बाजारवाद और सोशल मीडिया से आक्रान्त इस युग में
‘ऑर्गैनिक’ शब्द ने इस प्रकार अपना झंडा फहराया है कि मन और मस्तिष्क प्रभावित हुए
बिना नहीं रह सका और मेरा जिज्ञासु स्वभाव इसके गूढ़ अर्थ को खोजने औए समझने में लग
गया। शब्दकोश की सहायता के बाद ऑर्गैनिक शब्द के विभिन्न अर्थ मिले, जैसे - जैविक, मूलभूत, प्राकृतिक। मुझे लगा यह तो पारंपरिक अर्थ हैं, आज की
बोलचाल की भाषा में इनका क्या अर्थ लगाया जाए। तो हमें सूझा… बिना मिलावट के,
बिना आधुनिक खाद के उपजा । यानी वह खाद्य पदार्थ, फल, वस्तुएँ जो मिलावट के बिना हो। बात तो बहुत
अच्छी है। मिलावटी वस्तुओं के सेवन से कई प्रकार की बीमारियाँ होती हैं और फिर जान
-बूझकर क्यूँ रोग को निमन्त्रण देना। अब चाहे ऑर्गैनिक वस्तुएँ दुगुने-तिगुने दाम
देकर खरीदी जा रही हैं; लेकिन उपभोक्ता निश्चिन्त तो है।
स्वास्थ्य भी बढ़िया और दीर्घ आयु का नुस्ख़ा भी आप के हाथ में है।
मुझे
ऑर्गैनिक शब्द के ऑर्गैनिक अर्थ से कोई गिला-शिकवा नहीं है। अच्छी बात, अच्छी ही रहेगी। किन्तु क्या करूँ, चिन्तक हूँ। अपने
आगे–पीछे जो भी देखती-सुनती हूँ, उससे प्रभावित हुए बिना
नहीं रह सकती। इस शब्द ने मुझे इतना उद्वेलित किया कि सोचती हूँ कि आज हर किसी का
भोग्य पदार्थ तो प्राकृतिक चाहिए। उन्हें ढूँढ-ढूँढकर खरीदा और प्रयोग में लाया जा
रहा है। किन्तु हम अपनी संस्कृति,जीवन मूल्यों और रिश्तों की
मर्यादा को निभाने में ऑर्गैनिक यानी बरसों से चले आ रहे मर्यादा रूपी मूल तत्त्व
क्यों खोते जा रहे हैं? उन्हें क्यों नहीं ढूँढा, बचाया, सहेजा और प्रयोग में लाया जा रहा? जीवन के मूलभूत सिद्धांतों में हम
क्यूँ अन- ऑर्गैनिक (कृत्रिम) तत्त्वों की मिलावट कर रहे हैं?
देखा जाए तो कोई भी संस्कृति किसी भी समाज, प्राणी या देश के आन्तरिक सौन्दर्य को ही प्रतिबिंबित करती है। मर्यादाओं
का पालन इस सौन्दर्य को और बढ़ाता है और मनुष्य के स्वभाव में त्याग, सहिष्णुता, सेवा, विनम्रता
दूसरों के प्रति सम्मान के भाव स्वत: ही आ जाते हैं। इन सब गुणों के बीज उगते/
पनपते हैं संयुक्त परिवार की परम्परा में। संयुक्त परिवार में पलने वाले बच्चे और
युवा इन संस्कारों को घर के बड़े सदस्यों के आचरण को देखते-देखते सीख जाते हैं।
उन्हें इसके लिए किसी विशेष संस्था में नहीं जाना पड़ता। अगर हमें अपनी संस्कृति को
बचाना है, तो इन मूल्यों को भी ‘आर्गेनिक’ ही रहने दें तो
भावी समाज के लिए बहुत अच्छा होगा। इन पर किसी और संस्कृति या आधुनिकता का लेप
लगाकर इन्हें दूषित करना भावी पीढ़ी के लिए हानिकारक ही होगा।
विडंबना
यह है कि आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। कारण कुछ भी हो सकता है। जीविका उपार्जन
के लिए युवा सदस्यों को अपने वृद्ध माता-पिता को अकेले निस्सहाय छोड़ के दूसरे
शहरों में जाना पड़ता है। इसमें कोई बुरी बात नहीं है। बुरी बात केवल यही देखने में
आई है कि युवा वर्ग माता-पिता को साथ ले जाने, रखने के लिए
तैयार नहीं है। भई, उनकी आदतें पुरानी हैं, शायद पहनावा भी आधुनिक नहीं है। जल्दी उठते हैं, तो
रसोई व्यस्त हो जाती है। ऊँची आवाज़ में बात करते हैं; क्योंकि
ऊँचा ही सुनते हैं। कई परिवारों में ऐसा भी होता है कि बुज़ुर्ग स्वतंत्र रहना
चाहते हैं और वे अपनी जीवन- शैली बदलना ही नहीं चाहते। इन्हीं परिस्थितियों में
सामंजस्य बिगड़ जाता है। यही कुछ सामान्य बातें परिवार के टूटने के लिए विशेष बन
जाती हैं। रिश्तों की मर्यादा रखना, बड़ों का आदर- मान करना,
यह भी तो हमारी संस्कृति के ‘ऑर्गैनिक’ तत्त्व हैं। फिर खान-पान के
साथ इन्हें बचाने के लिए प्रयत्न क्यों नहीं किया जा रहा है।
ऑर्गैनिक शब्द के एक अर्थ ‘मूलभूत’ पर विचार
करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि रिश्तों में, परिवार में,
समाज में और सर्वोपरि देश में मर्यादा और जीवन मूल्यों का पालन हो
तो सद्भावना, एकता और सौहार्द जैसे पारम्परिक मूल्य स्वयं ही
आ जाते हैं।ऑर्गैनिक का एक और व्यावहारिक अर्थ है -संगठित और चेतन। मेरे विचार से
यह संगठन होता है व्यक्ति और समष्टि का, प्रकृति के प्रति
मानवीय संवेदना का और समाज में मानवीय रिश्तों का। जैसे किसी घर की खुशी और शान्ति
के लिए घर के सदस्यों का संगठित होना वांछनीय है, वैसे ही
समाज और फिर देश के लिए वहाँ के नागरिकों में परस्पर सम्बन्धों में संगठन और अटूट
विश्वास का होना कल्याणकारी है। लेकिन ज्यादा तेज़ रफ़्तार की ज़िन्दगी के होड़ में
हमने खो दिए हैं- विश्वास की सुगंध के साथ जिए जाने वाले रिश्ते। बहुत पीछे छूट गए
हैं घर और समाज तथा प्रकृति के प्रति मानवीय संवेदना के ‘ऑर्गैनिक’ भाव। जैसे
पर्यावरण दूषित हो रहा है, वैसे ही हमारे संस्कारों एवं
परम्पराओं में भी विकृतियाँ आ रही हैं। उनका मूल तत्त्व परिवर्तित होता जा रहा है।
प्रकृति के साथ साहचर्य की भावना भी हमारी संस्कृति
का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। वृक्ष हमारे लिए उतने ही पूजनीय हैं जितने हमारे
बुज़ुर्ग। हमारे तीज त्योहारों में वृक्ष पूजा का विधान है। भारतीय संस्कृति में
जैविक संतुलन और अपने आस-पास के जीवन के प्रति भी बड़ी उदार दृष्टि है। सामान्य
व्यवहार में यही सिखाया जाता है कि प्रकृति से जितना लो, उतना उसे वापस भी दो। शायद यह बहुत पुरानी बात नहीं है कि जब भी किसी
स्थान से एक वृक्ष काटा जाता था, तो उस स्थान पर एक और वृक्ष
रोपा भी जाता था; किन्तु
अब तो पेड़ काटना एक साधारण- सी बात हो गई है। सडकें बननी हैं, गगनचुम्बी इमारतें बनानी हैं, पहाड़ों पर यात्रियों
के लिए होटल बनने हैं, तो सब से पहले पेड़ की हत्या ही होती
है। बिना किसी संकोच के यांत्रिक कुल्हाड़ी की सहायता से उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए
जाते हैं। यहाँ लहलहाते खेत थे वहाँ पर्यावरण को दूषित करने वाली फैक्ट्रियाँ आ कर
बस गई हैं। फल और सब्जी का आकार बढ़ाने के लिए उसे न जाने किन कृत्रिम पदार्थों से
पोषित किया जाता है। मानव द्वारा जब वायु,
पहाड़, पेड़, नदी और धरती
से ही उनका ऑर्गैनिक रूप -आकार छीना जा रहा है, उनके निर्मल
और स्वच्छ रूप को दूषित किया जा रहा है, तो उसी स्वार्थी
मानव को केवल ऑर्गैनिक चीज़ों के सेवन का क्या अधिकार है। जब पेड़ न होंगे तो कम
ज़मीन में ज्यादा की इच्छा तर्क संगत ही नहीं।
‘ऑर्गैनिक’ शब्द के प्रयोग की अति ने मेरे
चिन्तन की ग्रंथियों में उथल-पुथल मचा दी थी। अपनी प्रकृति, सांस्कृतिक धरोहर एवं जीवन मूल्यों की निधि से अतुल्य स्नेह रखने के कारण
इनके संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में हम सब को कोई ठोस कदम उठाना चाहिए। आशा है आप सब भी मेरे साथ हैं।
Email: shashipadha@gmail.com
4 comments:
अति सुंदर लेख है । सत्य जो कि कड़वा है पर पीना पड़ रहा है ।
अति सुंदर
बहुत सुंदर आलेख
यथार्थ से परिपूर्ण.. हार्दिक बधाई
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