार्वती के बीच चौसर खेलने का उल्लेख मिलता है।
पारम्परिक खेलों के दृष्टिकोण से महाभारत काल समृद्ध था। महाभारत काल में अनेक लोक खेलों का वर्णन मिलता है। जैसे-भगवान श्री कृष्ण द्वारा जमुना तट पर गेंद खेलने का वर्णन। गेंद के लिए छत्तीसगढ़ में 'पूकशब्द का प्रचलन है। 'पूकसे ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति में गिदिगादर और पिट्टूल नामक खेल की परम्परा विकसित हुई है। महाभारत काल में चौसर, डंडा-पचरंगा तथा बाँटी का वर्णन भी मिलता है। बाँटी ऐसा लोक खेल है, जिसके चार-पाँच स्वरूप छत्तीसगढ़ में विकसित हुए है। यहाँ पर उल्लेख करना उचित होगा कि महाभारत काल में अनेक लोक खेलों का प्रचलन रहा है, जो सर्वाधिक लोक खेलों का उद्भव काल मान सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के निवासी अल्पायु से ही कृषि कार्य में लग जाते थे, इसलिए उन्हें खेलने का पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं होता था। परिणामस्वरुप बड़े व बुजुर्गो के लिए बहुत कम खेलों की परम्परा विकसित हुई। सर्वाधिक लोक खेल बच्चों के लिए विकसित हैं और उन्ही वर्ग के बीच सरलता से गुड़ी चौपाल में खेला जाता है। ऐसे लोक खेलों में लड़के व लड़कियों के साथ-साथ खेले जाने वाले अधिकतर  खेलों का स्वरुप सामूहिक है।
नारी वर्ग सदियों से ही बंधन में रहा है। उन्हें इतनी स्वतंत्रता कभी नहीं दी गई कि वे इच्छानुसार खेलकर विभिन्न खेलों का आनंद उठा सकें। भले ही नारी समाज बंधन में रहा हो, किन्तु नारी खेलों की परम्परा बंधन में नही रह पाई। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में अनेकानेक नारी खेलों की परम्परा विकसित हुई है, जिनमें प्रमुखत: बिल्लस, फुगड़ी, चूड़ी बिनउल और गोंटा को मान सकते हैं।
पुरुष वर्ग सदैव ही स्वतंत्र रहा है। खेलने-कूदने के अवसर उन्हें अधिक प्राप्त हुए हैं। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में विकसित सर्वाधिक लोक खेलों की परम्परा पुरुष प्रधान है जैसे-बाँटी, भौंरा, गिल्ली-डंडा, अल्लगकूद, पिट्टूल, चूहउल, अट्ठारह गोटिया आदि।
छत्तीसगढ़ में पारम्परिक खेलों के विकास से सम्बन्धित वर्णन तब तक अपूर्ण है, जब तक ऐसे खेलों का उल्लेख न हुआ हो जिनमें गीत का प्रचलन हो। उन्हें हम खेलगीत कहते है। फुगड़ी, भौंरा, खुडुवा, अटकन-मटकन, व पोसम-पा ऐसे लोक खेल हैं, जो गीत के कारण लोक साहित्य में अपना विशेष स्थान बना लिए हैं:
खुडुवा का गीत:
खुमरी के आल-पाल खाले बेटा बिरो पान
मयं चलावंव गोटी, तोर दाई पोवय रोटी
मंय मारंव मुटका, तोर ददा करे कुटका
आमा लगे अमली, बगईचा लागे झोर
उतरत बेंदरा, खोंधरा ल टोर
राहेर के तीन पान, देखे जाही दिनमान
तुआ के तूत के, झपट भूर के
बिच्छी के रेंगना, बूक बायं टेंगना
तुआ लगे कुकरी, बाहरा ला झोर
उतरत बेंदरा खोंधरा ल टोर।
फुगड़ी का गीत:
गोबर दे बछरु गाबर दे, चारों खूँट ला लीपन दे
 चारों देरानी ल बइठन दे, अपन खाथे गूदा-गूदा।
 हमला देथे बीजा
ये बीजा ला का करबो, रहि जबो तीजा
तीजा के बिहान दिन,
घरी-घरी लुगरा
चींव-चींव करें मंजूर के पिला,
हेर दे भउजी कपाट के खीला
एक गोड़ म लाल भाजी, एक गोड़ म कपूर
कतेक ल मानव मय देवर ससूर
फुगड़ी फूँ रे फुगड़ी फूँ...
पोसम-पा का गीत:
पोसम-पा भई पोसम पा
बड़ निक लागे पोसम पा
सवा रुपया के घड़ी चोराय
आना पड़ेगा जेल में।
अटकन-मटकन का गीत:
अटकन-मटकन दही चटाकन
लउहा लाटा बन के काँटा
चिहुरी-चिहुरी पानी गिरे, सावन म करेला फूले
चल-चल बिटिया गंगा जाबो, गंगा ले गोदावरी
पाका-पाका बेल खाबो, बेल के डारा टूटगे
भरे कटोरा फूटगे।
विशेष पर्व में गेड़ी तथा मटकी फोर के प्रचलन मिलते हैं, उसी तरह वर्षा ऋतु में फोदा का। शीत ऋतु में उलानबांटी का और ग्रीष्म ऋतु में गिल्ली-डंडा की लोकप्रियता बढ़ जाती है। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में लोक खेलों के सर्वाधिक स्वरूप सामूहिक हैं, किन्तु एकल रुप में भी उलानबाटी चरखी व पानालरी का तथा दलगत में पतारीमार, अल्लगकूद, पिट्टूल, गिल्लीडंडा तथा भिर्री खेल का प्रचलन मिलता है।
राष्ट्र की स्वतंत्रता के पश्चात अन्य क्षेत्र व अंचल के लोगों का छत्तीसगढ़ में प्रवेश तीब्रगति से हुआ। परिणाम स्वरुप विभिन्न क्षेत्र व अंचल के पारम्परिक खेल भी आ गये। खेल, मात्र मनोरंजन प्रदान करने वाला माध्यम होने के कारण यहाँ की संस्कृति में शीघ्रातिशीघ्र वे समाहित होने लगे। वर्तमान समय में ऐसे अनेक लोक खेल मिलते हैं, जो यहाँ के नहीं हैं। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है, मानों छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन से ही उद्भूत हैं। उदाहरण के तौर पर चुन-चुन मलिया, चिकि-चिकि बाम्बे और आँधी चपाट जैसे खेलों को लिया जा सकता है। 
(छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक शंखनाद, लोकरंग अरजुन्दा स्वप्न जहाँ आकार लेते हैं से साभार)