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Jun 1, 2023

उदंती.com, जून 2023

वर्ष - 15, अंक - 10

जिनको  इस पृथ्वी से प्यार है, जो इसे सुनना चाहते हैं 

उनके लिए धरती के पास अपरम्पार मधुर संगीत है । 

                                      – सिडनी शेल्डन

अनकहीः समाधान हमारे पास ही है... - डॉ.  रत्ना वर्मा

जल संकटः सूख रही हैं भारत की नदियाँ - प्रमोद भार्गव

 कविताः जब नदी भूली रास्ता - हरभगवान चावला

 प्रेरकः बंजर जमीन को उसने जंगल में बदल दिया

 प्रकृतिः पतझड़ के बाद पेड़ों को पानी कैसे मिलता है? - डॉ. किशोर पँवार

पर्यावरणः पत्ता पत्ता सूख चुका था पेड़ बिचारा करता क्या? - अंजू खरबंदा

 कविताः  1. गाँव चाहता है , 2. एक पिता - राजेश पाठक

जल संरक्षणः रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून - अपर्णा विश्वनाथ

 वर्षा जलः बूँद- बूँद अनमोल - दीपाली ठाकुर

जीवन दर्शनः समाज सुधार का सूत्र - विजय जोशी

 पर्यावरणः ...बहुमंजिली इमारतों का जंगल  - रेखा श्रीवास्तव

 व्यंग्यः कमाल का आदमी… - गिरीश पंकज

 कहानीः जियो और जीने दो - श्यामल बिहारी महतो

 कविताः पिताजी चले गए - प्रियदर्शी खैरा

 कविताः पिता नहीं उफ़ करता है - पीयूष श्रीवास्तव

 कविताः सपने में आते हैं पिता - सांत्वना श्रीकान्त

 लघुकथाः गुलाब के लिए - कस्तूरीलाल तागरा

 लघुकथाः सीख - अंजलि गुप्ता ‘सिफ़र’

 लेखकों की अजब गज़ब दुनियाः गिन कर शब्‍द लिखने वाले लेखक - सूरज प्रकाश

 किताबेंः समय के चाक पर : संवेदनशीलता का सफ़रनामा - विजय जोशी

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रचनाकारों से .... 

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अनकहीः समाधान हमारे पास ही है...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

आपमें से कितने लोग हैं, जो गर्मियों की रात में अपने घर के आँगन या छत पर खुले आसमान तले खाट डालकर चाँद और तारे देखते हुए सोए हैं? मेरी पीढ़ी के बहुत लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने ऐसे पलों जिया होगा। हम गर्मियों की छुट्टियों में, जो तब दो माह की हुआ करती थी, अपने गाँव में बिताते थे। खपरैलवाला दो मंजिला घर, मिट्टी से छबाई की हुई मोटी- मोटी दीवारें और गाय के गोबर से लीपे हुए आँगन, बरामदा और फिर कमरे। कितनी भी तेज गर्मी हो, मिट्टी की मोटी दीवारों को भेद कर सूरज की गर्मी कमरों में घुस ही नहीं पाती थी। 
 रात के भोजन के बाद आँगन में कुएँ से पानी लाकर छींटा मारा जाता था, ताकि धरती की गर्मी थोड़ी कम हो जाए, फिर परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए खाट बिछाकर बिस्तर लगा दिया जाता और हम सब बच्चे किस्से- कहानियाँ सुनते, चाँद के छोटे- बड़े होते आकार के बारे में बातें करते और तारों की गितनी करते, सप्तऋषियों को ढूँढते हुए सपनों की दुनिया में सैर करते हुए चैन की नींद सो जाया करते थे। यह उस ज़माने की बात है, जब गाँव में बिजली भी नहीं पहुँची थी। तब पंखे की जरूरत भी महसूस नहीं होती थी। आप कल्पना ही कर सकते हैं कि तब का वातावरण कितना निर्मल और शुद्ध हुआ करता था। जाहिर है, हरियाली इतनी थी कि दिन की गर्मी की तपन शाम होते ही कम होने लगती थी और रात होते ही हवा ठंडी हो जाया करती थी। पीपल, बड़, आम, इमली और नीम के विशालकाय वृक्षों से घिरे गाँव में तालाब और पोखर इतने अधिक होते थे कि धरती का तापमान संतुलित रहता था। 
पर यह सुख बहुत सालों तक नहीं रहा। धीरे- धीरे खपरैल के घर सिमेंट की पक्की छत में बदलते चले गए। मिट्टी के आँगन जो गोबर से लिपे- पुते कीटाणुरहित और स्वच्छ होते थे, फर्श में तब्दील होने लगे। गाँव के आस- पास के जंगल कटने लगे और धरती बंजर होने लगी। तालाब और पोखर भी सिमटते चले गए। लघु उद्योग- धंधों और कृषि पर निर्भर गाँव की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी। कुल मिलाकर गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य का जो सपना देखा था, वह सब  एक- एक करके ऊँची- ऊँची गगनचुम्बी इमारतों, धुँआ उगलते कल- कारखानों और सरपट दौड़ती मोटर- गाड़ियों के शोर तले कहीं दबती चला गया। ऐसे माहौल में ताजी और ठंडी हवा का झोंका आए भी तो कहाँ से आए। तभी तो अब हमारी पीढ़ी के लोग छत और आँगन में खाट डालकर सोने की बात किस्से कहानियों की तरह वर्तमान पीढ़ी को सुनाते हैं, और वे आश्चर्य के साथ कहते हैं कि मच्छरों की इस भनभनाहट में दो पल भी छत पर खड़े नहीं हो सकते, रात भर सोना तो दूर की बात है। 
पर ऐसे किस्से- कहानियों को सुनाते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि साथ- साथ बच्चों को यह भी बताते चलें कि आखिर हम क्यों अब खुले आसमान तले सो नहीं सकते, क्यों बिना एयर कंडीशनर और पंखों के बिना जीवन गुजारना दूभर हो गया है ? विकास की इस  अंधी दौ़ड़ में शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन की कमी क्यों होते जा रही है? जब तक हम उन्हें इनके पीछे का सच सब नहीं बताएँगे, वे पुरानी गलतियों से सबक नहीं लेंगे। 
 यह तो सर्वविदित है कि जनसंख्या वृद्धि के कारण मनुष्य दिन-प्रतिदिन जंगल को काटते हुए जमीन पर कब्जा करते चले जा रहा है। खाद्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए रासायनिक खादों का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे हमारी उपजाऊ जमीन तो प्रदूषित हो ही गई है, इन रासायनिक कीटाणुओं ने धरती के जल भी प्रदूषित कर दिया है। जनसंख्या बढ़ी, तो यातायात के नए नए साधन भी बढ़े, जिसके कारण ध्वनि एवं वायु प्रदूषित इतना बढ़ा कि सुनने और साँस लेने में तकलीफ होने लगी। इन सबके चलते नई- नई बीमारियों ने मनुष्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इन सबका जिम्मेदार कोई दूसरा नहीं, हम स्वयं है, हमारी बदलती जीवनशैली है, हमारा बदलता खान- पान है। 
सभ्यता के विकास के साथ- साथ मनुष्य ने कई नए आविष्कार तो कर लिये और उन्नति के अनेक सोपान भी पार कर लिये;  परंतु औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की बढ़ती इस प्रवृत्ति से धरती की आबो-हवा इतनी प्रदूषित होती चली गई कि हमने अपना जीवन ही असुरक्षित कर लिया। और अब इस समस्या से पूरा विश्व इस चिंता में है कि इसका निराकरण कैसे किया जाए? क्योंकि कहीं बहुत ज्यादा गर्मी है, तो कहीं बहुत ज्यादा ठंड। गौर किया जाए, तो प्रदूषण वृद्धि का एक बड़ा कारण मानव की वे अवांछित गतिविधियाँ हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करते हुए इस पृथ्वी को कूड़े-कचरे का ढेर बना रही है। कूड़े-कचरे के बढ़ते इस जंगल के कारण जल, वायु और भूमि जिस तेजी से प्रदूषित हो रही है, वह सम्पूर्ण जगत् के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। 
अब प्रश्न यही है कि ऐसा क्या करें कि इस वैश्विक समस्या का समाधान मिले? दरअसल इसके जवाब में सवाल ही ज्यादा उठ रहे है कि क्या हम फिर से गोबर से लिपे छप्पर वाले घर में रह सकते हैं? या आज बन रही इमारतों को इतना हवादार बना सकते हैं कि कमरों में एसी की जरूरत न हो! क्या हम अपनी उपजाऊ भूमि को रासायनिक दवाओं से मुक्त कर सकते हैं? क्या हम अपने रहने वाले स्थान को कूड़े- कचरे से मुक्त साफ- सुथरा बना कर रख सकते हैं, क्या हममें से प्रत्येक इंसान प्लास्टिक का उपयोग न करने का संकल्प ले सकता है? इस तरह के ढेरों सवाल हैं, जिनके जवाब हम सबके पास ही हैं । तो जाहिर है इन सबका हल भी हमारे पास ही है, जरूरत उस पर अमल करने की है।

जल संकटः सूख रही हैं भारत की नदियाँ

 - प्रमोद भार्गव

अमेरिका के न्यूयॉर्क में पाँच दशकों के बाद शुद्ध और मीठे (ताज़े) पानी के लिए जल सम्मेलन संपन्न हुआ है। इस सम्मेलन में हिमालय से निकलने वाली गंगा समेत दस प्रमुख नदियों के भविष्य में सूख जाने की गंभीर चिंता जताई गई है। सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने आगाह किया कि ‘आने वाले दशकों में जलवायु संकट के कारण हिमनदों (ग्लेशियर) का आकार घटने से भारत की सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जल-प्रवाह घट जाने से सूख सकती हैं। 

हिमनद पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक हैं। दुनिया के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, जो दुनिया के लिए शुद्ध जल का बड़ा स्रोत हैं। यह चिंता इसलिए है, क्योंकि मानवीय गतिविधियाँ पृथ्वी के तापमान को खतरनाक स्तर तक ले जा रही हैं, जो हिमनदों के निरंतर पिघलने का कारण बन रहा है। गुतारेस ने यह वक्तव्य इंटरनेशनल ईयर ऑफ ग्लेशियर प्रिज़र्वेशन विषय पर आयोजित कार्यक्रम में दिया। इस आयोजन में जारी रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक आने वाले जल संकट से प्रभावित होने वाले देशों में भारत प्रमुख होगा।    

गंगा, ब्रह्मपुत्र समेत एशिया की दस नदियों का उद्गम हिमालय से ही होता है। अन्य नदियाँ झेलम, चिनाव, व्यास, रावी, सरस्वती और यमुना हैं। ये नदियाँ सामूहिक रूप से 1.3 अरब लोगों को ताज़ा (मीठा) पानी उपलब्ध कराती हैं। 

पानी की समस्या से प्रभावित लोगों में से अस्सी प्रतिशत एशिया में हैं। यह समस्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन में सबसे ज़्यादा है। सीएसई की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार देश में 2031 में पानी की प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत उपलब्धता 1367 घन मीटर रह जाएगी जो 1950 में 3000-4000 घन मीटर थी। विडंबना है कि जहाँ पानी की उपलब्धता घट रही है, वहीं पानी की खपत बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पानी की ज़रूरत जहाँ 1100 अरब घन मीटर थी, वह बढ़कर 2050 में 1447 घन मीटर हो जाएगी। खेती के लिए 200 घन मीटर अतिरिक्त पानी की ज़रूरत होगी। सीएसई रिपोर्ट के मुताबिक गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणाली का जलग्रहण क्षेत्र कुल नदी जलग्रहण क्षेत्र का 43 प्रतिशत है। इनमें पानी का कम होना देश में बड़ा जल संकट पैदा कर सकता है। भारत में दुनिया की 17.74 प्रतिशत आबादी है, जबकि उसके पास मीठे पानी के स्रोत केवल 4.5 प्रतिशत ही हैं। तो, नदियाँ सूखने के संकेत चिंताजनक हैं।  

हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी इसलिए सच लगती है, क्योंकि कनाडा की स्लिम्स नदी के सूखने का घटनाक्रम एवं नाटकीय बदलाव एक ठोस सच्चाई के रूप में छह साल पहले सामने आ चुका है। इस घटना को भू-विज्ञानियों ने ‘नदी के चोरी हो जाने’ की उपमा दी थी। ऐसा इसलिए कहा गया, क्योंकि नदियों के सूखने अथवा मार्ग बदलने में हज़ारों साल लगते हैं, जबकि यह नदी चार दिन के भीतर ही सूख गई थी। नदी के विलुप्त हो जाने का कारण जलवायु परिवर्तन माना गया था। तापमान बढ़ा और कास्कावुल्श नामक हिमनद जो इस नदी का उद्गम स्रोत है, वह तेज़ी से पिघलने लगा। नतीजतन सदियों पुरानी स्लिम्स नदी 26 से 29 मई 2016 के बीच सूख गई। जबकि इस नदी का जलभराव क्षेत्र 150 मीटर चौड़ा था। 

आधुनिक इतिहास में इस तरह से नदी का सूखना विश्व में पहला मामला था। प्राकृतिक संपदा के दोहन के बूते औद्योगिक विकास में लगे मनुष्य को यह चेतावनी भी है कि यदि विकास का स्वरूप नहीं बदला गया, तो मनुष्य समेत संपूर्ण जीव जगत का संकट में आना तय है। 

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-गर्भशास्त्री डेनियल शुगर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं का एक दल स्लिम्स नदी की पड़ताल करने मौके पर पहुँचा था। लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अब वहाँ कोई नदी रह ही नहीं गई थी। न केवल नदी का पानी गायब हुआ था, बल्कि भौगोलिक परिस्थिति भी पूरी तरह बदल गई थी। इन विशेषज्ञों ने नदी के विलुप्त होने की यह रिपोर्ट ‘रिवर पायरेसी’ शीर्षक से नेचर में प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक ज़्यादा गर्मी की वजह से कास्कावुल्श हिमनद की बर्फ तेज़ी से पिघलने लगी और इस कारण पानी का बहाव काफी तेज़ हो गया। जल के इस तेज़ प्रवाह ने हज़ारों साल से बह रही स्लिम्स नदी के पारंपरिक रास्तों से दूर अपना अलग रास्ता बना लिया। अब नई स्लिम्स नदी विपरीत दिशा में अलास्का की खाड़ी की ओर बह रही है, जबकि पहले यह नदी प्रशांत महासागर में जाकर गिरती थी।

जिस तरह से स्लिम्स नदी सूखी है, उसी तरह से हमारे यहाँ सरस्वती नदी के विलुप्त होने की कहानी संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के द्वार खुलने के बाद जो ताज़ा रिपोर्ट सामने आई है, उससे पता चला है कि गंगोत्री का जिस हिमखंड से उद्गम स्रोत है, उसका आगे का 50 मीटर व्यास का हिस्सा भागीरथी के मुहाने पर गिरा हुआ है। हालांकि गोमुख पर तापमान कम होने के कारण यह हिमखंड अभी पिघलना शुरू नहीं हुआ है। यही वह गंगोत्री का गोमुख है, जहाँ से गंगा निकलती है। 2526 कि.मी. लंबी गंगा नदी देश की सबसे प्रमुख नदियों में से एक है। अनेक राज्यों के करीब 40 करोड़ लोग इस पर निर्भर हैं। इसे गंगोत्री हिमनद से पानी मिलता है; परंतु 87 साल से 30 कि.मी. लंबे हिमखंड से पौने दो कि.मी. हिस्सा पिघल चुका है। 

भारतीय हिमालय क्षेत्र में 9575 हिमनद हैं। इनमें से 968 हिमनद सिर्फ उत्तराखंड में हैं। यदि ये हिमनद तेज़ी से पिघलते हैं, तो भारत, पाकिस्तान और चीन में भयावह बाढ़ की स्थिति पैदा हो सकती है। 

इसी तरह अंटार्कटिका में हर साल औसतन 150 अरब टन बर्फ पिघल रही है, जबकि ग्रीनलैंड की बर्फ और भी तेज़ी से पिघल रही है। वहाँ हर साल 270 अरब टन बर्फ पिघलने के आँकड़े दर्ज किए गए हैं। यदि यही हालात बने रहे, तो समुद्र में बढ़ता जलस्तर और खारे पानी का नदियों के जलभराव क्षेत्र में प्रवेश इन विशाल डेल्टाओं के बड़े हिस्से को नष्ट कर देगा।                                          

अल्मोड़ा स्थित पंडित गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमखंड का जो अगला हिस्सा टूटकर गिरा है, उसमें 2014 से बदलाव नज़र आ रहे थे। वैज्ञानिक इसका मुख्य कारण चतुरंगी और रक्तवर्ण हिमखंड का गोमुख हिमखंड पर बढ़ता दबाव मान रहे हैं। यह संस्था वर्ष 2000 से गोमुख हिमखंड का अध्ययन कर रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार 28 कि.मी. लंबा और 2 से 4 कि.मी. चौड़ा गोमुख हिमखंड 3 अन्य हिमखंडों से घिरा है। इसके दाईं ओर कीर्ति तथा बाईं ओर चतुरंगी व रक्तवर्णी हिमखंड हैं। इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कीर्ति कुमार ने बताया है कि हिमखंड की जो ताज़ा तस्वीरें और वीडियो देखने में आए हैं, उनसे पता चलता है कि गोमुख हिमखंड के दाईं ओर का हिस्सा आगे से टूटकर गिर पड़ा है। इसके कारण गोमुख की आकृति वाला हिस्सा दब गया है। यह बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण भी हो सकता है, लेकिन सामान्य तौर से भी हिमखंड टूटकर गिरते रहते हैं। 

साफ है, इस तरह से यदि गंगा के उद्गम स्रोतों के हिमखंडों के टूटने का सिलसिला बना रहता है, तो कालांतर में गंगा की अविरलता तो प्रभावित होगी ही, गंगा की विलुप्ति का खतरा भी बढ़ता चला जाएगा। 

गंगा का संकट टूटते हिमखंड का ही नहीं हैं, बल्कि औद्योगिक विकास का भी है। कुछ समय पूर्व अखिल भारतीय किसान मज़दूर संगठन की तरफ से बुलाई गई जल संसद में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए जलस्रोतों के दुरुपयोग और इसकी छूट दिए जाने का भी विरोध किया था। कानपुर में गंगा के लिए चमड़ा, जूट और निजी बॉटलिंग प्लांट संकट बने हुए हैं। टिहरी बाँध बना तो सिंचाई के लिए था, लेकिन इसका पानी दिल्ली जैसे महानगरों में पेयजल आपूर्ति के लिए कंपनियों को दिया जा रहा है। गंगा के जलभराव क्षेत्र में खेतों के बीचों-बीच पेप्सी व कोक जैसी निजी कंपनियाँ बोतलबंद पानी के लिए बड़े-बड़े नलकूपों से पानी खींचकर एक ओर तो मोटा मुनाफा कमा रही हैं, वहीं खेतों में खड़ी फसल सुखाने का काम कर रही हैं। यमुना नदी से जेपी समूह के दो ताप बिजली घर प्रति घंटा 97 लाख लीटर पानी खींच रहे है। इससे जहाँ दिल्ली में जमुना पार इलाके के 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित होने का अंदेशा है, वहीं यमुना का जलभराव क्षेत्र तेज़ी से छीज रहा है।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री ई.एफ. शुमाकर की किताब स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल 1973 में प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने बड़े उद्योगों की बजाय छोटे उद्योग लगाने की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम उपयोग और ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन होना चाहिए। शुमाकर का मानना था कि प्रदूषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है। सत्तर के दशक में उनकी इस चेतावनी का मज़ाक उड़ाया गया था; लेकिन अब जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी संगठन शुमाकर की चेतावनी को स्वीकार रहे हैं। वैश्विक मौसम जिस तरह से करवट ले रहा है, उसका असर अब पूरी दुनिया पर दिखाई देने लगा है। भविष्य में इसका सबसे ज़्यादा खतरा एशियाई देशों पर पड़ेगा। एशिया में गरम दिन बढ़ सकते हैं या फिर सर्दी के दिनों की संख्या बढ़ सकती है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएँ हो सकती हैं या फिर अचानक बादल फटने की घटनाएँ घट सकती हैं। न्यूनतम और अधिकतम दोनों तरह के तापमान में खासा परिवर्तन देखने में आ सकता है। इसका असर पारिस्थितिक तंत्र पर तो पड़ेगा ही, मानव समेत तमाम जंतुओं और पेड़-पौधों की ज़िंदगी पर भी पड़ेगा। लिहाज़ा, समय रहते चेतने की ज़रूरत है। स्लिम्स नदी का लुप्त होना और 10 हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।