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Jul 12, 2011

उदंती.com, जून- जुलाई 2011

वर्ष 3, संयुक्तांक 10-11, जून- जुलाई 2011

चरित्र एक वृक्ष है, मन एक छाया। हम हमेशा छाया की सोचते हैं, लेकिन असलियत तो वृक्ष ही है।
-अब्राहम लिंकन
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पर्यावरण विशेष
अनकही: नागरिक या प्रजा?
पर्यावरण विशेष : प्रकृति के साथ साहित्य, वेद और धर्म का रिश्ता -डॉ. नलिनी श्रीवास्तव
विश्व शरणार्थी दिवसः प्राकृतिक आपदा से बढ़ते पर्यावरण शरणार्थी - प्रमोद भार्गव
पर्यावरण विशेष : नदी पर्यटन पर्यावरण को दांव पर लगा के नहीं - वी. के. जोशी
पर्यावरण विशेष : प्रदूषण का पता लगायेगी मशीन
जीवनशैली: पिता को दोस्त बनाना होगा -डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
यात्रा संस्मरणः मिनी तिब्बत का रहस्य लोक - प्रिया आनंद
वाह भई वाह
पर्यावरण विशेष : हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं - के. जयलक्ष्मी
हाइकुः पुकारे बादल को - कमला निखुर्पा
हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तानी बनो - शास्त्री जे.सी. फिलिप
कहानी: वह क्षण - जैनेन्द्र कुमार
कविता: मेरे बचपन की शाम - डॉ. राजीव श्रीवास्तव
व्यंग्य: अन्ना के नाम एक पत्र - के. पी. सक्सेना 'दूसरे'
लघु कथाएं: 1. दुआ 2 . नींद - रमेश बतरा
उपेक्षित जनकवि बिसंभर यादव 'मरहा' - डॉ. परदेशीराम वर्मा
आपके पत्र/ मेल बाक्स
पिछले दिनों
रंग बिरंगी दुनिया

नागरिक या प्रजा?

4-5 जून की रात में 1.30 बजे रामलीला मैदान में शांतिपूर्ण अनशन से निढाल थके- मांदे होने के कारण गहरी नींद में सोए हजारों निहत्थे स्त्री- पुरुषों और बच्चों पर केंद्रीय सरकार ने पांच हजार से अधिक पुलिस कर्मियों द्वारा अश्रुगैस के गोलों और लाठियों द्वारा हमला करवाकर अपना निर्दयी बर्बर चेहरा दिखा दिया। स्त्रियों और बच्चों को भी नहीं बख्शा। एक महिला श्रीमती राजबाला की तो पुलिस ने रीढ़ की हड्डी ही तोड़ दी जिससे गरदन के नीचे का उनका पूरा शरीर ही जीवन भर के लिए निष्क्रिय हो गया है। सत्ता से मदांध केंद्रीय सरकार के किसी मंत्री या प्रधानमंत्री ने अस्पताल में पड़े तड़पते आहत स्त्री पुरुषों को जाकर देखने की भी तकलीफ कई दिन तक नहीं की।
स्वतंत्र भारत में अभी तक की सबसे ज्यादा भ्रष्ट सरकार का तमगा पा चुका केंद्र सरकार की इस बर्बर कृत्य के लिए सभी देशवासियों ने निंदा की और कहा कि इससे जलियावाला बाग और 1975 के आपातकाल की याद आती है। इतना ही नहीं नींद में डूबे निहत्थे नागरिकों पर सरकार द्वारा इस नृशंस हमले के समाचारों को देख- पढ़कर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: ही इस अक्षम्य अपराध का संज्ञान ले लिया और केंद्रीय गृह मंत्रालय तथा दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। मुकदमे की सुनवाई अगले महीने में होगी।
इस मामले का स्वत: ही संज्ञान लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों को स्पष्ट संदेश दिया है कि सरकार द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचलने के कुकृत्यों को वह बर्दाश्त नहीं करेगा। यही कारण है कि आम नागरिक के मन में सर्वोच्च न्यायालय के प्रति अटूट विश्वास और श्रद्धा है।
आइए जरा इस बात पर भी ध्यान दे कि क्या कारण है कि गणतंत्र होने के बावजूद भी चाल- चरित्र और चेहरे में सरकारी मंत्री अधिकारी और कर्मचारी सामन्ती व्यवस्था में निष्ठा रखने का प्रमाण देते रहते हैं?
15 अगस्त 1947 को आजादी के नाम पर यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगा झंडा लहराने लगा और अंग्रेज पदाधिकारी व सरकारी अधिकारी (जो थोड़ी संख्या में थे) चले गए। अधिकांश नियम कानून और कार्यप्रणाली ब्रिटिश राजवाली ही बनी रही। अधिकांश अधिकारी और कर्मचारी भी पहले वाले ही बने रहे। पुलिस भी ब्रिटिश राज के कानून के तहत ही काम करती चली आ रही है। स्वतंत्रता के बाद जो टोपीधारी मंत्री बनकर सत्तासीन हुए उन्हें प्रशासनिक अनुभव नहीं था। अत: उन्हें भी प्रशासन के गुर उनके मातहत अधिकारियों द्वारा सिखाए गए। ब्रिटिश राज की शासन प्रणाली में भारतीय जनता नागरिक का दर्जा नहीं रखती थी बल्कि सिर्फ प्रजा होती थी। प्रजा के मौलिक अधिकार नहीं होते हैं। प्रजा का धर्म सदैव आज्ञाकारी बने हुए सरकार से दया की याचना करते रहना होता है। संगठित होकर अंदोलन करने से प्रजा दुश्मन बन जाती है जिसे सरकार सख्ती से दमनकारी हथियार (पुलिस) द्वारा कुचलती है।
आज भी मंत्री से लेकर संतरी तक प्रशासनिक व्यवस्था का प्रत्येक सदस्य सामन्तशाही मानसिकता से ग्रस्त है। सामन्तशाही प्रशासनिक व्यवस्था में प्रशासन का अर्थ होता है प्रजा का शोषण। प्रजा द्वारा मुंह खोलकर अपनी व्यथा व्यक्त करने को राजद्रोह मानना। सामन्तशाही प्रशासनिक व्यवस्था में पुलिस सिर्फ मंत्रियों और अधिकारियों की सुरक्षा के लिए एक घातक हथियार के रूप में संगठित की जाती है। जहां कहीं प्रजा सरकार के अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलने की धृष्टता करती है तो मंत्री और अधिकारी भयभीत हो जाते हैं। ऐसे में भयभीत मंत्रियों और अधिकारियों को सुरक्षा का आश्वासन देने के कर्त्तव्य का पालन करते हुए सशस्त्र पुलिस निर्ममता से निरीह प्रजा, बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष पर घातक प्रहार करके उनका मुंह बंद करने को तत्पर रहती है।
सरकार के भ्रष्टाचार और विदेशी बैंकों में जमा कालाधन के प्रति सरकारी निष्क्रियता के खिलाफ देशव्यापी जन आंदोलन से भयभीत मंत्रियों और अधिकारियों को सुरक्षा का आश्वासन देने के लिए दिल्ली पुलिस ने रामलीला मैदान में रात में सोते हुए बच्चों, स्त्रियों और पुरुषों की हड्डी- पसली तोडऩे का शौर्य दिखाया। ऐसे ही माहौल में फैज़ अहमद फैज़ ने कहा था -
'निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन,
कि जहां चली है रस्म कि कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नज़र चुरा के चले जिस्मो जां बचा के चले। '
आवश्यकता है कि सरकार को मजबूर किया जाए कि 'सत्यमेव जयते' की तरह गणतंत्र भी सिर्फ कागजों पर छपे शब्दों तक ही सीमित न रह जाए बल्कि सरकारी प्रशासनिक व्यवस्था यथार्थ में गणतंत्र के अनुरूप हो जाए। गणतंत्र में सामन्ती मानसिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता। गणतंत्र में सरकारी मंत्री और अधिकारी राजा नहीं होते और जनता प्रजा नहीं होती। गणतंत्र में सरकारी मंत्री और अधिकारी जनता की सेवा के लिए होते हैं। पुलिस भी जनता की सेवा के लिए होती है। स्पष्ट है कि इसके लिए वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा। ऐसा आसानी से नहीं होगा। इसके लिए भी अन्ना हजारे जैसा एक अंदोलन चलाकर ही सफलता प्राप्त होगी।

- डॉ. रत्ना वर्मा

प्रकृति के साथ साहित्य, वेद और धर्म का रिश्ता

-डॉ. नलिनी श्रीवास्तव
नदी की कोख से ही संस्कृति का जन्म होता है। यही कारण है कि नदी के किनारे उगने वाले पेड़- पौधे ही नहीं ऋषि- मुनियों की बौद्धिक ज्ञान की जागृति भी पल्लवित पुष्पित होती रही है। हमारे यहां गंगा पवित्र नदी है। जिसकी पूजा करते हुए हम स्वयं गौरवान्वित होते हैं। गंगा जल हम सभी भारतीयों के लिए अमृत है।
प्रकृति का सुन्दर खिला हुआ फूल किसको मुग्ध नहीं करता? सबसे अच्छी बात जो सबको अच्छा लगे वही हमारी संस्कृति है। हमारी संस्कृति की आत्मा धर्म है। यही कारण है कि हमारी संस्कृति पुरातन होकर आज भी नवीन बनी हुई है। हम अपनी विरासत को समेटे अपनी परंपरा की दुहाई देते थकते नहीं है। आधुनिक युग में बढ़ते हुए जनमानस का सैलाब कितना ही पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध से प्रभावित होकर पाश्चात्य धुनों पर थिरकने लगे परंतु फिर भी हमारे पारंपरिक रीति- रिवाजों को नष्ट करने में असमर्थ ही है, कारण हमारी संस्कृति की जड़ें गहरी हैं। हम भारतीयों की भावनाओं में फूलों की सुरभि की तरह संस्कृति समायी हुई है। नदी की कल- कल ध्वनि को हम देख सकते हैं लेकिन हम पकड़ नहीं सकते। फूलों की सुरभि को हम सिर्फ अनुभव कर सकते हैं यही हमारी संस्कृति की आत्मा है।
नदी की कोख से ही संस्कृति का जन्म होता है। यही कारण है कि नदी के किनारे उगने वाले पेड़- पौधे ही नहीं ऋषि- मुनियों की बौद्धिक ज्ञान की जागृति भी पल्लवित पुष्पित होती रही है। हमारे यहां गंगा पवित्र नदी है। जिसकी पूजा करते हुए हम स्वयं गौरवान्वित होते हैं। गंगा जल हम सभी भारतीयों के लिए अमृत है। परंतु उससे भी ज्येष्ठ नर्मदा नदी है। नर्मदा नदी का उद्गम स्थल छत्तीसगढ़ की पावन धरती अमरकंटक पर्वत से निकली है। इसी प्रकार शिवनाथ नदी छत्तीसगढ़ के गांव गांव को खुशहाली की जिंदगी देते हुए महानदी में जाकर समाहित हो जाती है। इस धरती की प्राकृतिक सुषमा अपने आप में अतुलनीय है।
इतना ही नहीं राजनांदगांव व दुर्ग जिले के लिए शिवनाथ नदी अमृतधारा का काम करती है। पर्वत, नदी, पेड़- पौधों की जब तक हम रक्षा करते रहेंगे हमारा जीवन भी उतना भी सुखमय होगा।
पर्यावरण मुख्य: दो प्रकार के होते हैं। भौतिक और जैविक। भौतिक पर्यावरण में मनुष्य को प्रभावित करने वाली वस्तुएं शामिल हंै जैसे नदी, पहाड़, रेगिस्तान आदि। जैविक पर्यावरण में मनुष्य के चारों ओर पाये जाने प्राणी आते हैं। जैसे पशु- पक्षी और कीट- पतंगे तथा अन्य सभी जीवधारी।
'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना को लेकर चलने वाले हमारे ऋषि- मनीषी और महात्मा मानवीय गुणों से ओतप्रोत हो जीवन जीने की सीख आदिकाल से देते चले आ रहे हैं। 'न मातु: परम दैवतम।' माता से बढ़कर कोई देवता नहीं है। हम बड़े गर्व से पृथ्वी को धरती माता कहते हैं, भारत माता कहते हैं। गांवों, शहरों में स्थापित शीतला माता के मंदिर हमारी भारतीय परंपरा के प्रतीकात्मक स्वरूप हैं। माता की गोद में ही बालक सर्वप्रथम 'कुआं पूजन' उत्सव में शामिल होता है। यहीं से शुरु हो जाती है मानव जीवन की धर्मयात्रा।
इसी तरह भारतीय घरों के आंगन में तुलसी चौरा का होना अनिवार्यता की परिधि में आता है। तुलसी का पौधा एक धार्मिक आस्था प्रगट करने वाला ही नहीं औषधि के रामबाण गुण भी उसमें समाहित हंै।
साहित्य, वेद और धर्म के साथ प्रकृति एक विशेष तादात्म्य है। कितने ही हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में पेड़ पौधों की महत्वपूर्ण भूमिका पाई जाती है। चाहे वह हलषष्ठी का व्रत हो, या वट सावित्री का व्रत हो। वट, नीम और पीपल का भी अपने आप में एक विशेष महत्व है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनेक सुंदर पेड़- पौधे फूल- पत्तियां औषधि के रुप में जीवन को स्वस्थ रखने में सहायक रहते हैं।
वेदों में भी पर्यावरण की गाथा हमें दिखाई देती है। वायु, जल, खाद्य, मिट्टी, वन संपदा, पशु- पक्षी सभी प्रकृति पर आश्रित हैं। ऋग्वेद में वायु के गुणों की चर्चा इस प्रकार की गई है- 'वात आ वातु भेषजं शंभू, मयोभु नो हदे। प्राण आयुंषि तारिषत्'- ऋग्वेद (10/186/1) अर्थात् शुद्ध ताजी वायु अमूल्य औषधि है जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनन्ददायक है। वह उसे प्राप्त कराता है और हमारे आयु को बढ़ाता है।
संस्कृत साहित्य में कालिदास प्रकृति के अनुपम चितेरे हैं। ऋतुसंहार में कालिदास ऋतुओं का वर्णन करते हुए जनमानस के भावों को उत्तेजित करने में सफल हुए हैं। प्रकृति का साहचर्य हमें पल- पल अपनी अनिवार्यता का परिचय देता है। 'कुमारसंभव' में प्राकृतिक विभूति और दैवी विभूति में साम्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है। किन्तु यह प्रकृति मानव संबंध 'रघुवंश' महाकाव्य में और भी सुन्दरता के साथ मन को मुग्ध करने में सक्षम है। 'अभिज्ञान शाकुन्तलम' में कालिदास की लेखनी की शक्ति का तब अहसास होता है जब हम कण्व ऋषि के तपोवन में यह देखते हैं कि प्रकृति भी अन्य पात्रों के साथ एक विशेष पात्र बन गई है। कालिदास की लेखनी में चेतना रहित पेड़- पौधें आदि सबको सजीव रूप में प्रतिबिम्बित कर अमरत्व की दीपशिखा को प्रज्जवलित कर गये हैं। कालिदास की नायिका शकुन्तला के सौंदर्य के अनुपम लावण्य का वर्णन तब तक पूर्ण नहीं होता है जब तक वह नायिका के कानों में शिरीष के फूल न लगा दे। प्रकृति हमें जीवन की सीख देने के साथ- साथ अपना संतुलन बनाए रखने के लिए प्रताडि़़त करने से नहीं चूकती है।
तुलसीदास ने रामचरित मानस में प्रकृति के जीवंत रूप की अभिव्यंजना अपनी पूर्ण भव्यता के साथ उजागर किया है। सीता को खोजते हुए राम रास्ते में आये हुए पशु- पक्षी और पेड़- पौधों से भी पूछते हैं- 'हे खग मृग हे मुधकर सेनी तुम देखी सीता मृगनयनी।'
प्रेमचंद की साहित्य संबंधी धारणा प्रगतिशीलता पर आधारित है। साहित्य का उद्देश्य यही है जिसके सुख- दुख में हंसने रोने का अर्थ समझ सकते हैं उसीसे हमारी आत्मा का मेल होता है। प्रेमचंद ने साहित्य को कभी भी सीमित अर्थों में आबद्ध करने की चेष्टा नहीं किया है। उनके अनुसार साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं है हृदय की वस्तु है जहां ज्ञान और उपदेश असफल हो जाते हैं, वहां साहित्य बाजी मार लेता है।
अत: आज के युग में हम प्रगति का मार्ग तो अवश्य प्रशस्त कर रहे हैं लेकिन यह याद रखना चाहिए कि राष्ट्रसंघ पर्यावरण कार्यक्रम में 1980 में यह चेतावनी दी गई थी कि कार्बन डाई आक्साइड गैस की मात्रा से गर्मी बढ़ेगी और जलवायु में परिवर्तन आएगा। तापमान के बढऩे से बर्फ भी पिघलेंगे तथा समुद्री जल का स्तर बढऩे से किनारे में बसे हुए अनेक शहरों के अस्तित्व के मिटने की संभावना है।
बढ़ती हुई आबादी एवं औद्योगिकीकरण के कारण वनों के अंधाधुंध कटाई व नगरीकरण से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ते जा रहा है। एक ओर भौतिक सुख- सुविधा ऐश्वर्य से सम्पन्न सभ्य समाज प्रगतिशीलता की दौड़ में दौड़ते चले जा रहे हैं और दूसरी ओर प्रकृति के प्रकोप से अनजान बने हुए हैं। अत: आज जरुरत है कि हम सम्पूर्ण विश्व में 5 जून पर्यावरण दिवस पर लोगों को प्रकृति के महत्व को समझाएं और उसकी उपादेयता पर अपने विवेक का सही प्रयोग करें।
आधुनिक परिवेश में हमने निश्चय ही अपने विवेक और बुद्धि के सहारे जीवन के हर क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया है। आज हम ऊंची- ऊंची अट्टालिकाओं के बीच रहते हुए प्रकृति का सानिध्य हमारे लिए आसमान से तारे तोडऩे वाली बात हो गई है। इतना ही नहीं हमारा जीवन भी धीरे- धीरे पूर्णत: मशीनों पर आश्रित होते हुए मशीनमय होते जा रहा है। वैज्ञानिकों की सूझ- बूझ एवं ज्योतिषियों की भविष्यवाणियां कितना भी हमें आने वाले आकस्मिक संकट से बचाने की कोशिश करें लेकिन सुनामी कांड जैसी वारदातें प्रकृति के प्रकोप का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। अत: हमें बढ़ती हुई जनसंख्या एवं मशीनों की दुनिया से अलग हटकर अपने सुरक्षा कवच को बनाए रखने के लिए पर्यावरण के प्रति हर मानव को जागरूक होना चाहिए।
प्रकृति का सानिध्य हमें जीवन में जैसी ऊर्जा प्रदान करती है वैसा प्रफुल्लित परिवेश मशीनों की दुनिया में नहीं मिल सकता है। कुछ पल का आकर्षण हमें मुग्ध अवश्य कर देता है लेकिन उसके बाद की हानि हमारे जीवन को विषाक्त बना देने के लिए पर्याप्त है। पृथ्वी सूत्र में अथर्वेद के ऋषियों ने कहा है- 'जो मैं तुममे खोजता हूं वह शीघ्र बढ़े। मेरे मर्म स्थलों को या तेरे हृदय स्थल को चोट न पहुंचाऊं।' जितना हम प्रकृति से लें उतना वापस करें यही पर्यावरण संतुलन है और यही पर्यावरण संरक्षण का मूलमंत्र है।

लेखक के बारे में:
खैरागढ़ राजनांदगांव जिला में जन्मी डॉ. नलिनी श्रीवास्तव हिन्दी साहित्य में पी. एच- डी हैं और साहित्य वाचस्पति पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की पौत्री हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में कहानी व लेख के प्रकाशन के साथ दो कहानी संग्रह- 'एक टुकड़ा सच' व 'केक्टस की चुभन', एक संस्मरणात्मक निबंध- 'बख्शीजी मेरे दादा जी' प्रकाशित। विभागाध्यक्ष- हिन्दी सेंट थामस कालेज भिलाई से अवकाश प्राप्त।
संपर्क: 'शिवायन' 3-बी सड़क- 33 सेक्टर-1, भिलाई 490001 (छ. ग.) मो. 9752606036

प्राकृतिक आपदा से बढ़ते पर्यावरण शरणार्थी

- प्रमोद भार्गव
दुनिया की आबादी इसी रफ्तार से बढ़ती रही और मौसम के बदलाव पर भी अंकुश न लगा पाए तो 2050 तक इस आबादी को खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए तीन अरब हैक्टर अतिरिक्त जमीन की जरूरत होगी, जो दुनिया के विकासशील देशों के कुल रकवे के बराबर है।
जलवायु परिवर्तन के चलते एक नई व्यक्तिगत समस्या आकार ले रही है- पर्यावरण शरणार्थी। बीते कुछ माहों में आई प्राकृतिक आपदाओं और नए साल की शुरुआत में ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, सिडनी, फिलीपाइन्स में बाढ़, भूस्खलन और कोहरे का प्रकोप प्रकृति की स्वाभाविक प्रक्रिया है अथवा मानवीय गतिविधियों का दुष्परिणाम? ये आपदाएं यह संकेत जरूर दे रही हैं कि जलवायु परिवर्तन का दायरा लगातार बढ़ रहा है और इसकी चपेट में दुनिया की ज्यादा से ज्यादा आबादी आती जा रही है।
जलवायु विशेषज्ञों का मानना है कि इस विराट व भयानक संकट के चलते यूरोप, एशिया और अफ्रीका का एक बड़ा भूभाग इन्सानों के लिए रहने लायक ही नहीं रह जाएगा। तब लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से जिस पैमाने पर विस्थापन व पलायन करना होगा, वह मानव इतिहास में अभूतपूर्व होगा।
इस व्यापक परिवर्तन के चलते खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आएगी। अकेले एशिया में कृषि को बहाल करने के लिए हर साल करीब पांच अरब डालर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। बावजूद इसके दुनिया के करोड़ों लोगों को भूख का अभिशाप झेलना होगा। वर्तमान में अकाल के चलते हैती और सूडान में कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। जहां ऑस्ट्रेलिया, फिलीपाइन्स और श्रीलंका में बाढ़ ने कहर ढाया, वहीं ब्राजील में भारी बारिश और भूस्खलन ने तबाही मचाई। अमेरिका में बर्फबारी का यह आलम था कि बर्फ की दस- दस फीट ऊंची परत बिछ गई। मेक्सिको में कोहरे का प्रकोप है तो कैंटानिया में ज्वालामुखी से उठी 100 मीटर ऊंची लपटें तबाही मचा रही है।
प्रकृति के अंधाधुंध दोहन के दुष्परिणाम स्वरूप श्रीलंका में 3,25,000 लोग बेघर हुए। करीब 50 लोग काल के गाल में समा गए। इस तांडव की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की थल, जल और वायु सेना के 28,000 जवान राहत कार्य में जुटे थे। ऑस्ट्रेलिया में हालात और भी गंभीर रूप में सामने आए। करीब 40 लाख लोग बेघर हुए। यहां के ब्रिस्बेन शहर की ऐसी कोई बस्ती बचाव दलों को देखने में नहीं आई जो जलमग्न न हो। पानी से घिरे लोगों को हेलिकॉप्टर से निकालने के काम में सेना लगी। सौ से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। फिलीपाइन्स में आई जबर्दस्त बाढ़ ने लहलहाती फसलों को बरबाद कर दिया। नगर के मध्य और दक्षिणी हिस्से में पूरा बुनियादी ढाचा ध्वस्त हो गया। भूस्खलन के कारण करीब 4 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। इस कुदरती तबाही का शुरुआती आकलन 23 लाख डालर है।
ब्राजील को बाढ़, भूस्खलन और शहरों में मिट्टी धंसने के हालातों का एक साथ सामना करना पड़ा है। यहां मिट्टी धंसने और पहाडिय़ों से कीचड़ युक्त पानी के प्रवाह ने 600 से ज्यादा लोगों की जान ली। ब्राजील में प्रकृति के प्रकोप का कहर रियो द जेनेरो नगर में बरपा। रियो वही नगर है जिसमें जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर 1994 में पृथ्वी बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ था। लेकिन अपने- अपने औद्योगिक हित ध्यान में रखते हुए कोई भी विकसित देश कार्बन कटौती के लिए तैयार नहीं हुआ। इस वजह से कार्बन उत्सर्जन में कमी आने की बजाय वृद्धि हुई। नतीजा अब हमारे सामने है।
मेक्सिको के सेलटिलो शहर में कोहरा इतना घना गहराया कि सड़कों पर एक हजार से भी ज्यादा वाहन परस्पर टकरा गए। इस भीषणतम सड़क हादसे में करीब दो दर्जन लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए। कैंटानिया ज्वालामुखी की सौ मीटर ऊंची लपट ने नगर में राख की परत बिछा दी और हवा में घुली राख ने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया। इससे पहले अप्रैल 2010 में उत्तरी अटलांटिक समुद्र के पास स्थित यूरोप के छोटे से देश आइसलैंड में इतना भंयकर ज्वालामुखी फटा था कि यूरोप में 17 हजार उड़ानों को रद्द करना पड़ा था। आइसलैंड से उठे इस धुए ने इंग्लैंड, नीदरलैंड और जर्मनी को अपने घेरे में ले लिया था। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि ज्वालामुखी से फूटा लावा बर्फीली चट्टानों को पिघला देगा। लावा और बर्फीला पानी मिलकर एक ऐसी राख उत्पन्न करेंगे जिससे हवाई जहाजों के चलते इंजन बंद हो जाएंगे। राख जिस इंसान के फेंफड़ों में घुस जाएगी उसकी सांस वहीं थम जाएगी। इसलिए यूरोपीय देश के लोगों के बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
यूरोप में चल रही जबरदस्त बर्फबारी के चलते वहां असामान्य ढंग से शून्य से 15 डिग्री नीचे खिसका तापमान और हिमालयी व अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में 1.4 डिग्री सेल्सियस तक चढ़ा ताप दर्शा रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन निश्चित है। इसके साथ भौगोलिक बदलाव की पदचाप भी सुनाई दे रही है। ये बदलाव होते हैं तो करोड़ों लोग बेघर होंगे। इन्हें हम पर्यावरण शरणार्थी कह सकते हैं। दुनिया के सामने इनके पुनर्वास की चिंता तो होगी ही, खाद्य और स्वास्थ्य सुरक्षा भी अहम होगी।
विशेषज्ञों का मानना है कि 2050 तक दुनिया भर में 25 करोड़ लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से पलायन को मजबूर होना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन की मार मालदीव और प्रशांत महासागर क्षेत्र के कई द्वीपों के वजूद को पूरी तरह लील लेगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालदीव की सरकार ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए चर्चा के लिए समुद्र की गहराई में बैठकर औद्योगिक देशों का ध्यान अपनी ओर खींचा था ताकि ये देश कार्बन उत्सर्जन में जरूरी कटौती कर दुनिया को बचाने के लिए आगे आएं।
बांग्लादेश भी बर्बादी की कगार पर है। चूंकि यहां आबादी का घनत्व बहुत ज्यादा है, इसलिए बांग्लादेश के लोग बड़ी संख्या में इस परिवर्तन की चपेट में आएंगे। यहां तबाही का तांडव इतना भयानक होगा कि सामना करना नामुमकिन होगा। भारत की सीमा से लगा बांग्लादेश तीन नदियों के डेल्टा में आबाद है। इसके दुर्भाग्य की वजह भी यही है। इस देश के ज्यादातर भूखण्ड समुद्र तल से बमुश्किल 20 फीट की ऊंचाई पर आबाद हैं। इसलिए धरती के बढ़ते तापमान के कारण जलस्तर ऊपर उठेगा तो सबसे ज्यादा जलमग्न भूमि बांग्लादेश की होगी। जलस्तर बढऩे से कृषि का रकवा घटेगा। नतीजतन 2050 तक बांग्लादेश की धान की पैदावार में 10 प्रतिशत और गेहंू की पैदावार में 30 प्रतिशत तक की कमी आएगी। इक्कीसवीं सदी के अंत तक बांग्लादेश का एक चौथाई हिस्सा पानी में डूब जाएगा। वैसे तो मोजांबिक से तवालू और मिस्त्र से वियतनाम के बीच कई देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण पलायन होगा, लेकिन सबसे ज्यादा पर्यावरण शरणार्थी बांग्लादेश के होंगे। एक अनुमान के मुताबिक इस देश से दो से तीन करोड़ लोगों को पलायन पर मजबूर होना पड़ेगा।
बांग्लादेश पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन करने वाले जेम्स पेंडर का मानना है कि 2080 तक बांग्लादेश के तटीय इलाकों में रहने वाले पांच से दस करोड़ लोगों को अपना मूल क्षेत्र छोडऩा पड़ सकता है। देश के तटीय इलाकों से ढाका आने वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। अमेरिका की प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका साइंटिफिक अमेरिकन ने बांग्लादेश के पर्यावरण शरणार्थियों पर एक विशेष रपट में कहा है कि बूढ़ी गंगा किनारे बसे ढाका शहर में हर साल पांच लाख लोग आते हैं। इनमें से ज्यादातर तटीय और ग्रामीण इलाकों से होते हैं। यह संख्या वाशिंगटन डीसी के बराबर है।
अभी यह स्पष्ट नहीं हैं कि जलवायु परिवर्तन से हुए पर्यावरण बदलाव के कारण कितने लोग शहरों में आकर बसने को मजबूर हो रहे हैं। लेकिन यह तय है कि विकासशील देशों में गांवों से शहरों की ओर होने वाले पलायन में जलवायु परिवर्तन प्रमुख कारण होगा। विस्थापन से जुडे विशेषज्ञों का मानना है कि ढाका में मौसम में बदलाव के चलते विस्थापितों की संख्या लगातार बढ़ रही है। तटीय बाढ़ बार- बार आने लगी है। जमीन में खारापन बढऩे से चावल की फसलें नष्ट हो रही हैं। यही नहीं, भयंकर तूफानों से गांव के गांव तबाह हो रहे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि बांग्लादेश की गिनती जल्दी ही ऐसे देशों में होने लगेगी जहां दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले ज्यादा पर्यावरण शरणार्थी होंगे।
बांग्लादेश की सरकार ने इस समस्या को दुनिया के अंतराष्ट्रीय मंच कोपेनहेगन सम्मेलन में उठाया भी था। बांग्लादेश के प्रतिनिधि सुबेर हुसैन चौधरी का कहना था कि इस शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से होने वाले आंतरिक विस्थापन और पलायन पर भी गौर किया जाना चाहिए। इस संकट से तीन करोड़ लोगों के प्रभावित होने की आशंका जताई जा रही है। तय है ऐसे विकट हालात में घनी आबादी के घनत्व वाला बांग्लादेश इस संकट से अपने स्थानीय संसाधनों से नहीं निपट सकता। इसलिए समय रहते ऐसे तरीकों की तलाश जरूरी है, जिनके जरिए पर्यावरण शरणार्थियों को विश्व के अन्य खुले हिस्सों में बसाने के मुकम्मल इंतजाम हो। तत्काल तो पर्यावरण शरणार्थियों को मान्यता देकर उन्हें अंतराष्ट्रीय समस्याग्रस्त समूह का दर्जा दिया जाना जरूरी है ताकि वैश्विक स्तर पर राहत पहुंचाने वाली संस्थाएं उनकी मदद के लिए तैयार रहें।
इस व्यापक बदलाव का असर कृषि पर दिखाई देगा। खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आएगी। अंतराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के मुताबिक अगर ऐसे ही हालात रहे तो एशिया में एक करोड़ दस लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और बाकी दुनिया में चालीस लाख बच्चों को भूखा रहना होगा। कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन का मानना है कि यदि धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाती है तो गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन घट सकता है। बहरहाल दुनिया की आबादी इसी रफ्तार से बढ़ती रही और मौसम के बदलाव पर भी अंकुश न लगा पाए तो 2050 तक इस आबादी को खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए तीन अरब हैक्टर अतिरिक्त जमीन की जरूरत होगी, जो दुनिया के विकासशील देशों के कुल रकवे के बराबर है।
संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के मुताबिक 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब 20 करोड़ हो जाएगी। उभरते जलवायु संकट और बढ़ते पर्यावरण शरणार्थियों के चलते इतनी कृषि लायक भूमि उपलब्ध कराना असंभव होगा। लेकिन ये तो अनुमान हैं और इनके निराकरण उम्मीदों पर टिके हैं।

नदी पर्यटन पर्यावरण को दांव पर लगा के नहीं


- वी. के. जोशी
गंगा सदैव से पूजनीय, पाप- विमोचिनी माता समान मानी गई है। एक डुबकी मात्र से समस्त पाप धुल जाते हैं ऐसी मान्यता है। आज भी ऋषिकेश में देश- विदेश से लाखों यात्री गंगा में डुबकी लगाने आते हैं। पिछले चालीस वर्षों में गंगा के किनारे हिमालय में बियासी तथा मैदान में ऋषिकेश में पर्यटन का एक नया आयाम देखने में आया है। नदी पर्यटन अथवा रिवर टूरिज्म आज पर्यावरणविदों एवं समाजशास्त्रियों दोनों के लिए चिंता का विषय बन चुका है। इन दो स्थानों के बीच की जगह अब रिवर राफ्टिंग और कैम्पिंग दोनों ही कामों के लिए प्रयोग में लाई जाती है। नदी के एकदम किनारे पर टेंट कॉलोनी बनाई जाती है। नदी पर इन सबका क्या असर पड़ता होगा- आइये एक नजर डालें।
गोविन्दवल्लभ पन्त इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड डेवेलपमेंट के श्रीनगर, गढ़वाल केन्द्र के एन ए फारुकी, टी के बुदाल एवं आर के मैखुरी ने इस प्रकार के पर्यटन का गंगा के पर्यावरण एवं क्षेत्र के समाज व संस्कृति पर पडऩे वाले प्रभाव पर शोध किया। अपने शोध को इन्होंने करेंट साईंस में प्रकाशित किया था। इनकी रिपोर्ट से इस पर्यटन के अनेक पहलुओं पर ज्ञान प्राप्त होता है। पहाड़ के खूबसूरत ढलान, हरे- भरे वन, नदियां, झरने आदि पर्यटकों को अनायास ही मोह लेते हैं। हमारे पहाड़ स्वदेशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के पर्यटकों को सदियों से आकर्षित करते रहे हैं। इधर हाल के कुछ वर्षों में पर्यटन एक उद्योग रूप ले चुका है। विश्व में पिछले 40 वर्षों से पर्यटन एक बेहद सफल उद्योग रहा है- मानते हैं फारुखी व उनके सह- शोधकर्ता । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाये तो पर्यटन का जीएनपी में योगदान 5.5 तथा रोजगार में 6 प्रतिशत योगदान रहा है।
प्रश्न यह है कि यदि यह इतना कमाऊ उद्योग है तो समस्या कहाँ है? दरअसल पर्यटन को बढ़ावा मिलने के कारण लोग अचानक एक स्थान विशेष पर आ पहुंचते हैं। पर इस प्रकार हजारों या लाखों लोगों के आने से उस स्थान की संस्कृति या पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है इस पर कभी गहराई में शोध नहीं किया गया। फारुखी आदि को इस दिशा में शोध कर समस्याओं को उजागर करने में अग्रणी माना जा सकता है। पर्यटन जहां एक ओर पर्वतीय युवाओं को रोजगार देता है तो दूसरी ओर सामाजिक तालमेल बिगाड़ भी देता है। मसलन तलहटी में काम करने वाले युवा, टूरिस्ट कैम्प में सामान ढोने के कुली का काम अधिक लाभकारी समझते हैं। चमक- दमक के लालच में अपना पुश्तैनी रोजगार छोड़कर कुलीगिरी करने वाले यह युवा बहुधा शराब आदि की लत के भी शिकार हो जाते हैं, जिसका परिणाम होता है पारिवारिक कलह।
गो कि स्थानीय समाज एवं सरकार पर्यटन को एक अच्छा उद्योग मानते हैं क्योंकि इसके कारण लोगों की आय में अंतर आया है। पर इस अच्छाई के साथ जो बुराई आती है उसे नजरंदाज कर दिया गया है। 'गंगा एक पूजनीय नदी है, उस पर नदी राफ्टिंग करना क्या नदी का अपमान नहीं है' - इस बात पर किसी ने विचार नहीं किया ना ही इस दिशा में कोई शोध हुआ है। नदी के किनारे 36 कि. मी. तक कौडियाला से ऋषिकेश तक अनेक पर्यटक कैम्प लगाए जाते हैं।
फारुखी एवं उनके सहयोगियों ने इस क्षेत्र का विशेष अध्ययन किया। फारुखी आदि ने देखा कि इन कैंपों के 500 मी के दायरे में लगभग 500 गाँव हैं। ब्रह्मपुरी एवं शिवपुरी (ऋषिकेश के निकट) 1994 में दो निजी कैम्प स्थल थे। इसके अतिरिक्त 1996 के पूर्व गढ़वाल मंडल विकास निगम के शिवपुरी व बियासी में मात्र दो कैम्प स्थल हुआ करते थे। 1997 के बाद से अचानक इन कैम्पों की बाढ़ सी आ गई है। अब यह 45 कैम्प गंगा के किनारे 183510 वर्ग मीटर के क्षेत्र पर फैले हैं। सबसे अधिक कैम्प सिंग्ताली और उसके बाद शिवपुरी में हैं। इस लेखक को याद है कि 1979 में सर्वे के दौरान शिवपुरी में ऋषिकेश में अधिकारियों से गंगा के किनारे एक टेंट लगाने की इजाजत नहीं मिली थी- क्योंकि अधिकारियों को भय था कि गंगा गंदी हो जायेगी। अब तो इन कैम्पों में प्रति कैम्प 15 से 35 पर्यटक रहते हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ काम करने वाले लोग अलग से इन स्थानों पर प्रति कैम्प औसत शौचालय 4 से 10 तक हैं, तथा हर कैम्प की अपनी रसोई एवं भोजनालय अलग से है।
पर्यटकों से पैसा कमाने की होड़ में अनेक स्थानीय लोगों ने भी नदी के किनारे अपनी जमीन पर कैम्प लगा लिए तथा बहुतों ने अपनी जमीन टूर ऑपरेटरों को बेच दी। यही कारण है कि इस क्षेत्र में टेंट कालोनियों की भरमार हो चुकी है। फारुखी ने यह डाटा 2006 में एकत्रित किया था। बढ़ते हुए उद्योग को देखते हुए प्रतिवर्ष इसमें 10 प्रतिशत इजाफे को नकारा नहीं जा सकता। स्थानीय लोगों ने इस उद्योग के प्रति मिली जुली प्रतिक्रिया व्यक्त की है। कुछ को लगता है कि इस उद्योग से उनकी माली हालत सुधरी है तो कुछ का कहना है बाहरी लोगों के आने से उनमें सामाजिक सांस्कृतिक असुरक्षा की भावना बढ़ी है। सरकार का नदी पर्यटन को बढ़ाने का रवैया तो ठीक है, पर टूरिज्म के नाम पर होने वाले गतिविधियों पर नजर रखनी जरूरी है। गोवा में टूरिज्म के नाम पर खुली छुट मिलने के बाद क्या हुआ यह बात किसी से छिपी नहीं है। इसलिए कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए यह तो सरकार ही तय कर सकती है।
गंगा के किनारे इन टूरिस्ट कैम्पों का प्रयोग रिवर राफ्टिंग के लिए भी खूब होता है। फारुखी के अनुसार 2004- 05 के दौरान 12726 पर्यटकों ने इन स्थानों का प्रयोग किया। इन कैम्पों के लिए सरकार ने पाबन्दिया ठीक- ठाक लगाई हैं, जैसे जितना क्षेत्र कैम्प के लिए आवंटित है उसके बाहर टेंट नहीं लगा सकते, शाम 6 बजे के बाद राफ्टिंग की सख्त मनाही है, कैम्प में खाना बनाने के लिए लकड़ी जलाना मना है, कैम्प फायर केवल राजपत्रित अवकाशों एवं रविवारों में ही की जा सकती है, उस पर भी जमीन में लकड़ी रख कर नहीं जला सकते, उसके लिए विशेष प्रकार की लोहे की ट्रे का प्रयोग करना होता है। कैम्प फायर के लिए लकड़ी केवल वन विभाग से ही ली जायेगी ऐसे भी आदेश हैं। कैम्प फायर के बाद राख को बटोर कर नियत स्थान पर ही फेंकना होता है, नदी में डालने पर एकदम मनाही है। कैम्प में सोलर लाईट का प्रयोग किया जा सकता है रात नौ बजे तक तेज आवाज का संगीत एवं पटाखों पर सख्त पाबंदी है। शौचालय नदी से कम से कम 60 मी.की दूरी पर होने चाहिए, जिनके लिए सूखे टाईप के सोक पिट आवश्यक हैं। इतना ही नहीं वन अधिकारी को किसी भी समय कैम्प का मुआयना करने का अधिकार होगा तथा यदि किसी भी शर्त का उल्लंघन पाया गया तो कैम्प के मालिक को जुर्म के हिसाब से जुर्माना या सजा तक हो सकती है। पर काश यह सब कायदे माने जा रहे होते! फारुखी के अनुसार कैम्प नियत से अधिक क्षेत्र में लगाये जाते हैं तथा अन्य सभी नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता है। सबसे खराब है नदी से एकदम सटा कर शौच टेंट लगाना। बरसात में इनके गड्ढे पानी से भर जाते हैं तथा मल सीधे नदी में पहुँच जाता है। कैम्प फायर जब भी लगाई जाती है उसकी राख सीधे नदी में झोंक दी जाती है।
स्थानीय लोगों और टूर ऑपरेटरों को इन कैम्पों से जितना फायदा होता है उससे कई गुना अधिक पर्यावरण का नुकसान होता है। फारुखी के अनुसार 1970 से 2000 के बीच जैव- विविधता में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि आदमी का पृथ्वी पर दबाव 20 प्रतिशत बढ़ गया। विकास कुछ इस प्रकार हुआ है कि अमीर अधिक अमीर हो गए और गरीब अधिक गरीब। ऐसी अवस्था में फारुखी व उनके साथी कहते हैं कि जब झुण्ड के झुण्ड अमीर टूरिस्ट आते हैं तो सभी स्थानीय वस्तुओं की मांग कई गुना अधिक बढ़ जाती है। इनमें सबसे अधिक मांग बढ़ती है लकड़ी की। गरीब गाँव वाले टूरिस्ट कैम्पों को लकड़ी बेचने में कुताही नहीं करते- उनको भी लालच रहता है। लकड़ी की मांग इतनी बढ़ चुकी है कि स्थानीय लोगों को सीजन में मुर्दा फूकने तक को लकड़ी नहीं मिल पाती। दूसरी ओर स्थानीय लड़कियों एवं स्त्रियों को नहाने के लिए नित्य नए स्थान ढूँढने पड़ते हैं क्योंकि उनके क्षेत्रों पर कैम्प वालों का कब्जा हो चुका होता है।
इसलिए समय की मांग है कि नदी पर्यटन को और अधिक बढ़ावा देने के पूर्व सरकार उस क्षेत्र का इनवायरोन्मेंट इम्पैक्ट एस्सेस्मेंट करवा ले- ताकि क्षेत्र के सांस्कृतिक और सामाजिक व पर्यावरणीय बदलाव का सही आंकलन हो सके। इन कैम्पों से कितना कचरा नित्य निकलता है उसका सही आंकलन कुछ उसी प्रकार हो सके जैसा सागर माथा बेस कैम्प में एवरेस्ट जा रहे पर्वतारोहियों के लिए किया जाता रहा है।
हिमालय में और विशेषकर गंगा के किनारे एडवेंचर टूरिज्म एवं नदी टूरिज्म को हम बढ़ावा दे रहे हैं- यह पश्चिमी देशों की नकल है- कोई बुराई नहीं है, केवल ध्यान इस बात का रखना जरूरी है कि उन देशों ने इस प्रकार के टूरिज्म को बढ़ावा अपनी संस्कृति, सामाजिक परिस्थति या पर्यावरण को दांव पर लगा कर नहीं किया। उलटे कैम्प में आने वाले पर्यटकों को यह बार- बार बतलाया जाता है कि वह केवल वहाँ की प्रकृति का आनंद लें न कि वहाँ की पर्यावरणीय एवं सामाजिक पवित्रता को अपवित्र करें।
(www.hindi.indiawaterportal.org)
संपर्क: 2, इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट फ्लैट, हैवलॉक रोड, लखनऊ 226001

आपके घर से निकलने वाले प्रदूषण का पता लगायेगी मशीन

गर्मी से निपटने के लिए एसी और सर्दी से निपटने के लिए हीटर ये चीजें हमारी रोजमर्रा की जरूरत बन चुकी हैं। हमें इन्हें इस्तेमाल करते समय इस बात का एहसास नहीं होता कि हमारी ये जरूरतें पर्यावरण के लिए कितनी हानिकारक हंै। अगर हमें कोई ऐसी चीज मिल जाए जिसे देख कर यह पता लग सके कि हर दिन हम पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं तो शायद इनकी खपत को कम कर सकें।
घर में बिजली और पानी की खपत का रिकॉर्ड रखने के लिए मीटर लगाए जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक नए प्रस्ताव के बाद अब ऐसे भी मीटर लग सकेंगे जो पूरी इमारत में कुल ऊर्जा की खपत का पता लगा सकेंगे। गर्मी से निपटने के लिए एसी और सर्दी से निपटने के लिए हीटर ये चीजें हमारी रोजमर्रा की जरूरत बन चुकी हैं। हमें इन्हें इस्तेमाल करते समय इस बात का एहसास नहीं होता कि हमारी ये जरूरतें पर्यावरण के लिए कितनी हानिकारक हैं। अगर हमें कोई ऐसी चीज मिल जाए जिसे देख कर यह पता लग सके कि हर दिन हम पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं तो शायद इनकी खपत को कम कर सकें। संयुक्त राष्ट्र ने एक ऐसी ही तकनीक को मंजूरी दी है। यह मीटर यह भी बताएंगे कि उस इमारत से पर्यावरण में कितना कार्बन डाई ऑक्साइड विसर्जित हुआ है।
क्या है कार्बन मेट्रिक
कार्बन मेट्रिक नाम की इस तकनीक पर काम कर रही संयुक्त राष्ट्र की मारिया एटकिंसन बताती हैं, 'कार्बन मेट्रिक का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि इमारतों के मालिकों को इस बारे में पता चल सके कि वे ऊर्जा की कितनी खपत कर रहे हैं और वातावरण में कितनी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। वे जान सकें कि क्या मैं सीमा में रह कर खपत कर रहा हूं या वातावरण को नुकसान पहुंचा रहा हूं।'
यूरोपीय देशों में बिजली और पानी के अलावा तेल की भी काफी खपत होती है। सर्दी होने के कारण यहां सेन्ट्रल हीटिंग होती है। अधिकतर तो एयर कंडिशनर की तरह ये भी बिजली से ही चलते हैं, पर कई जगह इसके लिए तेल का भी इस्तेमाल होता है। इसी तरह एशियाई देशों में खाना पकाने के लिए एलपीजी गैस का इस्तेमाल किया जाता है।
कितना होगा खर्चा
इस नई तकनीक में ऊर्जा की इस तमाम खपत का हिसाब लगाया जाएगा। हर घर कितना कार्बन डाई ऑक्साइड विसर्जित कर सकता है, इसके लिए एक सीमा तय की जाएगी। लेकिन इसे लागू करने के लिए नई इमारतें बनानी होंगी। इंजीनियर और आर्किटेक्ट्स को इस पर मेहनत करनी होगी।
हालांकि कई लोगों का मानना है कि इस पर बहुत ज्यादा खर्चा आ सकता है। पर संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम के लिए काम कर रहे अरब होबअल्लाह इस धारणा को गलत बताते हैं, 'लम्बे समय से लोग यह मानते आए हैं कि यदि आपको एक ऐसी इमारत का निर्माण करना है जिसमें ऊर्जा की खपत कम की जा सकती है तो आपको उसमें इतना पैसा लगाना पड़ेगा कि यदि आप ऊर्जा बचाते भी हैं तब भी वह आपको महंगा ही पड़ेगा, लेकिन अब इंजीनियर, आर्किटेक्ट्स और बिल्डरों की मदद से हमने नई तकनीक पर काम किया है और हमने यह बात गलत साबित कर दी है।'
छोटी छोटी बातें
होबअल्लाह का कहना है कि इसके अलावा लोगों को छोटी छोटी बातों का ध्यान रखना चाहिए ताकि ऊर्जा की खपत को कम किया जा सके। ठंडे देशों में खिड़कियां ऐसी दिशा में बनाई जाए जहां से धूप सबसे अधिक आती हो और गर्म देशों में ऐसी दिशा में जहां छाया रहती हो। 'आप हर जगह एक ही तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर सकते। आप अगर सोचें कि जर्मन तकनीक को बुर्किना फासो ले जाएंगे और वहां भी उसी रफ्तार से काम करेंगे तो ऐसा तो नहीं हो सकता, लेकिन बुर्किना फासो जा कर यह तो समझा ही सकते हैं कि इमारतों पर शीशे लगाना कम कर दें तो एयर कंडिशनर की खपत कम हो सकेगी।'
सीमा से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड विसर्जित करने पर लोगों को कार्बन क्रेडिट खरीदने होंगे। कार्बन क्रेडिट यानी पैसा दे कर और कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन की अनुमति खरीदनी होगी। इस तरह का सिस्टम कारखानों के लिए पहले से ही इस्तेमाल किया जा रहा है। अब इसे घरों पर भी लागू किया जाएगा।

जीवन- शैली

बूंदों में जाने क्या नशा है...
- डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
नए वातावरण ने पिता को बताया- समझाया भी है कि बच्चों के साथ दोस्त बनने का समय है। वह दोस्त बनने की कोशिश भी करते हैं, पर बीच- बीच में पिता प्रकट हो जाता है, सिर्फ प्रकट ही नहीं होता, हावी होता है। फिर पिता बोलता है, सुनता नहीं। संवाद गायब। पिता के व्यवहार में एकदम तबदीली, बच्चे को झुँझला देती है। अभी तो दोस्त की तरह था और अभी अभी...।
समय का बदलाव हमारे समय की बात है। परिवार की रूपरेखा बदली है। इसके अन्तर्गत पिता और बच्चे भी। क्या सचमुच ही पिता के साथ बच्चों का सम्बन्ध बदला है?
समाज और माता पिता की नजर में, बच्चे बहुत बदल गए हैं। बच्चे होशियार हैं, चालाक हैं, बच्चे पहले से अधिक समझदार हैं। माँ- बाप को लगता है कि बच्चे अपनी उम्र से बड़ी बातें करते हैं। ...हम तो बुद्धू थे...।
वास्तव में देखें तो बच्चा नहीं बदला है। बच्चा अब भी वही है। वही है, जो बाहें उठा कर कह रहा होता है कि उसे गोदी में उठा लो। अब भी वह गोली- टॉफी की माँग करता है। अब भी वह माँ- बापू का पल्लू कमीज खींच कर, ध्यान माँगता है कि मेरी बात सुनो। अब भी वह बोलना शुरू करने पर, पिता से पूछता रहता है 'यह तया है? वो तया है?' वह उसी तरह जिज्ञासु है।
बदला है तो पिता बदला है। एकल परिवार में, उसके पास बच्चे को गोदी में उठाने का समय है। उसे गोली- टॉफी दिलाने का भी। एकाकी परिवार के साथ, बच्चे भी एक- दो हैं। उन बच्चों के लिए समय कुछ अधिक है।
पर क्या यह सचमुच उतना सच है?
एक पहलू यह भी है कि बच्चे जिद्दी हुए हैं, कहना नहीं मानते। उनकी इच्छाएँ बढ़ी हैं, रूठते ज्यादा हैं, बात मनवा कर छोड़ते हैं? क्या वह बदले नहीं हैं?
माता- पिता कहेंगे- समय ही खराब आ गया है। मीडिया गलत है। सारा माहौल ही बिगड़ा हुआ है।
क्या इस माहौल का हिस्सा पिता नहीं है?
एक तरफ पिता यह दावा करते हैं कि उन्होंने बच्चे के साथ फासला कम किया है। वह बच्चों की बात सुनते हैं, उन्हें समय देते हैं, उनकी परवाह करते हैं। दूसरी और यूं लगता है कि यह दूरी कम होने की बजाए बढ़ी है।
बच्चे के पालन- पोषण के पड़ाव को, पिता के दावों से मिला कर देखें-
जन्म के बाद, क्रैच, डे- केयर, फिर स्कूल के बाद पिता के इन्तजार करने तक टी.वी. या वीडियों गेम के हवाले, उसके बाद होमवर्क में व्यस्तता या मुकाबलेबाजी का दवाब। कहां है पिता? पिता का साथ होते हुए भी पिता गायब है। सुबह- शाम अवश्य मिलते हैं।
क्या पिता सचमुच समय दे रहा है?
पिता बच्चों को प्रतिदिन उसे बोलता सुनता है, बढ़ता देखता है। एक- एक शब्द, एक- एक इंच।
पिता को उसके कद की परवाह है, उसके भार की चिन्ता है। इसलिए खाने की फिक्र भी।
पर बच्चों के शारीरिक विकास के साथ, मानसिक, भावनात्मक व बौद्धिक विकास भी होता है।
एक मनोवैज्ञानिक तथ्य समझें। दो वर्ष की आयु पर जब बच्चा बोलना शुरू करता है, अपने आस- पास के बारे में सब जानना चाहता है, तब उसकी प्रवृत्ति 'क्या है?' वाली होती है। 13-14 वर्ष पर उसके साथ एक नई प्रवृत्ति विकसित होती है 'क्यों है?' वह जानना चाहता है- ऐसा क्यों है? क्यों करना चाहिए? क्यों करूं? वह अब जिज्ञासु के साथ, आलोचनात्मक भी हो रहा होता है। इस पड़ाव पर उसे आगे बोलने वाला, आगे से सवाल करने वाला, हर बात पर बहस करने वाला, कहा जाता है। प्राय: उसे 'क्यों' के पहलू पर संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता और अगर थोड़ी- बहुत व्याख्या मिलती भी है तो वह संतुष्ट नहीं करती। वह उसे पाने के लिए इधर- उधर भटकता है। फिर उसे बिगड़ा हुआ कहते हैं। उसकी कम्पनी को बैड कहा जाता है या फिर स्कूल के वातावरण या मीडिया को दोषी ठहराया जाता है। वास्तव में यह उसकी जिन्दगी का सामान्य पड़ाव है, जिसके बारे में पिता अनभिज्ञ हैं। जबकि पिता को तो खुश होना चाहिए कि उनका बच्चा विश्लेषणात्मक हो गया है। वह अब समाज को समझने लगा है। यह वह पड़ाव है- जहां सेहतमंद संवाद शुरू होना चाहिए, जबकि यहां से चुप्पी शुरू हो जाती है।
पिता और बच्चों में संवाद बढऩे की बात होती है। वह बढ़ रहा है- भौतिक स्तर पर। बाजार पिता के हाथ में जो है। क्या चाहिए? कपड़े, जूते, बाइक, मोबाइल, दोस्तों को ट्रीट। या फिर ट्यूशन, स्कूल। स्कूल में क्या किया? ग्रेड कैसे हैं? संवाद तो बहुत है, पर बच्चे की जरूरत का एक अंश मात्रा। कहां है प्यार, निकटता, मिलकर बैठना, हंसना, किताबें- ग्रेडों से हटकर बात करना? भौतिक जरूरतों के मद्देनजर विचार होता है, सलाह होती है, जरूर होती है। बाजार में झूमते हुए- पिता बच्चों के दोस्त से लगते हैं।
नए वातावरण ने पिता को बताया- समझाया भी है कि बच्चों के साथ दोस्त बनने का समय है। वह दोस्त बनने की कोशिश भी करते हैं, पर बीच- बीच में पिता प्रकट हो जाता है, सिर्फ प्रकट ही नहीं होता, हावी होता है। फिर पिता बोलता है, सुनता नहीं। संवाद गायब। पिता के व्यवहार में एकदम तब्दीली, बच्चे को झुँझला देती है। अभी तो दोस्त की तरह था और अभी अभी...।
स्थिति का विश्लेषण करें तो पिता को अपना परिप्रेक्ष्य याद है। वह उसी से तुलना करता है। हमें यह सब कहाँ मिला? यह बच्चे कुछ भी माँगते बाद में हैं, मिल पहले जाता है। दोनों कमाते हैं, किस के लिए? घर- गाँव छोड़ा, किसके लिए? अपनी सुविधाओं को अनदेखा कर, इन्हें दिया- बाइक, ए.सी. कमरा। पिता सिर्फ सोचते नहीं, बच्चों को जताते भी हैं।
हमने विज्ञान को, व्यवसाय व स्थान को, इस नए परिप्रेक्ष्य को स्वीकारा है। यह सब सहजता से हमारे जीवन का अंग बने हैं, पर क्या अन्य परिवर्तन हैं, जैसे: एकाकी परिवार हमने चाहे, पर उनमें रहने के ढंग को नहीं बदला।
अच्छी परवरिश के लिए एक- दो बच्चों को चाहा, पर अच्छी परवरिश का अभिप्राय नहीं जाना- सीखा।
सतही जानकारी, जैसे देखा- सुना, इधर- उधर के अनुमानों पर आधारित बच्चों के साथ पेश आ रहे है। पिता का कठोर व्यवहार छोड़ा, तो खुलेपन के अर्थ नहीं तलाशे। अनुशासन की सीमा व महत्व नहीं समझा।
दोस्त बनना चाहा, तो पिता के साथ उसका संतुलन नहीं बना पाए। आर्थिक समृद्धि आने पर, बच्चों की इच्छाएँ पूरी करते रहे। पर बच्चें को सामाजिक सच्चाइयों से अवगत नहीं करवा रहे।
उनकी हर बात मानी, पर जब जिद्दी हो गए तो बुरा लगा।
बच्चे, पिता के लिए सब कुछ हैं, एक तरह जायदाद हैं उनकी। पिता उन्हें खोना नहीं चाहते, यह एक भीतर डर है, जो इस स्थिति में व्यवहार को डाँवाडोल करता है।
क्या करें पिता?
सबसे पहले तो बच्चों के सम्पूर्ण विकास को जानें। स्पष्ट और ठोस संदेश दें। माता और पिता के आपसी संदेशों- संकेतों में भी समानता हो। 'हां' और 'ना' का अर्थ समझाते हुए उसे भावनाओं से खिलवाड़ करने के लिए बढ़ावा न दें। बच्चे के जिद्दी होने और ब्लैक मेल करने में कहीं न कहीं हमारा व्यवहार अपना योगदान करता है।
स्पष्ट संदेश के लिए अपने व्यवहार को एक सरीखा रखें। कथनी व करनी में अन्तर न दिखे बच्चों को।
भावनाओं को समझदारी से निपटाएँ।
बच्चों के साथ संवाद को खुले पक्ष से लें। विचार चर्चा करें। तर्क करें, तर्क सुनें। बच्चों का पक्ष ठीक लगे तो स्वीकारें।
दोस्त बनें, एक अच्छे सलाहकार बनें, पर पिता को भी खोने मत दें।
संपर्क: 97- गुरु नानक ऐवन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर, मो. 09815808506

यात्रा

मिनी तिब्बत का रहस्य लोक
- प्रिया आनंद
निर्वासन की तकलीफ झेलते हुए भी तिब्बतियों ने यहां जो मंगलमय दुनिया बसाई है, वह अद्भुत है। यह शहर दिन प्रतिदिन घना बसता जा रहा है, सड़कें तंग और खराब हैं, पर इन सड़कों के दोनों ओर एक रहस्यमय रंगीन संसार है। सुंदर एंटीक, रंगीन मनकों की माला, ढेरों पारदर्शी नगीने और फेंगशुई के सामान बेचती महिलाएं आपका ध्यान खींच लेंगी
मैकलोडगंज की झिलमिल करती रोशनियां दूर से ही साफ दिखाई देती हैं। धौलाधार के नीले पहाड़ों की गोद में बसा यह छोटा सा शहर अपनी खूबसूरती की वजह से पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। धर्मशाला से थोड़ा ऊपर तिब्बती समुदाय का यह एक ऐसा संसार है, जो अपनी संस्कृति और व्यवहार के कारण ही मिनी तिब्बत कहा जाने लगा है। यहां निर्वासित तिब्बत सरकार के धार्मिक गुरु महामहिम दलाईलामा का निवास है।
मैकलोडगंज का बौद्धमठ नामग्याल मॉनेस्ट्री के नाम से जाना जाता है। यहां की परम शांति, धार्मिक गतिविधियां और संध्या समय जलते हुए असंख्य घृत दीप... पर्यटकों का आकर्षण हैं। धर्मशाला से अगर आप मैकलोडगंज जाते हैं तो इस धरती पर पांव रखते ही आपको पूरा परिदृश्य बदला हुआ नजर आने लगता है।
एक क्षण के लिए सोचना पड़ता है कि हम हिमाचल में हैं या फिर तिब्बत के किसी हिस्से में आ गए हैं। मुख्य चौराहे से सड़कें लिंक रोड की तरह अलग- अलग स्थानों को जाती हैं। इन सड़कों को अच्छा तो नहीं कहा जा सकता, पर इससे यहां आने वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग पैदल ही बौद्ध मंदिर की तरफ चल देते हैं। इनमें ज्यादातर विदेशी पर्यटक होते हैं या फिर बौद्ध मठ के भिक्षु, जो रोज यहां से धर्मशाला अप- डाउन करते हैं। स्थानीय लोगों की आवाजाही भी इस तरफ रहती है, क्योंकि वीकएंड मनाने के लिए इससे अच्छी जगह और कोई नहीं है। जाड़ों या बारिश के मौसम में यह क्षेत्र अकसर घाटी में छाई धुंध के आवरण में ढका रहता है, जहां देवदारों के बीच से होकर गुजरती धुंध मोहक लगती है। कभी खुली धूप हो तो सारा मैकलोडगंज चमकता नजर आता है।
धौलाधार पर्वत की पहाडिय़ों की गोद में बसा यह मिनी तिब्बत विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करता है, यहां हॉलीवुड के सितारे भी आते रहते हैं। हैरत में रह जाते हैं लोग जब अचानक ही बौद्धमठ के परिसर में रिचर्ड गेर दिख जाते हैं। यहां वे हॉलीवुड स्टार नहीं, महामहिम के अनुयायी की हैसियत से आते हैं। दलाईलामा की लोकप्रियता विश्वप्रसिद्ध है। वह निर्वासित हैं, पर संसार में उनका मान सम्मान अप्रतिम है।
वह बीसवीं शताब्दी का वक्त था। जब एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के बहुत सारे देशों को औपनिवेशिकता से मुक्ति मिली, पर यह तिब्बत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पहले व दूसरे विश्व युद्ध के दौरान स्वतंत्र और तटस्थ राष्ट्र होते हुए भी 1949 में तिब्बत की स्वतंत्रता छिन गई। कुल 25 लाख वर्ग किलोमीटर और 65 लाख की जनसंख्या वाला तिब्बत, चीन के कम्युनिस्ट राष्ट्र निर्माण का शिकार हुआ। 1959 में चीनी सेना ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा व दलाईलामा के आवास पर सीधा हमला किया, तब दलाईलामा ने अपने 80,000 शरणार्थियों के साथ भारत में शरण ली। उस समय की नेहरू सरकार ने सभी तिब्बतियों को अतिथि रूप में स्वीकार किया। तिब्बत में 1959 से अब तक 12 लाख के करीब तिब्बती मारे गए हैं तथा वहां के 6 हजार से अधिक मठ, मंदिर साधना केंद्र नष्ट कर दिए गए हैं। इन पवित्र स्थानों में या तो चीनियों के आयुध भंडार हैं या फिर उन्हें शौचालय में परिवर्तित कर दिया गया है।
भारत में ही रह कर दलाईलामा ने विश्व भर में ख्याति अर्जित की और उनकी शांतिप्रियता को देखते हुए ही उनके अनुयायी उन्हें भगवान की तरह ही पूजते हंै। बौद्ध परंपरा के कुछ जानकार यह भी भविष्यवाणी करते हैं कि वर्तमान चौदहवें दलाईलामा के बाद कोई दलाईलामा नहीं होगा। देखें तो यह बात सच भी लगती है। तिब्बत जो अपने ढंग का एक विलक्षण देश रहा है, चीनी हमले के बाद पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। संभवत यह अकेला ऐसा देश था जहां का जन जीवन दैवी प्रेरणाओं से संचालित और नियंत्रित होता था। इस विलक्षणता को यहां के लामाओं ने ही बरकार रखा है। गौरतलब है कि चीन के आक्रमण से पहले तिब्बत रहस्यमय सिद्धों का देश माना जाता था। सामान्य दृष्टिï में दलाईलामा का भारत आना पलायन ही है और कुछ नहीं। इस घटना को उन्होंने खुद भी माइलैंड एंड माइ पीपल में पलायन शीर्षक से दर्ज किया है। परंतु इस सबसे अलग एक सच यह भी है कि दलाईलामा अपने साथ जो आध्यात्मिक विरासत बचा कर ले आए वह भविष्य के लिए मूल्यवान है।
दरअसल दलाईलामा कोई नाम नहीं एक उपाधि है, वैसे ही जैसे कि भारत में महामंडलेश्वर या शंकराचार्य की उपाधि। दलाईलामा का अर्थ है ज्ञान का महासागर। रोचक यह भी है कि पिछले तेरह दलाईलामा इतने चर्चित नहीं हुए जितने कि वर्तमान दलाईलामा हैं। हो सकता है इसका कारण उनके व्यक्तित्व के अलावा परिस्थितियां भी हों। फिर चीन के आक्रमण और उनके निर्वासन के बाद दुनिया भर में दलाईलामा का पक्ष अत्यधिक सहानुभूति के साथ सुना गया। महामहिम का जन्म, तिब्बत के उत्तरपूर्व में तक्सरे नामक गांव में हुआ। उन्होंने स्वयं लिखा है कि मेरे परिवार में दो बहनें और चार भाई थे। आर्थिक रूप से मेरा परिवार विपन्न था, पर अगर मैं अभिजात कुल में जन्मा होता तो निम्नवर्ग की भावनाओं को इतना नहीं समझ सकता था। बचपन में दलाईलामा को सिर्फ आध्यात्मिक शिक्षा ही नहीं दी गई बल्कि उन्हें विधिवत संस्कृति, वैद्यक, तर्क, दर्शन आदि विषयों की शिक्षा दी गई। इसलिए वे कई विषयों की विलक्षण जानकारी रखते हैं।
जहां तक भारत का सवाल है तो भारत ने भले ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर दलाईलामा का साथ न दिया हो पर संरक्षण जरूर दिया। यही नहीं भारतीय जनमानस भी इसे उपकार नहीं सद्भाव की दृष्टि से देखता है। दलाईलामा स्वीकार करते हैं कि चीन की
नीयत कभी ठीक नहीं रही, पर भारत एक विशाल हृदय वाला देश है और यहां बौद्ध धर्म को कोई खतरा नहीं है। वे यह भी मानते हैं कि योग और ध्यान की संपदा में भारत उनका बराबर का भागीदार है। ध्यान के कुछ मामलों में तिब्बत भिक्षुओं को अपने प्रयोगों में अभूतपूर्व सफलता मिली है। पुनर्जन्म के क्षेत्र में लामाओं को जितनी सफलता मिली है और उन्होंने जितने प्रयोग किए हैं, वे आध्यात्म जगत में इलेक्ट्रानिक क्रांति की तरह ही महत्वपूर्ण हैं। दरअसल जो लोग समय के पार देखते हैं जिनके लिए अस्तित्व उतना ही नहीं जितना कि दिखाई देता है, उनके लिए दलाईलामा का काम दुनियावी कामों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। महमहिम की सरलता पहली नजर में एक आम व्यक्ति की छवि देती है, पर उनका ज्ञान और आध्यात्म के क्षेत्र में उनकी पहुंच उन्हें इतिहास का सर्वोच्च दलाईलामा सिद्ध करती है।
मैकलोडगंज तो जैसे विदेशियों का घर ही बन कर रह गया है। प्रति दिन यहां उनका आगमन होता रहता है। संभवत: वे अध्यात्म के बारे में कुछ नया पाने की ललक में यहां आते रहे हैं। क्योंकि वे बौद्ध धर्म को ज्यादा सहज और आसान पाते हैं। कितने ही विदेशी दलाईलामा के अनुयायी बन गए हैं। बौद्ध शिक्षाएं और व्यवहार उनके मस्तिष्क को आराम देते हैं। उन्हें यह शांति का रास्ता नजर आता है। हालीवुड स्टार रिचर्ड गेर दलाईलामा के अनुयायी हैं और वे विश्व में तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए जारी संघर्ष का प्रचार कर रहे हैं। क्या तिब्बती अपने इस अभियान में कामयाब होंगे?
बहरहाल पराई जमीन पर तिब्बती जिस दुख और हताशा से घिर कर रह गए हैं, उससे उन्हें यही लगता है कि इस निराशा का कहीं अंत नहीं है। मैकलोडगंज की शांति अभूतपूर्व है। मंदिर में प्रतिदिन हजारों घी के दीप जलाए जाते हैं। उनकी झिलमिल करती रोशनियां आकर्षक लगती हैं। निर्वासन की तकलीफ झेलते हुए भी तिब्बतियों ने यहां जो मंगलमय दुनिया बसाई है, वह अद्भुत है। यह शहर दिन प्रतिदिन घना बसता जा रहा है, सड़कें तंग और खराब हैं, पर इन सड़कों के दोनों ओर एक रहस्यमय रंगीन संसार है। सुंदर एंटीक, रंगीन मनकों की माला, ढेरों पारदर्शी नगीने और फेंगशुई के सामान बेचती महिलाएं आपका ध्यान खींच लेंगी।
मंदिर के पास ही एक छोटा सा म्यूजियम है, इस बार पांच रुपए का टिकट लेकर मैं भी अंदर गई। यहां चारो ओर दुख, हताशा यातना और पलायन की तस्वीरें हैं। हां, इन सारी तस्वीरों के बीच एक बच्चे की तस्वीर है जो अपने हाथों में दलाईलामा की तस्वीर लिए मुस्करा रहा है। यही रहस्य है तिब्बती समुदाय की अदम्य जिजीविषा का।
दलाईलामा हजारों लोगों की आशा के पुंज हैं, किसी ईश्वरीय अवतार की तरह। संकट से घिरे इन लोगों का एक मात्र आसरा यही चेहरा है। दलाईलामा का कहना है कितिब्बत की सभ्यता संसार की प्राचीन सभ्यताओं में से एक है, इसलिए इसका संरक्षण होना ही चाहिए। अगर यह सभ्यता इस धरती से लुप्त हो जाएगी तो यह दुख की बात होगी। तिब्बतियों का मानना है कि उनका आध्यात्मिक जीवन उनके सांसारिक जीवन से ऊपर है और अगर यह संस्कृति ही मर गई तो उनकी पहचान क्या रह जाएगी। वैसे इस सुंदर संस्कृति का आकर्षण तो है ही, क्योंकि हालीवुड के सितारे अब मैकलोडगंज का रुख करने लगे हैं। मार्शल आर्ट के माहिर जैट ली, गोल्डीहॅान, अभिनेत्री मारियास्त्रिवेर, अर्नाल्डफेहवाज्दन यहां आने वालों में से हैं। कोई भी सोच सकता है कि इन सितारों का दलाईलामा के पास क्या काम? इनमें से कुछ तो दलाईलामा के समीप्य का आनंद लेने आते हैं और कुछ उनके साथ तिब्बत बचाओ अभियान में शामिल हो गए हैं। पर क्या इन सब का प्रयास कभी कामयाब होगा?
जवाब भविष्य के गर्भ में है, पर प्रयास तो जारी हैं। म्यूजियम में एक फिल्म बिना रुके लगातार चलती रहती है, इसमें तिब्बतियों के ऊपर होता चीनी अत्याचार दिखाया गया है। यातनाएं जारी हैं उनके हाथ पीछे बंधे हैं बेरहमी से हत्याएं की जा रही हैं। बीच- बीच में उनके चेहरे आते हैं, जो किसी तरह वहां से बच कर चले आए। ये चेहरे कहते कुछ नहीं, बस उनकी आंखों से पानी ढलक जाता है।
कोई बताएगा, कि यह कौन सी दुनिया है जहां मानवता के आंसू इस तरह बहते हैं। मौत का सीधा साक्षात्कार करते ये शांति के संवाहक।
उस दिन बौद्ध मंदिर में घूमते हुए मेरा दिल जैसे घबरा गया था, मैं मॉनेस्ट्री से बाहर आ गई। काफी दूर निकल जाने के बाद मैंने हाथ में लिया टिकट देखा, लिखा था- यदि आप इनके लिए पूजा के दीप जलाना चाहते हैं तो कृपया इस फार्म को भर दें, आपके नाम पर संग्रहालय में दीप जलाया जाएगा। पूजा के दीप के लिए सिर्फ पांच रुपए। मैंने हाथ में लिए टिकट को निराशा से देखा... मॉनेस्ट्री काफी दूर थी... फिर कभी, मैंने सोचा और टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़ गई।

संपर्क: दिव्य हिमाचल, पुराना मटौर कार्यालय, कांगड़ा पठानकोट मार्ग,
कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश)176001 मो. 09816164058





वाह भई वाह


तूफान

एक मच्छर तूफान में फंस गया। रास्ते में एक बड़ा पेड़ मिला, तो वह उससे लिपट गया। जब तूफान चला गया तो मच्छर पसीना पोंछते हुए बोला, अगर आज मैं नहीं होता तो यह पेड़ गिर जाता!

सायकल

एक साहब सायकल पर जा रहे थे। सायकल के पीछे बैठा उनका बच्चा जोर- जोर से रो रहा था। उसको रोते देख कर एक राहगीर ने कहा- कमाल है आपका बच्चा इतना रो रहा है और आप बेधड़क चलते- चले जा रहे हैं। सायकल सवार ने कहा बच्चे को जबरदस्ती रूलाया गया है क्योंकि सायकल में घंटी नहीं है।

हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं

- के. जयलक्ष्मी
वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार प्रति मनुष्य पर 61 पेड़ थे। इससे यह सवाल उठना लाजमी है कि ऑक्सीजन के लिए हम कितने समय तक संघर्ष कर पाएंगे। यह देखते हुए कि जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है और सड़कों व भवनों के लिए वृक्ष कुर्बान होते जा रहे हैं, वह समय दूर नहीं है जब हम हांफते नजर आएंगे।
शहरों में वृक्षों की कटाई और जंगलों का अंधाधुंध विनाश कर क्या हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार रहे हैं? यह खुदकुशी नहीं तो क्या है? वृक्ष जो लाइफ सपोर्ट सिस्टम बनाते हैं, क्या हमें उसका एहसास है?
एवरग्रीन स्टेट कॉलेज, वॉश्ंिाग्टन की प्रो. नलिनी नाडकर्णी ने अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा खींची गई धरती की तस्वीरों को लिया, वृक्षों के हस्ताक्षरों की व्याख्या की और कुछ सामान्य गणित का इस्तेमाल कर पृथ्वी पर विद्यमान वृक्षों और मनुष्य का अनुपात हासिल किया। उनके अनुमान के अनुसार 2005 में धरती पर 400,246,300,201 (चार खरब चौबीस करोड़ से ज़्यादा) वृक्ष थे। वर्ष 2007 में दुनिया में मनुष्यों की आबादी 6,45,67,89,877 (छह अरब पैंतालीस करोड़ से ज्यादा) थी। इस तरह 2007 में धरती पर प्रति मनुष्य औसतन 61 पेड़ थे। 2010 में इसमें और भी गिरावट आई होगी।
नासा की वेबसाइट एक वृक्ष द्वारा कॉर्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करने व ऑक्सीजन छोडऩे की गणना कर उसे मनुष्य की जरूरत के साथ समायोजित करती है। यह मानते हुए कि प्रत्येक पेड़ एक दिन में 50 ग्राम कॉर्बन डाइऑक्साइड लेता है और बदले में 100 प्रतिशत प्रतिफल देता है तो वह रोजाना औसतन 36.36 ग्राम ऑक्सीजन छोड़ेगा। यह मानते हुए कि एक मनुष्य को प्रतिदिन 630 ग्राम ऑक्सीजन की जरूरत होती है, उसके लिए 17 वृक्षों की आवश्यकता होगी।
वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार प्रति मनुष्य पर 61 पेड़ थे। इससे यह सवाल उठना लाजमी है कि ऑक्सीजन के लिए हम कितने समय तक संघर्ष कर पाएंगे। यह देखते हुए कि जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है और सड़कों व भवनों के लिए वृक्ष कुर्बान होते जा रहे हैं, वह समय दूर नहीं है जब हम हांफते नजर आएंगे।
आइए अब इस बात पर विचार करते हैं कि हम कितनी कॉर्बन डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ते हैं। एक मनुष्य श्वसन द्वारा हर रोज एक किलोग्राम यानी एक साल में 365 किलोग्राम कॉर्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है। इसे संतुलित करने के लिए एक व्यक्ति को 20 वृक्षों की जरूरत होगी। यदि हम एक मनुष्य का औसत जीवनकाल 75 वर्ष मानें तो इसका मतलब होगा कि वह अपनी जिंदगी में करीब 25 टन कॉर्बन डाइऑक्साइड छोड़ेगा। इसी समयावधि में वैश्विक आधार पर इसकी गणना करें तो यह तीन ट्रिलियन टन होगी यानी अभी वातावरण में मौजूद कुल कॉर्बन डाइऑक्साइड से भी ज्यादा।
यूएसडीए फॉरेस्ट सर्विस की गणना के मुताबिक 50 साल की अवधि में एक पेड़ 31,250 डॉलर मूल्य के बराबर ऑक्सीजन पैदा करता है, 62,000 डॉलर मूल्य के बराबर वायु प्रदूषण नियंत्रण मुहैया करवाता है, 37,500 डॉलर मूल्य के बराबर पानी की रिसाइक्ंिलग करता है और 31,250 डॉलर मूल्य के बराबर मिट्टी के क्षरण को रोकता है।
इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए इस खबर पर विचार कीजिए कि 'दुनिया के कॉबर्न सिंक' यानी अमेजन के जंगल 2050 तक आधे कट जाएंगे। ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेशल रिसर्च ने पाया कि 2050 तक अमेजन के जंगलों में 50 फीसदी तक की कमी हो जाएगी। यह ऐसा बिंदु होगा जहां से ये धीरे- धीरे पूरी तरह से नष्ट हो जाएंगे। शोध के अनुसार यदि अमेजन के जंगल खत्म होते हैं तो कभी हरे- भरे वर्षा वनों का एक बड़ा हिस्सा एक तरह से मरुस्थल में तब्दील हो सकता है।
ग्लोगो अमेजोनिया की रिपोर्ट के अनुसार नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेशल रिसर्च के गिल्वैन सैम्पैइओ द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि वनों के कटने और आग से होने वाली तबाही के अलावा आने वाले सालों में अमेजन की वनस्पति पर बढ़ते वैश्विक तापमान का भी असर पड़ेगा। दुनिया में जलवायु को संतुलित बनाने में स्वयं अमेजन के वर्षा वन अहम भूमिका निभाते हैं। ऐसे में वहां की वनस्पति के विनाश की दर धीरे- धीरे बढ़ती जाएगी क्योंकि उन्हें संतुलित करने के लिए बहुत कम जंगल हैं।
तो क्या अमेजन वन खत्म?
जब सूखे की वजह से लगने वाली आग और लगातार वनों की कटाई से अमेजन का आकार घटकर आधा रह जाएगा तो मरुस्थलीकरण धीरे- धीरे पूरे क्षेत्र को ऊष्णकटिबंधी सवाना में बदल देगा। रिपोर्ट का आकलन है कि जंगलों के नष्ट होने के बाद उसके सवाना में बदलने का वह संधि बिंदु 2050 तक आ सकता है।
हालांकि हाल के वर्षों में जंगलों के विनाश को रोकने के लिए ब्राजील ने कई कदम उठाए हैं, लेकिन प्रतिबंधित क्षेत्रों में विकास और पेड़ों की कटाई अमेजन के लिए समस्या बनी हुई है। यह पूरी दुनिया के हित में है कि अमेजन के जंगल अक्षुण्ण बने रहें, लेकिन ब्राजील अथवा इंडोनेशिया के लोगों की विकास की तमन्ना की भरपाई कौन करेगा?
व्यापक पैमाने पर हो रही वनों की कटाई के कारण इंडोनेशिया ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर है। बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जंगलों को साफ करके ताड़ के पेड़ लगाए जा रहे हैं ताकि पॉम ऑयल का उत्पादन किया जा सके। अधिकारियों का कहना है कि केवल अवैध कटाई की वजह से ही एक करोड़ हैक्टर क्षेत्रफल में ऊष्णकटिबंधी वर्षा वन नष्ट हो गए हैं। इसमें तानाशाह सुहार्तो के 32 साल के शासन की भी प्रमुख भूमिका रही है। यह वह समय था, जब इंडोनेशिया के जंगलों को केवल राजस्व का स्रोत समझा जाता था। वर्ष 1998 में सत्ता से बेदखल हुए सुहार्तो ने आधे से भी अधिक जंगलों में कटाई के अधिकार दे दिए थे। यह अधिकार पाने वालों में अधिकांश उनके रिश्तेदार और राजनीतिक सहयोगी थे।
दुनिया के तीसरे सबसे बड़े द्वीप बोर्नियो में 1985 से 2000 के बीच इतने वृक्ष काट डाले गए, जितने दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका में मिलकर भी नहीं कटे होंगे। निचले क्षेत्र के आधे जंगल तबाह हो चुके हैं और अगले दस साल में यह आंकड़ा दो तिहाई तक पहुंच सकता है। गौरतलब है कि धरती पर कॉर्बन डाइऑक्साइड को सोखने में 95 फीसदी भूमिका ऊष्णकटिबंधी वृक्षों की होती है।
एक सरकारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भारत में 1990 में जो कॉर्बन उत्सर्जन 1.6 अरब टन था, वह 2030 में बढ़कर 3.6 अरब टन हो जाएगा। अगर आज के स्तर से इसकी तुलना करें तो यह 57 फीसदी ज्यादा होगा। इंडोनिशया संयुक्त राष्ट्र के वनों के विनाश एवं हानि से उत्सर्जन में कमी कार्यक्रम का समर्थन करता है, लेकिन इसके बदले में उसे मुआवजे का जो प्रस्ताव दिया गया है, वह उससे ज्यादा की मांग कर रहा है।
विकासशील देशों के अधिकांश शहरों में जंगलों का विनाश एकतरफा विकास की अनिवार्य परिणति माना जा रहा है।
वाहनों के आवागमन के लिए सड़कों को चौड़ा करते समय हरित आवरण की अनदेखी कर दी जाती है। उदाहरण के लिए भारतीय शहरों को लिया जा सकता है, जहां पिछले पांच साल में सड़क किनारे के 60 फीसदी से अधिक पेड़ काट दिए गए हैं। नए पौधे लगाने के वादे अक्सर पूरे नहीं किए जाते और अगर नए पौधे लगा भी दिए जाते हैं तो बाद में उनकी देखरेख नहीं की जाती। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश शहरों में न केवल तापमान में बढ़ोतरी हुई है, बल्कि कॉर्बन उत्सर्जन भी बढ़ा है। कॉर्बन डाइऑक्साइड के साथ संतुलन स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण पहलू वृक्ष की उम्र का भी है। एक अधिक उम्र का पेड़ अपेक्षाकृत नए पेड़ की तुलना में कहीं अधिक ग्रीनहाउस गैस सोखेगा। दुर्भाग्य से हममें से कोई भी तब तक शिकायत नहीं करेगा जब तक कि हम अपनी वातानुकूलित कारों में सनसनाते हुए निकलते रहेंगे।
उत्सर्जन
वर्ष 1990 में पूरी दुनिया में कॉर्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 21.5 अरब टन था। यह वह वर्ष है जिसे अधिकांश गाइडलाइनों में बेसलाइन वर्ष माना जाता है। इस वर्ष यह उम्मीद की गई थी कि वर्ष 2050 तक इस उत्सर्जन में 80 फीसदी की कमी होनी चाहिए। लेकिन आज उत्सर्जन करीब 30 अरब टन है। वर्ष 2010 से 2050 तक कॉर्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती की सीधी गणना करें तो हमें 2025 तक यह आंकड़ा 20 अरब टन या उससे नीचे लाना होगा। लेकिन मौजूदा रुझान बताता है कि हम इस आंकड़े को आसानी से पार कर लेंगे। यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अमेजन के वन आधे नष्ट हो जाते हैं, तो इसका मतलब यही होगा कि हवा में कॉर्बन डाईऑक्साइड की मात्रा और भी अधिक होगी। कॉर्बन में बढ़ोतरी का वृक्षों पर क्या असर पड़ेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है। याद रखिए, वृक्ष हर उस कॉर्बन को हजम नहीं कर सकते जो वातावरण में छोड़ी जा रही है। वे केवल उतने ही कॉर्बन का इस्तेमाल करेंगे जितनी कि उन्हें जरूरत है। अब इस बात पर सर्वसम्मति बनती जा रही है कि वृक्षों पर वातावरणीय कॉर्बन डाइऑक्साइड के असर से वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी रेडियोएक्टिव प्रभाव से होने वाले वैश्विक तापमान से कहीं अधिक होगी। हवा में जरूरत से अधिक कॉर्बन डाइऑक्साइड से पौधों की पत्तियों के छिद्र बंद हो जाते हैं। इसका नतीजा वाष्पन-उत्सर्जन में कमी के रूप में सामने आता है।
स्टैनफोर्ड स्थित कैल्डेरा प्रयोगशाला पौधों पर कॉर्बन डाइऑक्साइड के असर के कारण तापमान में हुई बढ़ोतरी के प्रतिशत की बात करती है। कॉर्बन डाइऑक्साइड गैस चूंकि ग्रीनहाउस गैस है, इसलिए यह धरती को गर्म करती है। हालांकि साथ ही इसकी वजह से पौधों में वाष्पन की प्रक्रिया, जो वातावरण को ठंडा रखती है, कम होती जाती है। केल्डेरा का अध्ययन बताता है कि कुछ स्थानों पर गर्मी में 25 फीसदी का इजाफा इसलिए हुआ क्योंकि पौधों के वाष्पन की प्रक्रिया घट गई है।
इस तरह के अध्ययन बताते हैं कि हम अपनी जैव प्रणाली के संचालन की जटिलताओं को कितना कम समझते हैं। पेड़ जल प्रबंधन में भी अहम भूमिका निभाते हैं। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि किसी क्षेत्र में होने वाली बारिश से वृक्षों का कितना प्रत्यक्ष सम्बंध जोड़ा जा सकता है, लेकिन आम तौर पर देखने में आता है कि हरे- भरे इलाकों में अपेक्षाकृत अधिक वर्षा होती है। वृक्ष मिट्टी में पानी को बनाए रखने और भूजल को रिचार्ज करने में भी मददगार होते हैं। तो एक बात तय है। यदि हम जंगलों का विनाश इसी गति से करते रहे तो हम एक मददगार प्रणाली को खत्म कर देंगे।
(स्रोत फीचर्स)

हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तानी बनो

हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तानी बनो
- शास्त्री जे.सी. फिलिप
कई दशाब्दियों से रेलगाड़ी यात्रा मेरे लिये जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। इन यात्राओं के दौरान कई खट्टे- मीठे अनुभव हुए हैं, जिनमें मीठे अनुभव बहुत अधिक हैं। इसके साथ- साथ कई विचित्र बाते देखने मिलती हैं जिनको देखकर अफसोस होता है कि लोग किस तरह से विरोधाभासों को पहचान नहीं पाते हैं।
उदाहरण के लिये निम्न प्रस्ताव को ले लीजिये: बी इंडियन, बाई इंडियन। यह प्रस्ताव अंग्रेजी में या हिन्दी में अकसर दिख जाता है। अब सवाल यह है कि इसे सीधे सीधे भारतीय अनुवाद में क्यों नहीं दे दिया जाता है। 'हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तानी बनो' (जो इस अंग्रेजी वाक्य का भावार्थ है) हिन्दी में कहने में हमें तकलीफ क्यों होती है। हिन्दुस्तानियों को हिन्दुस्तानी बनाने के लिये एक विलायती भाषा की जरूरत क्यों पड़ती हैं?
दूसरी ओर, जब 'बी इंडियन, बाई इंडियन' लिखा दिखता है तो कोफ्त होती है कि यह किसके लिये लिखा गया है? अंग्रेजीदां लोग तो इसे पढऩे से रहे क्योंकि उनकी नजर में तो हिन्दी केवल नौकरों, गुलामों की भाषा है। आम हिन्दी भाषी जब इसे पढ़ता है तो उसके लिये इसका भावार्थ समझना आसान नहीं है। उसे लगता है कि यहां खरीद- फरोख्त की बात (बाई Buy) हो रही है।
जरा अपने आस- पास नजर डालें। कितने विरोधाभास हैं इस तरह के। कम से कम दो- चार को सही करने की कोशिश करें।

(सारथी से)

पुकारे बादल को

पुकारे बादल को- कमला निखुर्पा

1
मन के मेघ
उमड़े है अपार
नेह बौछार।
2
छलक उठे
दोनों नैनों के ताल
मन बेहाल।
3
छूने किनारा
चली भाव- लहर
भीगा अन्तर
4
टूटा रे बाँध
कगार- बंध टूटे
निर्झर फूटे।
5
फूटे अंकुर
मन- मधुबन में
तू जीवन में।
6
खिली रे कली
चटख शोख रंग
महकी गली।
7
कटे जंगल
गँवार बेदखल
उगे महल।
8
ऊँचे महल
चरणों में पड़ी है
टूटी झोपड़ी।
9
रोई कुदाल
हल- बैल चिल्लाए
खेत गँवाए।
10
मन गुलाब
खिलता रहे यूं ही
कंटकों में भी
11
कस्तूरी- तन
दौड़े मन हिरन
जग- कानन।
12
आधुनिकता
बाहर घुला- मिला
घर में तनहा।
13
संदेश तेरा
अमृत की बूँद- सा
परदेस में।
14
मन का सीप
पुकारे बादल को
मोती बरसा।

लेखक के बारे में:
कविता, कहानी, लघुकथा, नाटक एवं संस्मरण का
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशन।
संप्रति: हिन्दी -प्रवक्ता, केन्द्रीय विद्यालय वन अनुसंधान केन्द्र,
देहरादून (उत्तराखण्ड)
Email- kamlanikhurpa@gmail.com
मो. 09410978794

वह क्षण

वह क्षण
- जैनेन्द्र कुमार
अगर तुम्हारा निश्चय हो कि व्यवसाय में नहीं जाना है तो मैं इस काम- धाम को उठा दूं। अभी तो दाम अच्छे खड़े हो जाएंगे। नहीं तो मेरी सलाह यही है कि बैठो, पुश्तैनी काम संभालो, घर- गिरस्ती बसाओ।
पैसा पात्र- कुपात्र नहीं देखता। क्या यह सच है?
राजीव ने यह पूछा। वह आदर्शवादी था और एम.ए. और लॉ करने के बाद अब आगे बढऩा चाहता था। आगे बढऩे का मतलब उसके मन में यह नहीं था कि वह घर के कामकाज को हाथ में लेगा। घर पर कपड़े का काम था। उसके पिता, जो खुद पढ़े लिखे थे, सोचते थे कि राजीव सब संभाल लेगा और उन्हें अवकाश मिलेगा। घर के धंधे पीटने में ही उमर हो गई है। चौथापन आ चला है और वह यह देखकर व्यग्र हैं कि आगे के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया है। इस लोक से एक दिन चल देना है यह उन्हें अब बार- बार याद आता है। लेकिन उस यात्रा की क्या तैयारी है? सोचते हैं और उन्हें बड़ी उलझन मालूम होती है। लेकिन जिस पर आस बंधी थी वह राजीव अपनी धुन का लड़का है। जैसे उसे परिवार से लेना- देना ही नहीं। ऊंचे ख्यालों में रहता है, जैसे महल ख्याल से बन जाते हों।
राजीव के प्रश्न पर उन्हें अच्छा मालूम हुआ। जैसे प्रश्न में उनकी आलोचना हो। बोले- 'नहीं, धन सुपात्र में ही आता है। अपात्र में आता नहीं है पर, आये तो वहां ठहरता नहीं। राजीव, तुम करना क्या चाहते हो?'
राजीव ने कहा- 'आपके पास धन है। सच कहिये, आप प्रसन्न हैं?'
पिता ने तनिक चुप रहकर कहा- 'धन के बिना प्रसन्नता आ जाती है, ऐसा तुम सोचते हो तो गलत सोचते हो। तुममें लगन है। सृजन की चाह है। कुछ तुम कर जाना चाहते हो। क्या इसीलिए नहीं कि अपने अस्तित्व की तरफ से पहले निश्चित हो। घर है, ठौर ठिकाना है। जो चाहो कर सकते हो। क्योंकि खर्च का सुभीता है। पैसे को तुच्छ समझ सकते हो, क्योंकि वह है। मैं तुमसे कहता हूं राजीव कि पैसे के अभाव में सब गिर जाते हैं। तुमने नहीं जाना, लेकिन मैंने उस अभाव को जाना है। तुमने पूछा है और मैं कहता हूं कि हां, मैं प्रसन्न नहीं हूं। लेकिन धन के बिना प्रसन्न होने का मेरे पास और भी कारण न रहता। तुम्हारी आयु तेईस वर्ष पार कर गई है। विवाह के बारे में इंकार करते गये हो। हम लोगों को यहां ज्यादा दिन नहीं बैठे रहना है। तब इस सबका क्या होगा। बेटियां पराये घर की होती हैं। एक तुम्हारी छोटी बहन है, उसका भी ब्याह हो जाएगा। लड़के एक तुम हो। सोचना तुम्हें है कि फिर इस सबका क्या होगा। अगर तुम्हारा निश्चय हो कि व्यवसाय में नहीं जाना है तो मैं इस काम- धाम को उठा दूं। अभी तो दाम अच्छे खड़े हो जाएंगे। नहीं तो मेरी सलाह यही है कि बैठो, पुश्तैनी काम संभालो, घर- गिरस्ती बसाओ और हमको अब परलोक की तैयारी में लगने दो। सच पूछो तो अवस्था हमारी है कि देखें जिसे धन कहते हैं वह मिट्टी है। पर तुममें आकांक्षा है। चाहे उन्हें महत्वाकांक्षी कहो। महत्व की हो या कैसी भी हो, आकांक्षा के कारण धन- धन बनता है। इसलिए तुमको घर से विमुख मैं नहीं देखना चाहता। विमुख मैं स्वयं अवश्य बनना चाहता हूं क्योंकि आकांक्षा अब शरीर के वृद्ध पड़ते जाने के साथ हमें त्रास ही दे सकेगी। आकांक्षा इसी से अवस्था के आने पर बुझ सी जाती है। तुमको आकांक्षाओं सेभरा देखकर मुझे खुशी होती है। अपने में उनके बीज देखता हूं तो डर होता है, क्योंकि उमर बीतने पर जिधर जाना है उधर की सम्मुखता मुझमें समय पर न आएगी तो मृत्यु मेरे लिए भयंकर हो जाएगी। तुम्हारे लिए आगे जीवन का विस्तार है मुझे उसका उपसंहार करना है और तैयारी मृत्यु की करनी है। संसार असार है, यह तुम नहीं कह सकते। हां, मैं यदि वहां सार देखूं तो अवश्य गलत होगा। तुम समझते हो। कहो, क्या सोचते हो।
राजीव पिता का आदर करता था। वह चुपचाप सुनता रहा। पिता की वाणी में स्नेह था, पीड़ा थी, उसमें अनुभव था। लेकिन जितने ही अधिक ध्यान से और विनय से पिता की बात को उसने सुना, उसके मन से अपने सपने दूर नहीं हुए। अनुभव अतीत से संबंध रखता है। वह जैसे उसके लिए था ही नहीं। वह जानता था कि कमाई का चक्कर आने वाले कुछ वर्षों में खत्म हो जाने वाला है। यह बुर्जुआ समाज आगे रहने वाला नहीं। समाजवादी समाज होगा जहां अपने अस्तित्व की भाषा में सोचने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। आप सामाजिक होने और समाज स्वत: आपका वहन करेगा। आपका योग-क्षेम आपकी अपनी चिंता का विषय ना होगा। राजीव पिता की बात सुनते हुए भी देख रहा था कि धनोपार्जन जिनका चिंतन सर्वस्व है, ऐसा वर्ग क्रमश: मान्यता से गिरता जा रहा है। कल करोड़ो में जो खेलता था आज चार सौ रुपए पाने वाले मजिस्ट्रेट के हाथों जेल भेज दिया जाता है। वह वर्ग शोषक है, आसामाजिक है। इसके अस्तित्व का आधार है कम दो, ज्यादा लो। हर किसी के काम आओ, इस शर्त के साथ कि अधिक उससे अपना काम निकाल लो। यह सिद्धांत सभ्यता का नहीं है, स्वार्थ का है, पाप का है। इस पर पलने- पूसने वाले वर्ग को समाज कब तक सहता रह सकता है? असल में यह घुन है जो समाज के शरीर को खाकर उसे खोखला करता रहता है। उस वर्ग की खुद की सफलता समाज के व्यापक हित को कीमत देने में होती है। यह ढोंग अब ज्यादा नहीं चल सकता है। इस वर्ग को मिटाना होगा और फिर समाज वह होगा जहां हर कोई अपना हित निछावर करेगा, फुलाए और फैलाएगा नहीं। स्थापित स्वार्थ, संयुक्त परिवार, जाति का, सब लुप्त हो जाएगा। स्वार्थ एक होगा और वह परमार्थ होगा। हित एक होगा और वह सबका हित होगा।
पिता की बात सुन रहा था और राजीव का तन इन विचारों के लोक में रमा हुआ था। पिता की बात पूरी हुई तो सहसा वह कुछ समझा नहीं, कुछ देर चुप ही बना रह गया। कारण बात की संगति उसे नहीं मिल रही थी।
पिता ने अनुभव किया कि बेटा वहां नहीं, कहीं और है। उन्हें सहानुभूति हुई और वह भी चुप रहे। राजीव ने उस चुप्पी का असमंजस्य अनुभव किया। हठात बोला- 'तो आप मानते है कुपात्र के पास धन नहीं होगा। फिर इंजील में यह क्यों है कि कुछ भी हो जाए धनिक का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं हो सकता। उससे तो साबित होता है कि धन कुपात्र के पास ही हो सकता है।'
पिता की ऐसी बातों पर रोष आ सकता था पर इस बार वह गंभीर हो गए। मंद वाणी में बोले- 'ईसा की वाणी पवित्र है, यथार्थ है। वह तुम्हारे मन में उतरी है तो मैं तुमको बधाई देता हूं और फिर मुझे आगे नहीं कहना है।'
राजीव को तर्क चाहिए था। बोला- 'आप तो कहते थे कि...। '
पिता और आर्द्र हो आए, बोले - 'मैं गलत कहता था। परम सत्य वह ही है जो बाइबिल में है। भगवान तुम्हारा भला करें।' कहकर वह उठे और भीतर चले गए। राजीव विमूढ़ सा बैठा रह गया। उसकी कुछ समझ में ना आया। जाते समय पिता की मुद्रा में विरोध या प्रतिरोध ना था। उसने सोचा कि मेरे आग्रह में क्या इतना बल भी नहीं है कि प्रत्याग्रह उत्पन्न करें? या बल इतना है कि उसका सामना हो नहीं सकता। उसे लगा कि वह जीता है। लेकिन जीत में स्वाद उसे बिल्कुल नहीं आया। वह आशा कर रहा था कि पैसे की गरिमा और महिमा सामने से आएगी और वह उसको चकनाचूर कर देगा। उसके पास प्रखर तर्क थे और प्रबल ज्ञान था। उसके पास निष्ठा थी और उसे सवर्था प्रत्यक्ष था कि समाजवादी व्यवस्था अनिवार्य और अप्रतिरोध्य होगी। पूंजी की संस्था कुछ दिनों की है और वह विभीषिका अब शीघ्र समाप्त हो जाने वाली है। उसको समाप्त करने का दायित्व उठाने वाले बलिदानी युवकों में वह अपने को गिनता था। वह यह भी जानता था कि नगर के मान्य व्यवसायी की पुत्र होने के नाते उसका यह रूप और भी महिमान्वित हो जाता है। उसे अपने इस रूप में रस और गौरव था। वह निश्शंक था कि भवितव्यता को अपने पुरुषार्थ से वर्तमान पर उतारने वाले योद्धाओं की पंक्ति में वह सम्मिलित है। उसमें निश्चित धन्यता का भाव था कि वह क्रांति का अनन्य सेवक बना है। वह तन- मन के साथ धन से भी उस युग निर्माण के कार्य में पढ़ा था और उसकी वर्चस्व की प्रतिष्ठा थी। मानो उस अनुष्ठान का वह अध्वर्यु था।
लेकिन पिता जब संतोष और समाधान के साथ अपनी हार को अपनाते हुए उसकी उपस्थिति से चुपचाप चले गए तो राजीव को अजब लगा। मानो कि उसका योद्धा का रूप स्वयं उसके निकट व्यर्थ हुआ जा रहा हो। उसका जी हुआ कि आगे बढ़कर कहे कि सुनिए तो सही, पर वह स्वयं न सोच सका कि सुनाना अब उसे शेष क्या है। पिता उसे स्वस्ति कह गए हैं, मानो आशीर्वाद और अनुमति दे गए हों। पर यह सहज सिद्धी उसे काटती सी लगी। वह कुछ देर अपनी जगह ही बैठा रहा। तुमुल द्वंद्व उसके भीतर मचा और वह कुछ निश्चय न कर सका।
चौबीस घंटे राजीव मतिभूला- सा रहा। अगले दिन उसने पिता से जाकर कहा - 'आज्ञा हो तो मैं कल से कोठी पर जाकर काम देखने लग जाऊं।'
पिता ने कहा- 'क्यों बेटा?'
'जी, और कुछ समझ नहीं आता।'
पिता ने कहा- 'तुमने अर्थशास्त्र पढ़ा है। मैंने अर्थ पैदा किया है, शास्त्र उसका नहीं पढ़ा। शास्त्र धर्म का पढ़ा है। ईसा की बात इस शास्त्र की ही बात है। अर्थशास्त्र भी वही कहता है तुम जानो। मैं बीए से आगे तो गया ही नहीं और अर्थशास्त्र की बारहखड़ी से आगे जाना नहीं। फिर भी वहां शायद मानते हैं कि अर्थ काम्य है। राजीव बेटा, धर्म ने उसे काम्य नहीं माना है। इसलिए उसकी निंदा भी नहीं है, उस पर करूणा है। तुम शायद मानते होगे, जैसे कि और लोग मानते हैं कि तुम्हारा पिता सफल आदमी है। वह सही नहीं है। ईसा की बात जो कल तुमने कही बहुत ठीक है। मैं उसको सदा ध्यान में नहीं रख सका। तुमसे कहता हूं कि निर्णय तुम्हारा है। निर्णय यही करते हो कि कोठी के काम को संभालो तो मुझे उसमें भी कुछ नहीं है। तुम्हारी आत्मा तुम्हारे साथ रहेगी। मैं तो उसे सांत्वना देने पहुंच सकंूगा नहीं। उसके समक्ष तुम्हें स्वयं ही रहना है इसलिए मैं तुम्हारी स्वतंत्रता पर आरोप नहीं लगा सकता हूं। पर बेटे, मैं भूल रहा तो भूल रहा, धर्म की ओर इंजील की बात को तुम कभी मत भूलना। इतना ही कह सकता हूं। समाजवादी हो, साम्यवादी हो, पूंजीवादी हो, व्यवस्था कुछ भी हो, धर्म के शब्द का सार कभी खत्म नहीं होता। न वह शब्द कभी मिथ्या पड़ता है। उसे मन से भूलोगे नहीं तो शायद कहीं से तुम्हारा अहित नहीं होगा। हो सकता है समाज का भी अहित न हो। राजीव, बहुत दिनों से सोचता रहा हूं। अब पूछता हूं कि हम लोग दोनों, तुम्हारी मां और मैं, अब जा सकते हैं कि नहीं। अपनी बहन सरोज के विवाह को तो ठीक- ठाक तुम कर ही दोगे।'

जैनेन्द्र कुमार की कहानी कला
जैनेन्द्र कुमार प्रेमचंद युग के महत्वपूर्ण कथाकार माने जाते हैं। उनकी प्रतिभा को प्रेमचंद ने भरपूर मान दिया। वे समकालीन दौर में प्रेमचंद के निकटतम सहयात्रियों में से एक थे मगर दोनों का व्यक्तित्व जुदा था। प्रेमचंद लगातार विकास करते हुए अंतत: महाजनी सभ्यता के घिनौने चेहरे से पर्दा हटाने में पूरी शक्ति लगाते हुए 'कफन' जैसी कहानी और किसान से मजदूर बनकर रह गए। होरी के जीवन की महागाथा गोदान लिखकर विदा हुए। जैनेन्द्र ने जवानी के दिनों में जिस वैचारिक पीठिका पर खड़े होकर रचनाओं का सृजन किया जीवन भर उसी से टिके रहकर मनोविज्ञान, धर्म, ईश्वर, इहलोक, परलोक पर गहन चिंतन करते रहे। समय और हम उनकी वैचारिक किताब है।
प्रेमचंद के अंतिम दिनों में जैनेन्द्र ने अपनी आस्था पर जोर देते हुए उनसे पूछा था कि अब ईश्वर के बारे में क्या सोचते हैं। प्रेमचंद ने दुनिया से विदाई के अवसर पर भी तब जवाब दिया था कि इस बदहाल दुनिया में ईश्वर है ऐसा तो मुझे भी नहीं लगता। वे अंतिम समय में भी अपनी वैचारिक दृढ़ता बरकरार रख सके यह देखकर जैनेन्द्र बेहद प्रभावित हुए। वामपंथी विचारधारा से जुड़े लेखकों के वर्चस्व को महसूस करते हुए जैनेन्द्र जी कलावाद का झंडा बुलंद करते हुए अपनी ठसक के साथ समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर अलग नजर आते थे। गहरी मित्रता के बावजूद प्रेमचंद और जैनेन्द्र एक दूसरे के विचारों में भिन्नता का भरपूर सम्मान करते रहे और साथ- साथ चले।
प्रस्तुत कहानी जैनेन्द्र की विशिष्ट कहानी है जिसमें उनकी विशिष्ट कला हम देख पाते हैं। प्राय: कथा के माध्यम से जैनेन्द्र अपनी विचारधारा का जिस तरह प्रचार करते थे उसे हम इस कहानी में बखूबी समझ सकते हैं। हिन्दी के इतिहास निर्माता कथाकारों की पीढ़ी के कहानीकारों में बेहद महत्वपूर्ण रचानाकार जैनेन्द्र की कहानी 'वह क्षण' प्रस्तुत है। आशा है आप पसंद करेंगे।
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा, एलआईजी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाईनगर 490009, मो. 9827993494