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May 1, 2022

उदंती.com, मई – 2022

वर्ष – 14 अंक - 9

ये कह के दिल ने मिरे हौसले बढ़ाए हैं

ग़मों की धूप के आगे ख़ुशी के साए हैं

             - माहिर-उल क़ादरी

इस अंक में

अनकहीः   सबसे बड़ा दान विद्या दान - डॉ. रत्ना वर्मा

शिक्षाः निजी स्कूलों से अभिभावकों का मोहभंग - डॉ. महेश परिमल

आलेखः पीछे छूटते मानवीय संवेदना के ऑर्गैनिक मूल्य - शशि पाधा

स्वास्थ्यः कम खाएँ, स्वस्थ रहें - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

आलेखः आपकी नज़र में भारत की नई तस्वीर - साधना मदान

यात्रा संस्मरणः लक्षद्वीप की सुरम्य यात्रा - गोवर्धन यादव

आधुनिक बोध कथा- 5ः मदद भरा हाथ - सूरज प्रकाश

जीव- जगतः कौआ और कोयल: संघर्ष या सहयोग - कालू राम शर्मा

प्रकृति से संवादः करके देखिए अच्छा लगेगा - सीमा जैन

नवगीतः बदले हुए परिवेश में - क्षितिज जैन 'अनघ'

कविताः मातृत्व दिवस 8 मईः ...और वे चली गईं चुपचाप - डॉ. रत्ना वर्मा

कहानीः खोज - आशा पाण्डेय

व्यंग्यः श्यामलाल जी का अभिनन्दन  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

लघुकथाः चौराहे पर - डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति

लघुकथाः 1. विकलांग, 2. परिवार की लाड़ली - माधव नागदा

प्रेरकः प्रतीक्षा करें… धीरज धरें…  - निशांत

परामर्शः कभी सोचा है  - प्रगति गुप्ता

किताबेंः यथार्थ से साक्षात्कार कराती लघुकथाएँ  - नमिता सचान सुंदर

कविताः चार गुना सुन्दर दृश्य - केशव शरण

जीवन दर्शनः मार्श मेलो थ्योरी - धैर्य की धारणा  - विजय जोशी

अनकहीः सबसे बड़ा दान विद्या दान

- डॉ. रत्ना वर्मा

विद्यादान से बड़ा और कोई दान नहीं हो सकता। शिक्षा ही जिंदगी को बेहतर बनाने के रास्ते दिखाती है।  पिछले दिनों समाचार पत्र में इसी से जुड़ी एक  खबर पढ़ने को मिली। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में एक ऐसे थाना प्रभारी  हैं,  जिन्होंने पुराना थाना परिषद की बिल्डिंग को क्षेत्र के बच्चों के लिए विद्यादान की पाठशाला (पुस्तकालय) में परिवर्तित कर एक अनोखी पहल शुरू की है। थाना प्रभारी बखत सिंह ठाकुर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी सँभालने के साथ- साथ स्थानीय छात्रों को प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करवाते हैं। वे प्रतिदिन सुबह 7 से 10 बजे तक लगभग 300 छात्रों को पढ़ाने में जुट जाते हैं। उनके इस जज्बे को देखकर उनके दो साथी आरक्षक भी पढ़ाने में उनकी मदद करने लगे हैं। प्रसन्नता की बात है कि अब तक उनकी मेहनत से कई छात्र चयनित होकर सरकारी अफसर और कर्मचारी बन चुके हैं।

थाना प्रभारी ठाकुर ने भी स्वयं के परिश्रम और मेहनत से शिक्षा प्राप्त की है ।  शिक्षा के बाद उन्होंने गाँव में प्रधान का पद और  फिर शिक्षक के दायित्व को बखूबी निभाया है। उसके बाद उन्होंने पुलिस की तैयारी शुरू की और मध्य प्रदेश पुलिस विभाग में नौकरी ज्वाइन कर ली। उनका कहना है कि चूँकि मेरी परवरिश ग्रामीण क्षेत्र में हुई है जहाँ शिक्षा ग्रहण करने के दौरान काफी असुविधा हुई थी;  इसीलिए मैंने जरूरतमंद होनहार छात्रों को पढ़ाने के बारे में विचार किया।

उनके इस सफर के शुरू होने की कहानी भी बड़ी प्रेरक है। वे बताते हैं कि पन्ना से करीब 40 किमी दूर ब्रजपुर में वे  जुलाई 2021 में पदस्थ हुए थे। उसी समय ब्रजपुर पुलिस थाना परिसर में ही थाना की नई बिल्डिंग बन रही थी। पूरा थाना नए भवन में शिफ्ट हो गया। तब पुराना थाना भवन खाली पड़ा था।  तभी मैंने सोचा क्यों न इसका ऐसा इस्तेमाल किया जाए कि आने वाली पीढ़ी का भला हो सके। कोरोना के कारण बाहर पढ़ने के लिए गए बच्चे अपने अपने गाँव लौट आए थे और पढ़ाई से दूर होते जा रहे थे। अनुमति लेकर मैंने  पुराने थाना परिसर में ही विद्यादान नाम से पुस्तकालय खोला, किताबें जुटाई और फर्नीचर लाकर दो क्लास रूम भी बना दिए । समय लगा पर धीरे- धीरे बच्चे पुस्तकालय में पढ़ाई करने आने लगे ।

बखत सिंह ठाकुर की इस सच्ची कहानी को पढ़कर आप सबको सुपर- 30 के नाम से मशहूर आनंद कुमार की कहानी भी याद आ गई होगी, जिनपर ऋतिक रोशन अभिनीत फिल्म भी बन चुकी है। आनंद कुमार एक गणितज्ञ तो हैं ही, साथ ही वे सुपर- 30 नाम से ऐसी संस्था का संचालन करते हैं, जिसका  मुख्य उद्देश्य गरीब छात्रों को आईआईटी और जेईई में प्रवेश के लिए तैयारी करवाना है।

ऐसा नहीं है कि आनंद कुमार और ठाकुर ही इस प्रकार से होनहार गरीब बच्चों को पढ़ाई में सहायता करके उनका भविष्य संवार रहे हैं। देश में अनेक व्यक्त्ति और संस्थाएँ  हैं, जो इस प्रकार से बच्चों को आगे बढ़ने में सहायता करते हैं;  परंतु इनकी संख्या इतनी कम है और जरूरतमंद बच्चों की संख्या इतनी ज्यादा कि लाखों बच्चे काबिलियत होने के बाद भी आगे नहीं बढ़ पाते। ग्रामीण इलाकों में अच्छे स्कूलों की कमी  शिक्षा का निम्न स्तर और बेहतर शिक्षकों की कमी आदि कई कारण हैं, जो दूर- दराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों को आगे बढ़ने में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।  एक और प्रमुख कारण है अमीर और गरीब बच्चों में भेदभाव। यदि कोई गरीब परिवार अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में खर्च करके भेज भी देता है, तो वहाँ के अलग वातावरण के कारण एक गरीब परिवार का बच्चा हीन भावना का शिकार हो जाता है और दूसरे बच्चों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता।। गरीब माता- पिता पढ़ाई में अच्छा होने के बाद भी अपने बच्चे को उच्च शिक्षा के लिए बाहर नहीं भेज पाते। फलस्वरूप बच्चे का विकास रुक जाता है। ऐसे बहुत से कारण हैं, जो एक बच्चे की उच्च शिक्षा में बाधक बनते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि देश के प्रत्येक बच्चे को पढ़ाई का एक अच्छा वातावरण क्यों नहीं मिल पाता। देश के प्रत्येक बच्चे को एक समान शिक्षा पाने का अधिकार है; लेकिन निजी और सरकारी स्कूल के फेर में पड़कर लाखों- करोड़ों बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है।  बड़े- बड़े शिक्षाविद् सुधार की बात तो बहुत करते हैं; पर निजी और सरकारी स्कूलों के अंतर को पाटने की बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता । निजी स्कूलों में भारी- भरकम पैसा लेकर फाइवस्टार की सुविधा दी जाती है। वहीं सरकारी स्कूलों में निःशुल्क पढ़ाई के साथ दोपहर का भोजन, किताबें, स्कूल यूनिफार्म सब मुफ्त है, फिर भी वहाँ के बच्चें पिछड़ जाते हैं ?

अतः सरकारी स्कूलों के स्तर को सुधारना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।  यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि जिस सरकार ने निजी स्कूलों की मान्यता के लिए जो मानक तैयार किए है, जैसे स्कूल की बिल्डिंग, कमरों की संख्या, शिक्षकों की संख्या आदिपर वहीं सरकार अपने सरकारी स्कूलों के लिए क्या इन मानकों का पालन करती है? स्थिति ये है कि दो कमरों के स्कूल में पाँच – पाँच कक्षाएँ लगती हैं, जहाँ केवल दो शिक्षक पढ़ाते हैं। वहाँ न बैठने के लिए कुर्सी टेबल, न खेलने के लिए मैदान, न खेल- सामग्री, न अच्छी किताबें। फिर हम कैसे यह उम्मीद करें कि वहाँ पढ़ने वाले बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में अव्वल आएँ।

आज प्रतिस्पर्धा के इस दौर में सभी बस अच्छी नौकरी पाना चाहते हैं। गाँव में माता- पिता अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहते हैं और वे उन्हें स्कूल भेजते भी हैं; परंतु उनको यह नहीं पता होता कि उनके बच्चों को किसमें रुचि है , वे क्या बनना चाहते हैं या उनमें कितनी काबिलियत है। ऐसे में यह सबसे महत्त्वपूर्ण है कि बच्चों को पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम को ऐसा बनाना कि बच्चे रट्टू तोता बनने की बजाय ऐसी समझ विकसित करें जो उनके उज्ज्वल भविष्य में सहयोगी बने, वे मशीन की तरह जिंदगी बिताने की बजाय एक बेहतर इंसान की तरह देश के अच्छे नागरिक बनें। संभवतः बखत सिंह ठाकुर और अनंद कुमार जैसे लोग बच्चों की इसी प्रतिभा को पहचानते हैं और उन्हें  सही दिशा देते हुए एक अच्छा नागरिक बनाने में सहयोगी बनते हैं।  तो क्यों न देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था बने कि देश का हर बच्चा बेहतर शिक्षा पा सके और अपने माता पिता के साथ देश का नाम भी रोशन करे।

शिक्षाः निजी स्कूलों से अभिभावकों का मोहभंग

- डॉ. महेश परिमल

एक खबर, कोरोना के चलते देश की ज्यादातर निजी स्कूलों का राजस्व 20 से 50 प्रतिशत कम हो गया है। इसके अलावा नए शिक्षण सत्र में नए एडमिशन भी बेहद कम हुए हैं। इससे साफ है कि निजी स्कूलों की मनमानी और खुली लूट से अभिभावकों का मोहभंग होने लगा है। उनका झुकाव अब सरकारी स्कूलों की तरफ होने लगा है। सरकारी स्कूलों में एडमिशन के लिए बढ़ती भीड़ इसी बात का परिचायक है।

हम सब कोरोना की महामारी से गुजरकर अब कुछ राहत की साँस ले रहे हैं। पर यह भी सच है कि खतरा अभी टला नहीं है। पर हम सब मजबूर हैं, अपने कदमों को घर के बाहर ले जाने के लिए। आखिर कब तक इसे रोका जाए। रोजी-रोटी भी तो चलानी है। अब सब कोरोना से बचने के लिए अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ शिक्षा को लेकर भी लोग सचेत होने लगे हैं। दसवीं-बारहवीं के विद्यार्थियों को प्रमोशन देने की बात हो या फिर ग्रेड के साथ परिणाम देने की बात हो, ऑनलाइन शिक्षा का क्षेत्र बढ़ाने की बात हो, इन समस्याओं ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है। नया शिक्षण सत्र शुरू हो गया है। अभिभावक अपने बच्चों के एडमिशन के लिए तत्पर हैं। इस बार अभिभावक सतर्क हैं। निजी स्कूलों की खुली लूट के आगे बेबस अभिभावकों का रुझान अब सरकारी स्कूलों की ओर बढ़ रहा है। इसलिए वे अपने बच्चों के एडमिशन के लिए सरकारी स्कूलों की शरण में पहुँच रहे हैं। हर अभिभावक की चाहत होती है कि उनकी संतान को अच्छी शिक्षा मिले, अच्छे संस्कार मिलें। अब तक उच्च मध्यम वर्ग और हाइनेट वर्थ वाले अपने बच्चों को लाखों रुपये देकर निजी स्कूलों में भेज रहे थे। निजी शालाओं का आकर्षण इतना जबरदस्त है कि वे स्कूल किसी फाइव स्टॉर होटल जैसी लगते हैं। अभिभावकों की इस चाहत को निजी स्कूलों ने खूब भुनाया। इसके बाद ये स्कूल अपने कर्त्तव्यपथ से दूर होते गए। फिर शुरू हो गई उनकी मनमानी। जिसके आगे अभिभावक बेबस हो गए। कोरोना ने सारे परिदृश्य को बदल दिया। इससे पालकों की सोच भी बदली। यही कारण है कि अब पालक निजी स्कूलों का मोह छोड़कर बच्चों का एडमिशन सरकारी स्कूलों में करवा रहे हैं।

पहले हालात ये थे कि संतान के जन्म के तुरंत बाद पालक 5 लाख रुपये अलग से उनकी प्रारंभिक शिक्षा के नाम पर रख लेते थे। दूसरी ओर बच्चे के जन्म के साथ उसकी स्कूल को लेकर पालक चिंतित दिखाई देते थे। किस स्कूल में एडमिशन कराया जाए, वहाँ के लिए किसकी पहचान ठीक रहेगी। यह एक ऐसा जहरीला ट्रेंड था कि इसमें मध्यम वर्ग अनजाने में ही फँसता चला जाता था। उधर सरकारी स्कूलों की हालत भी उतनी अच्छी  नहीं थी। वहाँ शिक्षा का स्तर ठीक नहीं था, स्वच्छता का अभाव था, इसके अलावा विद्यार्थियों में अनुशासन की कमी दिखाई देती थी। शिक्षक भी गैरहाजिर रहते। इस कमजोरी का पूरा लाभ  निजी स्कूलों ने उठाया। देखते ही देखते गाँव-गाँव में निजी स्कूलों का कब्जा हो गया। एक तरह से शिक्षा का व्यापार ही शुरू हो गया।

निजी स्कूलों की बढ़ती संख्या के पीछे राजनीति थी। हर स्कूल से कोई न कोई जन प्रतिनिधि संबद्ध ही होता था। निजी स्कूलों की मनमानी के खिलाफ कई बार अभिभावक लामबंद हुए;  पर राजनीतिक संरक्षण के कारण उनकी आवाज दब गई। सरकार भी लाचार हो गई। बाद में अभिभावकों को यह खयाल आया कि यह सब धन का खेल है। इसके बाद सरकारी शालाएँ नींद से जागी। स्कूलों में सुधार दिखाई देने लगा। वहाँ बुनियादी सुविधाएँ बढ़ने लगी। स्वच्छता अभियान चलाया गया। शिक्षकों को यह ताकीद की गई कि वे रोज स्कूल आएँ। इन स्कूलों में भी डिजिटल सुविधाएँ मिलने लगीं। कोरोना काल में पालकों को यह अहसास हो गया कि जब सरकारी स्कूलों में ही बच्चों को बुनियादी सुविधाएँ मिल रही हैं, तो फिर इतनी राशि क्यों खर्च की जाए? इस सोच ने शिक्षा माफिया को एक तरह से हिलाकर रख दिया।

निजी स्कूलों में आपसी प्रतिस्पर्धा इतनी तीव्र थी कि हमारी शाला ही सर्वश्रेष्ठ है, इसके लिए वे विज्ञापनों पर ही लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करने लगे थे। लोग विज्ञापन पढ़कर और देखकर ही गद्गद् होने लगे थे। शिक्षा माफिया का सीधा सम्बन्ध नेताओं से होने के कारण निजी स्कूलों के हौसले बुलंद होने लगे थे। फिर तो लोग गर्व से यह कहने से नहीं चूकते थे कि हमारा बच्चा इस स्कूल में पढ़ता है। इसके बाद स्कूल में बाल मंदिर से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई होने लगी। यानी बच्चे को तीन साल की उम्र में एडमिशन दिला दो, फिर कॉलेज तक फुरसत।

अब तक लोग दिखावे के कारण निजी स्कूलों की मनमानी सह रहे थे। पर कोरोना काल के बाद पालक का मोहभंग होने लगा। यह स्वाभाविक था कि पालकों को यह अहसास हो गया कि दिखावे से कुछ नहीं होने वाला। इसलिए वे अब अपने बच्चों को निजी शालाओं निकालकर सरकारी स्कूलों में भेजने लगे हैं। मध्यम वर्ग ने इस परिवर्तन को सहजता से स्वीकार कर लिया है। अब गेंद सरकारी स्कूलों के पाले में है। सरकार को यह समझना होगा कि वह इन स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं के अलावा हर तरह की सुविधाएँ दे, जो निजी स्कूलों में दी जाती हैं। शिक्षा के स्तर को बढ़ाने पर विशेष ध्यान दे; ताकि बच्चों का भविष्य सँवर सके। इस दिशा में यदि अधिकारी वर्ग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजे, तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। इसी वर्ग ने सरकारी स्कूलों की सबसे अधिक उपेक्षा की है, इसलिए सरकारी स्कूलों की दुर्गति हुई। अब परिदृश्य बदल रहा है, तो उन्हें अपनी गलती को सुधारने का एक अवसर मिला है। पालकों की नींद टूट गई, अब सरकार की भी नींद टूटनी चाहिए।

सम्पर्कः टी 3 सागर लेक व्यू, वृन्दावन नगर , भोपाल- 462022, मोबा. 09977276257

आलेखः पीछे छूटते मानवीय संवेदना के ऑर्गैनिक मूल्य

- शशि पाधा

बाजारवाद और सोशल मीडिया से आक्रान्त इस युग में ‘ऑर्गैनिक’ शब्द ने इस प्रकार अपना झंडा फहराया है कि मन और मस्तिष्क प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका और मेरा जिज्ञासु स्वभाव इसके गूढ़ अर्थ को खोजने औए समझने में लग गया। शब्दकोश की सहायता के बाद ऑर्गैनिक शब्द के विभिन्न  अर्थ मिले, जैसे  - जैविक, मूलभूत, प्राकृतिक। मुझे लगा यह तो पारंपरिक अर्थ हैं, आज की बोलचाल की भाषा में इनका क्या अर्थ लगाया जाए। तो हमें सूझा… बिना मिलावट के, बिना आधुनिक खाद के उपजा । यानी वह खाद्य पदार्थ, फल, वस्तुएँ जो मिलावट के बिना हो। बात तो बहुत अच्छी है। मिलावटी वस्तुओं के सेवन से कई प्रकार की बीमारियाँ होती हैं और फिर जान -बूझकर क्यूँ रोग को निमन्त्रण देना। अब चाहे ऑर्गैनिक वस्तुएँ दुगुने-तिगुने दाम देकर खरीदी जा रही हैं; लेकिन उपभोक्ता निश्चिन्त तो है। स्वास्थ्य भी बढ़िया और दीर्घ आयु का नुस्ख़ा भी आप के हाथ में है।

 मुझे ऑर्गैनिक शब्द के ऑर्गैनिक अर्थ से कोई गिला-शिकवा नहीं है। अच्छी बात, अच्छी ही रहेगी। किन्तु क्या करूँ, चिन्तक हूँ। अपने आगे–पीछे जो भी देखती-सुनती हूँ, उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। इस शब्द ने मुझे इतना उद्वेलित किया कि सोचती हूँ कि आज हर किसी का भोग्य पदार्थ तो प्राकृतिक चाहिए। उन्हें ढूँढ-ढूँढकर खरीदा और प्रयोग में लाया जा रहा है। किन्तु हम अपनी संस्कृति,जीवन मूल्यों और रिश्तों की मर्यादा को निभाने में ऑर्गैनिक यानी बरसों से चले आ रहे मर्यादा रूपी मूल तत्त्व क्यों खोते जा रहे हैं? उन्हें क्यों नहीं ढूँढा, बचाया, सहेजा और प्रयोग में लाया जा रहा? जीवन के मूलभूत सिद्धांतों  में हम क्यूँ अन- ऑर्गैनिक (कृत्रिम) तत्त्वों की मिलावट कर रहे हैं?

देखा जाए तो कोई भी संस्कृति किसी भी समाज, प्राणी या देश के आन्तरिक सौन्दर्य को ही प्रतिबिंबित करती है। मर्यादाओं का पालन इस सौन्दर्य को और बढ़ाता है और मनुष्य के स्वभाव में त्याग, सहिष्णुता, सेवा, विनम्रता दूसरों के प्रति सम्मान के भाव स्वत: ही आ जाते हैं। इन सब गुणों के बीज उगते/ पनपते हैं संयुक्त परिवार की परम्परा में। संयुक्त परिवार में पलने वाले बच्चे और युवा इन संस्कारों को घर के बड़े सदस्यों के आचरण को देखते-देखते सीख जाते हैं। उन्हें इसके लिए किसी विशेष संस्था में नहीं जाना पड़ता। अगर हमें अपनी संस्कृति को बचाना है, तो इन मूल्यों को भी ‘आर्गेनिक’ ही रहने दें तो भावी समाज के लिए बहुत अच्छा होगा। इन पर किसी और संस्कृति या आधुनिकता का लेप लगाकर इन्हें दूषित करना भावी पीढ़ी के लिए हानिकारक ही होगा।

 विडंबना यह है कि आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। कारण कुछ भी हो सकता है। जीविका उपार्जन के लिए युवा सदस्यों को अपने वृद्ध माता-पिता को अकेले निस्सहाय छोड़ के दूसरे शहरों में जाना पड़ता है। इसमें कोई बुरी बात नहीं है। बुरी बात केवल यही देखने में आई है कि युवा वर्ग माता-पिता को साथ ले जाने, रखने के लिए तैयार नहीं है। भई, उनकी आदतें पुरानी हैं, शायद पहनावा भी आधुनिक नहीं है। जल्दी उठते हैं, तो रसोई व्यस्त हो जाती है। ऊँची आवाज़ में बात करते हैं; क्योंकि ऊँचा ही सुनते हैं। कई परिवारों में ऐसा भी होता है कि बुज़ुर्ग स्वतंत्र रहना चाहते हैं और वे अपनी जीवन- शैली बदलना ही नहीं चाहते। इन्हीं परिस्थितियों में सामंजस्य बिगड़ जाता है। यही कुछ सामान्य बातें परिवार के टूटने के लिए विशेष बन जाती हैं। रिश्तों की मर्यादा रखना, बड़ों का आदर- मान करना, यह भी तो हमारी संस्कृति के ‘ऑर्गैनिक’ तत्त्व हैं। फिर खान-पान के साथ इन्हें बचाने के लिए प्रयत्न क्यों नहीं किया जा रहा है।

ऑर्गैनिक शब्द के एक अर्थ ‘मूलभूत’ पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि रिश्तों में, परिवार में, समाज में और सर्वोपरि देश में मर्यादा और जीवन मूल्यों का पालन हो तो सद्भावना, एकता और सौहार्द जैसे पारम्परिक मूल्य स्वयं ही आ जाते हैं।ऑर्गैनिक का एक और व्यावहारिक अर्थ है -संगठित और चेतन। मेरे विचार से यह संगठन होता है व्यक्ति और समष्टि का, प्रकृति के प्रति मानवीय संवेदना का और समाज में मानवीय रिश्तों का। जैसे किसी घर की खुशी और शान्ति के लिए घर के सदस्यों का संगठित होना वांछनीय है, वैसे ही समाज और फिर देश के लिए वहाँ के नागरिकों में परस्पर सम्बन्धों में संगठन और अटूट विश्वास का होना कल्याणकारी है। लेकिन ज्यादा तेज़ रफ़्तार की ज़िन्दगी के होड़ में हमने खो दिए हैं- विश्वास की सुगंध के साथ जिए जाने वाले रिश्ते। बहुत पीछे छूट गए हैं घर और समाज तथा प्रकृति के प्रति मानवीय संवेदना के ‘ऑर्गैनिक’ भाव। जैसे पर्यावरण दूषित हो रहा है, वैसे ही हमारे संस्कारों एवं परम्पराओं में भी विकृतियाँ आ रही हैं। उनका मूल तत्त्व परिवर्तित होता जा रहा है।

प्रकृति के साथ साहचर्य की भावना भी हमारी संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। वृक्ष हमारे लिए उतने ही पूजनीय हैं जितने हमारे बुज़ुर्ग। हमारे तीज त्योहारों में वृक्ष पूजा का विधान है। भारतीय संस्कृति में जैविक संतुलन और अपने आस-पास के जीवन के प्रति भी बड़ी उदार दृष्टि है। सामान्य व्यवहार में यही सिखाया जाता है कि प्रकृति से जितना लो, उतना उसे वापस भी दो। शायद यह बहुत पुरानी बात नहीं है कि जब भी किसी स्थान से एक वृक्ष काटा जाता था, तो उस स्थान पर एक और वृक्ष रोपा भी जाता था;  किन्तु अब तो पेड़ काटना एक साधारण- सी बात हो गई है। सडकें बननी हैं, गगनचुम्बी इमारतें बनानी हैं, पहाड़ों पर यात्रियों के लिए होटल बनने हैं, तो सब से पहले पेड़ की हत्या ही होती है। बिना किसी संकोच के यांत्रिक कुल्हाड़ी की सहायता से उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं। यहाँ लहलहाते खेत थे वहाँ पर्यावरण को दूषित करने वाली फैक्ट्रियाँ आ कर बस गई हैं। फल और सब्जी का आकार बढ़ाने के लिए उसे न जाने किन कृत्रिम पदार्थों से पोषित किया जाता है।  मानव द्वारा जब वायु, पहाड़, पेड़, नदी और धरती से ही उनका ऑर्गैनिक रूप -आकार छीना जा रहा है, उनके निर्मल और स्वच्छ रूप को दूषित किया जा रहा है, तो उसी स्वार्थी मानव को केवल ऑर्गैनिक चीज़ों के सेवन का क्या अधिकार है। जब पेड़ न होंगे तो कम ज़मीन में ज्यादा की इच्छा तर्क संगत ही नहीं।

‘ऑर्गैनिक’ शब्द के प्रयोग की अति ने मेरे चिन्तन की ग्रंथियों में उथल-पुथल मचा दी थी। अपनी प्रकृति, सांस्कृतिक धरोहर एवं जीवन मूल्यों की निधि से अतुल्य स्नेह रखने के कारण इनके संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में हम सब को कोई ठोस कदम उठाना चाहिए।  आशा है आप सब भी मेरे साथ हैं।

Email: shashipadha@gmail.com

जीव -जगतः कौआ और कोयल: संघर्ष या सहयोग

- कालू राम शर्मा

इन दिनों भरी गर्मी में कौओं को चोंच में सूखी टहनी दबाए उड़कर पेड़ों की ओर जाते देखा जा सकता है। कौओं की चहल-पहल अप्रैल से जून के बीच कुछ अधिक दिखाई देती है। अगर आप इन दिनों पेड़ों पर नज़र डालें, तो दो डालियों के बीच कुछ टहनियों का बिखरा-बिखरा- सा कौए का घोंसला देखने को मिल सकता है।

पिछले दिनों मुझे मध्यप्रदेश के कुछ ज़िलों से गुज़रने का मौका मिला तो पाया कि पेड़ों पर कौओं ने बड़ी तादाद में घोंसले बनाए हैं। दिलचस्प बात यह लगी कि कौओं ने घोंसला बनाने के लिए उन पेड़ों को चुना, जिनकी पत्तियाँ झड़ चुकी थीं और नई कोपलें आने वाली थीं। जब पत्तियाँ झड़ जाएँ, तो पेड़ की एक-एक शाखा दिखाई देती है। जब पत्तियाँ होती हैं तो कई पक्षी वगैरह इसमें पनाह पाते हैं; मगर वे दिखते नहीं। पीपल के पेड़ पर अधिकतम घोंसले दिखाई दिए। एक ही पीपल के पेड़ पर सात से दस तक घोंसले दिखे।

दरअसल, कौए ऐसे पेड़ को घोंसला बनाने के लिए चुनते हैं, जिस पर घने पत्ते न हो। एक वजह यह हो सकती है कि कौए दूर से अपने घोंसले पर नज़र रख सकें या घोंसले में बैठे-बैठे दूर-दूर तक नज़रें दौड़ा सकें। घोंसला ज़मीन से करीब तीन-चार मीटर की ऊँचाई पर होता है। नर और मादा मिलकर घोंसला बनाते हैं और दोनों मिलकर अंडों-चूज़ों की परवरिश भी करते हैं।

कहानी का रोचक हिस्सा यह है कि कौए व कोयल का प्रजनन काल एक ही होता है। इधर कौए घोंसला बनाने के लिए सूखे तिनके वगैरह एकत्र करने लगते हैं और नर व मादा का मिलन होता है और उधर नर कोयल की कुहू-कुहू सुनाई देने लगती है। नर कोयल अपने प्रतिद्वंद्वियों को चेताने व मादा को लुभाने के लिए तान छेड़ता है। घोंसला बनाने की जद्दोजहद से कोयल दूर रहता है।

कौए का घोंसला साधारण-सा दिखाई देता है। किसी को लग सकता है कि यह तो मात्र टहनियों का ढेर है। हकीकत यह है कि यह घोंसला हफ्तों की मेहनत का फल है। अंडे देने के कोई एक महीने पहले कौए टहनियाँ एकत्र करना प्रारंभ कर देते हैं। प्रत्येक टहनी सावधानीपूर्वक चुनी जाती है। मज़बूत टहनियों से घोंसले का आधार बनाया जाता है और फिर पतली व नरम टहनियाँ बिछाई जाती हैं। कौए के घोंसले में धातु के तारों का इस्तेमाल भी किया जाता है। ऐसा लगता है कि बढ़ते शहरीकरण के चलते टहनियों के अलावा उन्हें तार वगैरह जो भी मिल गए उनका इस्तेमाल कर लेते हैं।

कोयल कौए के घोंसले में अंडे देती है। कोयल के अंडों-बच्चों की परवरिश कौए द्वारा होना जैव विकास के क्रम का नतीजा है। कोयल ने कौए के साथ ऐसी जुगलबंदी बिठाई है कि जब कौए का अंडे देने का वक्त आता है तब वह भी देती है। कौआ जिसे चतुर माना जाता है, वह कोयल के अंडों को सेता है और उन अंडों से निकले चूज़ों की परवरिश भी करता है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पाया है कि कोयल के पंख स्पैरो हॉक नामक पक्षी से काफी मिलते-जुलते होते हैं। स्पैरो हॉक जैसे पंख दूसरे पक्षियों को भयभीत करने में मदद करते हैं। इसी का फायदा उठाकर कोयल कौए के घोंसले में अंडे दे देती है। उल्लेखनीय है कि स्पैरो हॉक एक शिकारी पक्षी है, जो पक्षियों व अन्य रीढ़धारी जंतुओं का शिकार करता है। वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया, जिसमें नकली कोयल और नकली स्पैरो हॉक को एक गाने वाली चिड़िया के घोंसले के पास रख दिया। देखा गया कि गाने वाली चिड़िया उन दोनों से डर गई।

तो कोयल, कौए के घोंसले पर परजीवी है। कोयल माताएँ विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों के घोंसलों में अपने अंडे देकर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाती है। कौआ माएँ कोयल के चूज़ों को अपना ही समझती है। आम समझ कहती है कि परजीविता में मेज़बान को ही नुकसान उठाना पड़ता है; लेकिन परजीवी पक्षियों के सम्बन्ध में हुए अध्ययन बताते हैं कि इस तरह के परजीवी की उपस्थिति से मेज़बान को भी फायदा होता है। तो क्या कोयल और कौवे के बीच घोंसला-परजीविता का रिश्ता कौए के चूज़ों को कोई फायदा पहुँचाता है? ऐसा प्रतीत होता है कि कोयल के चूज़ों की बदौलत कौए के चूज़ों को शरीर पर आ चिपकने वाले परजीवी कीटों वगैरह से निजात मिलती है।

स्पेन के शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया है कि कोयल की एक प्रजाति वाकई में घोंसले में पल रहे कौओं के चूज़ों को जीवित रहने में मदद करती है। टीम बताती है कि ग्रेट स्पॉटेड ककू द्वारा कौए के घोंसले में अंडे दिए जाने पर कौए के अंडों से चूज़े निकलना अधिक सफलतापूर्वक होता है। अध्ययन से पता चला कि केरिअन कौवों के जिन घोसलों में कोयल ने अंडे दिए, उनमें कौवे के चूज़ों के जीवित रहने की दर कोयल-चूज़ों से रहित घोंसले से अधिक थी। और करीब से देखने पर पता चला कि कोयल के पास जीवित रखने की व्यवस्था थी, जो कौवों के पास नहीं होती। जिन घोंसलों में कोयल के चूज़े पनाह पा रहे थे, उन पर शिकारी बिल्ली वगैरह का हमला होने पर कोयल के चूजे दुर्गंध छोड़ते हैं। यह दुर्गंध प्रतिकारक रसायनों के कारण होती है और शिकारी बिल्ली व पक्षियों को दूर भगाने में असरदार साबित होती है। अर्थात पक्षियों के बीच परजीवी-मेज़बान का रिश्ता जटिल है।

अब आम लोग महसूस करने लगे हैं कि पिछले बीस-पच्चीस बरसों में कौओं की तादाद घटी है। अधिकतर ऐसा एहसास लोगों को श्राद्ध पक्ष में होता है जब वे कौओं को पुरखों के रूप में आमंत्रित करना चाहते हैं। घंटों छत पर खीर-पूड़ी का लालच दिया जाता है मगर कौए नहीं आते।

कौओं को संरक्षित करने के लिए उनके प्रजनन स्थलों को सुरक्षित रखना होगा। कोयल का मीठा संगीत सुनना है तो कौओं को बचाना होगा।

जब पक्षी घोंसला बनाते हैं तो वे सुरक्षा के तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हैं। पिछले दिनों मैं एक शादी के जलसे में शामिल हुआ था। बारात के जलसे में डीजे से लगाकर बैंड व ढोल जैसे भारी-भरकम ध्वनि उत्पन्न करने वाले साधनों की भरमार थी। मैंने पाया कि जिन कौओं ने सड़क किनारे पेड़ों पर घोंसले बनाए थे वे इनके कानफोड़ू शोर की वजह से असामान्य व्यवहार कर रहे थे। कौए भयभीत होकर घोंसलों से दूर जाकर काँव काँव की आवाज़ निकाल रहे थे। दरअसल, पक्षियों को भी खासकर प्रजनन काल में शोरगुल से दिक्कत होती है। इस तरह के अवलोकन तो आम हैं कि अगर इनके घोंसलों को कोई छू ले तो फिर पक्षी उन्हें त्याग देते हैं। फोटोग्राफर्स के लिए भी निर्देश हैं कि पक्षियों के घोंसलों के चित्र न खींचें। कैमरे के फ्लैश की रोशनी पक्षियों को विचलित करती है। (स्रोत फीचर्स)

आधुनिक बोध कथा- 5ः मदद-भरा हाथ

- सूरज प्रकाश

ये कथा आप सब जानते ही हैं कि किस तरह स्कूल में पढ़ने वाले एक लड़के को पंद्रह अगस्त को होने वाली परेड की अगवाई करनी थी और उसे स्कूल की तरफ से एक ही शाम पहले यूनिफोर्म की शर्ट और पैंट दी गई थी। जब उसने घर आ कर पैंट पहन कर देखी, तो पता चला कि पैंट कम से कम तीन इंच लंबी है और इसे पहन कर किसी भी तरह से टीम की अगवाई नहीं की जा सकती।

वह अपनी माँ के पास गया और उससे पैंट तीन इंच छोटी कर देने के लिए कहा, ताकि वह पैंट धोकर प्रेस करके अगले दिन के लिए तैयार रख सके। माँ ने अपने चारों तरफ फैले कामों का रोना रोया और बच्चे से कहा कि वह अपनी बड़ी बहन से ठीक करा ले।

बड़ी बहन ने बताया कि कल ही उसे अपने स्कूल के समारोह में समूह गीत गाना है और वह सहेलियों के घर प्रैक्टिस के लिए जा रही है।

हार कर वह दादी के पास गया कि वह ही उसकी मदद कर दे। दादी ने बताया कि उसकी आँखें इतनी कमजोर हैं कि वह तो सुई में धागा ही नहीं डाल सकती। पैंट कहीं गलत कट गयी तो सब अनर्थ हो जायेगा।

किस्सा ये कि जब सबके आगे गिड़गिड़ाने पर भी किसी ने भी उसकी मदद नहीं की तो वह मास्‍टर जी के पास गया कि उसे सही साइज की पैंट दी जाए, नहीं तो वह परेड में हिस्सा नहीं ले पाएगा। मास्टर जी भले आदमी निकले और उसे सही आकार की पैंट दे दी।

देर रात माँ को ख्याल आया कि बेटा दिन भर पैंट ठीक कराने के लिए रोता फिर रहा था, बेचारे को स्कूल में शर्मिंदा न होना पड़े। वह उठी और बेटे की पैंट तीन इंच छोटी करके सो गई।

यही नेक ख्याल बाद में बहन को और दादी को भी आया और उन्होंने भी अपने अपने हिसाब से वही पैंट छोटी कर दी।

यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि सकी मेहरबानी से ठीक ठाक पैंट भी सुबह तक निक्कर में बदल चुकी थी।

हो सकता है आपके पास जो कहानी हो वह किसी और तरीके से कही गई हो; लेकिन हुआ उसमें भी वही होगा जो इस कहानी में हुआ है।

वक्त के साथ कथा बदल गई है। अब पतलून छोटी नहीं की जाती, बल्कि पहनी हुई पतलून ही उतारने के लिए शातिर लोग छटपटा रहे हैं।

डिस्‍क्‍लेमर: इस कहानी का उस देश से कुछ भी लेना देना नहीं है जहाँ विकास के नाम पर आम आदमी की पहनी हुई और तार-तार हो रही पैंट उतारने के लिए कभी रेलवे विभाग में तो कभी बैंकों में तो कभी दूसरे कमाऊ विभागों में होड़- सी लगी हुई है। सब उसे हर हालत में नंगा करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। सब यही कर रहे हैं।

आम आदमी समझ नहीं पा रहा कि वह अपने अंग ढके या कुछ काम धाम भी करे।

9930991424, kathaakar@gmail.com

यात्रा संस्मरणः लक्षद्वीप की सुरम्य यात्रा

- गोवर्धन यादव

भारत के दक्षिण-पश्चिम किनारे से लगभग 400 कि.मी. की दूरी पर अवस्थित है एक अद्भुत द्वीप, जिसे लक्षद्वीप के नाम से जाना जाता है। यही एकमात्र ऐसा द्वीप है जिस पर जाने के लिए पर्यटक को भारत सरकार से इजाजत लेनी पड़ती है। पूरा आइलैण्ड करीब 32 कि.मी. के क्षेत्र में फ़ैला हुआ है।

यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य, प्रदूषणमुक्त वातावरण, चारों ओर से घिरा शांत समुद्र और इसका पारदर्शी-तल पर्यटक को मंत्रमुग्ध कर देता है। समुद्र के नीले पानी के भीतर तैरती असंख्य रंग-बिरंगी मछलियाँ, द्वीप पर आच्छादित नारियल और पाम के हरे-भरे वृक्ष, चाँदी-सी चमकती मुलायम रेत एक अनोखा दृश्य उपस्थित होता है। इस द्वीप-समूह में कुल मिलाकर 36 द्वीप हैं, जिसमें से केवल तीन द्वीप कलपेनी, अगाती और अमीनी द्वीप पर ही जाने की इजाजत मिलती है। इजाजत कोच्ची स्थित कार्यालय से ली जा सकती है। पर्यटक को अपने स्थानीय पुलिस स्टेशन से इस आशय का प्रमाण-पत्र लेना होता है कि वह अपराधी-किस्म का नहीं है। यदि आप इस सुन्दरतम द्वीप की यात्रा करना चाहते हैं, तो मई से लेकर सितम्बर का समय उचित होगा। शेष समय यहाँ तीखी धूप पड़ती है। अगाती द्वीप की कुल मिलाकर आबादी करीब सात हजार है। ये कभी हिन्दू धर्मावलंबी थे, चौदहवीं सदी में इस्लाम स्वीकार कर लिया था। लक्षद्वीप भारत का एकमात्र मूँगा द्वीप है। इन द्वीपों की शृंखला मूँहा एटोल है। एटोल मूँगे के द्वारा बनाया गई ऐसी रचना है, जो समुद्र की सतह पर पानी और हवा मिलने पर बनती है। सिर्फ़ इन्हीं परिस्थितियों में मूँगा जीवित रह सकता है।

आज यह द्वीप पर्यटन की दृष्टि से तेजी से विकास कर रहा है। पर्यटक यहाँ आकर जहाँ प्रकृति के नैसर्गिक वातावरण को निहारकर मंत्रमुग्ध हो उठता है, वहीं वह वाटर स्पोर्ट्स यानी स्कूबा डायविंग, कायाकिंग, नौकायन, ग्लास-बोट, वाटर स्कीइंग का जमकर लुत्फ़ उठा सकता है। मलयालम, जेसेरी भाषा यहाँ के निवासियों की आम-भाषा है। अगाती और बंगारम द्वीप बहुत ही खूबसूरत द्वीप है। यहाँ बोट हमेशा तैयार मिलती है। नौकायन ही यहाँ का यातायात का मुख्य माध्यम है।

कावारत्ती आइलैंड- कवरत्ती यहाँ की प्रशासनिक राजधानी है। यह सबसे अधिक विकसित भी है साथ ही सैलानियों के लिए एक बहुत ही लोकप्रिय स्थल है। यह आइलैंड पूरी तरह हरियाली, नीले पानी और बालू से घिरा हुआ है, जो पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। पूरे द्वीप में 52 मस्जिद हैं,
सबसे खूबसूरत मस्जिद है उज्र मस्जिद। इस द्वीप में एक्वेरियम भी है जिसमें सुंदर मछलियों की प्रजातियाँ हैं। यहाँ काँच की तली वाली नौका में बैठकर आप समुद्री दुनिया का नजारा ले सकते हैं। मिनिकॉय आइलैंड यह आइलैंड कवरत्ती से 200 किमी दूर दक्षिण में है। मालदीव के करीब होने के कारण यहाँ भिन्न संस्कृति के दर्शन होते हैं। मिनिकॉय नृत्य परंपरा के मामले में बेहद समृद्ध है। विशेष अवसर पर यहाँ लावा नृत्य किया जाता है। यहाँ खासकर तूना मछली का शिकार और नौका की सैर आनंददायी है। अँग्रेजों के द्वारा 1885 में बनवाया गया प्रकाश स्तंभ देखने लायक है, पर्यटक यहाँ ऊपर तक जा सकते हैं।

बंगारम आइलैंड-  यह आइलैंड बेहद ही शांत है यहाँ की अपार शांति पर्यटकों को खासा पसंद आती है। साथ ही यहाँ नारियल के वृक्ष सघन मात्रा में हैं।

 कालपेनी आइलैंड- यहाँ तीन द्वीप हैं जिनमें आबादी नहीं है। कदमठ आइलैंड एक जैसी गहराई और दूर अनंत तक जाते किनारे कदमठ को स्वर्ग बनाते हैं। यही एकमात्र द्वीप है जिसके पूर्वी और पश्चिमी दोनों ओर लैगून हैं। यहाँ वाटर स्पोर्ट्स की बेहतरीन सुविधाएँ हैं।

लक्षद्वीप जाने से पूर्व हमने कुछ जानकारियाँ इंटरनेट से प्राप्त की थीं। ज्ञात हुआ कि इस द्वीप पर पहुँचने के दो ही साधन है। या तो आपको ।पानी के जहाज से जाना होता है या फ़िर हवाई जहाज से। इस प्रमाण-पत्र के आधार पर आपको अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी होती है। बाद में यह भी ज्ञात हुआ कि पानी के जहाज अभी नहीं चल रहे हैं और वे रिपेयरिंग के लिए कुछ समय तक के लिए रोक दिए गए हैं। हमारे पास एक ही विकल्प बचा था कि हम हवाई यात्रा करते हुए वहाँ पहुँचे। पर्यटक को द्वीप में चार दिन से अधिक रुकने नहीं दिया जाता है। साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि कोच्ची से सप्ताह में केवल एक दिन ही हवाई जहाज यहाँ के लिए उड़ान भरता है। यह भी पता चला कि लौटते समय हवाई जहाज कोच्ची की जगह कोझिकोड के लिए उड़ान भरेगा। ऐसी विकट परिस्थिति में हमने नागपुर के एक टूर्स एन्ड ट्रेवल का सहारा लिया और हमने अपने हिसाब से कार्यक्रम निर्धारित किए। ट्रेवल वाले ने हमारे साथ अपने एक व्यक्ति को यात्रा पर भिजवाया
, ताकि हमें कोई असुविधा न हो। इस यात्रा में हमें सिर्फ़ अगत्ति, बंगारम और तलापैनी द्वीप पर ही जाने की इजाजत मिल पाई थी।

हमारे साथ इस यात्रा में अन्य प्रदेशों से श्री अनन्त रालेगाँवकर जी, एन. श्रीरामन, श्रीमती पुषा श्रीरामन, सुश्री वीणा महाडिकर जी, सुश्री शालिनी डोणे जी, श्री साकेत केलकरजी, श्री सर्वोत्तम केलकरजी, सुश्री शर्मिन कौटो, सुश्री स्मिता श्रीवास्तवजी, सुश्री चित्रा परांजपे जी एवं दीपक गोखले जी भी शामिल थे। ये सभी अलग-अलग रूट से कोच्ची पहुँचे थे।

17/19-01-2020  ( सुवर्ण जयंति एक्स. रात्रि 11।30)

17 तारीख की शाम को हम छिन्दवाड़ा से नागपुर के लिए रवाना हुए। सुवर्ण जयंती एक्स. नागपुर रात्रि साढ़े ग्यारह बजे पहुँचती है। लगातार दो दिन की यात्रा के पश्चात् हम दिनांक 19 जनवरी की
सुबह छह-साढे़ छह बजे के करीब कोच्चि पहुँचे। शहर की प्रख्यात थ्री-स्टार होटेल सारा (

SARA) में हमें रुकवाया गया। चूँकि हमारे पास आज का दिन ही शेष था, अगली सुबह हमें शीघ्रता से तैयार होकर कोच्चि एअर-पोर्ट पहुँचना था। अगत्ति के लिए फ़्लाइट सुबह साढ़े नौ बजे की थी। अतः हमने इस अल्पावधि में कोच्ची शहर के कुछ प्रसिद्ध स्थलों को देखने का मानस बनाया।

इस अल्पावधि में हमने फ़ोक क्लोर म्युजियम, सेंट फ़्रांसिस जेवियर चर्च) , साइनेगोग जिव्ज मन्दिर (यहूदियों का प्रार्थना स्थल)  तथा डच पैलेस देखा और दोपहर को हमने ‘फ़ोर्ट क्वीन’ होटेल में सुस्वादु भोजन का आनन्द लिया।

ज्ञात हो कि पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा 8 जुलाई 1497 में भारत की खोज में निकला था। 20 मई 1498 को वह केरल तट के कोज्जीकोड जिले के कालीकट के कप्पाडु पहुँचा था। सन् 1502  में वह पुनः दूसरी बार भारत आया था। लंबी बीमारी के बाद उसका निधन सन 1524 में हुआ। उसके मृत शरीर को कोच्चि के संत फ़्रांसिस चर्च में दफ़नाया गया था। सन 1539 में पुर्तगाल के इस हीरो के शरीर के अवशेषों को निकालकर पुर्तगाल के विडिगुअरा में दफ़नाया गया।

20-22 जनवरी -अगत्ति।द्वीप- बीस जनवरी की सुबह आठ बजे हमने होटेल सारा छोड़ दिया और सीधे एअरपोर्ट पहुँचे। सुबह साढ़े नौ बजे की इंडियन एअरलाइन की फ़्लाइट अगत्ति के लिए थी। कोच्ची (कोचीन) से अगत्ति  तक की उड़ान में महज एक घंटा तीस मिनट लगते हैं।

अगत्ति द्वीप- हवाई अडडे से कुछ ही दूरी पर सैलानियों के लिए हट्स बने हुए हैं। मीलों दूर-दूर तक फ़ैली, चाँदी-सी चमचमाती मखमली रेत के मध्य ये हट्स बने हुए हैं। इस मखमली रेत पर चलना एक अलग ही तरीके का अहसास दिलाता है। जगह-जगह नारियल के असंख्य पेड़ और पास ही लहलहाता-समुद्र आपको किसी दिव्य लोक में ले जाने के लिए पर्याप्त है। इतना अलौकिक दृश्य, जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। दूर-दूर तक फ़ैली नीले पानी की चादर, क्षितिज पर रंग बिखेरता सूरज, सफ़ेद झक्कास रेत और रंग-बिरंगी मछलियाँ अगत्ति  की असली पहचान है। यदि संयोग से उस दिन पूर्णिमा हो तो इस द्वीप के सुन्दरता को देखकर आप मंत्रमुग्ध हो उठेंगे।

तलापैनी द्वीप- यहाँ तीन द्वीप हैं जिनमें आबादी नहीं है। इनके चारों ओर लैगून की सुंदरता देखने लायक है। कूमेल एक खाड़ी है जहाँ पर्यटन की पूरी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यहाँ से पित्ती और थिलक्कम नाम के दो द्वीपों को देखा जा सकता है। इस द्वीप का पानी इतना साफ है कि, आप इस पानी में अंदर तैरने वाले जीवों को आसानी से देख सकते हैं। साथ ही यहाँ आप तैर सकते हैं, रीफ पर चल सकते हैं, नौका में बैठकर घूम सकते हैं और कई वाटर स्पोर्ट्स का आनंद ले सकते हैं।

बंगारम आइलैण्ड- अन्य द्वीपों से यह सबसे खूबसूरत द्वीप है। यह बेहद ही शांत द्वीप है। इसकी शांति पर्यटकों को अच्छी खासी पसंद आती है। यहाँ नारियल के सघन वृक्ष आपका मन मोह लेते है। डालफ़िन, कछुए, मेंढक और रंग-बिरंगी मछलियाँ यहाँ देखी जा सकती है। मन मोह लेने वाले इस द्वीप पर हमने बहुत सारा समय आनन्द में बिताया और इसी के किनारे एक विशालकाय टैंट के नीचे बैठकर हम सब पर्यटकों ने सुस्वादु भोजन का आनन्द लिया। और अगत्ति  द्वीप के लिए रवाना हो गए। चूंकि 22 जनवरी की रात हमारी यात्रा की अन्तिम रात्रि थी, अगली सुबह हमें वापिस जाना था। इस अन्तिम पड़ाव पर हम सब शांत समुद्र के किनारे बैठकर शेर-शायरी और सुन्दर गीतों और कविताओं का आनन्द उठाते रहे

और अन्त में

लक्षद्वीप से लौटकर आए हुए हमें अभी ज्यादा समय नहीं बिता है। दस दिन के इस रोमांचक सफ़र की मधुर-स्मृतियाँ आज भी चमत्कृत करती है। चमत्कृत करते हैं वे अद्भुत क्षण, जब हम पूरब से सूरज को निकलता देख रोमांचित होते थे तो वहीं उसे अस्ताचल में जाता देख, इस आशा के साथ लौट पड़ते थे कि अगली सुबह फ़िर सूरज एक नया उजाला, एम नया संदेशा लेकर फ़िर नीलगगन में अवतरित होगा। खिलखिलाता-दहाड़ता समुद्र और समुद्र के बीच कमल सा खिला द्वीप, जिसकी चांदी-सी चममचाती मुलायम रेत पर विचरण करना और नारियल के पेड़ के पेड़ से बंधे झूले में जी भरके झूलना। रह-रह कर याद आते हैं वे क्षण जब हम सब मिलकर द्वीप पर फ़ैली असीम शांति के बीच सहभोज का आनन्द उठाते है। याद आते हैं वे क्षण जब हम नौका विहार करते हुए समुद्र के तल में फ़ैली शैवाल के सघन बुनावटॊं को देखकर रोमांचित होते थे।

सम्पर्कः 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म. प्र.) 490001, मो- 9424356400

स्वास्थ्यः कम खाएँ, स्वस्थ रहें

-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

आधुनिक मनुष्यों के लिए स्वस्थ और बुद्धिमान रहने के लिए दिन में तीन बार भोजन करना आदर्श नुस्खा लगता है। फिर भी जैव विकास के नज़रिए से देखें तो हमारा शरीर कभी-कभी उपवास के लिए या कुछ समय भूखा रहने के लिए अनुकूलित हुआ है; क्योंकि मनुष्यों के लिए लगातार भोजन उपलब्ध रहेगा इसकी गारंटी नहीं थी ।

निस्संदेह उपवास हमारी पंरपरा का एक हिस्सा है; यह कई संस्कृतियों में प्रचलित है – हिंदुओं में एकादशी से लेकर करवा चौथ तक के व्रत; यहूदियों के योम किप्पुर, जैनियों का पर्युषण पर्व, मुसलमानों के रमज़ान के रोज़े, ईसाइयों में लेंट अवधि वगैरह। तो सवाल है कि क्या व्यापक स्तर पर उपवास का चलन यह संकेत देता है कि यह मन को संयमित रखने के अलावा स्वास्थ्य लाभ देता है।

वर्ष 2016 में दी लैसेंट पत्रिका में प्रकाशित 186 देशों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला है कि अब मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या कम-वज़न वाले लोगों की संख्या से अधिक है। दो पीढ़ी पहले की तुलना में हमारा जीवनकाल भी काफी लंबा है। इन दोनों कारकों ने मिलकर समाज पर बीमारी का बोझ काफी बढ़ाया है। और व्यायाम के अलावा, सिर्फ उपवास और कैलोरी कटौती या प्रतिबंध (CR) यानी कैलोरी को सीमित करके स्वस्थ जीवन काल में विस्तार देखा गया है।

उपवास बनाम कैलोरी कटौती

उपवास और कैलोरी कटौती दोनों एक बात नहीं है। कैलोरी कटौती का मतलब है कुपोषण की स्थिति लाए बिना कैलोरी सेवन की मात्रा में 15 से 40 प्रतिशत तक की कमी करना। दूसरी ओर, उपवास कई तरीकों से किए जाते हैं। रुक-रुककर उपवास यानी इंटरमिटेंट फास्टिंग (IF) में आप बारी-बारी 24 घंटे बिना भोजन के (या अपनी खुराक का 25 प्रतिशत तक भोजन ग्रहण करके) बिताते हैं और फिर अगले 24 घंटे सामान्य भोजन करके बिताते हैं। सावधिक उपवास (पीरियॉडिक फास्टिंग) में आप हफ्ते में एक या दो दिन का उपवास करते हैं और हफ्ते के अगले पाँच दिन सामान्य तरह से भोजन करते हैं। समय-प्रतिबंधित आहार (TRF) में पूरे दिन का भोजन 4 से 12 घंटे के भीतर कर लिया जाता है। और उपवासनुमा आहार यानी फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट (FMD) में महीने में एक बार लगातार पाँच दिनों के लिए अपनी आवश्यकता से 30 प्रतिशत तक कम भोजन किया जाता है। इसके अलावा, भोजन की मात्रा घटाने के दौरान लिये जाने वाले वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट के अनुपात को कम-ज़्यादा किया जा सकता है; ताकि पर्याप्त वसा मिलती रहे।

जापान में ओकिनावा द्वीप में स्वस्थ शतायु लोगों की संख्या काफी अधिक है, क्योंकि वहाँ के वयस्क हारा हाची बू का पालन करते हैं - जब पेट 80 प्रतिशत भर गया होता है तो वे खाना बंद कर देते हैं। कुछ संप्रदायों के बौद्ध भिक्षु दोपहर में अपना अंतिम भोजन (TRF) कर लेते हैं।

कई अध्ययनों में कृन्तकों और मनुष्यों पर व्रत के ये विभिन्न तरीके जाँचे गए हैं - हम मनुष्यों को अक्सर प्रतिबंधित आहार लेने के नियम का पालन करना मुश्किल होता है! लेकिन जब भी इनका ठीक से पालन किया गया है, तो देखा गया है कि इन तरीकों ने मोटापे को रोकने, ऑक्सीकारक तनाव और उच्च रक्तचाप से सुरक्षा दी है। साथ ही इन्होंने कई उम्र सम्बन्धी बीमारियों को कम किया है और इनकी शुरुआत को टाला है।

उम्र वगैरह जैसी व्यक्तिगत परिस्थितियों को देखते हुए व्रत का उपयुक्त तरीका चुनने के लिए सावधानीपूर्वक जाँच और विशेषज्ञ की सलाह आवश्यक है।

ग्लायकोजन भंडार

हम ग्लूकोज़ को लीवर में ग्लायकोजन के रूप में जमा रखते हैं; शरीर की ऊर्जा की माँग इसी भंडार से पूरी होती है। एक दिन के उपवास से रक्त शर्करा के स्तर में 20 प्रतिशत की कमी होती है और ग्लायकोजन का भंडार घट जाता है। हमारा शरीर चयापचय की ऐसी शैली में आ जाता है जिसमें ऊर्जा की प्राप्ति वसा-व्युत्पन्न कीटोन्स और लीवर के बाहर मौजूद ग्लूकोज़ से होती है। इंसुलिन का स्तर कम हो जाता है और वसा कोशिकाओं में वसा अपघटन के द्वारा लिपिड ट्राइग्लिसराइड्स को नष्ट किया जाता है।

मेटाबोलिक सिंड्रोम जोखिम कारकों का एक समूह है जो हृदय रोग और मधुमेह की संभावना दर्शाते हैं। साल्क इंस्टीट्यूट के सच्चिदानंद पंडा ने अपने अध्ययन में रोगियों में 10 घंटे TRF के लाभों पर प्रकाश डाला है, और रक्तचाप, हृदय की अनियमितता और शारीरिक सहनशक्ति में उल्लेखनीय सुधार देखा है। उनका यह अध्ययन सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित हुआ है।

देखा गया है कि रुक-रुककर उपवास आँतों के सूक्ष्मजीव संसार को भी बदलता है। इससे बैक्टीरिया की विविधता बढ़ती है। लघु-शृंखला वाले फैटी एसिड बनाने वाले बैक्टीरिया में वृद्धि होती है जो शोथ के ज़रिए होने वाली तकलीफों (जैसे अल्सरेटिव कोलाइटिस) को रोकने के लिए जाने जाते हैं।

वर्ष 2021 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित परिणाम दर्शाते हैं कि फलमक्खियों में काफी दिनों तक रात में कुछ न खाने से कोशिकाओं में पुनर्चक्रण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। इसे ऑटोफेगी या स्व-भक्षण कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके जीवन काल में 15 से 20 प्रतिशत तक का इजाफा होता है।

स्वभक्षण अधिकतर रात में होता है और यह शरीर की आंतरिक घड़ी द्वारा नियंत्रित होता है। तंत्रिकाओं की तंदुरुस्ती के लिए स्वभक्षण आवश्यक है; इस प्रक्रिया में त्रुटि से पार्किंसंस रोग की संभावना बढ़ाती हैं।

पोषक तत्त्वों की भरपूर आपूर्ति स्वभक्षण को रोकती है और प्रोटीन के जैव-संश्लेषण को बढ़ावा देने वाले मार्गों को सक्रिय करती है और इस प्रकार नवीनीकरण को बढ़ावा मिलता है। अपघटन और नवीनीकरण का यह गतिशील नियंत्रण बताता है कि लम्बे समय तक कैलोरी प्रतिबंध की तुलना में इंटरमिटेंट फास्टिंग, टाइम-रेस्ट्रिक्टेड फीडिंग, फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट और पीरियॉडिक उपवास शरीर के लिए बेहतर हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

आलेखः आपकी नज़र में भारत की नई तस्वीर

- साधना मदान, नई दिल्ली

कहते हैं कोई भी देश कभी मानचित्र से बड़ा नहीं होता, देश बड़ा होता है….देश के स्वरूप से……यानि अपनी संस्कृति और सभ्यता से। देश बनता है देशवासी के चरित्र से। खैर अब एक प्रश्न आपसे पूछकर  मैं आपकी सोच -संग में भी शामिल होना चाहूँगी…. आपकी नज़र में भारत की नई तस्वीर कैसी होगी? कुछ क्षण यहाँ रुकिए और अवश्य उस खूबसूरत छवि को निहारिए।

मेरी नज़र और समझ का चश्मा तो एक स्वच्छ और सशक्त भारत की उज्ज्वल रोशनी में एक साथ बहुत कुछ देख रहा है।

भारत की नवीनता नई तकनीक की संगिनी रूप में दिखती है। कंप्यूटर, इंटरनेट, नए सॉफ्टवेयर और नए मशीनकरण की दुनिया से संवर रहा है भारत, अब भारत विज्ञान की पटरी पर विश्व की अन्य तेज़ गाड़ियों के संग गतिमय है। डिजिटल और मीडिया की कश्ती भी संतुलित हो तकनीकी लहरों पर सदाबहार है। विदेशी कंपनियों ने भी अपनी छवि से स्टार्ट अप की चेतन जगाकर भारतीय आईटी संपन्न युवा को नई उड़ान हेतु सक्षम पंख दिए हैं। रेलवे, चिकित्सा, शिक्षा,खेल और कला क्षेत्र में भी नई तकनीक का सिक्का खूब चमक रहा है।

आत्मनिर्भर भारत की बात करें तो समाज की गतिविधियाँ बदलते स्वरूप की महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं। सामाजिक रूढ़ियों की जड़ें भी उखड़ती नज़र आ रही हैं भले ही पूरी तरह से टूटी नहीं हैं। स्त्री-पुरुष समानता, बेटी बचाओ और पढ़ाओ की लहर भी तेज़ गति में लहराती नज़र आती है। करोना की मार ने भले ही देश की अर्थव्यवस्था को हिलाया है पर देश के वैज्ञानिकों की नई खोज और अपनी वैक्सीन की सफलता ने भारत को विश्व में एक नई तस्वीर तो दी है। महिला समाज भी अपनी सेवाओं से एक नए दौर की कहानी कहती है। फैशन हो या बॉलीवुड या मॉडलिंग की दुनिया, इतना ही नहीं सोशल नेटवर्किंग ने भी सभी  तारों को जोड़ा है। ऑनलाइन ने पढ़ाई, दवाई, घरेलू रोज़मर्रा का सामान भी घर देने की सुविधा को भारत की नई तस्वीर में रंग भरने में अपना सहयोग दिया है। आज 90 वर्ष की भारतीय बूढ़ी माँ, जब अपनी विदेश में रहने वाली बेटी को वाट्सअप कॉल करती है और ठीक से बात  होने पर इंटरनेट की और स्मार्ट फोन की वाह-वाह करती है, तो भारत की उभरती छवि समझ आने लगती है।

सभी कुछ बदलता, चमकता और नया-नया लगता है, फिर भी हम भारतवासी ही एक दूसरे को कोसते दिखाई देते हैं। फिर भी विदेशी छवि की माया में लिपटते दिखाई देते हैं।  विदेशी चमक में माता-पिता, घर परिवार को धुँधला कर देश की मिट्टी को नकारा कर वहीं बसने के लिए पत्थर तोड़ कशमकश करते हैं। क्यों आखिर क्यों…

  पूछो, तो क्यों का जवाब है वहाँ quality life है और यहाँ अनुशासन रहित, कम पैसे और गंदगी की अधिकता है। कामचोरी, चालाकी और भ्रष्टाचार की प्रदूषित हवा है। देश वासियों में ज़िम्मेदारी का अभाव है। ऐसा सुनते-समझते और परखते ही माथा ठनका, दिमाग की घंटियाँ बजने लगीं कि देश की स्वच्छता यानी कि देश की सुंदरता तो नई तस्वीर है ही, पर अंतर्मन में शांति, नम्रता, शालीनता, सच्चाई के 24 कैरेट का सोना भी हमारी मानसिकता की तिजोरी में है या नहीं। इसे हम यूँ भी मनन कर सकते हैं कि सम्प्रदाय, जाति, अमीर-गरीब, वैमनस्य, अशिक्षा, गैरत ये सब मैल यदि हम स्वयं अपने जीवन मूल्यों और पौराणिक व वैदिक संस्कृति के किस्सों और कहानियों के मनन वाले साबुन से साफ़ करते रहेंगे, तो नए भारत के उज्ज्वल स्वरूप को देख सकेंगे। तुलना छोड़ स्वपरिवर्तन को या यूँ कहें -खुदपर काम करें तो अच्छा रहेगा। सबसे पहले तो दूसरी भाषा, रीति रिवाजों पर या कमी कमज़ोरियों पर नोंकझोंक से पहले स्वयं को उन परिस्थितियों में रखकर देखें, तो आपसी सम्बन्धों में मधुरता बढ़ेगी। व्यर्थ समय बातों और शुगलमेलों से परे, शिक्षा को अपनी मशाल बनाते ही भारत की तस्वीर विदेशियों को यहाँ का निवासी बनने का निमंत्रण दे सकती है।

 भारत की नई तस्वीर

स्वयं को बदलने वाले कैमरे से देखेंगे तो सोच ही नहीं नज़रिया भी बदल जाएगा। जब हर एक अपने दायित्व की चक्की पीसेगा तो दूसरों पर दोषारोपण के कंकर भी अपने आप ही छँट जाएँगे। जीवन में शांति की और सुख- संतुष्टि की कामना है, तो ईमानदारी की मूठ को दृढ़ता से पकड़ना होगा। भाई-भतीजावाद को छोड़कर , ऊँची-नीची जाति के प्रलोभनों से परे योग्यता और नवीनता को एक साथ अपनाएँगे तो भारत की नई तस्वीर को चार-चाँद लग जाएँगे।

 नए भारत की नई छवि, तकनीक के साथ हम स्वयं को बदलें, तो जग बदलना आसान हो जाएगा।

लघुकथाः चैराहे पर

- डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति

वह अपने घर से निकला। सड़क पर पहुंच रुक गया। फैसला करना था किधर जाए। दाएँ या बाएँ। सड़क में डिवाइडर पड़ा नहीं था। दाई तरफ जाने वालों की तादाद अधिक थी और रफ्तार भी तेज़। जैसे कोई विशेष प्राप्ति हो रही हो। बाई तरफ लोग चाहे कम थे, परन्तु सहज व अपनी गति से जा रहे थे।

उसे ख्याल आया कि भीड़ को दूर से देखा जा सकता है, उसका हिस्सा नहीं बना जा सकता। वह अपने स्वभाव मुताबिक सहजता का पक्षधर था और उसी तरफ चल दिया।

चलते -चलते, वह एक चैराहे पर आ पहुँचा।

चौराहे को देख वह असमंजस में पड़ गया। सवाल उठा, अब किधर? वह सोच ही रहा था कि उसे चौराहे के बीचों- बीच एक व्यक्ति नज़र आया। लोग उसके पास जाकर कुछ पूछते और फिर अपने-अपने  रास्ते पर चल देते। वह वहीं रुका, सात दिन इस दृश्य को निहारता रहा।

अँधेरा होते ही, वह व्यक्ति वहाँ से चला गया। पता नहीं थक गया या छुप गया। लोगों की संख्या भी कम होने लगी।

वह वहीं बैठ गया। एक राहगीर उसके पास आया और किसी रास्ते के बारे में पूछा। उसने सहजता से कहा, ‘‘मैं तो खुद तुम्हारी ही तरफ हूँ, भटका हुआ।’’

दोनों रात भर बतियाते रहे। सुबह होते ही चौराहे में वह व्यक्ति फिर से नज़र आया।

राहगीर ने उसे कहा, ‘‘धन्यवाद आप का, जो तुमने मुझे इस डरावनी अँधेरी रात गुजारने में मदद की।’’

उसने कहा, ‘‘अरे नहीं भाई, तुम्हारा धन्यवाद, जो तुमने मुझे अँधेरे की भयावहता से अवगत करवाया।’’

उस राहगीर ने चौराहे वाले व्यक्ति से बात की और अपने रास्ते पर पड़ गया।

वह सोचता रहा और दिनचर्या को निहारता रहा। शाम ढलने पर, वह चौराहे के बीच पहुँचा और कहने लगा, ‘‘ये चारों रास्ते किस- किस तरफ जाते हैं?’’

चौराहे के व्यक्ति ने पूछा, ‘‘आप को किस तरफ जाना है?’’

उसने कहा, ‘‘कहीं नहीं।’’

व्यक्ति बोला, ‘‘तो फिर जिज्ञासा क्यों?’’

उसने कहा, ‘‘रात ढलने को हो, तुम चले जाओगे, अँधरे में भटकने वाले राहगीरों को मैं रास्ता बताऊँगा।’’