- प्रणति ठाकुर
खोल अपने पंख कि नभ मापना है,
धरा के विस्तार को भी आँकना है,
इस तिमिर में भोर का आगाज़ है तू
खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।
भूलकर बैठा है तू अपने हुनर को ,
पर क्यों तू भूला कठिन जीवन - समर को।
थकके अब मत बैठ कि जाँबाज़ है तू
खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।
उठ धरा की धमनियों से ओस की बूँदें निचोड़ें,
अनगिनत तारे गगन में चल ज़रा हम भी , तोड़ें,
गिर पड़े इन सरफिरों की जीत का अंदाज़ है तू ।
खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।
चल तुम्हारे पाँव में आकाश भर दूँ,
मन के अंध प्रकोष्ठ में अमित प्रकाश भर दूँ
भेद दे हर लक्ष्य जो इक ऐसा तीरंदाज़ है तू ।
खोल अपने पंख कि परवाज़ है तू ।
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