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Mar 7, 2024

बांग्ला कहानीः वह पेड़

   - ऋत्विक घटक , अनुवाद - मीता दास

   गाँव - से कुछ दूरी पर एक छोटी नदी के तट पर ठोकर खा कर गिरा हुआ सा एक बरगद का पेड़ था। कहें , , तो  पेड़ों की तुलना में वह कोई बहुत बड़ा पेड़ नहीं था ।

    बहुत ही पुराना पेड़ था वह, जड़ों को कीड़ों ने खा लिया था, पेड़ की डालियाँ भी सड़ गईं थीं।  विस्मृत हुई, सुदूर गुज़रे ज़माने में यही पेड़ तरोताजा था, किन्तु आज वैसा नहीं है। वैसे किसी काम का नहीं था वह पेड़। सिर्फ गाँव आने के रास्ते पर लोगों के लिए यह पेड़ एक पहचान के तौर माना जाता था, लोग जानते थे कि इसके बाद है, हारू लोहार का कारखाना, और उसके बाद असली गाँव...।

     वर्ष में सिर्फ एक बार इस पेड़ की अहमियत  बढ़ जाती। चड़क पूजा के समय उस पेड़ की कुछ जड़ों की शाखाओं को कुछ अनजान व्यक्ति तेल और सिंदूर लगाकर अत्यंत सुशोभित कर देते, दूर- दूर के कई गाँवों से लोग भी आते थे। गाँव का मैदान एक मेले में तब्दील हो जाता। तब उस पेड़ की छटा अचानक देखने लायक बन जाती। किन्तु उसके बाद वह पेड़ पूरे वर्ष भर वैसा ही पड़ा रहता।आसपास पड़ी हुई जमीन पर गाएँ चरा करतीं, कभी कभी सुदूर गाँव से आया पथिक उसकी शीतल छाया में बैठ जाता और पोटली खोलकर चिवड़ा - मुर्रा खाकर नदी का पानी पीकर फिर रवाना होता ।

 ...चाँदनी रात में वह पेड़ विशाल मैदान के तट पर अकेला अपने आँगन में अपूर्व आलौकिक सृष्टि उत्पन्न कर मस्त होकर परिवर्तनशील नदी के जल में ना जाने किसी रहस्यमय सपनों में खो जाता...

     साल की छह ऋतुयें अनवरत रूप से उस पेड़ के सर के उपर से गुजर जाती। नदी से जाती हुई नौकाएँ  पेड़ की छाँव के झरोखों के छोटे -छोटे मुँहख़ानों से अजीब कौतूहल दृष्टि से उस पेड़ की  ओर देखती थीं ।

      उस पेड़ की तलहटी छोटे बच्चों के लिए मौज मस्ती की जगह थी। पुष्ट पेड़ की शाखाओं में बच्चे खेला करते, पेड़ की डालियों में चढ़कर छलांग लगाते, स्कूल से भागकर आ बैठते थे ।

     गाँव के लोग बचपन से ही उस पेड़ के पास आते थे। गर्मी की दोपहरी में, कोई कोई व्यक्ति उस पेड़ के नीचे, जहाँ पेड़ की जटाएँ आपस में एकत्र हो, एक सुंदर बैठने की जगह बनाकर, उस पर बैठकर नदी की विस्मय भरी कल- कल ध्वनि का आनंद लेते थे ।

     वहाँ के मछुआरे जानते थे कि उस पेड़ के किनारों की जड़ों के फाँक- फाँक में मछलियाँ पायी जाती हैं ...कई प्रकार की छोटी बड़ी मछलियाँ। इसलिए उनके बच्चे जब कभी नहाने आते, , तो गमछों को फेंककर मछलियाँ पकड़ते। कभी - कभी जाल फेंककर भी मछलियाँ पकड़ी जातीं ।

     गाँव के बड़े बूढ़े भी उस पेड़ को जानते थे। वे लोग पेड़ के तने पर टेक लगाकर बैठे बैठे देखते - बच्चों का खेल, बच्चों का मछलियाँ पकड़ना, और मन ही मन अपना सर हिलाते। शायद अपने शैशव काल में खो जाते ।

    किन्तु यह गाँव वाले यही नहीं जान पाए कि इस बूढ़े बरगद के पेड़ की कितनी बड़ी जगह है उनके दिलों में। वो बस इतना ही सोचते थे कि यह , तो सिर्फ बूढ़ा  शिव-बरगद है। यह सदियों से यहाँ था और यहीं रहेगा। बस यही  कहावत चरितार्थ थी... " हारू लुहार के मोड़ पार , बूढ़ा शिव बरगद का झाड़"।

    एवं जहाँ तक संभव हो वह यहीं रहता और कई सदियों तक, अनवरत जाने वाले पथिकों को आश्रय देता:  किन्तु अचानक एक दिन बिना किसी सूचना के सरकार की एक नई विचारधारा उपस्थित हुई। वर्तमान सरकार की व्यवस्था की  नई विचारधारा के तहत नदी को बढ़ाकर चौड़ा किया जाएगा। अतएव एक दिन जबरदस्त आपत्तियों के  साथ बड़ा शोर करता हुआ वह बूढ़ा शिव बरगद जमीन पर गिर पड़ा। और नदी के दोनों किनारों को समान रूप से काटकर उस प्राचीन नदी को नई नदी के रुप में परिणत किया गया।...

   किन्तु उनकी यह आपत्ति बड़बड़ाने के बीच ही दबकर सीमाबद्ध होकर रह गई। आखिर वह पेड़ गिर ही गया ।... उसके बाद गाँव के लोग धीरे- धीरे उस बरगद के पेड़ को भूलने लगे। नए चेहरे, नए मकान, नए घर द्वार ...सब कुछ नया- नया। केवल, जब कभी गाँव के वयोवृद्ध उस जगह से गुजरते, तब नदी का वह किनारा बड़ा नग्न सा लगता था उनकी आँखों में। इसलिए वे लोग हाथ पैर हिला हिलाकर इस कहानी को नए लोगों को सुनाते थे। यही है उनके नव  जागरण की कथा...

       किन्तु वह भी कितने दिनों तक !

    बरगद का वह पेड़, इतने दिनों तक लोगों को आश्रय देते- देते आज लोगों के दिलों से भी निःशब्द होकर  विलुप्त हो गया ।  ■

सम्पर्कः  63/4, नेहरूनगर वेस्ट, भिलाई, छत्तीसगढ़ 490020 , मो- 9329509050 

email- mita.dasroy@gmail.com


3 comments:

Anonymous said...

बहुत सुंदर कहानी

मेरी अभिव्यक्तियाँ said...

मार्मिक !

Anonymous said...

शिव बरगद की मर्मस्पर्शी कथा । हार्दिक बधाई मीता दास जी को । ऋत्विक घटक की कथाओं पर बंगला की पुरस्कृत फ़िल्म भी बनी थी । वे संवेदनशील मानवेतर कथा के सिद्धहस्त थे ।
विभा रश्मि