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Mar 7, 2024

कविताः परवाज़

  - प्रणति ठाकुर






खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।


खोल अपने पंख कि नभ मापना है,

धरा के विस्तार को भी आँकना  है,

इस तिमिर में भोर का आगाज़ है तू

खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।

 

भूलकर बैठा है तू अपने हुनर को ,

पर क्यों तू भूला कठिन जीवन - समर को।

थकके अब मत बैठ कि जाँबाज़ है तू

खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।

 

उठ धरा की धमनियों से ओस की बूँदें‌ निचोड़ें,

अनगिनत तारे गगन में चल ज़रा हम भी , तोड़ें,

गिर पड़े इन सरफिरों की जीत का अंदाज़ है तू ।

खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।

 

चल तुम्हारे पाँव में आकाश भर दूँ,

मन के अंध प्रकोष्ठ में अमित प्रकाश भर दूँ

भेद दे हर लक्ष्य जो इक ऐसा तीरंदाज़ है तू ।

खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।


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