- देवी नागरानी
मुझसे दो दशक छोटी पर सोच के विस्तार में उसका किरदार मुझसे दो क़दम आगे और ऊँचा। ऐसी ही एक मानवी ने जब रिश्तों के निर्वाह पर निकली बात पर अपने रिश्ते को लेकर आप- बीती सुनाई, तो सच मानिए, दो तीन दिन तक मैं उस मानसिकता के बाहर न आ पाई।
उसका कथन- “मैं पाँच बजे काम से रुखसत पाकर छह-साढ़े छह के बीच जब घर पहुँचती हूँ, तो लगता है सभी मेरे इंतजार में मायूस सन्नाटों को जी रहे होते हैं: घर के दर-दरीचे, बिस्तर पर लेटे मेरे अपाहिज पिता, माँ की देखभाल करने वाली अम्मा और मेरी माँ, जिसकी आँखें निरंतर चारों ओर घूम ने की आदी होकर जाने क्या कुछ ढूँढते हुए जब मुझपर आकर टिकती है, तो वह कह उठती है- “आ गई कमली!” और तत्पश्चात वह सुकून से सो जाती है। “पर तुम्हारा नाम तो बीबा है न ?” -मैंने विस्मय में पूछा
“हाँ मेरी माँ का नाम कमला है, और वह अपनी इस अविकसित अवस्था में मुझको कमली के नाम से पहचानती है।’’
सुनकर एक अजीब- सी सिहरन शरीर में लहरा उठी, लगा कहीं दिमाग में बिजली कौंध उठी. माँ अपने बच्चों को पाल पोसकर बड़ा करते करते ममत्व को साधना की हदों तक ले जाने की अवस्था में अपने आप को इस कद्र भूल जाती है कि उसे अहसास मात्र नहीं रहता कि उसका अपना वजूद बच्चों में समावेश कर गया है।
मैं इस समय यहाँ A.I.R स्टेशन में सिन्धी रिकॉर्डिंग की इन्चार्ज मिस बीबा के केबिन में बैठी रिश्तों की उन गूढ़ रहस्यमय स्थिति के बारे में सोचती रही। कभी लगता है- हमारी सोच भी किन हदों में जकड़ी हुई है, जिसका हमें इल्म ही नहीं. विकसित- अविकसित अवस्थाओं से परे अंतःकरण में भी कई गुफाएँ हैं जो हमें हर बंधन से, हर सीमा से पार करते कराते हमें अपने आप से जोड़ती है. और इन बातों का महत्त्व सिर्फ बीबे जैसे बेटी ही समझ सकती, जिसने माता-पिता की देखरेख के लिए अब तक शादी नहीं की है.
‘‘रिश्ता वो ही निभाएगा ‘देवी’ जिसको रिश्ता समझ में आया है।’’
सोच को ब्रेक देते हुए मैंने बीबा से पूछा- “इस अवस्था में माँ कितने दिन से है?”
“कुछ एक साल के क़रीब हुआ है और उनकी यह प्रतिक्रिया- मुझे कमली कहकर पुकारना, और उस रूप में ढूँढना, सामने देखकर राहत महसूस करना, खुद मुझे हैरत में डाल देती है। उनके मनोभावों को जानते हुए जैसे ही मैं घर में पाँव रखती हूँ, उनके सामने जाकर खड़ी हो जाती हूँ, जब तक वह अपनी आँखें घुमाते हुए मुझ पर टिकाकर यह नहीं कहती- “कमली तू आ गई!”
कुछ पल रुककर बीबा कहने लगी- “अपने आपे- से बाहर की अवस्था और खुद से भीतर जुड़ने की अवस्था का नाम ही शायद ममता है और वह है मेरी माँ कमली।”
उसके कहने और मेरे सुनने के बीच का वक़्त जैसे ठहर गया। मैं कितनी सदियाँ पीछे लाँघ आई थीं, यह मैंने तब जाना जब उसकी आवाज़ ने मुझमें चेतना लौटाई- “ मैडम जी आपकी चाय ठंडी हो रही है।’’
मैं याद के भूल - भुलैया में खो जाती हूँ। शायद वे मेरे ज़हन में अपना स्थान बना बैठी हैं. बारी - बारी वे इन झरोखों से सांस लेने आ जाती है.
अब तो सिर्फ यही, बाकी कुछ और याद आने पर...
dnangrani@gmail.com
2 comments:
मर्मस्पर्शी संस्मरण। सुदर्शन रत्नाकर
Dhanyawaad Priya sakhi
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