कुछ दिन पहले से माँ
चुप- चुप सी हो गई थीं
न घुटनों का दर्द बयाँ करती
न कमर का
कुछ पूछने पर
हौले से मुस्करा देतीं
उनका खाना भी धीरे-धीरे
कम होते जा रहा था
यह तो उनके
चले जाने के बाद जाना
कि ये तो संकेत था
उनके जाने का
पर हम समझ ही न पाए
उनसे लाड़ में कहते
थोड़ा और खा लो माँ
हमारा मन रखने वे
रोटी का एक छोटा टुकड़ा
फिर मुँह में डाल लेतीं
और पनीली आँखों से
हमें देखतीं
जैसे कह रही हों अब खुश
मैं पूछती
क्या खाने का मन है माँ
वही बना देंगे, जो इच्छा हो
‘कुछ नहीं’ के उनके शब्दों में
जैसे छुपा था वह ब्रम्ह वाक्य
कोई इच्छा नहीं अब
जी लिया सारा जीवन
देख लिया
सुख- दुःख का आरोहण
अब बस जाना ही बाकी है
आ रहा है बुलावा...
और आ ही तो गया बुलावा
चली ही तो गईं वे
शांति से चुपचाप
बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने
सुबह- सुबह
अक्षय तृतीया के दिन
सबने कहा पुण्यात्मा थीं
अच्छे दिन गईं हैं
और मैं सोचती रही...
माँ तो पुण्यात्मा ही होती है
तभी तो वो माँ होती हैं...
7 comments:
बहुत ही मार्मिक। एक कहावत है : God could not reach everywhere so he created Mother. मां तो केवल मां होती है, जो जीवन में सुख बोती है। ये तो है धरती पर ईश्वर का अवतार एवं मानव जाति को अलभ्य उपहार। सादर विजय जोशी
माँ तो बस माँ होती है। ममता का सागर। सबको सब कुछ समेट लेती है। बहुत सुंदर, मर्मस्पर्शी कविता। सुदर्शन रत्नाकर
मर्म स्पर्शी,,, हमारे नयन भी अश्रु से भीग गए,,,
मां धरती की भगवान होती है,💐🙏
माँ तो पुण्यात्मा ही होती है...बहुत मार्मिक कविता,पढ़ कर निःशब्द हूँ।माँ को नमन
आप सबका हार्दिक आभार शुक्रिया 🙏
मार्मिक ... सादर नमन🙏
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