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Mar 1, 2025

कविताःअकिला फुआ

  - डॉ. शिप्रा मिश्रा 


अब उनकी

कोई जरूरत नहीं

 


पड़ी रहती हैं

एक कोने में

अपनी खटारा मशीन लेकर

 

सुतली से बँधे चश्मे को

कई बार उतारती और

पहनती हैं और 

लगीं रहती हैं 

सूई में धागे पिरोने की

निरर्थक कोशिश में

 

एक जमाने में 

सलाइयों पर तो जैसे

उनकी अँगुलियाँ

थिरकती रहती थीं

 

रिश्तेदारी के सारे

नवजन्मे बच्चे

और तो कुछ बड़े भी

उन्हीं की सिले हुए

झबले, स्वेटर, कुलही

पहनकर पोषित हुए 

 खानदान भर के

पोतड़े, फलिया, गदेली

सिलती रहीं बच्चों के

 

अब तो सब कुछ

मिल जाता है रेडिमेड

सुन्दर, आकर्षक, सुविधाजनक

 

कौन सिलवाए ऐसी

फटी-पुरानी साड़ियों

और बदरंग चद्दरों के 

बेकार की जहमतें

 

एक जमाने में

गाँव भर में 

अकिला फुआ की 

हुआ करती थी

खूब पूछ

 

बेटी का सगुन या

बेटे का परछावन

नहीं होता था

उनके बिना

 

अकिला फुआ

पुरनिया- सी बैठकर

सलाह दिया करती थी

मुफ्त की

 

लेकिन अफसोस

अब खत्म हो गई

उनकी पूछ

हाल-चाल भी नहीं

जानना चाहता कोई

 

दमे की खाँसी ने

परास्त कर दिया उन्हें

अपनी धुँधली रोशनी में

भीग- भीग जाती हैं

उनकी बूढ़ी आँखें

अपने पुराने दिनों को

याद करते हुए

 

काश! 

अब भी कोई

विचारता

रेडिमेड के चलन से

टूट गए, बिखर गए

न जाने कितने परिवार

न जाने कितनी बूढ़ी आस..

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shipramishra1969@gmail.com


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