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Mar 7, 2024

पर्व - संस्कृतिः छत्तीसगढ़ में होली- चली फगुनाहट बौरे आम..

 - डॉ. परदेशीराम वर्मा

हमारा सर्व समाज उत्सवधर्मी और देश उल्लास उमंग प्रेमी है। हमारे रचनाकारों ने त्योहारों पर खूब लिखा है। विशेषकर फागुन के महीने और इसी माह पड़ने वाले दुनिया के अनोखे त्योहार होली के बारे में। ‘चली फगुनहट बौरे आम’ विवेकीराय के लोक स्वर के आलेखों की किताब का शीर्षक है।

उत्तर भारत में लोक उक्ति प्रचलित है- फागुन में बुढ़वा देवर लागे। धर्मवीर भारती ने फागुन के मौसम के नीम पेड़ पर असर के बहाने क्‍या खूब लिखा है-

झरने लगे नीम के पत्ते, 

बढ़ने लगी उदासी मन की।

होली का त्योहार उन्मुक्त होकर जीवन के महत्त्व को समझने का अवसर देता है। इस त्योहार को साहित्य संस्कृति लोक मंच से जुड़े लोगों ने भी भरपूर महत्त्व देकर इसे सतत सरस बताने में अपना योगदान दिया है। इलाहाबाद में बुढ़वा मंगल का साहित्यकारों का विशेष आयोजन इसी का हिस्सा था। गीत और उल्लास से भरे होली के त्योहार में भड़ौनी जैसे गीत भी खूब प्रचलित हैं।

ब्रज की होली में ठेंगमार होली के सम्बन्ध में तो सभी जानते हैं। एक गीत ऐसा भी प्रचलित है, जिसकी पहली पंक्ति है- लल्‍ला जायो यार को, नाम खसम का होय।

छत्तीसगढ़ में होली का त्योहार अपने विशिष्ट रंग के साथ आता है। इसमें डंडा नाच विशेष है। गाँवों में माह भर डंडा नाच की प्रेक्टिस की जाती है। आठ तरह से डंडा नाचने वाले लोग आज भी होली के अवसर पर गाँवों में मिल जाते हैं। छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी से फाग गीतों की स्वर -लहरी छत्तीसगढ़ के गावों में गूँजने लगती है। आम्र मंजरियों से सुवासित गाँव के खेत-खार, गली मोहल्ले, चना, गेहूँ से भरे खेत और बासंती वातावरण। धीरे-धीरे चढ़ता है होली का रंग।

छत्तीसगढ़ के बहुंत लोकप्रिय जन कवि ने सिर पर लाल फूलों का चँदोवा उठाए पलास और बौराए आम पर अनोखा गीत लिखा ॥ लक्ष्मण मस्तूरिया ने इस गीत में छत्तीसगढ़ के दमकते चेहरे को शब्द बद्ध किया है-

राजा बरोबर लगे मऊरे आमा,

रानी साही परसा फूलवा।

मन लागे रे मांग फागुनवा।

इस मौसम को अन्य कवियों लोक गायकों ने खूब महत्त्व देकर रचनाओं का संसार रचा।

पिंवरी पहिर सरसों झूमें, 

ढोलक सजावय ठेंमना चना।

राहेर हलावय धुनधुनात, 

गढ़ूँ घलो धुंके हरमुनिया।

धरसा के परसा म सुलगत हे आगी,

 लाली सेम्हरा ला फबे हरियर पागी।

संत पवन दीवान ने भी इस मौसम को खूब महत्त्व देते हुए चर्चित कविता का लेखन किया-

महर महर मऊहा महके, जंगल दहके।

छत्तीसगढ़ में होलिका दहन के लिए स्थल पर अरंडी गड़ाकर पूजन का विधान है। अरंडी गड़ जाने के बाद बच्चा, जवान गाँव से लकड़ी लाकर यहीं इकट्ठा करते हैं ताकि पहाड़- सी लकड़ियों को होली के दिन जलाकर आनंद ले सकें। इधर लकड़ी एकत्र करने वाली टोली निकली उधर गाँव के चौरे में नगाड़ा बजना शुरू हो गया। होली के गीतों को गाने का अभ्यास इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी किया जाता है। होली के कुछ बहुत दुर्लभ गीतों में सर्वाधिक प्रचलित गीत के बोल हैं-

दे दे बुलौवा राधे ला नगर में, दे दे बुलौवा राधे ल।

कुंजन बीच होरी होय, दे दे बुलौवा राधे ला

श्री कृष्ण और राधा से जुड़े गीतों की भरमार तो होती ही है अन्य देव भी गीतों के माध्यम से याद किए जाते हैं। अरे बाजे नगारा दस जोड़ी, राधा-किसन खेलय होरी।

पहली नगारा अवध म बाजे, राम-सीता के हे जोड़ी।

राकेश तिवारी कुछ विशेष गीत गाते हैं- यथा

चलो हाँ गजानन, करंव तुम्हार मैं बंदना,

 शिव गौरी के प्यारे लाल गजानन करव तुंहर में बंदना।

इसके अतिरिक्त रावण पर भी एक प्रचलित गीत है-

चलो हा रे रावन, तोर बारी म बेंदरा आए।

फुलवा के करे उजार रावन तोर बारी म॒ बेंदर आए।

ये गीत भी होली में अब गाए जाते हैं, जो भवानी माता की वंदना के गीत है। दानेश्वर शर्मा का यह गीत प्रचलित है- 

माँ आसीस देना वो

तोर सरन मा आऐन माँ असीस देना ओ।

तहीं भवानी तहीं कालिका तहीं हवस जगदंबा।

तोर परतापे टोरिन बेंदरा भालू मन गढ़ लंका।

इस तरह के गीत भी अब लोक में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में साहित्य लेखन की मूल शक्ति गीत मिट्‌टी से जुड़ी है। लोक से रंग लेकर यहाँ रचनाकार धीरे-धीरे आकृति ग्रहण करते हैं।

होली से जुड़ा प्रहलाद उसकी बुआ होलिका और पिता हिरणकश्यप की कथाएँ भी गीतों में आती है। प्रहलाद की विष्णुपद पर अनुरक्ति से कुपित पिता ने उसे जलाने के लिए अपनी बहन होलिका को गोद में बिठाकर होली दहकाया किन्तु प्रहलाद बच गये, होलिका ही जल मरी। यह कथा आस्था की जीत और विक्रम अनास्था की हार की कथा है जो गीतों में कही जाती है। होली जलाने के लिए कुंवारी अग्नि लाने का प्रचलन भी छत्तीसगढ़ में है। इसे चकमक पत्थर और रूई से दहकाया जाता है। मनुष्य इसी तरह अपने पुरखों के सतत विकास की कथाओं और आगे बढ़ने की ऐतिहासिक सचाइयों को दहकाते हुए आज यहाँ तक पहुँचा है। होली में खटमल से मुक्ति के लिए भी टोठके की परंपरा है। खटमल को भी जलाते हैं ताकि खटमल तंग न करे। गीत भी है-

कहाँ लुकाए रे ठेकना, 

कहाँ लुकाए खटिया म।

होलिका संग करो रे बिनास, 

ढेकना कहाँ लुकाए खटिया म।

हमारे छत्तीसगढ़ में होली गीतों में आजादी के लिए संघर्ष की कथा भी मिलती है-

अरे हाँ गांधी बबा फहरा दिए तिरंगा भारत में,

भारत में, भारत में, भारत में।

गांधी बबा फहरा दिए...

सर्वाधिक प्रचलित होली गीतों में एक ऐसा भी गीत है जिसमें आल्हा और उदल की वीरता का वर्णन है-

उदल बांधे हथियार, एक रानी सोनवा के करन म।

इसके अतिरिक्त किसन कन्हैया पर पूरी शृंखला है होली गीतों की-

काली दाह जाय, काली दाह जाय, 

छोटे से श्याम कन्हैया।

छोटे मोटे रूखवा कदंब के डाया लहसे जाय, 

डारा लहसे जाय,

छोटे से श्याम कन्हैया।

देश में हर प्रदेश का अपना विशेष अंदाज त्योहारों में भी देखने को मिलता है। हमारे बचपन के दिनों में होली जलाते समय कुछ भद्दी गालियों और देह संबंधों से जुड़ी हास्यास्पद उक्तियों को भी उछाला जाता था। लेकिन धीरे-धीरे इस परंपरा को पीछे धकेलकर नई पीढ़ी ने त्योहार के उल्लास को नया अभिनव आयाम दिया है। एक ही चिंताजनक समस्या धीरे-धीरे छत्तीसगढ़ की जवानी को लीलती आगे बढ़ रही है वह है नशा पानी का। होली त्योहार को पीने पिलाने की परंपरा से जुड़ा बताकर रंग में भंग किया जाता है। समय के साथ शायद यह विकृति भी दम तोड़े। आशा तो की ही जा सकती है। 

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सम्पर्कः एल.आईजी.-18

आमदी नगर, भिलाई 490009 छ.ग.

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