श्यामलाल जी कुछ दिनों से बहुत उदास रहने लगे
थे। कई कागज़ी, हवाई और भूमिगत संस्थाओं के संरक्षक-अध्यक्ष,
सचिव,अध्यक्ष आदि बनकर भी उनकी आत्मा को शांति
नहीं मिली। मैं उनके मनोरोग का कारण नहीं समझ सका, निदान
कैसे कर पाता? उनकी यह उदासी बड़ी करुण थी। मैं पूछे बिना न
रह सका। वे डूबे हुए स्वर में बोले- ‘‘काश! मेरा भी अभिनन्दन होता।’’ मैं सुनकर
भौंचक्का रह गया। मैंने इस रोग की कल्पना भी नहीं की थी। अभिनन्दन के बारे में,
मैं वैसे भी बहुत बड़ी गलतफ़हमी का शिकार था।
एक बार हमारे शहर में एक दिलफेंक को गधे पर
बिठाकर घुमाया जा रहा था। मुँह पर कालिख पुती हुई थी। मैंने भीड़ के साथ चलने वाले
एक गंभीर प्रौढ़ से पूछा- ‘‘क्या मामला है?’’
उन्होंने शालीनता से मुझे बताया- ‘‘मजनूँ का
नागरिक अभिनन्दन हो रहा है।’’ मुझे उस कालिखपुते नौजवान से ईर्ष्या होने लगी। इतनी
भीड़ बड़े लोगों के साथ ही चलती हैं इस अभिनन्दन का दूसरा अनुभव मुझे अपने एकमात्र
विवाह के अवसर पर हुआ। बारात की शोभायात्रा जब ससुर जी के घर की ओर बढ़ी, तो मूसलाधार वर्षा होने लगी। यार दोस्तों ने भरपेट गालियों का वाचन करके
हमारा अभूतपूर्व अभिनन्दन किया। बारिश न होती, तो उस वर्ष के
‘सूखे’ का आरोप मेरे सिर मढ़ दिया जाता। फेरों के समय गीली समिधा के कारण धुआँ भर
गया। घूँघटधारी हमारी भावी पत्नी मूर्च्छित हो गई थी। महिलाओं ने फबतियाँ कसकर
हमारा सार्वजनिक अभिनन्दन किया था- ‘‘दूल्हे को बिना देखे ही मूर्च्छित हो गई। देख
लेने पर तो बेचारी के ऊपर न जाने क्या-क्या गुज़रेगी!’’ हम भी जन्मजात जड़मति ठहरे,
उस अभिनन्दन पर धन्यवाद ज्ञापित भी नहीं कर सके। अली सरदार ज़ाफरी
को कट्टरपंथियों ने जूतों का हार पहना दिया, तो उन्होंने उस
हार को बिना उतारे जबरदस्त भाषण दिया। यह काम कलेजे वाला आदमी ही कर सकता है।
उन्होंने इस कृत्य को अभिनन्दन के समान ही महत्त्वपूर्ण समझ लिया होगा।
अस्तु, श्यामलाल जी
मेरी ओर याचना की दृष्टि से देख रहे थे। मैं उनकी पीड़ा से द्रवित हो उठा। वे तर
आँखों को गमछे से पोंछकर बोले- ‘‘मैंने हर तरह से इस नगर की सेवा की; लेकिन यहाँ के लोग बहुत बेवफ़ा हैं। मेरी सेवाओं का मूल्यांकन नहीं किया।
यहाँ के डिग्री कॉलेज तक में यह हाल है कि कई दशक से प्रसाद, पंत, निराला, दिनकर पर नोट्स
लिखवाकर भी प्रोफेसरों का मन नहीं भरा। मुझ पर एक-एक लेख लिख देते तो कौन-सा पहाड़
टूट पड़ता? पर बेचारे लिखते भी कैसे? श्यामलाल
पर लिखा नोट्स बाजार में मिले तब न! मेरे सम्मान में अभिनन्दन- ग्रंथ छपना तो बहुत
दूर की बात है। लोग भजनों की पुस्तकें लिखकर जिले स्तर का सरस्वती पुरस्कार उड़ा ले
गए। मैंने तो बारह पुस्तकें लिखीं। किसी ने अचार की फाँक भी पुरस्कार स्वरूप नहीं
दी। समीक्षा तो किसी ने लिखी ही नहीं। एक समीक्षक को इस काम के लिए अग्रिम धनराशि
भी दी। वह भी हाज़मे का पक्का निकला। सब पैसा हज़म कर गया। एक अन्य ने समीक्षा लिखी,
तो कुछ दे दिलाकर छपने से रोका। उसने मेरी रचनाओं की शव-परीक्षा कर
डाली थी। अगर वह समीक्षा छप जाती, तो उसी क्षण मेरा
साहित्यिक स्वर्गवास हो गया होता।’’
मेरा प्रस्ताव सुनकर श्यामलाल जी का चेहरा पॉलिश
किए जूते की तरह चमक उठा। वे चहक उठे- ‘‘मान गया भाई मैं आपको। पैसों की चिन्ता
बिल्कुल मत करो। चाहो तो पेशगी ले लो। सारे प्रबन्ध की देख-रेख आप ही करेंगे।’’ वे
इतने खुश हुए कि मुझे बाहों में जकड़ लिया। मेरी हड्डियाँ एकबारगी चरमरा उठीं।
पुरस्कार का नाम रखा गया ‘सरस्वती पुरस्कार’। वीणावादिनी सरस्वती नहीं, श्यामलाल जी की भूतपूर्व प्रेमिका सरस्वती देवी।
नगर के विख्यात-कुख्यात सभी साहित्यकारों को
बुलाया गया। मंच पर सबका गुणगान प्रस्तुत किया गया। सबने श्यामलाल जी के गले में
फूल मालाएँ डालीं। नगर के मरणासन्न कवि काकभुशुण्डि के कर-कमलों द्वारा ग्यारह सौ
रुपये,
लक्ष्मी वाहन की एक कांस्य प्रतिमा और शाल, श्यामलाल
जी को अर्पित किए गए।
जलपान हुआ। कुछ लोग यह जानकर आश्चर्यचकित थे कि वे आज तक इतने बड़े साहित्यकार को पहचान तक नहीं पाए। वे अपने अज्ञानबोध को छुपाने की कोशिश कर रहे थे। श्यामलाल जी भी गद्गद् हो उठे। अब नगर में इनकी प्रतिभा का लोहा सभी मानने लगे हैं।
email- rdkamboj@gmail.com
1 comment:
आज श्याम लाल जैसे लेखकों की कोई कमी नहीं है। सटीक तंज।
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