मेरे घर खाना बनाने वाली जो महिला आती है। उसके दो बच्चे हैं; एक लड़का और एक लड़की। दोनों पति- पत्नी कमाते हैं और उन्हें पढ़ने के लिए स्कूल भेजते हैं। परंतु एक बात जो अजीब लगी, जब उसने बताया कि मेरा बेटा एक निजी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है और बेटी सरकारी स्कूल में। इस भेदभाव के बारे में पूछने पर उसके पास कई तरह के जवाब थे कि किराए के मकान में रहते हैं, खर्च बहुत बढ़ गए हैं। हम एक ही बच्चे की पढ़ाई का खर्चा उठा सकते हैं आदि आदि...
इसे विडम्बना ही कहेंगे कि आज भी निम्न और मध्यमवर्ग के परिवारों में बेटा और बेटी की परवरिश को लेकर भेदभाव जारी है। हमारे देश में ऐसे कई प्रदेश हैं, जहाँ आज भी बेटी के जन्म पर दुख और बेटे के जन्म पर जश्न मनाया जाता है । हम आज भी अपनी उस पुरानी दकियानूसी सोच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं, जहाँ यह माना जाता है कि बेटा ही कुल का वंशज होता है। बेटा ही माता-पिता को मुखाग्नि देता है। वहीं बेटियों को पराया धन, बच्चे पैदा करने वाली, चूल्हा चौका सम्भालने वाली से अधिक कुछ नहीं समझा जाता। इस सोच को बदलने के लिए सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर बरसों से अनेक योजनाएँ चलाई जाती रही हैं; परंतु परिवर्तन की धीमी रफ्तार के चलते बेटियों को लेकर उक्त दकियानूसी सोच को बदलने में समय लग रहा है।
अभी अभी सरकार की एक प्रभावशाली योजना- ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के 10 वर्ष पूरे हुए हैं। 22 जनवरी 2015 में शुरू की गई इस योजना का प्रमुख उद्देश्य लड़कियों के जन्म के समय लिंगानुपात में सुधार लाना और समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के साथ- साथ बालिकाओं की सुरक्षा, शिक्षा और सशक्तीकरण को भी बढ़ावा देना था। अफसोस, इस योजना का बहुत अधिक फायदा नहीं मिला। हाल ही में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार प्राथमिक शिक्षा में लड़कियों की नामांकन दर 90-100% के बीच तो थी; परंतु माध्यमिक शिक्षा तक आते आते यह दर 77-80% तक आ गई और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा में और भी कम होकर 50-58% के बीच पहुँच गई। इस योजना का एक और उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकना भी था। खासकर लड़कियों को आत्मरक्षा के प्रशिक्षण के माध्यम से। लेकिन इस क्षेत्र में योजना के प्रयासों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि ही देखने को मिली है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़ों के अनुसार 2018 से 2022 के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 12.9% की वृद्धि हुई है। इस मामले में इस योजना को असफल ही कहा जाएगा। हम सभी इस बात से सहमत होंगे कि महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा एक ऐसा संकट है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके लिए हम कानून को काफी हद तक जिम्मेदार ठहरा सकते हैं क्योंकि जहाँ सजा का डर खत्म हो जाता है वहाँ अपराध भी बढ़ जाते हैं। लड़कियों पर हो रहे अपराध के मामले में सामाजिक दबाव एक बहुत बड़ा कारण कहा जा सकता है। क्योंकि माता पिता बदनामी के डर से चुप्पी साध लेते हैं जिससे अपराधी बेखौफ हो जाता है।
सबसे बड़ी असफलता तो इस योजना के लिए जारी राशि का सही उपयोग न किया जाना रहा है। करोड़ों के जारी फंड में से आधे से अधिक को सिर्फ प्रचार- प्रसार में खर्च कर दिया गया। अभी भी योजना की राशि बची हुई है। जाहिर है, योजना को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। ये सब नाकामयाबी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हमारे पास पैसा तो है, पर हम उसका इस्तेमाल करना नहीं जानते, अन्यथा क्या कारण है कि जहाँ संसाधनों की कमी नहीं है, पूरा पावर आपके पास है, लेकिन राजनीतिक दांव-पेंच, प्रशासन की भर्राशाही के बीच अच्छे उद्देश्य के लिए आरंभ की गई योजनाएँ भी फेल हो जाती हैं।तो बात फिर वहीं आ जाती है कि किया क्या जाए? समाज की बेहतरी के लिए जब भी कोई योजना बनती है, तो सबको मिलजुलकर काम करना होता है । उद्देश्य चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, सिर्फ पैसा ही किसी योजना को सफल नहीं बना सकता। लगन, दृढ़ इच्छा शक्ति और देश के प्रति सम्मान तथा प्रेम जब तक नहीं होगा, हम अपने समाज और देश के उत्थान के लिए कुछ नहीं कर सकते। हमारे देश में समाज कल्याण और कुरीतियों को खत्म करने के लिए अनेक महान मनीषियों ने काम किए हैं और पूरा जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे में सदियों से बेटियों के प्रति किए जा रहे भेदभाव को एक झटके में तो खत्म नहीं किया जा सकता । इसके लिए समाज की सोच को अनेक स्तरों पर बदलना होगा। बेटियों को देवी की तरह पूजने वाले देश में बेटियों के जन्म को उत्सव के दिन में बदलना होगा। उनकी शिक्षा को बीच में ही न रोककर उन्हें आत्मनिर्भर बनने की दिशा में प्रोत्साहित करना होगा। उनके लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराने होंगे। और यही सब उद्देश्य भी बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ योजना का है, जिसे गंभीरता से लागू करने की आवश्यकता है।
इन सबके लिए जनजागरूकता तो आवश्यक है ही; परंतु इसे फलीभूत करने के लिए कुछ ऐसे उदाहरण और आदर्श प्रस्तुत करने होंगे जो सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बने। बेहतर काम करने वाली संस्थाओं, व्यक्तियों की कमी नहीं है देश में। उन सबको साथ लेकर चलना होगा। सबसे जरूरी इस तरह की योजनाओं को राजनीति से दूर रखकर लागू करना होगा क्योंकि राजनीतिक फायदे के लिए बनाई गई योजनाओं से सामाजिक उत्थान की कल्पना नहीं की जा सकती।
6 comments:
आदरणीया
बहुत ही संवेदनशील विषय पर कलम उठाई है आपने। बेटा इकाई होता है, किंतु बेटी तो संस्था। दो परिवारों को जोड़ने वाला रामेश्वर सेतु। बेटी पूर्व जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है और अभिभावकों का परम सौभाग्य :
-- बेटियाँ सब के मुकद्दर में कहां होती हैं
-- जो घर खुदा को पसंद आ जाए वहाँ होती हैं
लेकिन विडंबना देखिये नारी जब सास का स्वरूप धारण कर लेती है तो बहु से पुत्र की अपेक्षा करती है।
इस दौर की सरकारों ने बेटी भलाई की अहमियत को समझा है। समय के साथ परिवार भी समझ ही लेंगे।
हार्दिक बधाई सहित सादर
सादर अभिवादन आदरणीया
"बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ " वर्तमान सरकार की अनुकरणीय योजना के कारण इस स्लोगन से सभी का परिचय तो अवश्य हो गया है,लेकिन संवेदना की गहराई तक कार्य रूप में परिणति अभी बाकी है।अतः आपका सारगर्भित आलेख लोगों को सच्चाई से जोड़ने में कारगर साबित होगा। उदाहरण के माध्यम से बहुत रोचक ढंग से बात कहने का तरीका सराहनीय है।अशेष साधुवाद के साथ
मांडवी
हमेशा की तरह ज्वलंत समस्या को लेकर लिखा गया सारगर्भित आलेख। किसी भी बड़ी बीमारी का इलाज समय लेकर धीरे-धीरे होता है। आवश्यक है कि हम बीमारी को समझते हुए उसे गम्भीरता से लें। बेटा- बेटी में मत भेद समाज में व्याप्त एक गम्भीर समस्या है। गाड़ी का एक भी पहिया कमजोर हो तो गाड़ी डगमगाएगी ही।सुधार तो ज़रूरी है।आपके सम्पादकीय समाज को जागरूक करने का काम करते है। कभी तो आँखें खुलेंगी। बहुत सुंदर। सुदर्शन रत्नाकर ।
आदरणीया
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना का उद्देश्य तो बहुत अच्छा था लेकिन लोगों ने केवल इसका आर्थिक स्तर पर ही अधिक उपयोग किया मानसिक स्तर पर सोचने में कमी है तभी हायर सेकेंडरी लेवल तक आते आते लड़कियों का प्रतिशत कम हो गया। ठीक इसी तरह कुछ लोग महिलाओं को केवल उपयोग की वस्तु ही मानते हैं या दहेज लेने वाली इसलिए वह मारपीट से भी नहीं कतराते । ये तब तक होता रहेगा जब तक समाज का मानसिक उत्थान नहीं हो जाता। ओरत ही सास बनकर बहू की दुश्मन बन जाती है। ये संबंध मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग में बदला भी है लेकिन निम्न वर्ग में अभी भी है। आज की सास बहू को कोई रोक टोक नहीं करती चाहे वह जीन्स टॉप पहने या साड़ी। पहले तो घूँघट बहुत ज़रूरी हुआ करता था ।आपके इस लेख के लिए साधुवाद।
अशोक कु मिश्रा
लोगों की मानसिकता अभियान नही बदली है।आज भी लोगों को लगता है कि बेटियाँ पराया धन है इसलिए उन पर पैसा खर्च करने से कोई लाभ नहीं हेगा।परिवर्तन हुआ है लेकिन अभी भी कुछ कमी बाकी है।
आदरणीय जोशी जी, आपकी यह सराहना मेरे लिए अत्यंत प्रेरणादायक है। आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत मायने रखती है और इससे मुझे आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है।
आपका आभार व्यक्त करती हूँ और आशा करती हूँ कि आगे भी आपका मार्गदर्शन और समर्थन मिलता रहेगा। सादर धन्यवाद।
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