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Nov 24, 2008

उदंती.com, नवंबर 2008


अच्छे निर्णय लेने की क्षमता अनुभव से आती है, जबकि अनुभव गलत निर्णयों से प्राप्त होता है। - बाब पैकवुड।


उदंती.com
मासिक पत्रिका
वर्ष 1, अंक 4 , नवंबर 2008


अनकही-सभ्यता और संस्कृति

बातचीत/कलाकार सोनाबाई ने जब अपने गांव आने का निमंत्रण दिया

संस्कृति/मिट्टी शिल्प-..और उसके घर का वह चबूतरा सूना हो गया

जीवन शैली/परिवार-नए जमाने की दादी नानी

बढ़ती आबादी के खतरे

परंपरा/लोक महाकाव्य-बस्तर: धान्य देवी की महागाथा- लछमी जगार

कविता/हवा कुछ कहती नहीं है

अभियान/मझे भी आता है गुस्सा-किसी को पहल तो करनी होगी-उदंती फ़ीचर्स

लघुकथाएं/1.भरोसा 2. मृत्यु प्रमाण पत्र

दस्तावेज/अतीत के पन्नों से-भारत भक्त एक अंग्रेज महिला- फैनी पाक्र्स (Fanny Parkes)

समाज/बदलती धारणा -बिन फेरे हम तेरे-उदंती फ़ीचर्स

क्या खूब कही /सफलता का रहस्य

आपके पत्र/इनबाक्स

बिल गेट्स

आपके लिए एक खुशखबरी

रंग बिरंगी दुनिया/एक सूट की कीमत 30 लाख रुपए और 24 करोड़ की..... !

स्वागत है/रचनाकारो से अनुरोध


संपादक
डॉ. रत्ना वर्मा
http://www.udanti.com/




Nov 23, 2008

सभ्यता और संस्कृति

 सभ्यता और संस्कृति
-डॉ. रत्ना वर्मा
जिस प्रकार साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है उसी तरह सभ्यता और संस्कृति से किसी भी देश या समाज की पहचान बनती है। भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर आज तक उसकी संस्कृति अविरल प्रवाहित होती चली आ रही है। यहां की उन्नत भाषा, रीति रिवाज, परंपराएं, कलाएं आदि इसका प्रमाण हैं।
सभ्यता किसी समाज के आचरण या व्यवहार को कहते हैं तथा यह बौद्धिक होती है, जैसे कृषि, व्यापार- उद्योग, निर्माण कार्य आदि जबकि संस्कृति समाज की आकांक्षाएं होती हैं और इसका संबध भावनाओं से होता है जैसे गीत, संगीत, शिल्पकला, चित्रकला आदि। इस तरह हम सभ्यता और संस्कृति को एक दूसरे से अलग करके नहीं देख सकते, दोनो एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और साथ- साथ चलती हैं।
सभ्यता और संस्कृति की बात चल रही हो तभी ऐसी खबर मिल जाए जो हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित करती हों तो मन के कोने में आशा की किरण जगती है। ये सभी खबरें शुभ की सूचक हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि बदलाव की जो बयार बह रही है वह हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को और अधिक उन्नत करेगी।
पहली अच्छी खबर है कि - गंगा नदी, जो भारतीय संस्कृति की जननी है और जिसके किनारे भारतीय सभ्यता और संस्कृति पल्लवित पुष्पित हुई है, को केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय नदी घोषित करने का महत्वपूर्ण फैसला लिया है। भारतवासियों के लिए गंगा उनकी मां है, पूज्यनीय है और वह सबके हृदय में सदा ही बसी रहती है। विश्वास है ऐसी जीवनदायी नदी को उसी श्रद्धा के साथ संरक्षित तथा प्रदूषण रहित करने की दिशा में बेहतर प्रयास किए जाएंगे।

- दूसरी महत्वपूर्ण और संगीतमय खबर है, पंडित भीमसेन जोशी को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने की। पंडित जी के कंठ में सरस्वती विराजती है अत: उनका यह सम्मान हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है। पंडित जी ने भारतीय शास्त्रीय संगीत की अमूल्य सेवा की है। वे चिरायु हों, उनकी स्वर लहरियां गूंजती रहे यही शुभकामना है ।
- और अंतत: इतिहास रचते हुए डेमोक्रेटिक पार्टी के 47 वर्षीय बराक हुसैन
ओबामा अमरीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति चुन लिए गए। उनकी यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि अमरीका में काले लोगों को वोट देने का अधिकार 1964 में मिल पाया था, जबकि अमरीका को आजादी 1776 में ही मिल गई थी। ओबामा ने जीत के तुरंत बाद अपने पहले संबोधन में कहा कि यह नेतृत्व का नया सवेरा है , जो लोग दुनिया को ध्वस्त करना चाहते हैं उन्हें मैं कहना चाहता हूं कि हम तुम्हें हराएंगे। जो लोग सुरक्षा और शांति चाहते हैं हम उनकी मदद करेंगे। अब्राहिम लिंकन को याद करते हुए उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही कि लोगो की सरकार, लोगो के लिए सरकार और लोगों के द्वारा सरकार दुनिया से गायब नहीं हुई है। इस ऐतिहासिक जीत पर उन्हें बधाई।
अप्रत्यक्ष रुप से ये तीनों खबरें हमारी संस्कृति और सभ्यता को प्रभावित करने वाली हैं, अत: दुनिया और देश में हो रहे सामाजिक- सांस्कृतिक बदलाव की इस ताजी हवा का स्वागत किया जाना चाहिए। बदलाव प्रकृति और समाज का नियम है, प्रकृति के बदलते मौसम के अनुसार हमें अपनी जीवन चर्या को सजाते- संवारते तथा पूरी निष्ठा से अपनी युगों की पुरानी संस्कृति और सभ्यता को पुष्ट करते रहना चाहिए। यही मानव धर्म है।

सोनाबाई ने जब अपने गाँव आने का निमंत्रण दिया

क्या सोनाबाई के संग्रहालय  बनाने का सपना पूरा होगा?

सोनाबाई ने जब 

अपने गाँव आने

 का निमंत्रण दिया

- डॉ. रत्ना वर्मा

अपनी पत्रिका के इस अंक के लिए जब आलोक पुतुल जी (रविवार. ष्शद्व) से बात हो रही थी तब उन्होंने सोनाबाई के लेख के बारे में जानकारी दी, तभी मुझे आज से लगभग 20 साल पहले सोनाबाई से की गई बातचीत के वे पल याद आ गए जब उन्होंने मुझे अपने गांव आने का निमंत्रण दिया था। चाह कर भी मैं इतने बरसो में उनके गांव नहीं जा पाई और अब तो वे ही इस दुनिया से रुखसत हो गई हैं। यदि जाने का मौका भी मिलेगा तो अपने हाथों से सजाए उनके सूने घर- आंगन को देखने की हिम्मत नहीं है मुझमें। हां यदि सोनाबाई के संग्रहालय बनाने के सपनों को पूरा करने की दिशा में कोई प्रयास होता है और उनका बनाया सजाया घर और उनके हाथों से गढ़े गए शिल्प को कला प्रेमियों को देखने के लिए संरक्षित कर संग्रहालय का रुप दे दिया जाता है तब जरूर उनके गांव जाना चाहूंगी। भोपाल राष्ट्रीय संग्रहालय में तो रजवार आर्ट को बहुत ही खूबसूरती से प्रदर्शित किया गया है। आज रजवार आर्ट की अंतर्राष्ट्रीय पहचान बन चुकी है, लेकिन क्या जहां की मिट्टी में सोनाबाई रची बसी रहीं और अपनी कला के माध्यम से छत्तीसगढ़ का नाम रोशन किया है, वहां भी उनकी मूल कला को संरक्षित संवर्धित किए जाने की दिशा में कोई प्रयास किया जाएगा?
फिलहाल तो शंपा शाह के बेहद संवेदनशील लेख के साथ- साथ सोनाबाई से 20 वर्ष पहले लिया गया वह साक्षात्कार भी यहां हूबहू प्रकाशित कर रही हूं जो रायपुर से प्रकाशित दैनिक अमृत संदेश के रविवार के अंक में 8 मार्च 1987 में प्रकाशित हुआ था।
बात सन् 1987 की है तब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश राज्य से अलग नहीं हुआ था। भोपाल में आयोजित होने वाले विभिन्न लोक कलाओं की प्रस्तुति के आधार पर रायपुर में भी बसंत जगार नाम से पहला लोक सांस्कृतिक उत्सव आरंभ किया गया था। इसमें अपनी कला के प्रदर्शन के लिए देश भर से लगभग 500 कलाकारों को आमंत्रित किया गया था। आदिवासी कला संस्कृति के पारखी शेख गुलाब जैसे कला मर्मज्ञ के साथ गोविंद झारा, पेमा फात्या, और सोनाबाई भी अपनी कलाकृतियों के साथ उपस्थित थीं।
कला और संस्कृति मेें विशेष लगाव के कारण, जगार में शिरकत करने वाले लगभग सभी कलाकारों से मैंने तब बातचीत की थी। उस अवसर पर सोनाबाई से लिए गए साक्षात्कार का यह पुनप्र्रकाशन मिट्टी में रची बसी एक कलाकार को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है-

सोनाबाई रजवार का नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। कच्ची मिट्टी से वह अपना रचना संसार गढ़ती हैं। सोनाबाई ऐसी लोक कलाकार हैं जो कला कर्म करते नहीं उसे जीते हैं, कला उनके लिए अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति भी है ।
56 वर्षीय सोनाबाई 10-12 वर्ष की उम्र में ही विवाह बंधन में बंध गई थीं। पति जब काम पर बाहर निकल जाते थे तो सोनाबाई का बालमन कुछ करना चाहता था। घर का अकेलापन काटे नहीं कटता था। उसी समय उनका अपना मिट्टी का घर बनने लगा। उस नए घर ने सोनाबई की जीवनधारा ही बदल दी। घर को सजाने संवारने की ललक तो थी ही सो गीली मिट्टी के पशु- पक्षी बना- बना कर वे अपना समय भी काटने लगीं और घर भी सजाने लगीं।

गांव में मिट्टी के पशु- पक्षी, देवी देवता बना कर घर सजाने की कला तो परम्परागत कला है, जो सोना बाई में शायद जन्म से ही विद्यमान थी तभी तो बिना किसी से कुछ सीखे ही उनके हाथ अपने आप ही आकार लेने लगे। कभी तोता तो कभी हिरन, कभी मोर और कभी गाय, बकरी। दीवारों को सजाना गांव की औरतों को खूब आता है, सोना बाई भी पशु - पक्षी बनाते बनाते खिड़कियों पर भी सुन्दर सुन्दर जाली बनाने लगीं और उसी जाली पर कहीं तोता तो कहीं मोर बैठा कर अपना मन बहलाने लगीं।
मुश्ताक ने एक स्थान पर लिखा भी है कि च्सोनाबाई का घर ही उनका कैनवास है। ऐसा बहुआयामी कैनवास जो जीवन्त तो है ही लेकिन जिसमें कलाकार और उसकी रचनाएं एक साथ सांस ले सकते हैं तथा अपने एकांत में मौन संवाद भी कर सकते है । सोनाबाई ने अपने घर में प्रत्योक आकृति को उसका वही स्थान दिया है, जो स्वभावत: हो सकता था। जैसे बरामदे की जाली में बैठी चिडिय़ा। जब उन जालियों मे जीवित चिडिय़ों का झुण्ड का बैठता है तो मिट्टी की बनी चिडिय़ा भी जीवन्त हो चहचहाने लगती है। कोने में बैठे बच्चे, छोटी खिडक़ी से झांकता घोड़ा यह सब इतना सहज लगता है कि कृतियां भी उनके परिवार की सदस्य सी जान पड़ती हैं। ज्
आज सोना बाई दिल्ली भोपाल से बहुत आगे अमरीका तक का सफर कर आई हैं पर सोनाबाई तो खरा सोना हैं कहीं कोई दिखावा नहीं, घमंड नहीं। अपनी कला की तरह वही सरलता और वही भोलापन। वह ठीक से हिन्दी नहीं बोल पाती, अपनी सरगुजिया बोली में अपने मन की खुशी व्यक्त करती हैं कि अब तो लोग मेरे गांव आने लगे हैं। अच्छा लगता है यह सब अनुभव करके। वह कहती हैं- अब मैं एक और मिट्टी का घर बनाऊंगी, जहां मिट्टी की कलाकृति बना- बना कर रखूंगी ताकि दूर दूर से आने वालों को दिखा सकूं। वे कहती हैं मैंने भारत भवन में जैसा संग्रहालय देखा है वैसा ही अपने उस नए घर को संग्रहालय का रूप दूंगी।
सोनाबाई के पास आज बहुत पैसा है। 50 हजार रूपए तुलसी सम्मान के, 5 हजार रुपए राष्ट्रपति पुरस्कार के और 55 हजार वह अमरीका से बचा कर लाई हैं। सब बैंक में जमा हैं। इतना पैसा पास होते हुए भी उन्हें पैसे का घमंड जरा भी नहीं है और न ही वह पैसे का दिखावा करतीं। सोनाबाई के इन भित्ती शिल्पों की कुछ लोगों ने कीमत आंकनी चाही पर सोनाबाई अपनी इस कला को बेचना नहीं चाहती, इसे वे व्यवसाय नहीं बनाना चाहती। न ही अपने बेटे- बहू को इसकी अनुमति देना चाहती। उनका कहना है जीवन चलाने लायक खेती बाड़ी है, ज्यादा लालच करना ठीक नहीं। 60 के करीब पंहुच रही सोनाबाई के हाथों में अब भी गजब की फूर्ति है और उनके हाथ अब भी उतनी ही तेजी से चलते हैं, जैसा अपना नया घर बनाते समय चलते थे।
रायपुर के बसंत जगार पर आने के लिए जब सोनाबाई के पास सूचना पंहुची तो समय बहुत कम था। सोनाबाई बताती हैं मैं तो आना ही नहीं चाहती थी, क्या करती आकर, मेरे पास यहां दिखाने के लिए मूर्तियां तैयार ही नहीं थी। मैंने तो पहले मना कर दिया पर साहब लोगों ने कहा कि जाना तो पड़ेगा ही, वहां तुम्हारी कला को नहीं तुम्हें देखेंगे। (यह सब बताते हुए सोनाबाई इस उम्र में भी शरमा जाती हैं) फिर क्या करती घर में जितनी कलाकृति थी सब उठाकर ले आई, कुछ तो दीवारों से उखाड़ कर लाईं हूं। इनमें रंग रोगन करने का समय भी नहीं मिला। मुझे तो इसे दिखाने में भी शर्म आती है। सोनाबाई की यह साफगोई सचमुच उसकी सादगी का प्रतीक है। बातचीत के दौरान सोनाबाई ने अपनी मीठी सरगुजिया बोली में मुझे आपने गांव आने का निमंंत्रण देते हुए कहा- कभू हमरो गांव कोती अइहौ न, हमला खुशी होइही।
सोनाबाई से जब मैंने कुछ प्रश्न पूछना शुरु किया तो वे बहुत ही नपे - तुले शब्दों में धीरे धीरे अपने मन की बात बताती चली गईं। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश-
- कच्ची मिट्टी से तरह- तरह की मूर्तियां बनाना आपने कहां से सीखा?
00 कहीं से भी नहीं, बस कल्पना के आधार पर मैं यह सब बना लेती हूं।
- शुरुआत कहां से हुई ?
00 घर से ही। जब मैं बहुत छोटी थी तब हमारा घर बन रहा था, बस उसी समय घर बनाते- बनाते मन में कुछ विचार उपजा और दीवारों पर विभिन्न पशु- पक्षियों के आकार उकेरते चली गई। लोगों को यह पसंद आया तो मैंने इन सबसे अपने पूरे घर को सजा लिया। हर कमरे में कुछ न कुछ बना दिया। जानवर, पेड़ पौधे, पक्षी। जो मन करता बना लेती।
-मूर्तियां बनाने के लिए क्या कोई विशेष प्रकार की मिट्टी इस्तेमाल करती हैं?
00 हां काली और पीली ्मट्टी में धान का भूसा मिला कर मिट्टी सानना पड़ता है, इस मिश्रण को तीन दिन तक पानी में भिगोकर रखा जाता हैं फिर उसे अच्छी तरह कूटते हैं। ऐसा करने से मिट्टी की मूर्ति जब सूख जाती है तब भुरभुरी नहीं होती और जल्दी टूटती भी नहीं।
-आपने इनमें रंग भी लगाया है, रंग किस तरह का होता है?
00 मूर्ति तैयार होने के बाद सबसे पहले छुही( जिससे घरों में हम पुताई करते हैं) मिट्टी से रंगती हूं, फिर उस पर गेरू (पीली मिट्टी)और कभी- कभी नीला रंग भी लगाती हूं।
-यह जो तोता है उस पर तो आपने हरे रंग का प्रयोग किया है?
00 हां यह रंग सेम के पत्ते से बनाती हूं। आप शायद नहीं मानेंगी पर मैंने कभी बाजार से रंग नहीं खरीदा।
- फिर इतने प्रकार के रंग किससे बनाती है?
00 सब रंग बन जाते हैं। पत्तों से हरा रंग, नील से नीला, छुही से पीला, मटमैला और गेरू से गेरुआ, कोयले से काला, और क्या चाहिए इन्हें रंगने के लिए।
- हमें पता चला है कि आप अपनी कला की बिक्री नहीं करतीं?
00 हां आज तक अपनी कला को हमने नहीं बेचा हैऔर न ही बेचने का इरादा है। हम तो यह सब अपने घर को सजाने के लिए बनाते हैं।
-अब तो आपकी यह कला विदेशों तक पंहुच गई है दुनिया आपकी कला को सराह रही है, तो इसे व्यवसाय क्यों नहीं बना लेती?
00 हम कच्ची मिट्टी से मूर्तियां बनाते हैं, इससे यह कभी भी टूट सकती है। ऐसे में इनका क्या मोल करना। हम तो किसान हैं किसानी ही करेंगे और इसे कला के रूप में ही बनाते रहेंगे। मेरा बेटा भी इसी के पक्ष में है।
-इसे भट्टी में नहीं पका सकते क्या?
00 हमारा यह काम ही नहीं है। फिर इसमें भूसा होता है, पैरों में लकड़ी का उपयोग करते हैं , इसलिए इन्हें पकाया भी नहीं जा सकता।

-पर कला के कद्रदान तो इसे खरीद कर ले जाना चाहते हैं?
00 हां खरीदना तो सभी चाहते हैं पर हम सोचते हैं मान लो अभी पैसे में बेच दिए और वह घर ले जाते- जाते टूट गया तो ले जाने वाला क्या सोचेगा। यही सोचकर बेचना अच्छा नहीं लगता। कोई लेने की बहुत जिद ही करता है तो उसे ऐसे ही दे देते हैं। फिर वह जबरदस्ती कुछ पैसे पकड़ा भी जाता है, तब हम का करिबो।
-आप अपने घर में इस तरह की मूर्तियां और दीवरों पर जाली बनाती हैं, इसकी जानकारी भारत भवन को कैसे मिली?
00 एक दिन अचानक मेरे घर कुछ लोग आए, मुझसे बातचीत करने के बाद वे मेरी बनाई मूर्तियों को ले जाने की बात करने लगे। मैं एकदम रुंआसी सी हो गई, अपने हाथों से जन्में और बरसों से घर में पल रहे इन शिल्पों को अपने से कैसे अलग कर देती। उन लोगों ने मुझे काफी समझाया, कि वे इसे क्यों ले जा रहे हैं, तब कहीं मैं इन्हें देने को राजी हो पाई। फिर भी जब उन्होंने घर की दीवारों से मेरी बनाई चीजों को उखाड़ लिया तो घर बेजान सा उजड़ा- उजड़ा लगने लगा, घर की दीवारें किसी मां की उजड़ी गोद सी सूनी और उदास जान पड़ीं और इन सूनी दीवारों को देख मेरी आंखों में आंसू की धारा बह निकली, तब मेरे बेटे ने मुझे दिलासा दिया और मैंने भी सोचा कि इन दीवारों को अब फिर से नया बनाऊंगी।
मैंने नया बना भी लिया है। जब आप मेरे घर आएंगी तो मेरे घर की दीवारें सूनी नहीं दिखाई देंगी। लेकिन आज भी उस दिन की बात को याद करती हूं, तो सोचती हूं कि भले ही उस दिन मेरा मन बहुत रोया था पर यदि वे उस दिन नहीं आते तो मेरी कला तो अनजानी ही रह जाती, जिसे आज पूरी दुनिया देख और सराह रही है।
- राष्ट्रपति और तुलसी सम्मान पा कर कैसा अनुभव करती हैं?
00 अच्छा लगता है। नए नए लोगों से मिलना होता है लोग बहुत प्यार व सम्मान देते हैं।
- पुरस्कार में मिली राशि का क्या करेंगी?
00 अभी तो बैंक में जमा है। गांव में मकान बनाने की सोच रहे हैं। मकान बनाकर वहां कुछ अच्छी मूर्तियां बनाकर रखेंगे ताकि आने जाने वाले देखें।
- पर जिस प्रकार की मूर्तियां आप बनाती हैं वह तो मिट्टी के ही घर में बन सकती हैं तो क्या आप नया घर भी मिट्टी का ही बनाएंगी?
00 हां, मिट्टी का ही बनाएंगे। जीवन भर मिट्टी के घर में रहती आई हूं इसलिए नया घर भी मिट्टी का ही बनाऊंगी।
-क्या आप मू्र्तियां रोज बनाती हैं?
00 नहीं जब मन करता है तभी बनाती हूं।
- घर में और कोई है जो आपकी तरह मूर्तियां बनाता है। आप किसी और को अपना हूनर सीखा रहीं हैं?
00 मेरा एक बेटा है दरोगाराम, उसने तो मेरे साथ रहकर सब बनाना सीख लिया है, मेरी बहू भी बहुत अच्छी मूर्तियां बनाने लगी है, अब तो वे दोनों ही घर सजा लेते हैं।
- यदि कोई आपकी कला सीखना चाहे तो सिखाएंगी?
00 मैं तो तैयार हूं पर कोई सीखना चाहे तब न।
- आपकी इस कला को आने वाली पीढ़ी याद रखे यह तो चाहती ही होंगी?
00 बिल्कुल चाहती हूं मैं तो अपने बेटे से हमेशा यही कहती हूं खाओ पीओ मस्त रहो पर अपनी विद्या को मत छोड़ो, फिर कभी भी किसी चीज की कमी नहीं पड़ेगी।
-पिछले वर्ष आप अमेरिका गईं थी, कैसा लगा वहां, वहां के लोग वहां का रहन- सहन, खान- पान और वहां की जलवायु?
00 बहुत अच्छा लगा। वहां के लोगों ने बहुत प्यार दिया, खूब घूमाया मुझे। वहां हमारे देश जैसी गंदगी नहीं है। बहुत साफ- सफाई है। एक लकड़ी का टुकड़ा तक फेंकते नहीं वहां, सब कचरे के डब्बे में डालते हैं। पर वहां की लड़कियों को शरम नहीं हैं खुले बदन घूमती हैं। मुझे भी सिर मत ढकों कहती थीं, पर मैं तो बिना सिर ढापे शरम के मर ही जाऊं। मेरी चूडिय़ों को देखकर वे आश्चर्य करती थीं, कहती थीं इसे हाथ में कैसे पहना? एक ने तो इन चूडिय़ों की कीमत 500 रूपए लगा दिया और उसे मांगने भी लगी, पर मैं कैसे दे देती, अपने सुहाग चिन्ह को, उन्हें समझाती भी कैसे।
- वहां आपने क्या क्या देखा?
00 वहां मैंने बड़ी बड़ी मछलियों देखी हाथी के जितनी बड़ी। जब वापस आ रही थी तो सबने बिदाई के समय कुछ न कुछ भेंट दिया कुछ तो रोने भी लगे थे, हमारे इधर पठौनी में जैसे रोते हैं उसी तरह। बहुत प्यार सम्मान मिला वहां मुझेे।
-वहां आप अपने साथ कौन कौन सी कलाकृतियों को ले गई थीं?
00 कुछ भी नहीं ले जा पाई थी सब वहीं जाकर बनाया था।
- तो क्या अपने साथ मिट्टी भी ले गईं थी?
00 नहीं मिट्टी भी नहीं ले जाने दिया गया था। बीमारी फैल जाएगी कहकर। एक बोरी भूसी जरूर ले गए थे जिसे वहीं की मिट्टी में मिला कर कुछ मूर्तियां बनाईं थी, लेकिन वे उतनी अच्छी नहीं बन पाईं थी जैसी हमारे यहां की मिट्टी से बनती हैं। वहां पर मूर्तियां सूखने के बाद तडक़ जाती थीं।
- वहां के खाने को लेकर परेशानी हुई होगी?
00 हम तो वहां का खाना खा ही नहीं सकते थे अपने हाथ से खाना बनाते थे। चावल दाल सब्जी। मैं होटल का खाना नहीं खा सकती इसलिए यहां रायपुर में भी सामान मंगवा कर आपने हाथ से बना कर खा रही हूं।
- भविष्य की कोई योजना कुछ विशेष करने के बारे में सोचा है आपने?
मेरी तो अब उम्र हो गई है मुझे क्या सोचना अब तो जो कुछ करेंगे बच्चे ही करेंगे सबका प्यार और सम्मान पाकर मैं तो बहुत खुश हूं।
00

...और उनके घर का वह चबूतरा सूना हो गया

...और उनके घर

का वह चबूतरा

 सूना हो गया

- शंपा शाह

बिरले ही सही, पर, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके पास बैठकर आपको लगता है कि पृथ्वी सदैव अपनी धुरी पर घूमती रह सकेगी, कि धूप में गरमाहट रहेगी, कि पृथ्वी के जंगल नष्ट नहीं किये जा सकेंगे या विनोद कुमार शुक्ल की कविता की पंक्ति को लें तो लगता है-सब कुछ होना बचा रहेगा।
पुहपुटरा, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़ की सोनाबाई रजवार इन्हीं बिरले आत्मीय जनों में से एक थीं। सोनाबाई को उनके घर के आंगन में, उनकी अपनी ही सिरजी हुई दुनिया से घिरा बैठा देखना एक अनुभव था। वे एक साथ उसमें रमी हुई और उससे निरपेक्ष जान पड़ती थीं जैसे वे इस दुनिया में हों भी और नहीं भी। विलक्षण बात यह कि उनके चेहरे, उनके व्यक्तित्व का वह स्थितप्रज्ञ, अपने में डूबा हुआ-सा भाव उनके काम में भी उतनी ही शिद्दत के साथ प्रतिबिम्बित होता है।
उनके घर के बरामदे में बनी मिट्टी की जालियों की ओर इशारा करते हुए जब मैं बार-बार सोनाबाई से पूछती कि गोल-गोल आकारों से बनी उस जाली को क्या कहते हैं और उस ऊपर वाली जाली का नाम क्या है जिसमें चिडिय़ा बैठी है, तो वे कहतीं - च्नईं जानू मैं! जब ये झिझुंरी (जाली) बनाये रही तब क्या मालूम था कि कोई इसका नाम पूछेगा! तब तो जो मन में आता गया, बनाती गई. वैसे चाहो तो इसे चूड़ी झिंझुरी, और जिसमें चिडिय़ा बैठी है उसे पिंजरा झिंझुरी कह सकते हैं। ज्
नहीं, सोनाबाई ने अपने घर में ये सुन्दर जालियां, ये जानवर, पक्षी, मानव आकृतियां इसलिये नहीं बनाई थीं कि एक दिन लोग आकर उनसे इन सबके बारे में पूछें या इस सौन्दर्य की सृष्टि के लिये उन्हें धन-मान देकर सम्मानित करें। तब प्रश्न है कि सोनाबाई ने ऐसा अभूतपूर्व घर क्यों बनाया जिसके बारे में 1983 में जब पहले-पहल लोगों को पता चला तब से देश-विदेश के कला मर्मज्ञों के आने का सिलसिला आज भी जारी है?
सोनाबाई का सात शब्दों का सीधा-सा जवाब था- च्घर सुघड़ लगेगा ऐसा सोचकर सहज बनाया। ज् लेकिन सोनाबाई तथा उनके इकलौते बेटे दरोगाराम के साथ उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर हुई अंतरंग बातचीत के दौरान वे बातें सामने आईं, जो एक कलाकार के जन्म लेने, खिलने की पूरी प्रक्रिया को सामने लाती हैं। सात भाई-बहनों में से एक सोनाबाई का जन्म छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के केनरापारा गांव में कृषि प्रधान रजवार समुदाय के एक भरे-पूरे परिवार में 1930 के आसपास हुआ था।
चौदह बरस की उम्र में उनका ब्याह पास के गांव पुहपुटरा के रहने वाले होलीराम रजवार के साथ हुआ। सास पहले ही गुजऱ चुकी थीं और ससुर का भी जल्दी ही देहांत हो गया।
ज़मीन जायदाद का बंटवारा ऐसा हुआ कि होलीराम को बस्ती से दूर, खेतों के पास नया घर बनाना पड़ा। गृहस्थी को नये सिरे से जमाना था, लिहाज़ा होलीराम दिन भर खेत में लगे रहते।
छोटी-सी सोनाबाई दिन भर करे तो क्या करें? न आस पड़ौस, न घर में कोई बोलने वाला और फिर घर भी तो अभी अधूरा था। लिपाई-रंगाई अभी बाकी थी। सिर्फ दीवारों और छत से भला घर बनता है? कम से कम सोनाबाई का घर तो इतने से निश्चित ही नहीं बनता।
बचपन में सोनाबाई ने अपनी मां को रंगाई लिपाई करते देखा था। छेरता (मकर संक्रांति) के समय मां लिपाई करतीं, तो तरह-तरह के छोहा निकालती थीं। सरगुजा के इलाके में घर एक विशिष्ट तरीके से लीपे जाते हैं। गोबर-मिट्टी की दीवार पर स्त्रिया छुही यानी सफेद खडिय़ा मिट्टी के घोल में सूती कपड़े को भिगाकर उससे दीवार का एक टुकड़ा पोतती हैं और इसके पहले कि सतह सूखे, वे फुर्ती से उस पर उंगलियों से सीधी, आड़ी, तिरछी, लहरदार लकीरें उकेरती हैं। इस तरह छोटे-छोटे आयताकार खण्डों से मिलकर पूरे घर की लिपाई होती है जिसे छोहा लिपाई कहते हैं।
अपने सूने मकान और उसमें अपने अकेलेपन के इर्द-गिर्द सोनाबाई ने जीवन का ऐसा मेला रचा जिसमें तमाम ऋ तुएं, त्यौहार, जंगल, खेत-खलिहान लहलहा उठे। जब अपना घर बनाने के लिये सोनाबाई ने एक बार मिट्टी हाथ में ली तो फिर वह कभी छूटी ही नहीं। पता नहीं सोनाबाई ने मिट्टी को नहीं छोड़ा या कि मिट्टी ने सोनाबाई को नहीं छोड़ा।
बहरहाल सोनाबाई बताती हैं कि उनके पति खेत से लौटते तो उनके मिट्टी सने हाथ देखकर गुस्सा करते-
च्जब देखो तब हाथ में चिखला (मिट्टी) धरे रहती है। इससे पेट भरेगा क्या? ज्
पर इस गुस्से का सोनाबाई पर कोई असर नहीं हुआ। उनके घर से जाते ही सोनाबाई फिर से चिखला धर लेतीं और काम में जुट जातीं।
आंगन से कमरों को अलग करते हुए जो बरामदे थे वहां धीरे-धीरे एक अलग ही दुनिया आकार लेने लगी। बांस की छोटी-छोटी पतली खपच्चियों को मोडक़र, उसे सुतली से बाँधकर और उस पर फिर मिट्टी चढ़ाकर सोनाबाई ने नाना आकारों की झिंझुरी बनाई और तब उस पर कहीं ढोल बजाते आदमी, कहीं झांकता हुआ शरारती बच्चा, कहीं बिल्ली, शेर, गाय, चिडिय़ा, सांप सब एक-एक कर प्रकट होने लगे।
धीरे-धीरे बरामदे से लगी कमरे की बाहरी दीवारें भी विस्तृत लैण्डस्केप में बदल गईं जिस पर कहीं पीपल की फैली डालों पर उत्पात मचाते बंदर थे, तो कहीं सींग से सींग भिड़ाकर लड़ते बैल थे।
दूर क्षितिज पर एक दूल्हा अकेला ही घोड़े पर चढक़र जा रहा था और दीवार के दूसरे छोर पर लडक़े-लड़कियों का सैला नृत्य करता समूह गुजऱ रहा था। दीवार पर जगह-जगह घने देथा (आलों) में कहीं बकरी शेर के साथ बैठी थी तो कहीं बंसी बजाते हुए कृष्ण विराजमान थे।
सोनाबाई के हाथ जैसे रूकने का नाम ही नहीं लेते थे। यह सिलसिला कई वर्षों तक चला। घर का कोई कोना अब सूना न था, हर तरफ जीवन था।
दोंदकी- वह कोठी जिसमें अगले वर्ष के लिये बीज रखा जाता है, वह भी गाय-बैलों की आरामगाह बन गई थी। अपने सूने मकान और उसमें अपने अकेलेपन के इर्द-गिर्द सोनाबाई ने जीवन का ऐसा मेला रचा जिसमें तमाम ऋतुएँ, त्यौहार, जंगल, खेत-खलिहान लहलहा उठे। अपने अकेलेपन से ऐसा मौलिक प्रतिशोध?
एक क्षण के लिये भ्रम होता है कि बात पारंपरिक कलाकार की नहीं बल्कि किसी आधुनिक चेतना के कलाकार की हो रही है। लेकिन जो जीवित है उसी को तो परंपरा कहेंगे और वह जीवित तभी बच सकती है जब उसकी सिंचाई नित नये विचारों, रूपाकारों से हो।
सोनाबाई से मैंने यह प्रश्न दो साल पहले और पन्द्रह साल पहले भी पूछा था कि उन्होंने यह काम किससे सीखा? उनका जवाब यही था- च्मां से सीखाज् लेकिन इस संबंध में जो तथ्य सामने आये वो बेहद चौंकानेवाले हैं।
1983 में भारत भवन, भोपाल की आदिवासी तथा लोककला दीर्घा के लिये संकलन करने हेतु एक दल सरगुजा के गांवों में पहुंचा। वहां के लोग मुख्य रूप से मिट्टी की पकी हुई चीज़ें खोज रहे थे, तभी अम्बिकापुर गेस्ट हाउस के चौकीदार ने पुहपुअरा की सोनाबाई के घर का हवाला दिया। दल, जिसमें प्रसिद्ध चित्रकार, छायाकार ज्योति भट्ट भी थे, सोनाबाई के घर पहुंचा तो उनकी सिरजी दुनिया को देख दंग रह गया। चंूकि सोनाबाई ने तब भी उन्हें यही बताया था कि यह काम परंपरा से होता आया है और उन्होंने अपनी मां से सीखा था इसलिये दल के सदस्यों ने उस गांव और आस-पास के गांवों का हर घर छान डाला। पर वैसा काम पूरे इलाके में कहीं नहीं मिला। हां जिसे छोहा लिपाई कहते हैं, वह ज़रूर कई घरों में था।
ऐसे अनेक लोग जो यह मानते हैं कि परंपरा तो वह है जिसमें बदलाव नहीं है, जिसमें व्यक्तिगत हस्ताक्षर की जगह नहीं है, जो ज्यों की त्यों पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती जाती है, उनके लिये यह उदाहरण विचलन पैदा करने वाला होना चाहिए। 1983 में सोनाबाई को दिल्ली में राष्ट्रपति सम्मान तथा 1986 में भारत भवन, भोपाल में तुलसी सम्मान मिला। देश-विदेश के लोगों का उनके घर ता3ता लग गया जो आज भी जारी है। कई विदेशी दौरे भी करने पड़े।
इस सब से इलाके में उनका मान-सम्मान बढ़ा और इलाके की बहुत- सी स्त्रियों ने अपने हाथ में चिखला धर अपने घरों को सजाना शुरू किया। आज इस इलाके की कई अन्य प्रतिष्ठित कलाकार भी हैं। भारत भवन के लोग जब खासा दाम देकर सोनाबाई की बनाई कुछ चीज़ें ले गये तब सोनाबाई के पति होलीराम का चकित होना लाज़मी था। उन्होंने क्या सोचा था कि उसकी हर दम चिखला में हाथ साने रहने वाली पत्नी रजवार समाज और उसके घर के लिये इतना सम्मान लायेगी। लेकिन सोनाबाई को इन तमाम सम्मान से जैसे कोई लेना-देना ही नहीं था। वे कहती थीं च्घर के बाहर जैसे ही कोई गाड़ी आकर रूकती थी तो मैं छुप जाती थी, क्योंकि मुझे कहीं भी जाने से डर लगता था। ज्
सोनाबाई का पूरे इलाके में ऐसा ज़बरदस्त असर है कि किसी कला महाविद्यालय का भी क्या होता होगा। उनके अदृश्य विद्यालय से कितने ही स्नातक जिनके कारण दुनिया में 'रजवार पेन्टिंगÓ, 'रजवार क्ले रिलीफ  का आज नाम है किंतु जाहिर है सोनाबाई को इसका श्रेय लेने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
अभी चार-छ: माह हुए पता चला कि सोनाबाई नहीं रहीं। दो वर्ष पूर्व जब मैं सरगुजा, उनके घर गई थी तो वे मुझे अपने घर के बाहर चबूतरे पर बैठी मिलीं थीं।
बरसात के दिन थे, घर के बेटे-बहू बल्कि आसपास के सारे स्त्री-पुरुष खेतों में रोपा लगाने गए हुए थे। सोनाबाई, सामने फैले खेतों के विस्तार को देखती हुई चबूतरे पर प्रकृतिस्थ बैठी थीं- वैसे ही जैसे खेतों के उस पार पिल्खा पहाड़ बैठा था। (रविवार.com से)
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सोनाबाई को उनके घर के आंगन में, उनकी अपनी ही सिरजी हुई दुनिया से घिरा बैठा देखना एक अनुभव था। वे एक साथ उसमें रमी हुई और उससे निरपेक्ष जान पड़ती थीं जैसे वे इस दुनिया में हों भी और नहीं भी।
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अपने सूने मकान और उसमें अपने अकेलेपन के इर्द-गिर्द सोनाबाई ने जीवन का ऐसा मेला रचा जिसमें तमाम ऋ तुएं, त्यौहार, जंगल, खेत-खलिहान लहलहा उठे। जब अपना घर बनाने के लिये सोनाबाई ने एक बार मिट्टी हाथ में ली तो फिर वह कभी छूटी ही नहीं। पता नहीं सोनाबाई ने मिट्टी को नहीं छोड़ा या कि मिट्टी ने सोनाबाई को नहीं छोड़ा।
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बरसात के दिन थे, घर के बेटे-बहू बल्कि आसपास के सारे स्त्री-पुरुष खेतों में रोपा लगाने गए हुए थे। सोनाबाई, सामने फैले खेतों के विस्तार को देखती हुई चबूतरे पर प्रकृतिस्थ बैठी थीं- वैसे ही जैसे खेतों के उस पार पिल्खा पहाड़ बैठा था।
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बढ़ती आबादी के खतरे

बढ़ती आबादी के खतरे
- डॉ. वाई. पी. गुप्ता

आज विकासमान विश्व की आधे से अधिक आबादी शहरों में रह रही है और स्वास्थ्य के लिए एक संकट बनती जा रही है।
भारत की आबादी जुलाई 2007 में 112.9 करोड़ से अधिक हो चुकी है। यह पर्यावरण को प्रदूषित करने के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए विपरीत स्थिति पैदा कर रही है। क्योंकि बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं (जैसे प्रभावी मल-जल निकास व्यवस्था, पीने के साफ पानी की आपूर्ति, साफ-सफाई की प्राथमिक व्यवस्था) आबादी के एक बड़े भाग को उपलब्ध नहीं है। बढ़ती आबादी,बढ़ता औद्योगिक कूड़ा, अनाधिकृत कॉलोनियों की बाढ़, जन सेवा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, कूड़े के निपटान तथा वाहनों की बढ़ती संख्या ने स्थिति को और भी खराब कर दिया है। जीवित रहना भी एक गंभीर चुनौती बन गया है।
तेज़ी से हो रहा शहरीकरण भी स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा जोखिम बना हुआ है और कई बीमारियों का कारण है। अधिक भीड़-भाड़, कचरे के निपटान की अपर्याप्त व्यवस्था, जोखिम भरी कार्य परिस्थितियां, वायु और पानी प्रदूषण आदि ने शहरी जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रखा है। शहरीकरण के बढऩे से शहरी आबादी की ज़रूरतों के लिए उद्योग को बढ़ावा मिला जिससे काफी हानि हो रही है।
उद्योगों और विश्व के 63 करोड़ से अधिक वाहनों में पेट्रोलियम के उपयोग ने वातावरण को विषाक्त बना दिया है, जिससे फेफड़ों का कैंसर, दमा, श्वसन सम्बंधी बीमारियां हो रही हैं। दिल्ली की आबादी 1.5 करोड़ से अधिक हो चुकी है। यहां वायु प्रदूषण विश्व के शहरों में चौथे स्थान पर है।
मुम्बई, कोलकता, कानपुर और अहमदाबाद भी बुरी तरह से प्रभावित हैं। बढ़ते वाहन, ताप बिजली घर और औद्योगिक इकाइयां दिल्ली में मुख्य प्रदूषक हैं। यहां के 51 लाख से अधिक वाहन 65 प्रतिशत वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं।
दिल्ली की शहरी आबादी का दम घुट रहा है। यहां हवा में निलंबित कणदार पदार्थों की मात्रा बढक़र विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित सीमा 60 माइक्रोग्राम से सात गुना अधिक है। इसके कारण दिल्ली की 30 प्रतिशत आबादी सांस की बीमारियों से पीडि़त है। दमा की बीमारी एक मुख्य समस्या है। वायु प्रदूषण के कारण स्कूल जाने वाला प्रत्येक दसवां बच्चा दमा का शिकार है।
वायु प्रदूषण से दिल्ली में प्रति वर्ष 10,000 लोगों की मौत होती है। पानी प्रदूषण और मल-जल के निकास की समस्या ने देश के स्वास्थ्य को खराब कर रखा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 70 प्रतिशत पानी की सप्लाई मल-जल से दूषित है।
संयुक्त राष्ट्र ने रिपोर्ट किया है कि भारत के पानी की गुणवत्ता खराब है और नागरिकों को मिलने वाले पानी की गुणवत्ता के संदर्भ में इसका स्थान 122 राष्ट्रों में 120वां है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में पानी की आपूर्ति विकासशील देशों के बड़े शहरों में सबसे खराब है। दिल्ली नगरवासियों के फोरम ने भी कहा है कि दिल्ली का पानी बहुत दूषित है।
प्लास्टिक और विषैला घरेलू मल- जल यमुना नदी को प्रदूषित कर रहे हैं। 1,800 करोड़ लीटर से ज़्यादा अनुपचारित घरेलू और औद्योगिक अवशिष्ट प्रतिदिन यमुना नदी में बहाया जाता है, जिससे पीने के पानी की आपूर्ति खराब हो रही है और उसमें बैक्टीरिया बड़ी मात्रा में पनप रहे हैं। बैक्टीरिया की मात्रा बढऩे से पानी से होने वाली बीमारियों के मामले बढ़ जाते हैं।
हरियाणा में औद्योगिक पदार्थों और महानगरों के अवशिष्ट ने पश्चिमी यमुना नहर के पानी को प्रदूषित करके पीने के पानी की आपूर्ति को तबाह कर दिया है। पानी प्रदूषण के कारण प्रति वर्ष देश के किसी न किसी भाग में कई बीमारियां भयानक रूप से फैलती रहती हैं। दिल्ली की आबादी का एक बड़ा भाग प्रति वर्ष पानीजन्य बीमारियों (हैज़ा, दस्त, गैस्ट्रोएंट्राइटिस) का शिकार होता है। गरीबों के बच्चे पानी से होने वाले संक्रमण की चपेट में जल्दी आ जाते हैं, क्योंकि वे कुपोषण के शिकार होते हैं और उनकी प्रतिरोध क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं हो पाती है।
इस देश में प्रति वर्ष लगभग दस लाख बच्चे हैज़ा और आंत्र-शोथ से मरते हैं। इससे पता चलता है कि बढ़ती आबादी और शहरीकरण ने हमारे महानगरों के स्वास्थ्य परिदृश्य को कठिन बना दिया है। इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शहरों में स्वस्थ जीवन के लिए स्वस्थ शहरों के निर्माण की पहल की है। शहरी जीवन में सुधार के लिए शहरीकरण और आबादी की वृद्धि में कमी लाने के लिए योजना बनानी होगी।
यदि प्राथमिकता के आधार पर पानी की गुणवत्ता के सुधार हेतु कदम नहीं उठाए गए तो दिल्ली के नागरिक बदहाल जीवन जीने को अभिशप्त होंगे। (स्रोत )

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बढ़ते वाहन, ताप बिजली घर और औद्योगिक इकाइयां दिल्ली में मुख्य प्रदूषक हैं। यहां के 51 लाख से अधिक वाहन 65 प्रतिशत वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं।
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भारत के पानी की गुणवत्ता खराब है और नागरिकों को मिलने वाले पानी की गुणवत्ता के संदर्भ में इसका स्थान 122 राष्ट्रों में 120वां है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में पानी की आपूर्ति विकासशील देशों के बड़े शहरों में सबसे खराब है।
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नए जमाने की दादी- नानी

नए जमाने की दादी- नानी
- सोमा मित्रा

68 वर्ष की अनीमा नाग नियमित रूप से स्विमिंग पर जाती हैं और बैडमिंटन खेती हैं। वे अपने कूल्हे भी डिस्को की ता के साथ मटका सकती हैं और कुछ गा-वा भी ेती हैं। प्राथमिक शाा की सेवानिवृत्त प्राचार्या, सुश्री अनीमा नाग अपने जीवन की सांझ में, अपने पोते-पोतियों के प्रति अपने प्रेम के चते पाठ्येतर गतिविधियों में रुचि ेने गी हैं।
च्युवावस्था के दिनों में इन सब चीजों में कभी कोई मेरी रुचि न रही। मेरा सारा समय या तो अध्ययन में या फिर काम में बीतता। ेकिन अब मैंने नृत्य, मेरे 3 पोते-पोतियों के साथ वक्त गुजारने जैसे नये कौश अर्जित किये हैं। नौकरीशुदा मां-बाप के चते, उनके एि मेरे पास आने के आवा कोई चारा भी नहीं।ज् कोकाता के बाघा जतीन इाके की रहने वाीं सुश्री नाग कहती हैं।
65 वर्षीय मुक्ति मित्रा भी पोते-पोतियों के हिसाब से अपनी जीवन-शैी में बदाव ाने की भरपूर कोशिश में गी हैं। वे भी मानती हैं कि च्दोहरी कमाई में जुटे मां-बाप के पास इतना समय नहीं है कि वे अपने बच्चों को उनकी संगीत कक्षा में, या उनके दोस्तों की जन्मदिन पार्टियों में या फिर तैराकी सिखाने के एि े जा सकें। और न ही बच्चों को इन सब चीजों के एि अकेे ही जाने दिया जा सकता है। ऐसे में दादा-दादी, नाना-नानी का सहारा ही यिा जा सकता है।ज्
उत्तर कोकाता की रहने वाी मुक्ति मित्रा ने अपनी पोती बृष्टि रक्षित की खातिर संगीत की स्वरििप सीखी।
च्मैं तो बेसुरी हूं, पर मेरी बृष्टि नैसर्गिक रूप से सांगीतिक प्रकृति की है। मैं उसके एि कम से कम स्वरििप तो सीख ही सकती थी। इसके आवा मैं नन्ही-सी बच्ची के साथ भी रह ेती हूं वर्ना उसे किसी आया के भरोसे छोडऩा पड़ता।ज् मुक्ति कहती हैं। ेकिन सिर्फ संगीत ही नहीं, जिम्नास्टिक और गातार बर्थ-डे पार्टियों में जाना भी उनकी रूटीन के कमों का एक हिस्सा बन गया है। अपनी ये दादी मां आगे कहती हैं, च्इन पार्टियों में आने वाी युवा माताएं अकसर अपने बच्चों के साथ नाचती-गाती हैं। और मैं भी उनमें शामि होने में झिझकती नहीं। मैं नहीं चाहती कि मेरी पोती अपनी उम्र के किसी भी पड़ाव पर मुझे ेकर शर्मिंदा हो।
पिछे तीन साों में अपनी मां में आये परिवर्तन को ेकर मुक्ति की पुत्री शम्पा रक्षित याद करते हुए कहती हैं, च् मेरी मां का परिवार बांगदेश से शरणार्थी के बतौर बंगा आया था। मुझे अच्छे-से याद है कि वे काफी सख्ती बरतती थीं और हमेशा बुरे दिनों के एि बचा के रखती थीं। उन्होंने कभी भी मेरी बहन या मेरे साथ जरूरत से ज्यादा ाड़ नहीं जताया। ेकिन मेरी बेटी के साथ उनका व्यवहार एकदम अग है। मेरे ख्या से वे जानती हैं कि मेरे पति के एि पैसा कोई चिंता का विषय नहीं है, और मैं भी बृष्टि की हर सनक, हर जिद्द को पूरा करने में जरा भी नहीं हिचकती।ज् आई.टी. विशेषज्ञ रक्षित मुस्कराते हुए कहती हैं, च्वैसे भी बृष्टि के एि एक आया है इसएि मेरी मां के एि यह सब कभी थकाने वाा नहीं होता।ज्
परिवार के युवा सदस्यों के साथ कदम-से-कदम मिाने के हिाज से आज की दादियां च्फैशनेबज् और च्सुंदरज् दिखने के तमाम तरीके अपनाती हैं। च्मेरी 15 वर्षीय पोती, ओइंड्रिा च्अच्छी दिखनेज् को ेकर काफी सजग रहती है। जब मैं उसके साथ उसके दोस्तों के पास जाती हूं तो उसका आग्रह रहता है कि मैं स्कर्ट और टॉप या फिर कोई पाश्चात्य कपड़े पहनूं। मैंने तो आजक के बच्चों की पसंद पिज्जा, बर्गर, कोल्ड डिं्रक्स और मॉकटे के प्रति अपना स्वाद विकसित कर यिा है।ज् नाग हंसकर कहती हैंं।बढ़ती हुई कमाई के चते आज की दादी मां भी इस नयी दुनिया में हौे-हौे आती ची गईं हैं। दक्षिण कोकाता की बंदना मुखर्जी ने जब अपनी ढाई वर्षीय पोती आर्शी के नाम की कुरियर-डाक प्राप्त की तो वे भौचक्क रह गईं क्योंकि उस डाक में आईं 16 पुस्तकों की कीमत कोई 25,000 रुपये थी। इतने पैसे में तो उनके दोनों बच्चों की पूरी शिक्षा सम्पन्न हो गई थी।
ेकिन शुरूआती अचम्भा ढ जाने के बाद बंदना ही अब इन पुस्तकों का इस्तेमा सबसे ज्यादा करती हैं। च्अपनी पोती के संग इन पुस्तकों के बीहड़ से गुजरने के साथ-साथ मैं अपने ज्ञान में भी वृद्घि करती हूं। मेरी शादी के वक्त मैं अपने स्कू का अंतिम वर्ष ही पूरा कर पाई थी।ज् वे खुासा करती हैं।
दिनों की पारम्परिक गृहस्थिन अब दुनिया भर को पूरे विश्वास के साथ ांघ आती है। पर उसके एि यह संक्रमण खूब चुनौतियों भरा रहा होगा, जबकि उसके बच्चों के एि यह सब एक साधारण सी बात है।
जीवन के आठवें दशक में च रहीं बनता साय इसकी गवाह हैं। आखिरकार 26 सा पहे उनकी बेटी के जुड़वां बच्चे होने पर वे प. बंगा के उत्तर 24 परगना जिे के बरकपुर से यूएसए के न्यू जर्सी चीं गईं थीं। पुरानी यादें ताजा करते हुए वे कहती हैं, च्मैं अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं बो सकती थी। यूएसए की तो छोड़ो, महानगरीय जीवन कैसा होता है, यह ज्ञान भी मुझे रत्ती भर न था। पर मैंने सब सीखा। मेरे पहे अनुभवों में से एक अनुभव, थोड़े दिनों के एि भारत वापस आते वक्त रास्ते में, सिंगापुर के एक होट के अपने कमरे में रूम सर्विस को ेकर था। तब से मैं ये सारी चीजें सीखती गयी हूं।
पोते-पोतियों की खातिर सादे बंगाी भोजन से ेकर कॉन्टिनेंट, चाइनीज और इटायिन खाना बनाना भी मैंने सीखा।ज् साय चहक कर कहती हैं, च्आज वे अपने-अपने जीवन में ठीक-ठाक मुकाम हासि कर चुके हैं, और मैं बन गयी हूं अंगे्रजी में गिट-पिट करने वाी, दुनिया-जहान घूमने वाी एक आधुनिक दादी। तो अपने नये नवेे जीवन में कौन-सी चीज उन्हें सबसे अधिक भाती है! उनका फटाफट उत्तर होता है - च्हार्वर्ड स्नातक अपनी पोतियों सोनाी और पियाी द्वारा दुनिया के सबसे उम्दा रेस्तरां में दी गयी दावत।ज्
73 वर्षीय माधवी पिल्ई भी अपने पुत्र के बच्चों के प्रति प्यार रखती हैं। सा में दो बार, जब उनका बेटा और उनकी बहू अपने काम से छुट्टी पर होते हैं तो वे अपने पोते-पोती के साथ रहने के एि कोकाता से यूके की यात्रा करती हैं।
रेवे की एक रिटायर्ड अधिकारी सुश्री पिल्ई जब भी विदेश जाती हैं, अपने साथ एक अदना-सा भारत जरूर े जाती हैं और वहां बच्चों को यहां के जीवन की झकी देती हैं - गाय को चारा वगैरह कैसे खिाते हैं, घाघरा-चोी कैसे पहनते हैं, यहां तक कि भरतनाट्यम कैसे करें, आदि-आदि। च्मैं अपने बेटे के परिवार के साथ स्कॉटैण्ड, मेशिया, श्रींका वगैरह गयी हूं और अपने पोते-पोतियों को घुमाने-शुमाने भी े गयी हूं, जबकि उनके मां-बाप अपने व्यावसायिक कामों में भिड़े होते हैं। बदे में, उन ोगों ने मुझे ब्रिटिश हजे में अंग्रेजी बोना सिखाया।ज् कहते हुए एक स्मित मुस्कान उनके चेहरे पर निखर आती है।
पर उनका ये समर्पण बगैर शर्त नहीं होता, ये आजक की दादी मां अपनी शर्तों पर ही ये सब करने को तैयार होती हैं। मुक्ति मित्रा को ही ीजिये, वे अकसर अस्वस्थ रहने वो पति के बिना यात्रा करना कम ही मंजूर करती हैं। जबकि एक रिटायर्ड प्राचार्या रहीं आईं अनीमा नाग अपने पोते-पोतियों को पढ़ाने के काम से साफ इनकार कर देती हैं। उनका कहना है, च्पढ़ाना मां-बाप की जिम्मेदारी है।ज् डाक विभाग सेे सेवानिवृत्त हो चुके उनके पति अपने बगीचे में ही मस्त बने रहते हैं।
एक नया आधुनिक पहनावा, नये-नये स्वाद, सफर के एि हर-हमेशा तैयार सूटकेस और दोस्तों का दिन-ब-दिन बढ़ता-फैता दायरा - नये युग की इन दादी-मांओं ने अपने जोश और अपने नन्हे-मुन्नों के एि अपने प्यार के बूते पीढ़ी-अंतरा को पाट-सा दिया है। (विमेन्स फीचर सर्विस)
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इन पार्टियों में आने वाी युवा माताएं अकसर अपने बच्चों के साथ नाचती-गाती हैं। और मैं भी उनमें शामि होने में झिझकती नहीं। मैं नहीं चाहती कि मेरी पोती अपनी उम्र के किसी भी पड़ाव पर मुझे ेकर शर्मिंदा हो।
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रेवे की एक रिटायर्ड अधिकारी सुश्री पिल्ई जब भी विदेश जाती हैं, अपने साथ एक अदना-सा भारत जरूर े जाती हैं और वहां बच्चों को यहां के जीवन की झकी देती है।
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बस्तर: धान्य देवी की महागाथा- लछमी जगार

बस्तर: धान्य देवी की महागाथा- लछमी जगार
- हरिहर वैष्णव
 प्राय: धान की फसल कटने के साथ ही शीत ऋतु में किसी भी समय आरम्भ हो कर अधिकतम 11 दिनों तक चलने वाला लोक महापर्व च्लछमी जगार ज् विभिन्न संस्कारों से आबद्घ अनुष्ठान है जो यद्यपि महिलाओं द्वारा पूरे किये जाते हैं, किन्तु पूरी तरह महिलाओं द्वारा कहा जाना समीचीन नहीं होगा। कारण, पुरुष भी इस आयोजन में सहभागी होते हैं और अपवाद स्वरूप जगार-गायक भी। यह आयोजन यों तो सप्ताह के किसी भी दिन आरम्भ हो सकता है किन्तु समाप्ति गुरुवार को ही होती है। इस दिन सारी रात गायन होता है। लोक महाकाव्य लछमी जगार का गायन इस महापर्व का प्रमुख आकर्षण होता है जिसे दो गुरुमायें गाती हैं।
जगार शब्द हिन्दी के जागरण (और संस्कृत के यज्ञ) शब्द से प्रादुर्भूत है। देवताओं को निद्रा से जगाना और अन्न की उपज इसके मूलभूत अभिप्राय हैं। यह आयोजन उत्सव-धर्मी होता है। विशेष रूप से अन्तिम दिन जब अनुष्ठान अपने चरम पर होता है और माहालखी यानी धान (महालक्ष्मी) का विवाह नरायन राजा के साथ सम्पन्न होता है। यह विवाह सांकेतिकता के साथ नहीं अपितु वास्तविकता के साथ सम्पन्न होता है। नृत्य और गायन की छटा देखते ही बनती है। लछमी जगार का आयोजन किसी समुदाय अथवा व्यक्ति विशेष के द्वारा भी हो सकता है। इसमें आयोजक अपनी पत्नी के साथ गाथा के अनुरूप पात्रों की भूमिका भी निभाते देखे गये हैं। इसके आयोजन के विषय में लोगों का कहना है कि यह प्राय: सुख-समृद्घि की कामना से आयोजित किया जाता है।
लछमी जगार का आयोजन छत्तीसगढ़ प्रान्त के अन्तर्गत अविभाजित बस्तर जिले के जगदलपुर एवं कोंडागांव तहसील तथा नारायणपुर, दन्तेवाड़ा और बीजापुर तहसील के कुछ भागों में किया जाता है। यह अनुष्ठान बस्तर की मौखिक परम्पराओं का ही एक अंग है जिसमें अन्य चीजों के साथ ही वर्षा ऋ तु में सम्पन्न होने वाला एक अन्य मौखिक लोक महाकाव्य तीजा जगार (धनकुल) भी सम्मिलित है। इसी तरह पूर्व दिशा में, ओडि़सा प्रान्त में, हमें च्बाली जगारज् नामक एक मौखिक लोक महाकाव्य मिलता है जिसका आयोजन ग्रीष्म ऋ तु में होता है। हमने इसका आयोजन नवरंगपुर में होना पाया है। नृतत्वशास्त्री टीना ओटेन कोरापुट (ओडि़सा) में प्रचलित बाली जगार के एक भिन्न संस्करण की जानकारी देती हैं। यद्यपि इन लोक महाकाव्यों की कथा-वस्तु आदि में पर्याप्त भिन्नता है तथापि इनकी आपस में समानता का बिन्दु है इनका गायन महिलाओं द्वारा किया जाना, और धनकुल नामक वाद्य, जिसका वे वादन करती हैं। इस परम्परा का विस्तार दण्डकारण्य के प्राय: उस मैदानी भू-भाग में पाया जाता है जो इन्द्रावती नदी के तट पर है तथा जिसे दण्डकारण्य का हृदय-स्थल कहा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि धान और अन्य गौण अनाज इस भू-भाग की प्रमुख उपज हैं, और जैसा कि हम यहां देखेंगे, यह पूरा क्षेत्र धान-उत्पादक पूर्वी भारत तथा गौण अन्न-उत्पादक पचिमी भारत की सीमा पर स्थित है। न केवल यह अपितु दण्डकारण्य का यह विस्तृत पठार द्रविड़ भाषा-भाषी दक्षिण भारत एवं भारोपीय भाषा-भाषी उत्तर भारत की भी सीमा पर स्थित है, किन्तु सांस्कृतिक रूप से यह उतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं दिखलायी पड़ता क्योंकि बाली जगार भारोपीय भाषाओं (ओडि़या एवं देसया) तथा द्रविड़ भाषा-परिवार की लोक-भाषा (पेंगो या जानी) में भी गाया जाता है।
बहरहाल, लछमी जगार ज् लोक महापर्व में गाये जाने वाले लोक महाकाव्य लछमी जगार का गायन प्रमुखत: महिलाओं द्वारा किया जाता है। प्रमुख गायिका पाट गुरुमायं कहलाती है। उसकी एक या दो सहायिकायें होती हैं, जिन्हें चेली गुरुमायं कहा जाता है। प्राय: पाट गुरुमायें दादी या नानी की उम्र की होती हैं जबकि चेली गुरुमायें मां की उम्र की। ये गुरुमायें प्राय: 30 वर्ष की आयु से, जब उनके बच्चे बड़े हो चुकते हैं तथा घर-गृहस्थी के उनके उत्तरदायित्व प्राय: कम हो जाया करते हैं, गायन सीखना आरम्भ करती हैं। यहां यह उल्लेख अनिवार्य होगा कि जगार-गायन किसी समुदाय या जाति विशेष की विशेषज्ञता नहीं होती। ये गायिकाएं किसी भी समुदाय या जाति से हो सकती हैं। उदाहरण के तौर पर: जगदलपुर क्षेत्र में धाकड़, मरार, केंवट, बैरागी और कलार, कोंडागांव क्षेत्र में गांडा, घड़वा, बैरागी, मरार, कलार आदि जातियों की गुरुमायें जगार गायन करती दिखलायी पड़ती हैं। इन गुरुमांओं को उनके गायन के लिये कोई धनराशि नहीं दी जाती अपितु उसकी जगह आयोजक द्वारा जगार की समाप्ति पर सामथ्र्यानुसार ससम्मान भेंट दी जाती है। यह भेंट कपड़ों एवं चावल-दाल आदि की शक्ल में होती है।
प्रमुख जगार गायिकाओं में से एक सुकदई गुरुमायं संगीतकार/ ग्राम प्रहरी (कोटवार) समुदाय से सम्बद्घ हैं और कोंडागांव कस्बे के सरगीपालपारा नामक मोहल्ले में रहती हैं। यह समुदाय यहां का मूल निवासी है। संगीत-साधना (वादन) इस समुदाय के पुरुषों को विरासत में मिली है और उन्हीं तक सीमित भी है। वे तीन से पांच के समूह में होते हैं तथा विवाह और अन्य र्धािमक अनुष्ठानों के अवसर पर वादन करते हैं। पहला व्यक्ति मोहरी (शहनाईनुमा वाद्य), दूसरा निसान या नगाड़ा, तीसरा टुड़बुड़ी (ताल वाद्य), चौथा ढोल तथा पांचवां ढपरा (ढपली) बजाता है। इस समुदाय के लोग, जैसा कि ऊपर कहा गया है, कोटवार तथा चरवाहे के रूप में भी अपनी सेवाएं समाज को देते आ रहे हैं। इस समुदाय के लोगों के पास अपनी कृषि-भूमि थी किन्तु धीरे-धीरे इनमें से अधिकांश लोगों ने अपनी भूमि बाहर से यहां आ बसे लोगों के हाथों बेच डाली। यह स्थिति प्राय: गंाव से कस्बे और शहरों में परिवर्तित होते स्थानों में, उदाहरण के तौर पर, कोंडागांव (सरगीपालपारा), जगदलपुर, नारायणपुर आदि में बनती गयी है। आज इनकी आजीविका का साधन दैनिक मजदूरी रह गयी है। जहां तक जगार गायन से जुडऩे का सवाल है, अपवाद स्वरूप ही सुकदई जैसी महिलाएं गायिकाएं बन पाती हैं। कारण, पितृसत्तात्मक समाज में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कि महिलाएं अपने किसी ज्ञान या विज्ञान को धरोहर के रूप में आगे ले जा सकें। हां, विवाह में महिलायें अपने पति के कौटुम्बिक क्रिया-कलापों में अवश्य सहभागी होती हैं। सुकदई के परिवार में उनके पिता की बहिन दुआरी के पहले कोई भी जगार गायिका नहीं हुई थी। दुआरी ने जगार-गायन निकटस्थ गांव बम्हनी की पनका जाति की एक महिला से सीखा था। सुकदई और उनकी तीन चचेरी बहिनों ने दुआरी से। सुकदई की चाची आयती ने भी दुआरी से ही जगार-गायन की शिक्षा ली तथा अपनी बहिन की तीन बेटियों को सिखाया। इस तरह सुकदई और उनकी निकट सम्बंधी जगार गायिका बनीं। गुरुमायं सुकदई लछमी जगार एवं तीजा जगार (धनकुल) दोनों ही लोक महाकाव्यों का गायन करती हैं; साथ ही अनेकों लोक गीत और लोक गाथाएं भी गाती हैं, जिनका सम्बन्ध पूरी तरह मनोरंजन से है। वे कोंडागांव की शीर्षस्थ जगार-गायिकाओं में गिनी जाती हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से कोंडागांव की दर्जन भर से अधिक गुरुमांओं को जानता हूं, किन्तु संभवत: इनकी सही गणना कर पाना बहुत ही कठिन होगा। कारण, बस्तर के जन-जीवन में लोक गीत का गायन सहज एवं स्वाभाविक है और प्राय: प्रत्येक महिला किसी न किसी स्तर पर लोक गायिका है।
कोंडागांव एवं इसके आसपास धनकुल नामक इस वाद्य-यन्त्र के विभिन्न उपकरणों यथा, धनुष को धनकुल डांडी, डोरी को झिकन डोरी, बांस की कमची को छिरनी काड़ी, हण्डी को घुमरा हांडी, हण्डी के मुँह पर ढंके जाने वाले सूपा को ढाकन सुपा, हण्डी के आसन को आंयरा या बेंडरी तथा मचिया को माची कहा जाता है। घुमरा हांडी आंयरा या बेंडरी के ऊपर तिरछी रखी जाती है। आंयरा या बेंडरी धान के पैरा (पुआल) से बनी होती है। तिरछी रखी घुमरा हांडी के मुंह को ढाकन सुपा से ढंक दिया जाता है। इसी ढाकन सुपा के ऊपर धनकुल डांडी का एक सिरा टिका होता है तथा दूसरा सिरा जमीन पर। धनकुल डांडी की लम्बाई लगभग 2 मीटर होती है। इस के दाहिने भाग में लगभग 1. 5 मीटर पर 8 इंच की लम्बाई में हल्के खांचे बने होते हैं। गुरुमायें दाहिने हाथ में छिरनी काड़ी से धनकुल डांडी के इसी खांचे वाले भाग में घर्षण करती हैं तथा बायें हाथ से झिकन डोरी को हल्के-हल्के खींचती हैं। घर्षण से जहां छर-छर-छर-छर की ध्वनि नि:सृत होती है वहीं डोरी को खींचने पर घुम्म-घुम्म की ध्वनि घुमरा हांडी से निकलती है। इस तरह ताल वाद्य और तत वाद्य का सम्मिलित संगीत इस अद्भुत लोक वाद्य से प्रादुर्भूत होता है। यद्यपि इसके विपरीत ओडि़सा के नवरंगपुर जिले में प्रयुक्त धनकुल वाद्य का धनुष अपेक्षाकृत बड़ा होता है तथा इसके वादन में भी भिन्नता है, किन्तु यह अतिरंजित नहीं कि दण्डकारण्य के पठार में प्रचलित यह वाद्य अपने आप में मौलिक एवं अनूठा है।
दक्षिण तमिलनाडु में भी यद्यपि धनुर्संगीत का प्रचलन पाया जाता है किन्तु वहां इसका स्वरूप भिन्न है। भारत में धनुर्संगीत के अन्य रूपों की भी थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती है किन्तु उदाहरण कम ही देखने में आये हैं।
प्रत्येक गायिका की अपनी अलग गायन-शैली है जिससे वे अलग से ही पहचानी जाती हैं। ऑस्ट्रेलियन नेानल यूनिवर्सिटी में संगीत विलेषक डॉ. पीटर टोनर सुकदई गुरुमायं के गायन की अलग-अलग दो पंक्तियों में चार प्रकार की लय पाते हैं। लम्बी लय-युक्त पंक्तियों में 40 थाप की समयावधि से युक्त लय तथा छोटी लय-युक्त पंक्तियों में 20 थाप की समयावधि से युक्त लय। एक अन्य प्रकार की पंक्ति में वे अन्तिम चार थापों को सुसुप्त पाते हैं। ये गीत-पंक्तियां सुनियोजित हैं। प्रत्येक 20 थाप से युक्त पंक्ति सुनियोजित छंद के एक चरण का आभास देती है जबकि 40 थाप-युक्त पंक्ति दो का। काव्यत्व की दृष्टि से इस लोक महाकाव्य में अनेक रुझानों की सहज ही पहचान की जा सकती है यथा : च्खिला कमल का फूल बाबा/ खिला कमल का फूलज् में सामान्य पुनरावृत्ति; च्जलराशि में है ओ बाबा/ क्षीर-समुद्र में हैज् में समतुल्यता तथा च्दोनों भाई हैं ओ बाबा/ दोनों को बाढ़ बहा ले जातीज् में प्रस्तुति अथवा कल्पना वैविध्य। इस गीत की काव्यात्मकता और संगीतात्मकता के कारण कथा का विकास अत्यंत मन्थर किन्तु रसमय गति से होता है।
अन्य मौखिक महाकाव्यों की बुनावट में जहां हम घटनात्मकता पाते हैं वहीं लछमी जगार की बुनावट में अनूठी विवरणात्मकता और इतिवृत्तात्मकता। गुरुमायं सुकदई द्वारा गाया गया च्लछमी जगारज् चार स्पष्ट खण्डों में संयोजित है। पहला खण्ड आरम्भिक है (अध्याय 1) जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति की कथा है। अन्य दो खण्ड कथा-वस्तु को सामने रखते हैं। इन दोनों खण्डों में मूल कथा प्रवाहित एवं व्याख्यायित होती है। खण्ड 2 (अध्याय 2 से 12) में मेंगइन रानी की कथा है जबकि खण्ड 3 (अध्याय 13 से 16) में पारबती रानी की। अन्तिम खण्ड (खण्ड 4: अध्याय 17 से 36) में कथा-वस्तु का विकास, चरमोत्कर्ष, निर्गति तथा परिणाम या फलागम सम्मिलित हैं। इन्हें संक्षेप में इस तरह देखा जा सकता है:
1. व्याख्या : मेंगराजा (शाब्दिक अर्थ मेघ) अपनी पत्नी मेंगइन रानी के हठ के कारण मेंगइन रानी के साथ अपने लोक उपरपुर (ऊध्र्व लोक) से मंजपुर (मत्र्य लोक) अर्थात् धरती पर आते हैं। यहां आने पर धरती के लोग न केवल उनका सम्मान करते हैं अपितु उन्हें अपना राजा-रानी भी बनाते और उनके लिये प्रासाद का भी निर्माण करते हैं। इसी समय कैलासपुर नामक एक अन्य नगर में माहादेव (महादेव, शिव) अपनी पत्नी पारबती (पार्वती) के हठ के वाशीभूत हो कृषि-कार्य में संलग्न होते हैं और धान बोते हैं। किन्तु एक भ्रान्ति के कारण वे सारी की सारी फसल में आग लगा देते हैं। फसल में लगी आग का धुआं जब ऊपर उठ कर ऊध्र्व लोक तक जा पहुंचता है तब देव गण आ कर उसे बुझाते हैं। आग बुझाने पर जो धान बचा रह जाता है उसी से धान की अनेक किस्में बन जाती हैं।
2. विकास : मेंगइन रानी सन्तान-प्राप्ति के लिये आतुर हो कर अपने पति मेंगराजा को माहादेव के पास आम के लिये भेजती हैं। माहादेव मेंगराजा को इस शर्त के साथ कि यदि उनके यहां पुत्री का जन्म होता है तो वे उसका विवाह उनके छोटे भाई नरायन के साथ करेंगे, मेंगराजा को आम का फल देते हैं। मेंगराजा उनकी शर्त मान कर घर वापस होते हैं और फल रोप देते हैं। कालान्तर में फल अंकुरित हो कर पेड़ होता है और यथा समय उसमें फल आता है। मेंगइन रानी उस फल का सेवन करती हैं और इसके फलस्वरूप उन्हें गर्भाधान होता है। यथा समय एक कन्या का जन्म होता है, जिसे माहालखी (लछमी, लखी और हिन्दी में लक्ष्मी या महालक्ष्मी) नाम दिया जाता है। माहालखी युवावस्था को प्राप्त होने पर मंजपुर से गोपपुर चली जाती हैं और वहीं रहने लगती हैं।
3.चरमोत्कर्ष: नरायन, जिनकी पहले से ही इक्कीस रानियां हैं, माहालखी से विवाह करने की जिद ठान बैठते हैं। माहालखी नरायन से विवाह करने की इच्छुक नहीं होतीं। कारण, उन्हें भय है कि नरायन राजा की इक्कीस रानियां उन्हें दु:ख देंगी। किन्तु मेंगराजा माहालखी को विवाह के लिये सहमत करते हैं और यह निश्चित होता है कि विवाह के बाद नरायन राजा और माहालखी इक्कीस रानियों से अलग माहादेव और पारबती के साथ कैलासपुर में रहेंगे।
4. निर्गति : नरायन अपनी नयी पत्नी माहालखी के साथ अपने बड़े भाई माहादेव के घर (कैलासपुर) में रहने लगते हैं किन्तु कुछ ही समय बाद वे अपनी शेष पत्नियों का अभाव महसूस करने लगते हैं। तब वे उनके पास वापस लौट आते हैं किन्तु पुन: उन्हें माहालखी का अभाव खटकता है और वे एक रात उन्हें उठा कर ले आते हैं। वे उन्हें अपनी आंखों से एक पल के लिये भी ओझल नहीं होने देते। इस प्रकार वे सभी सुख पूर्वक रहने लगते हैं। कुछ ही समय पश्चात् जब नरायन को इस बात का निश्चय हो जाता है कि अब उनकी इक्कीस रानियां माहालखी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं देंगी, वे अपने राज-काज की ओर ध्यान देने लगते हैं। किन्तु थोड़े ही समय बाद इक्कीस रानियां माहालखी को तरह-तरह के कठिन कार्य करने को कह कष्ट देने लगती हैं। माहालखी उन कठिन कार्यों को पशु-पक्षियों की सहायता से पूरा करती हैं। फिर उन्हें भोजन पकाने का काम सौंपा जाता है। जब वे भोजन तैयार कर रही होती हैं तब उनकी सौतनें भोजन में तरह-तरह के अखाद्य डाल देती हैं, जिससे नरायन माहालखी पर कुपित हो जाते हैं और उन्हें प्रताडि़त करते हैं। माहालखी उन प्रताडऩाओं को सहन कर लेती हैं किन्तु जब नरायन उन पर पाद-प्रहार करने लगते हैं तब माहालखी बहुत अधिक दुखी और अपमानित महसूस करती हैं और चूहे द्वारा खोदी गयी सुरंग के रास्ते नरायन राजा का घर छोड़ कर इन्दरपुर चली जाती हैं।
5. फलागम : माहालखी द्वारा घर छोड़ जाने के बाद नरायन के परिवार पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। वे और उनकी इक्कीस रानियां भूख से व्याकुल हो जाती हैं। तब राजा माहालखी की खोज में जाते हैं और अनेक प्रयासों के बाद माहालखी को खोज कर घर वापस लाते हैं। इक्कीस रानियां अपनी भूल पर पश्चात्ताप करती हुई माहालखी की सेवा करती हैं। माहालखी अपने पति और इक्कीस सौतनों के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है।
चूंकि कथा की भाव-भूमि का सम्बन्ध धान उत्पादन-प्रक्रिया के विस्तारित प्रसंग से है अत: इसका गठन उसी के अनुरूप अद्भुत है। मेंग का अर्थ वर्षा है तो माहालखी हैं धान और इक्कीस रानियां हैं कोदो, कोसरा, उड़द, मूंग, अरहर, चना, मटर, सरसों, तिल, राई, बदई, कांदुल, मंडिया आदि विभिन्न दलहनी-तिलहनी और अन्य गौण अनाज। इस कथा के नायक नरायन की तुल्यता सूर्य से की जा सकती है जबकि माहादेव (शिव) को बीज-पुरुष के रूप में देखना चाहिये।
यहां यह जानना भी आवश्यक होगा कि दण्डकारण्य का पठार धान उत्पादक पूर्व एवं गौण अन्न उत्पादक पश्चिम की सीमा पर स्थित है। गौण अन्न का उत्पादन पहाड़ी भूमि पर तो किया जा सकता है किन्तु धान के उत्पादन के लिये सम एवं सिंचित भू-भाग का होना आवयक है। इसलिये धान उत्पादन ने अपने आप को मुख्य भूमि में स्थापित किया जबकि गौण अन्न गांव की सीमा पर चले गये। नरायन का विवाह पहले गौण खाद्यान्नों (इक्कीस रानियों) के साथ हुआ और उसके बाद धान (माहालखी) के साथ। मिथकीय दृष्टि से यह कथा इस क्षेत्र का जनपदीय इतिहास सिद्घ होती है। और जैसे ही हम कथा के इस बिन्दु को आत्मसात् कर लेते हैं वैसे ही इस कथा में आये पत्नी-पीडक़ प्रसंगों और धान की मिजाई के प्रसंग के बीच के अन्तर्सम्बन्धों को भी पकडऩे में सफल हो सकते हैं।
यह कथा इस की गायिकाओं के जीवन-मूल्यों का उद्घोष करती है किन्तु इन मूल्यों को उनकी सम्पूर्णता में जानने के लिये मूल संस्करण का विश्लेषण अत्यन्त आवश्यक है। इस महाकाव्य में स्त्री एवं भूमि की फलदायकता (उत्पादकता) एवं फलहीनता या अनुत्पादकता (बांझपन) के बीच का संघर्ष केन्द्रीय मूल्य के रूप में उभर कर सामने आया है। ये मूल्य कुछ एक स्थितियों में अखिल भारतीय परिदृश्य पर देवी लक्ष्मी के साथ जुड़े मूल्यों से भिन्न प्रतीत होते हैं। प्रमुख भिन्नता तो यही है कि इस महाकाव्य का आकार ही असाधारण रूप से बड़ा है तथा दूसरा यह कि इसे महिलाओं द्वारा गाया जाता है।
यह जानना अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा कि इस महाकाव्य का आयोजन बस्तर की महिलाओं के लिये एक पवित्र अनुष्ठान है। वस्तुत: लछमी जगार चर्चा की नहीं अपितु महसूस करने की ची$ज है। यह महसूसना इसके भीतर के विभिन्न संस्कारों और उनसे जुड़े विश्वास; जो विभिन्न संस्कारों में सन्निहित भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में देखे जा सकते हैं, के साथ एकात्म हो कर सहभागी होने में है। कथा में वणर््िात कुछ एक घटनाओं का सजीव चित्रण उनकी साभिनय प्रस्तुति के साथ किया जाता है, जिन की मुख्य भूमिकाओं में स्वयं आयोजक ही होते हैं। इन अनुष्ठानों/ संस्कारों को मुख्य एवं गौण, दो श्रेणियों में बांट कर देखा जा सकता है। भिमा-विवाह (अध्याय 14), आम-विवाह (अध्याय 19) एवं माहालखी का विवाह (अध्याय 30) इस महाकाव्य की प्रमुख घटनाएं हैं जो विपुल जन समुदाय को आकर्षित करती हैं। परवर्ती एवं अन्तिम अनुष्ठान होता है माहालखी का विवाह, जो इस सम्पूर्ण अनुष्ठान का चरम है। यह अनुष्ठान सर्वान्तिम दिन होता है, जो सदैव गुरुवार होता है। अन्य घटनाओं में माहादेव द्वारा भूमि की सफाई (अध्याय 13) और माहालखी के जन्म (अध्याय 22) को रखा जा सकता है। ये घटनाएं भी कुछ लोगों द्वारा अभिनीत की जाती हैं। उदाहरण के लिये, माहादेव द्वारा काटे जाने वाले वृक्ष के प्रतीक-स्वरूप एक छोटी सी लकड़ी तथा नवजात माहालखी के प्रतीक के रूप में केला का उपयोग किया जाता है।
चरित्र के अनुरूप उनकी पहचान हो, इसके लिये अभिनेता/ अभिनेत्री के पहचान-माध्यम अलग-अलग होते हैं। जहां कुछ संस्कारों में लोग सामान्यत: आनन्द लेते हैं वहीं कुछ चरित्रों की भूमिकाओं में अभिनेता/ अभिनेत्री पर सम्बन्धित चरित्र की आत्मा का प्रभाव भी दिखलायी पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब गायिकाएं गुरुमांओं के आगमन का प्रसंग (अध्याय 11) गा रही होती हैं तब प्रमुख गायिका एवं कई बार उसकी सहायिकाओं पर भी उन गुरुमांओं की आत्मा का प्रभाव होने लगता है, जिनका वे आह्वान कर रही होती हैं। एक अन्य उदाहरण मेंगइन रानी और माहालखी का भी देखने में आता है। जगार-गायन की अवधि में कुछ महिलाएं ऐसे प्रभाव में दिखलायी पड़ती हैं किन्तु माहालखी के विवाह के दिन तो यह प्रभाव विभिन्न आयु-वर्ग की बहुत सी महिलाओं पर दिखलायी पड़ता है।
इस आयोजन के सभी संस्कारों में प्राय: महिलाएं ही सहभागी होती हैं। पुरुष संगीतकार, पुजारी और केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले पात्रों के रूप में सहभागी होते हैं। इनमें से कुछ विवाह-संस्कार के समय देवी के प्रभाव में आते देखे जाते हैं।
बस्तर के धनकुल गीत
हरिहर वैष्णव की पुस्तक बस्तर के धनकुल गीत का प्रकाशन संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार के नागपुर स्थित दक्षिण-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा किया गया है। यह पुस्तक बस्तर के लोक चित्रकार तथा छायाकार खेम वैष्णव के 32 रंगीन छायाचित्रों से सुसज्जित है। पुस्तक में धनकुल लोक वाद्य एवं इसकी संगत में गाये जाने वाले विभिन्न गीतों के बारे में भी विस्तृत जानकारी है। उल्लेखनीय है कि धनकुल नामक लोक वाद्य की संगत में बस्तर में चार महाकाव्यों का गायन किया जाता है। लछमी जगार, आठे जगार, बाली जगार और तीजा जगार। उल्लेखनीय है कि हरिहर वैष्णव बस्तर अंचल की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विरासत के संरक्षण, उन्नयन की दिशा में पिछले कई वर्षों से प्रयासरत हैं तथा इस संदर्भ में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

पता: सरगीपालपारा, कोंडागांव 494226, बस्तर- छत्तीसगढ़
दूरभाष : 07786- 242693, 243406, 242907
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in

हवा कुछ कहती नहीं है....

हवा कुछ कहती नहीं है....
-आशा भाटी


हवा कुछ कहती नहीं है

ये देखती है सुनती है नि:शब्द चली जाती है

कहने को बहुत कुछ है पर ये कहती नहीं है



आंगन में सोई हैं कुछ लड़कियां

कुछ बातें की हैं उन्होंने भावी जीवन की

कुछ मीठे सपने संजोये हैं अभी- अभी

ये आती है, उन्हें हौले से छूती है

गुजर जाती है, पर कुछ कहती नहीं है

किसी का इन्तजार करती प्रिया को देखती है

सहेली बन कर कुछ देर रुकती है

प्रिय का कुछ संदेश ले जाना चाहती है

पर कुछ कहती नहीं है



किसी सोये हुए शिशु के पास जाती है

कभी हौले से देती है थपकियां, कोई लोरी

कोई परियों की कहानी सुनाना चाहती है

पर कुछ कहती नहीं है।


पता: शताक्षी, 13/ 89 इन्दिरा नगर, लखनऊ 226016

किसी को पहल तो करनी होगी

मुझे भी आता है गुस्सा
यह तो हुई राह चलते हार्न बजा- बजा कर शोर प्रदूषण फैलाने वालों के प्रति नाराजगी। इसी तरह ऐसे बहुत से अनुभव से हम लगभग रोज ही गुजरते हैं, जिन पर हमारा बस नहीं चलता पर मन ही मन हम सब उसके ऊपर ट्रक नहीं बल्कि बुलडोजर चलाने के बारे में सोचने लगते हैं।


यदि आपको भी आता है गुस्सा तो आइए उस गुस्से को उदंती.comके इस पृष्ठ पर लिख कर उतारने की कोशिश करें। क्योंकि बड़े- बुजुर्ग कहते हैं कि गुस्से को मन में नहीं रखना चाहिए उसे बाहर निकाल देेने से गुस्सा कम हो जाता है, तो यदि हम लिखकर आपस में उसे बांट लें तो गुस्सा कम तो होगा ही साथ ही इसके माध्यम से एक अभियान चला कर इन सबके प्रति कुछ तो जागरुक कर ही सकते हैं।

किसी को पहल तो करनी होगी

क्या आपके साथ भी कभी ऐसा हुआ है कि आप अपनी गाड़ी से, चाहे वह दुपहिया वाहन हो या चारपहिया, अपने रास्ते चले जा रहे हैं और अचनाक पीछे से आती गाड़ी आपके पीछे आकर इतने जोर से हार्न बजाती है कि आप चौंक पड़ते हैं और सोचने लगते हैं कि इस पीछे वाले सज्जन को जरूर बहुत जरूरी काम से जाना होगा तभी यह इतनी जोर जोर से हार्न बजा रहा है। पर आप उसके लिए कुछ नहीं कर सकते क्योंकि आगे गाडिय़ों की लाईन लगी है और जब तक वह क्लीयर नहीं हो जाती आप उन सज्जन को राहत नहीं पंहुचा सकते।
तब आप विनम्रता से उसे कहते हैं कि धैर्य रखिए जल्दी ही आपके लिए रास्ता बन जाएगा। आपका यह कहना था कि बाईक पर बैठे वे दोनों युवा जोर से हंस पड़ते हैं और हार्न के ऊपर अपनी हथेली रखकर और भी ज्यादा शोर करते हुए लगातार हार्न बजाने लग जाते हैं। आपका मन होता है कि कहें कि पढ़े लिखे लगते हो, अच्छे घर और किसी अच्छे खानदान के भी नजर आते हो, माता- पिता ने जरुर कहीं नौकरी करके या कोई और काम करके तुम्हें बहुत ही प्यार से पाला- पोसा होगा, और अच्छी शिक्षा के साथ अच्छे संस्कार भी दिए होंगे ताकि तुम उनका नाम रोशन करो। पर आप यह सब बिल्कुल भी कह नहीं पाते। राह चलते यह सब कहना मुमकिन भी नहीं है।
जिन युवाओं को हम देश का भविष्य कहते हैं, जिनके कंधे पर देश का भार रख देते हैं उनमें से ही कुछ युवाओं को जब इस तरह की हरकत करते देखते है तो जाहिर है गुस्सा आता है और आपकी विनम्रता क्रोध में बदल जाती है। आप झल्ला पड़ते हैं और उन दोनों लडक़ों से कहते हैं कि आपके इस तरह हार्न बजाने से रास्ता तो साफ नहीं हो जाएगा, जब तक कि आगे कि गाडिय़ां आगे नहीं बढ़ेंगी आपको खड़े रहना पड़ेगा? पर उन पर आपकी बातों का बिल्कुल असर नहीं होता वे हार्न बजा- बजा कर आपका कान लगभग फोड़ ही डालना चाहते हैं। और जैसे ही उन्हें अपनी बाईक निकालने लायक जगह मिलती है वे आड़ी तिरछी बाईक करते हुए आगे बढ़ते चले जाते हैं, हम सब खड़े हुए उनका मुंह ताकते रह जाते हैं पर करते कुछ भी नहीं। यह सच है कि युवाओं में जोश होता है और वे इस उम्र में होश खो कर रास्ते पर चलते हैं।
पर हम क्यों कुछ नहीं कर पाते? सामने वाला कुछ भी करता रहे आप चुपचाप क्यों सहने को बाध्य हैं? इस तरह नियम तोडऩे वाले के विरूद्ध हम शिकायत तो कर ही सकते हैं। एक ओर तो हम कहते हैं कि पश्चिम की अंधी दौड़ ने आज के युवाओं को बर्बाद करके रख दिया है। पर पश्चिम की अच्छाईयों को अपनाने के बारे में भी हम क्यों नहीं सोचते। यह तो हम सभी जानते हैं कि पश्चिम में ट्रेफिक नियम बहुत कड़े हैं और उसे तोडऩे वाले पर जुर्माना लगता है। हार्न बजाकर आगे निकलने की कोशिश को वहां बत्तीमीजी मानी जाती है। हार्न तभी बजाया जाता है जब सामने वाला गलती कर रहा हो, हार्न बजाकर सामने वाले को एलर्ट किया जाता है कि जनाब सही तरीके से गाड़ी चलाइए। तकनीकी रुप से सक्षम विकसित देशों में हर जगह कैमरे फिट हैं, आपसे जरा सी चूक हुई नहीं कि नोटिस हाजिर। फिर आप भरिए भारी जुर्माना।
हमारे देश में भले ही हम तकनीकी रूप से इतने सक्षम नहीं हुए हैं कि सडक़ पर चलने वाली सभी गाडिय़ों पर नजर रख सकें पर जो आंखों के सामने हो रहा है उस पर तो निगरानी रख सकते हैं। आप कहेंगे कौन मुसीबत मोल ले। गुंडे मवालियों के साथ क्यों उलझ कर अपना समय खराब करें? फिर हम ही पहल क्यों करें , यहां और भी तो इतने लोग खड़े हैं वे आगे क्यों नहीं आते? कह तो आप बिल्कुल सच रहे हैं क्योंकि समय बहुत खराब है और किसी से उलझ कर शायद हम अपना समय ही बर्बाद करेंगे। फिर सबसे पहले हम ही क्यों?
पर जरा गंभीरता से सोचिए क्या आप जो सोच रहे हैं वह सही है? नहीं ना। क्योंकि किसी न किसी को पहल तो करनी ही होगी चाहे वह ट्रेफ़िक के नियम तोडऩे वाले के खिलाफ हो या रास्ता जाम होने के बाद भी हार्न बजाकर शोर करने वाले के खिलाफ हो। (उदंती फीचर्स )

भरोसा, मृत्यु प्रमाण पत्र


(1) भरोसा
- निशा भोसले

अपनी जवान बेटी को देर से घर लौटते देख पिता ने

टोकते हुए कहा-

कॉलेज से घर जल्दी लौट आया करो.....

बेटी ने पलट कर जवाब दिया-

पापा अब मैं बड़ी हो गई हूं,

क्या आपको मुझ पर भरोसा नहीं है.....?

पिता ने अखबार के पन्ने पलटते हुए कहा -

तुम पर है पर इस शहर पर नहीं है।

(2)  मृत्यु प्रमाण पत्र


क्या काम है ?

मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाना है.....

किसका?

अपने पिता का.....

इसी वक्त बनवाना है तो दो सौ रुपए लगेंगे......

दफ्तर की कुर्सी पर बैठे बाबू ने कहा।

वह व्यक्ति लाल पीला होने लगा,

और कुर्सी पर बैठे बाबू से पूछ बैठा-

तुम अपने पिता का सौदा कितने रुपए में करोगे.....?

कुर्सी पर बैठा बाबू सन्न रह गया।


पता: शुभम विहार कालोनी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़-495 001

भारत भक्त एक अंग्रेज महिला

 इतिहास के कुछ अनछुए पहलू

भारत भक्त एक अंग्रेज महिला- फैनी पार्कस 
(Fanny Parkes)

-प्रताप सिंह राठौर

भारतीय इतिहास के बारे में अनेक विदेशी यात्रियों ने बहुत कुछ लिखा है, उन्हीं में से एक अंगे्रज लेखिका फैनी पाक्र्स ने भी भारत में रहते हुए अपने अनुभवों के माध्यम से भारतीय इतिहास के कुछ अनछुए पहलुओं को उजागर किया है।
अतीत में झांकना सदैव ही है एक लोमहर्षक अनुभव होता है। यही कारण है कि लोग नालंदा, अजंता, एलोरा, चितौडग़ढ़ इत्यादि की ओर आकर्षित होते हैं। संग्रहालयों में रखे प्राचीन अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र, चित्र और बर्तन भी इसी कारण हमें आकर्षित करते हैं। प्राचीन काल के इन अवशेषों को देखकर हम अपनी कल्पना से उस काल के जीवन की अपने मन में संरचना करते हैं। लेकिन कहीं न कहीं इस सबको देखकर हमारे मन में अभिलाषा बनी रहती है कि यदि उस समय के जीवन का आंखों देखा हाल पढऩे को मिल जाता तो कितना अच्छा होता।
यही कारण है यात्रा विवरणों की पुस्तकें इतनी लोकप्रिय होती हैं और प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेजों के रूप में सम्मानित भी। फाहियान, हुयेत्सांग, मार्कोपोलो, इब्नबतूता और बर्नियर के यात्रा संस्मरण, शताब्दियों पहले के हमारे समाज की दुर्लभ झांकिया प्रस्तुत करते हैं।
अंग्रेजों के भारत में आने के बाद से ऐसी पुस्तकों में अच्छी खासी वृद्धि हुई जिसका मुख्य कारण था कि उस समय पुस्तक छपाई की मशीनों का आविष्कार हो चुका था। भारत में अंग्रेजी राज के समय में बड़ी संख्या में अंग्रेज स्त्री-पुरूष ने भारत में अपने जीवन के संस्मरण लिखे और छपवाये। ऐसे अधिकांश संस्मरण अंग्रेज सिविलियन और फौजी अफसरों द्वारा लिखे भी गये हैं। अत: उनमें अपनी निजी और अंग्रेज नस्ल की श्रेष्ठता जतलाने पर जोर दिया गया है। इसके विपरीत अंग्रेज स्त्रियों के संस्मरण कम संख्या में है परंतु वे भारतीय समाज के काफी विश्वसनीय चित्र प्रस्तुत करते हैं। अंग्रेज स्त्रियां अधिकांशत: पत्नियों के रूप में भारत में आती थीं। उनके सरोकार घर- बार से जुड़े रहते थे। अत: उनका दृष्टिïकोण काफी कुछ शासकीय अहंकार से मुक्त रहता था।
ऐसी ही एक अंग्रेज महिला थी फैनी पाक्र्स (Fanny Parkes)  जो एक अंग्रेज अधिकारी की पत्नी के रूप में भारत में 1822 में आई। फैनी एक अत्यंत साहसी और विलक्षण महिला थी। भारत के लिए प्रस्थान करते समय फैनी की मां ने फैनी से प्रण करवाया कि वह भारत में अपने अनुभवों को विस्तार से लिखकर उन्हें भेजती रहेगी। फैनी ने अपनी मां को दिया वादा पूरी निष्ठा से निभाया और अपने अनुभवों को प्रतिदिन डायरी के रूप में लिखा। फैनी पाक्र्स ने भारत में अपने 24 वर्षों के प्रवास की डायरी को 1850 में लंदन में Wanderings of a pilgrim in search of the Picturesque  (मनमोहक छबियों की तलाश में एक तीर्थयात्री की यायावरी) शीर्षक से आठ सौ से अधिक पृष्ठों की पुस्तक के रुप में प्रकाशित किया।
फैनी के प्रथम चार वर्ष कलकत्ता में बीते। भारत में पहुंचते ही इस देश ने फैनी का मनमोह लिया। फैनी लिखती है 'भारत एक बहुत आनंददायी देश है। ऐसे मनमोहक देश की सभ्यता, संस्कृति और प्राकृतिक सुषमा को निजी अनुभव से जानने और समझने का फैनी ने प्रण किया। याद रखना होगा कि 1822 में भारत में यातायात के साधन घोड़ा, पालकी, बग्घी और नाव थे। इनमें सबसे तीव्र और विश्वस्त साधन घोड़ा था। अतएव कलकत्ता में पहुंचते ही फैनी ने एक घोड़ा खरीदा और सुबह शाम घुड़सवारी करने लगी और निपुण घुड़सवार बन गई।
चार वर्ष बाद 1826 में फैनी के पति का तबादला कलकत्ता से इलाहाबाद हो गया। इससे फैनी को तो मन मांगी मुराद ही मिल गई। इलाहाबाद को फैनी इसके लोकप्रिय प्राचीन नाम प्रयाग से संबोधित करती हुई कहती है 'हमें बहुत प्रसन्नता हुई कि हमारा सौभाग्य हमें प्रयाग ले आया था।Ó
अपने भारतीय प्रवास को एक तीर्थयात्रा मानने वाली फैनी को इलाहाबाद के स्थान पर प्रयाग नाम अधिक प्रिय लगना उचित ही था। प्रयाग पहुंचने के साथ ही फैनी ने हिंदी और उर्दू भाषाएं सीखी और आराम से मुहावरेदार भाषा में बातचीत करने लगी। इस प्रकार हिंदी, उर्दू बोलने समझने में अभ्यस्त होकर फैनी उत्तर भारत की तीर्थयात्रा पर निकल पड़ी।
कानपुर में दिवाली की जगमगाहट देखकर फैनी मंत्रमुग्ध हो गई। फैनी ने लिखा 'दिवाली का असली आनंद पाने के लिए आपको रात के अंधेरे में गंगाजी पर नाव से (मंदिरों, घाटों की छटा के) दर्शन करना चाहिए। मुझे बहुत आनंद आया, ऐसा परी लोक जैसा भव्य दृश्य मैंने भारत आने के बाद आज से पहले कभी नहीं देखा था। न ही मैंने यह सोचा था कि वैसे नीरस दिखता कानपुर इतना सुंदर भी हो सकता है।
फैनी लखनऊ पहुंची और उन्हें वहां नवाब गाजिउद्दीन हैदर के हरम में भी झांकने का मौका लगा। फैनी बताती है कि हरम में पांच विवाहिता बेगमें है। पहली है दिल्ली के बादशाह अकबर शाह की भतीजी। इस 16 वर्षीय बेहद खूबसूरत बेगम से नवाब का विवाह पांच वर्ष पहले हुआ था। परंतु शुरू से ही नवाब ने उसकी उपेक्षा की है। किसी को उससे मिलने की इजाजत नहीं है और वह बेबसी में कैदी जैसा जीवन बिता रही है। दूसरी बेगम का खिताब है मलिका जमानी। पहले ये हाथी का चारा काटने वाले मुलाजिम रमजानी की बीवी थी। रमजानी घसियारे के घर से जल्दी ही ऊब गई और एक हज्जाम से इश्क लड़ा बैठी। उस इश्क की आंच ठंडी पड़ी तो मिर्जा जावेद अली बेग के घर में आठ आने महीने की तनख्वाह पर नौकरानी हो गई। वहां भी उसका मन न लगा तो वहां से भाग कर एक सराय में पिसनहारी हो गई। सराय में नित नये आशिक मिलते रहते थे। यहां उसने पहले एक लडक़े को जन्म दिया। इस लडक़े का नाम तिलुआ पड़ा। फिर उसने एक लडक़ी को जन्म दिया और इसी के बाद उसे नवाब के महल में एक नवजात बच्ची को दूध पिलाने (धाय मां) की नौकरी मिल गई। इस समय तक उसकी उम्र चालीस वर्ष की हो चुकी थी, उसका रंग काला था पर इसके बावजूद इस औरत ने नवाब पर ऐसा जादू डाला कि उन्होंने उसे बेगम बना लिया और मलिकाए जमानी का खिताब दे दिया।
नवाब की पांचवी सबसे पसंदीदा बेगम का जीवन चरित्र भी काफी दिलचस्प है। नवाब के वजीर हकीम मेंहदी को लगा कि नवाब साहब उनके प्रति बेरूखी दिखा रहे हैं। हकीम मेंहदी ने सोचा कि नवाब साहब को खुश करने के लिए कुछ करना चाहिए उन दिनों नवाब साहब की निगाह दरबार में नाचने वाली एक तवायफ पर थी। हकीम मेंहदी ने उस तवायफ को गोद लेकर अपनी बेटी बना लिया और नवाब साहब से उसका ब्याह करा दिया। तो यही है नवाब साहब की पसंदीदा पांचवीं सबसे नयी बेगम।
फैनी तत्कालीन मुगल बादशाह अकबर शाह के दिल्ली के लाल किले स्थित हरम के अंदर जाने में भी सफल हुई । वह बताती है कि गद्दी नशीन बादशाह से पहले के बादशाहों की बेगमें तथा शहजादे, शहजादियां बेहद गरीबी और गंदगी के वातावरण में दिन काट रहे थे। फैनी ने बादशाह और नवाब के हरमों से पर्दा उठाकर एक पुरानी कहावत दूर के ढोल सुहावने होते हैं की सच्चाई को साबित किया है। दिलचस्प बात यह है कि फैनी ने अपनी पुस्तक में हिंदी मुहावरों का काफी प्रयोग किया है।
फैनी एक जीवट महिला थीं। उसमें आत्मबल कूट - कूट कर भरा था, उसने पूर्णतया निडर होकर लंबी-लंबी यात्रायें अकेले घोड़े से की। उसने यमुना पर नाव से इलाहाबाद से आगरा और दिल्ली की यात्रा की। इस यात्रा में आठ दस मल्लाहों और नौकरों के बीच वह अकेली महिला थी। फैनी भारत में 24 वर्ष रही और उसने अधिकांश यात्राएं इसी प्रकार अकेले ही की। फैनी को भारत की हर चीज, पेड़-पौधे, पशु पक्षी, नदी पहाड़, वस्त्र, गहने, स्थापत्य सभी कुछ से प्यार था। उसने अपनी यात्राओं में इन सब चीजों के नमूने इक_ïे किये।
एक मेले में भारतीय स्त्री-पुरुषों के रंग-बिरंगे वस्त्रों की तारीफ करती हुई फैनी कहती है कि इनकी तुलना में अंग्रेज स्त्री-पुरुषों के वस्त्र बेहद भद्दे और कुरूचिपूर्ण हैं।
ताजमहल को देखकर फैनी मंत्रमुग्ध हो गई और तारीफ में एक पूरा अध्याय ही लिख डाला। अंत में ताजमहल के साथ अंग्रेजों के बेहूदे आचरण पर फैनी तीखे शब्दों में अपनी वेदना प्रगट करते हुए लिखती है 'क्या आप इससे भी अधिक घृणित बात सोच सकते हैं? अंग्रेज स्त्री-पुरुष (ताजमहल के) संगमरमर के चबूतरे पर बैंड बजवा कर इस मकबरे के सामने नाचते गाते हैं।
अंगे्रज स्त्री-पुरुषों की वेशभूषा तथा आचार व्यवहार की तुलना फैनी भारतीय स्त्री-पुरुषों की वेशभूषा और आचार व्यवहार से बार-बार करती है। अंग्रेज स्त्रियों की कलफ लगी ड्रेस और विचित्र प्रकार के हैटों को वे बदरंग और भद्दे बताती है। माथे पर बिंदी लगाये और साड़ी पहने भारतीय स्त्रियां फैनी को बेहद खूबसूरत लगती हैं। फैनी को भारतीय स्त्रियों के आभूषण भी बहुत ही उत्तम और आकर्षक लगते थे।
अंग्रेज अधिकारियों द्वारा भारत के बेजोड़ ऐतिहासिक स्मारकों के दुरूपयोग से भी फैनी बहुत क्षुब्ध हुई। आगरा के किले में संगमरमर में बेजोड़ पच्चीकारी से युक्त नूरजहां बुर्ज के साथ अंग्रेजों की बदतमीजी देखकर फैनी कहती है 'कुछ बेहद पतित अंग्रेज अफसरों (भगवान करें वे नरक में जाये) ने इस खूबसूरत कोठे (नूरजहां बुर्ज) को किचन बना दिया। इसलिए छत और बाकी सब रंग-बिरंगे पत्थरों से जड़ा संगमरमर कालिख की परतों में ढंककर विकृत हो गया।
स्पष्टï है कि फैनी को भारत की कला और संस्कृति के प्रति बहुत ही आदर एवं श्रद्धा थी। फैनी ने भारतीय इतिहास का भी गहन अध्ययन किया था। फैनी ने लिखा है, मुुसलमानों के आने के पहले हिन्दू स्त्रियां पर्दा नहीं करती थीं मुसलमान विजेताओं के प्रभाव में हिन्दू स्त्रियां, मुस्लिम स्त्रियों की तरह पर्दा करने को बाध्य हुईं। ज्यादा संभावना यह है कि बिना घूंघट के निकलने पर बेइज्जती होने के कारण हिन्दू स्त्रियां भी पर्दा करने लगीं।
फैनी की ग्वालियर की रानी बैजाबाई से भेंट हुई और वे रानी की घनिष्ठ मित्र बन गईं। अंग्रेज स्त्रियों की सामाजिक स्थिति की चर्चा होने पर फैनी ने बैजाबाई को बताया कि स्त्रियों और खरबूजे की किस्मत एक जैसी होती है। चाहे खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर हर हालत में यातना खरबूजे को हो मिलती है। इंग्लैंड के कानून के मुताबिक अंग्रेज पत्नी अपने पति की गुलाम होती है और इस स्थिति से मुक्ति मिलने की कोई उम्मीद नहीं है।
भारत में 24 वर्ष के प्रवास में एक बार मां की बीमारी की खबर पाकर फैनी को कुछ दिन के लिए इंग्लैंड जाना पड़ा। तब तक फैनी भारत में 17 वर्ष रह चुकी थी। इंग्लैंड की धरती पर पांव रखते ही फैनी अपने मन में आये विचार बताती है (जहाज से उतरते ही) सब कुछ कितना घटिया लगता है खासतौर पर मकान जो स्लेट पत्थर के बने हैं ... सर्दी और अंधेरा.... क्या ताज्जुब कि पहुंचते ही मुझे वितृष्णा हुई। भारत की तुलना में फैनी को इंग्लैंड हर तरह से बहुत तुच्छ लगा।
इस प्रकार फैनी ने अपने संस्मरणों में भारतीय समाज की संस्कृति, कला, रीति रिवाज, इतिहास और प्राकृतिक वैभव का इतना विस्तृत वर्णन किया है कि उनकी पुस्तक पढऩे से यह सिद्ध होता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। फैनी की पुस्तक पढ़ते हुए पाठक को ऐसा महसूस होता है कि वह स्वयं ही तत्कालीन भारत में भ्रमण कर रहा है। उन्होंने अपनी पुस्तक को भारत के प्रति भक्ति और श्रद्धा के भाव से लिखा है और अपने भारतीय प्रवास को अपनी तीर्थयात्रा कहा है। फैनी ने अपने भक्तिभाव का प्रमाण अपनी पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर गणेश वंदना लिख कर किया है। वंदना के ऊपर संस्कृत में 'श्रीÓ लिखा, फिर गणेश वंदना अंग्रेजी में और अंत में दस्तखत उर्दू में कि या है। कुल मिला कर फैनी की पुस्तक बहुमूल्य और अत्यंत रोचक ऐतिहासिक दस्तावेज है।
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