कुछ जुमले मन में ऐसे बस जाते हैं कि उनके आगे
हम नहीं सोच पाते हैं या यूँ कहें कि कुछ भी लिखें उतना अच्छा नहीं लग पाता है।
‘मन को जँचता ही नहीं... तो करके देखिए’ के साथ मैं अपनी बात कहती हूँ…
हम सब एक चेतना से जुड़े हैं। ईश्वर एक है, जो कण - कण में बसते हैं। उन्हें हम किसी रंग या विधि की दीवार में नहीं
बाँध सकते हैं। उनको अर्पित करने के लिए हमारे पास एक ही पूँजी है, और वह है -मानवता। जिसके लिए जेब नहीं, दिल भरा होना
चाहिए।
बुद्ध की कही एक पंक्ति - “किसी को सड़क पार करवाना भी दान है।”
यह एक भिखारी के सवाल का जवाब था।
दूसरा उदाहरण भी कुछ ऐसा ही है... जेब में कुछ
भी न होने पर उसने भिखारी के हाथ को छूकर कहा “मेरे पास कुछ भी नहीं है मेरे भाई।”
उसके स्पर्श से खुश होकर भिखारी बोला “यह भी
क्या कम है भाई।” सुनने वाला खुश हुआ आज किसी ने मुझे भाई कहा।
तो अब मेरी बात... मानवता का धर्म एक संस्कार है
और इसे अपने बच्चों में जरूर रोप देना चाहिए। वसुधैव कुटुंबकम्… यह धरती ही मेरा
परिवार है। इसी मंत्र के साथ मैं अपनी बात शुरू करती हूँ। अपने परिवार के सदस्यों
से जुड़ी कुछ यादें… मेरे व्यवसाय के शुरू
होने से पहले की दो छोटी बातें – नीलम, मेरे घर काम
करती थी। उसे उसके पति ने इतना मारा कि एक आँख पूरी तरह से खराब हो गई और दूसरी की
रोशनी भी कम होती जा रही थी। यह समय था, जब गुजरात में भूकंप
आया था।
सहायता के नाम पर इतने फंड जा रहे थे कि किसी ने
कहा – ‘अपने आसपास ही किसी की सहायता कर दो।’ मैंने पति को बताया और नीलम की आँख
का ऑपरेशन करवाया। उसकी दुआओं ने मुझे सिखाया था कि किसी की सहायता जरूर करनी
चाहिए। मेरी दूसरी बाई कलावती ने एक बार नवदुर्गा
के समय मुझसे कहा कि ‘व्रत तो वो लोग करते हैं जिनके पास फलाहार खरीदने के
पैसे होते हैं।’ यह एक ऐसी बात थी जिस पर मेरा कभी भी ध्यान गया ही नहीं। उस दिन
मैंने उसे पैसे दिए थे कि “तू भी व्रत रख ले।”
एक बार शहनाज हुसैन का साक्षात्कार पढ़ा था।
उनके शब्द- “अब्बा ने पूछा, काम कैसा चल रहा है और क्या जमा
कर रही हो?”
“अब्बू, बढ़िया चल रहा है। मैं बैंक में
कुछ जमा करती जा रही हूँ।”
“मैं इस बैंक की नहीं ,ऊपर वाली बैंक की बात कर रहा हूँ। वहाँ के लिए क्या?”
शहनाज़ बताती हैं - ‘उसके बाद से उनकी आय का एक
हिस्सा मानवता के नाम हमेशा जाता रहा।’
मैं भी इसी राह पर चली। मेरी सोच में मेरे
बाबूजी का साथ, उनका प्रेम और हिम्मत मेरे जीवन का हिस्सा
रही है। मेरी कमाई में ईश्वर का हिस्सा... मेरे 18 साल के व्यवसाय में हमेशा
गया। मैंने यह बात घर के लोगों से भी कम
ही शेयर की है। इसमें बताने जैसा क्या है? ईश्वर की दया के
आगे तो यह कुछ भी नहीं है, यही सोच रही थी। मगर अब जब दोनों
बच्चे भी कमाने लगे हैं तो मुझे लगा कि यह बात उनको बतानी चाहिए। उनको भी अपनी आय
का एक हिस्सा मानव या पर्यावरण के नाम करना चाहिए।
हम कहकर नहीं, अपने
कर्मों से ही बच्चों को कुछ सीखा सकते हैं। एक सुबह टहलकर लौटते हुए गाँव के
बुजुर्ग दम्पती बहुत दयनीय स्थिति में मिले थे।
लोगों से पूछते - पूछते वे ग्वालियर के सिंधिया महल गेट के बाहर तक तो आ
गए थे;
पर अब उनका सिंधिया जी से मिलना कैसे होगा, यह
वे सड़क पर चलते लोगों से पूछ रहे थे। उनकी बात पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया था,
लोग आगे बढ़ते जा रहे थे।
जब मैंने उनसे बात की, तो वह दोनों रोने लगे। उनकी जमीन पर किसी ने कब्ज़ा कर लिया था। घर का
सामान बाहर फेंक दिया था। वे सिंधिया जी से मिलना चाहते थे। उनको वह जमीन महल की
ओर से मिली थी। सिंधिया जी के महल के बाहर ही एक क्वार्टर बना है। वहाँ कुछ पूछताछ
के बाद उन दोनों को मैं अपने साथ अपने घर लाई। सुबह के समय मैं खाली हाथ थी। उनकी
कुछ सहायता करने के लिए उन्हें साथ में लाना जरूरी था।
वह दीपावली का समय था, तो घर में खाने का बहुत सामान इंदौर (माँ और ननद) के यहाँ से आया हुआ था।
मैंने उसमें से कुछ पैकेट, जो मुलायम उन दोनों के खाने लायक
थे, उन्हें दिए। कुछ पैसे भी दिए। पैसे लेने से उन्होंने मना
किया था और बाबा रो पड़े थे। उस दिन उनके
साथ मेरे भी आँसू बहे थे। उनके फटे कोट की जेब में पैसे रखकर मैंने उनके कंधे को
सहलाया था और ईश्वर से उनके लिए प्रार्थना की थी। मैंने उनको महल तक भिजवाया
था। उन अम्मा-बाबा को आज भी याद करूँ,
तो मन भीग जाता है। उनका दुखी चेहरा आँखों के आगे आ जाता है।
कभी दवाई की दुकान पर दवा खरीदते समय किसी महिला
को यह जद्दोजहद करते हुए देखा था कि कौन-सी दवा कम करने से कितने पैसे बचाए जा
सकते हैं?
दुकानदार में इतना धैर्य नहीं हो सकता है और उसने उस महिला को डाँटा
था। तब मैंने उस महिला की पूरी दवा और उसके पैसे की बात कही थी। उस महिला का सुखद
आश्चर्य से भरा चेहरा और आँखों की चमक मेरी यादों में जमा है।
ऐसे ही सब्जी लेते समय भी कुछ लोग एक बैंगन या
दो टमाटर की बात कहते हैं, तो उनकी और मैं अपना हाथ बढ़ा
देती हूँ।
कुछ महीने पहले ऋषिकेश में राजाजी नेशनल पार्क
में गई थी। ऑनलाइन पेमेंट करके, जब मैं वहाँ पहुँची,
तो पार्क बंद था। (जिस हिस्से का मुझसे वादा किया गया था।) यह एक
बेईमानी थी। जिसकी शिकायत के बाद मुझे
कंस्यूमर फोरम ने पूरा पैसा वापस दिलवाया था।
पार्क के जिस हिस्से का मैंने भ्रमण किया, वहाँ कोई भी जंतु नहीं मिला। रास्ते में मेरे ड्राइवर ने करोना काल से
जुड़ी बेरोजगारी और भूख के बारे में बताया, तो मेरा मन दुखा
। गाड़ी से उतरते समय जब मैंने उन्हें कुछ देना चाहा, तो
उन्होंने कहा –“आपके साथ तो धोखा हुआ है, आपको कुछ भी देखने
को नहीं मिला। मैडम, मुझे कुछ नहीं चाहिए।”
“भैया, इसमें आपकी
कोई गलती नहीं है। यह बेईमानी जिसने की है , मैं उनकी शिकायत
करूँगी। आप यह पैसे ले लीजिए।” वह ड्राइवर
जिस भाव से मुझसे हाथ हिलाकर आगे बढ़ा, उसके लिए
शब्द कमजोर ही साबित होंगे। एक मानवता की
डोर है, जिससे हम सब बँधे हैं। हम जिनकी सहायता (इस शब्द के
बिना कोई चारा नहीं, हम कुछ नहीं करते सब ईश्वर की मर्जी
है।) करते हैं वह हमें दोबारा कभी नहीं मिलते पर ईश्वर किसी और को हमारे पास जरूर
भेजते हैं, ऐसे मेरे अनगिनत अनुभव रहे हैं।
और आज से चार दिन पहले की बात... मेरी बेटी ने
मुझसे कहा कि आप हर महीने मुझसे कुछ ... अमाउंट ले लिया करो। पेड़ लगाना और सड़क
पर गाय और श्वान को कुछ देना मेरी नियमित आदत है। कल मैं ट्री गार्ड के लिए किसी
से पैसों की बात करके आई थी।
आज घर के पास वाले घर के बाहर ट्री गार्ड की
जाली का रोल पड़ा था। पूछने पर उन्होंने कहा कि “मेरे गोदाम में रखे हैं आप ले
लो।”
“कितने का एक होगा?”
उनका
जवाब था -“मैंने भी कॉलोनी में पेड़ लगाने
के लिए ही बनवाए थे, अब आप लगा लो।”
मैंने सोचा अब मैं किसी को नियमित पानी डालने के
लिए पैसे दे दिया करूँगी तो पौधे भी पनप जाएँगे और मेरे हिस्से का भी काम हो जाएगा। जैसे दिन और रात हैं वैसे ही निर्माण
और विनाश की यात्रा है। कोई नीम के पेड़ के नीचे ही पत्तियाँ इकट्ठी करके उनमें आग
लगा देता है, तो कोई कुत्ते को मारकर खुश होता है। जलती
पत्तियों पर पानी और कुत्ते का बचाव मैंने किया है और करती रहूँगी, यह एक अनवरत यात्रा है।
आज का दौर जब हम कहते हैं कि जमाना खराब है, लोग बदल गए हैं, बुराई बढ़ रही है। उसके लिए मेरा
सोचना है कि उसी जमाने का हिस्सा मैं भी हूँ और यदि मैं अपने हिस्से की मानवता
सहेज पाती हूँ , तो ईश्वर अनंत हाथों से मुझे थाम लेते हैं।
सीखना और रूपांतरित होना जीवन की एक प्रक्रिया
है। इसमें मैंने अपने बच्चों से सीखा कि कुली के ऊपर सारा सामान लाद देने की जगह
उसका थोड़ा भार हम भी हल्का कर सकें, तो जरूर करें।
किराने का सामान कोई उठाकर हमारी गाड़ी में रखे, उसकी जगह हम
ही अपना सामान उठाएँ, रेस्टोरेंट में खाना खाने के बाद वहीं
बैठे - बैठे हाथ न धोएँ… एक लम्बी लिस्ट है। जो मैंने सीखा वह भी कम नहीं है। हाँ,
जो मैं अपने बच्चों को सिखाना चाहती थी, वह कर
पाई इसका संतोष है।
अपने परिवार और व्यापार से जुड़े लोगों से हम
रिश्ते (लाभ - हानि के गणित के साथ) निभाते ही हैं। कुछ कर्म जीवन के गणित से ऊपर
होने ही चाहिए। प्रकृति ने हमें सब कुछ
दिया है,
उसे सहेजना, मानव मात्र से प्रेम करना जीवन का
वह आनंद है जो एक बार जीवन में आ जाए तो फिर कभी जाता नहीं… ईश्वर बड़े स्वाभिमानी
हैं किसी के दिए हुए को भूलते नहीं…
सम्पर्कः ग्वालियर, फोन 881771103. email- Seema.jain822@gmail.com
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