- डॉ. रत्ना वर्मा
बात सन् 1987 की है तब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश राज्य से अलग नहीं हुआ था। भोपाल में आयोजित होने वाले विभिन्न लोक कलाओं की प्रस्तुति के आधार पर रायपुर में भी बसंत जगार नाम से पहला लोक सांस्कृतिक उत्सव आरंभ किया गया था। इसमें अपनी कला के प्रदर्शन के लिए देश भर से लगभग 500 कलाकारों को आमंत्रित किया गया था। आदिवासी कला संस्कृति के पारखी शेख गुलाब जैसे कला मर्मज्ञ के साथ गोविंद झारा, पेमा फात्या, और सोनाबाई भी अपनी कलाकृतियों के साथ उपस्थित थीं।
कला और संस्कृति मेें विशेष लगाव के कारण, जगार में शिरकत करने वाले लगभग सभी कलाकारों से मैंने तब बातचीत की थी। उस अवसर पर सोनाबाई से लिए गए साक्षात्कार का यह पुनप्र्रकाशन मिट्टी में रची बसी एक कलाकार को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है-
सोनाबाई रजवार का नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। कच्ची मिट्टी से वह अपना रचना संसार गढ़ती हैं। सोनाबाई ऐसी लोक कलाकार हैं जो कला कर्म करते नहीं उसे जीते हैं, कला उनके लिए अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति भी है ।
56 वर्षीय सोनाबाई 10-12 वर्ष की उम्र में ही विवाह बंधन में बंध गई थीं। पति जब काम पर बाहर निकल जाते थे तो सोनाबाई का बालमन कुछ करना चाहता था। घर का अकेलापन काटे नहीं कटता था। उसी समय उनका अपना मिट्टी का घर बनने लगा। उस नए घर ने सोनाबई की जीवनधारा ही बदल दी। घर को सजाने संवारने की ललक तो थी ही सो गीली मिट्टी के पशु- पक्षी बना- बना कर वे अपना समय भी काटने लगीं और घर भी सजाने लगीं।
गांव में मिट्टी के पशु- पक्षी, देवी देवता बना कर घर सजाने की कला तो परम्परागत कला है, जो सोना बाई में शायद जन्म से ही विद्यमान थी तभी तो बिना किसी से कुछ सीखे ही उनके हाथ अपने आप ही आकार लेने लगे। कभी तोता तो कभी हिरन, कभी मोर और कभी गाय, बकरी। दीवारों को सजाना गांव की औरतों को खूब आता है, सोना बाई भी पशु - पक्षी बनाते बनाते खिड़कियों पर भी सुन्दर सुन्दर जाली बनाने लगीं और उसी जाली पर कहीं तोता तो कहीं मोर बैठा कर अपना मन बहलाने लगीं।

आज सोना बाई दिल्ली भोपाल से बहुत आगे अमरीका तक का सफर कर आई हैं पर सोनाबाई तो खरा सोना हैं कहीं कोई दिखावा नहीं, घमंड नहीं। अपनी कला की तरह वही सरलता और वही भोलापन। वह ठीक से हिन्दी नहीं बोल पाती, अपनी सरगुजिया बोली में अपने मन की खुशी व्यक्त करती हैं कि अब तो लोग मेरे गांव आने लगे हैं। अच्छा लगता है यह सब अनुभव करके। वह कहती हैं- अब मैं एक और मिट्टी का घर बनाऊंगी, जहां मिट्टी की कलाकृति बना- बना कर रखूंगी ताकि दूर दूर से आने वालों को दिखा सकूं। वे कहती हैं मैंने भारत भवन में जैसा संग्रहालय देखा है वैसा ही अपने उस नए घर को संग्रहालय का रूप दूंगी।
सोनाबाई के पास आज बहुत पैसा है। 50 हजार रूपए तुलसी सम्मान के, 5 हजार रुपए राष्ट्रपति पुरस्कार के और 55 हजार वह अमरीका से बचा कर लाई हैं। सब बैंक में जमा हैं। इतना पैसा पास होते हुए भी उन्हें पैसे का घमंड जरा भी नहीं है और न ही वह पैसे का दिखावा करतीं। सोनाबाई के इन भित्ती शिल्पों की कुछ लोगों ने कीमत आंकनी चाही पर सोनाबाई अपनी इस कला को बेचना नहीं चाहती, इसे वे व्यवसाय नहीं बनाना चाहती। न ही अपने बेटे- बहू को इसकी अनुमति देना चाहती। उनका कहना है जीवन चलाने लायक खेती बाड़ी है, ज्यादा लालच करना ठीक नहीं। 60 के करीब पंहुच रही सोनाबाई के हाथों में अब भी गजब की फूर्ति है और उनके हाथ अब भी उतनी ही तेजी से चलते हैं, जैसा अपना नया घर बनाते समय चलते थे।
रायपुर के बसंत जगार पर आने के लिए जब सोनाबाई के पास सूचना पंहुची तो समय बहुत कम था। सोनाबाई बताती हैं मैं तो आना ही नहीं चाहती थी, क्या करती आकर, मेरे पास यहां दिखाने के लिए मूर्तियां तैयार ही नहीं थी। मैंने तो पहले मना कर दिया पर साहब लोगों ने कहा कि जाना तो पड़ेगा ही, वहां तुम्हारी कला को नहीं तुम्हें देखेंगे। (यह सब बताते हुए सोनाबाई इस उम्र में भी शरमा जाती हैं) फिर क्या करती घर में जितनी कलाकृति थी सब उठाकर ले आई, कुछ तो दीवारों से उखाड़ कर लाईं हूं। इनमें रंग रोगन करने का समय भी नहीं मिला। मुझे तो इसे दिखाने में भी शर्म आती है। सोनाबाई की यह साफगोई सचमुच उसकी सादगी का प्रतीक है। बातचीत के दौरान सोनाबाई ने अपनी मीठी सरगुजिया बोली में मुझे आपने गांव आने का निमंंत्रण देते हुए कहा- कभू हमरो गांव कोती अइहौ न, हमला खुशी होइही।
सोनाबाई से जब मैंने कुछ प्रश्न पूछना शुरु किया तो वे बहुत ही नपे - तुले शब्दों में धीरे धीरे अपने मन की बात बताती चली गईं। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश-
- कच्ची मिट्टी से तरह- तरह की मूर्तियां बनाना आपने कहां से सीखा?
00 कहीं से भी नहीं, बस कल्पना के आधार पर मैं यह सब बना लेती हूं।
- शुरुआत कहां से हुई ?
00 घर से ही। जब मैं बहुत छोटी थी तब हमारा घर बन रहा था, बस उसी समय घर बनाते- बनाते मन में कुछ विचार उपजा और दीवारों पर विभिन्न पशु- पक्षियों के आकार उकेरते चली गई। लोगों को यह पसंद आया तो मैंने इन सबसे अपने पूरे घर को सजा लिया। हर कमरे में कुछ न कुछ बना दिया। जानवर, पेड़ पौधे, पक्षी। जो मन करता बना लेती।
-मूर्तियां बनाने के लिए क्या कोई विशेष प्रकार की मिट्टी इस्तेमाल करती हैं?
00 हां काली और पीली ्मट्टी में धान का भूसा मिला कर मिट्टी सानना पड़ता है, इस मिश्रण को तीन दिन तक पानी में भिगोकर रखा जाता हैं फिर उसे अच्छी तरह कूटते हैं। ऐसा करने से मिट्टी की मूर्ति जब सूख जाती है तब भुरभुरी नहीं होती और जल्दी टूटती भी नहीं।
-आपने इनमें रंग भी लगाया है, रंग किस तरह का होता है?

-यह जो तोता है उस पर तो आपने हरे रंग का प्रयोग किया है?
00 हां यह रंग सेम के पत्ते से बनाती हूं। आप शायद नहीं मानेंगी पर मैंने कभी बाजार से रंग नहीं खरीदा।
- फिर इतने प्रकार के रंग किससे बनाती है?
00 सब रंग बन जाते हैं। पत्तों से हरा रंग, नील से नीला, छुही से पीला, मटमैला और गेरू से गेरुआ, कोयले से काला, और क्या चाहिए इन्हें रंगने के लिए।
- हमें पता चला है कि आप अपनी कला की बिक्री नहीं करतीं?
00 हां आज तक अपनी कला को हमने नहीं बेचा हैऔर न ही बेचने का इरादा है। हम तो यह सब अपने घर को सजाने के लिए बनाते हैं।
-अब तो आपकी यह कला विदेशों तक पंहुच गई है दुनिया आपकी कला को सराह रही है, तो इसे व्यवसाय क्यों नहीं बना लेती?
00 हम कच्ची मिट्टी से मूर्तियां बनाते हैं, इससे यह कभी भी टूट सकती है। ऐसे में इनका क्या मोल करना। हम तो किसान हैं किसानी ही करेंगे और इसे कला के रूप में ही बनाते रहेंगे। मेरा बेटा भी इसी के पक्ष में है।
-इसे भट्टी में नहीं पका सकते क्या?
00 हमारा यह काम ही नहीं है। फिर इसमें भूसा होता है, पैरों में लकड़ी का उपयोग करते हैं , इसलिए इन्हें पकाया भी नहीं जा सकता।
-पर कला के कद्रदान तो इसे खरीद कर ले जाना चाहते हैं?
00 हां खरीदना तो सभी चाहते हैं पर हम सोचते हैं मान लो अभी पैसे में बेच दिए और वह घर ले जाते- जाते टूट गया तो ले जाने वाला क्या सोचेगा। यही सोचकर बेचना अच्छा नहीं लगता। कोई लेने की बहुत जिद ही करता है तो उसे ऐसे ही दे देते हैं। फिर वह जबरदस्ती कुछ पैसे पकड़ा भी जाता है, तब हम का करिबो।
-आप अपने घर में इस तरह की मूर्तियां और दीवरों पर जाली बनाती हैं, इसकी जानकारी भारत भवन को कैसे मिली?
00 एक दिन अचानक मेरे घर कुछ लोग आए, मुझसे बातचीत करने के बाद वे मेरी बनाई मूर्तियों को ले जाने की बात करने लगे। मैं एकदम रुंआसी सी हो गई, अपने हाथों से जन्में और बरसों से घर में पल रहे इन शिल्पों को अपने से कैसे अलग कर देती। उन लोगों ने मुझे काफी समझाया, कि वे इसे क्यों ले जा रहे हैं, तब कहीं मैं इन्हें देने को राजी हो पाई। फिर भी जब उन्होंने घर की दीवारों से मेरी बनाई चीजों को उखाड़ लिया तो घर बेजान सा उजड़ा- उजड़ा लगने लगा, घर की दीवारें किसी मां की उजड़ी गोद सी सूनी और उदास जान पड़ीं और इन सूनी दीवारों को देख मेरी आंखों में आंसू की धारा बह निकली, तब मेरे बेटे ने मुझे दिलासा दिया और मैंने भी सोचा कि इन दीवारों को अब फिर से नया बनाऊंगी।
मैंने नया बना भी लिया है। जब आप मेरे घर आएंगी तो मेरे घर की दीवारें सूनी नहीं दिखाई देंगी। लेकिन आज भी उस दिन की बात को याद करती हूं, तो सोचती हूं कि भले ही उस दिन मेरा मन बहुत रोया था पर यदि वे उस दिन नहीं आते तो मेरी कला तो अनजानी ही रह जाती, जिसे आज पूरी दुनिया देख और सराह रही है।
- राष्ट्रपति और तुलसी सम्मान पा कर कैसा अनुभव करती हैं?
00 अच्छा लगता है। नए नए लोगों से मिलना होता है लोग बहुत प्यार व सम्मान देते हैं।
- पुरस्कार में मिली राशि का क्या करेंगी?
00 अभी तो बैंक में जमा है। गांव में मकान बनाने की सोच रहे हैं। मकान बनाकर वहां कुछ अच्छी मूर्तियां बनाकर रखेंगे ताकि आने जाने वाले देखें।
- पर जिस प्रकार की मूर्तियां आप बनाती हैं वह तो मिट्टी के ही घर में बन सकती हैं तो क्या आप नया घर भी मिट्टी का ही बनाएंगी?
00 हां, मिट्टी का ही बनाएंगे। जीवन भर मिट्टी के घर में रहती आई हूं इसलिए नया घर भी मिट्टी का ही बनाऊंगी।
-क्या आप मू्र्तियां रोज बनाती हैं?
00 नहीं जब मन करता है तभी बनाती हूं।
- आपकी इस कला को आने वाली पीढ़ी याद रखे यह तो चाहती ही होंगी?

2 comments:
अच्छा विवरण दिया आपने पढकर मन खुश हुआ !! बचपन के दिन याद आ गये जब अम अपने हाथ से मिट्टी की गणपति बना कर घर मे बिठाते थे !!
mere pas Sonabai ke ghar ke bahut se photo hain tatha anya jankari bhi hai, kya udanti ke liye bhejoo?
-Dr.Usha Vairagkar Athaley
Raigarh
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