- डॉ. महेश परिमल
एक खबर, कोरोना के
चलते देश की ज्यादातर निजी स्कूलों का राजस्व 20 से 50 प्रतिशत कम हो गया है। इसके
अलावा नए शिक्षण सत्र में नए एडमिशन भी बेहद कम हुए हैं। इससे साफ है कि निजी
स्कूलों की मनमानी और खुली लूट से अभिभावकों का मोहभंग होने लगा है। उनका झुकाव अब
सरकारी स्कूलों की तरफ होने लगा है। सरकारी स्कूलों में एडमिशन के लिए बढ़ती भीड़
इसी बात का परिचायक है।
पहले हालात ये थे कि संतान के जन्म के तुरंत बाद
पालक 5 लाख रुपये अलग से उनकी प्रारंभिक शिक्षा के नाम पर रख लेते थे। दूसरी ओर
बच्चे के जन्म के साथ उसकी स्कूल को लेकर पालक चिंतित दिखाई देते थे। किस स्कूल
में एडमिशन कराया जाए, वहाँ के लिए किसकी पहचान ठीक
रहेगी। यह एक ऐसा जहरीला ट्रेंड था कि इसमें मध्यम वर्ग अनजाने में ही फँसता चला
जाता था। उधर सरकारी स्कूलों की हालत भी उतनी अच्छी नहीं थी। वहाँ शिक्षा का स्तर ठीक नहीं था,
स्वच्छता का अभाव था, इसके अलावा
विद्यार्थियों में अनुशासन की कमी दिखाई देती थी। शिक्षक भी गैरहाजिर रहते। इस
कमजोरी का पूरा लाभ निजी स्कूलों ने
उठाया। देखते ही देखते गाँव-गाँव में निजी स्कूलों का कब्जा हो गया। एक तरह से
शिक्षा का व्यापार ही शुरू हो गया।
निजी स्कूलों की बढ़ती संख्या के पीछे राजनीति
थी। हर स्कूल से कोई न कोई जन प्रतिनिधि संबद्ध ही होता था। निजी स्कूलों की
मनमानी के खिलाफ कई बार अभिभावक लामबंद हुए; पर राजनीतिक संरक्षण के कारण
उनकी आवाज दब गई। सरकार भी लाचार हो गई। बाद में अभिभावकों को यह खयाल आया कि यह
सब धन का खेल है। इसके बाद सरकारी शालाएँ नींद से जागी। स्कूलों में सुधार दिखाई
देने लगा। वहाँ बुनियादी सुविधाएँ बढ़ने लगी। स्वच्छता अभियान चलाया गया। शिक्षकों
को यह ताकीद की गई कि वे रोज स्कूल आएँ। इन स्कूलों में भी डिजिटल सुविधाएँ मिलने
लगीं। कोरोना काल में पालकों को यह अहसास हो गया कि जब सरकारी स्कूलों में ही
बच्चों को बुनियादी सुविधाएँ मिल रही हैं, तो फिर इतनी राशि
क्यों खर्च की जाए? इस सोच ने शिक्षा माफिया को एक तरह से
हिलाकर रख दिया।
निजी स्कूलों में आपसी प्रतिस्पर्धा इतनी तीव्र
थी कि हमारी शाला ही सर्वश्रेष्ठ है, इसके लिए वे
विज्ञापनों पर ही लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करने लगे थे। लोग विज्ञापन पढ़कर और
देखकर ही गद्गद् होने लगे थे। शिक्षा माफिया का सीधा सम्बन्ध नेताओं से होने के
कारण निजी स्कूलों के हौसले बुलंद होने लगे थे। फिर तो लोग गर्व से यह कहने से
नहीं चूकते थे कि हमारा बच्चा इस स्कूल में पढ़ता है। इसके बाद स्कूल में बाल मंदिर
से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई होने लगी। यानी बच्चे को तीन साल की उम्र में एडमिशन
दिला दो, फिर कॉलेज तक फुरसत।
अब तक लोग दिखावे के कारण निजी स्कूलों की
मनमानी सह रहे थे। पर कोरोना काल के बाद पालक का मोहभंग होने लगा। यह स्वाभाविक था
कि पालकों को यह अहसास हो गया कि दिखावे से कुछ नहीं होने वाला। इसलिए वे अब अपने
बच्चों को निजी शालाओं निकालकर सरकारी स्कूलों में भेजने लगे हैं। मध्यम वर्ग ने
इस परिवर्तन को सहजता से स्वीकार कर लिया है। अब गेंद सरकारी स्कूलों के पाले में
है। सरकार को यह समझना होगा कि वह इन स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं के अलावा हर
तरह की सुविधाएँ दे, जो निजी स्कूलों में दी जाती
हैं। शिक्षा के स्तर को बढ़ाने पर विशेष ध्यान दे; ताकि
बच्चों का भविष्य सँवर सके। इस दिशा में यदि अधिकारी वर्ग अपने बच्चों को सरकारी
स्कूलों में भेजे, तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। इसी वर्ग
ने सरकारी स्कूलों की सबसे अधिक उपेक्षा की है, इसलिए सरकारी
स्कूलों की दुर्गति हुई। अब परिदृश्य बदल रहा है, तो उन्हें
अपनी गलती को सुधारने का एक अवसर मिला है। पालकों की नींद टूट गई, अब सरकार की भी नींद टूटनी चाहिए।
सम्पर्कः टी 3 सागर लेक व्यू, वृन्दावन नगर , भोपाल- 462022, मोबा. 09977276257
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