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Jul 12, 2011

अन्ना के नाम एक पत्र

- के. पी. सक्सेना 'दूसरे'
हम तो बस इतना ही कयास लगा पाये कि यह देश में व्याप्त भ्रष्टाचार नामक 'दानव' को खत्म कर देने वाला शायद वह 'तोता' है जिसमें दानव अपनी जान छुपाकर आम, निरीह और निर्दोष लोगों पर अत्याचार किया करता था। नानी तो ये भी बताती थीं कि राजकुमार को उस तोता तक पहुंचने में लोहे के चने चबाना पड़े थे तो अन्ना जी वो तो आपने चबाना शुरु ही कर दिया दिखता है।
श्रद्धेय अन्ना जी,
यह बधाई पत्र आपको देर से मिले तो बुरा मानने का नई। अब लिखना तो मैं उसी दिन चालू कर दिया था जिस दिन आपका 97वें वा घंटा होने के पूर्व सरकार ने आपकी बात सैद्धांतिक तौर पर मानकर नींबू पानी लेने को बोल दिया था- लेकिन करता क्या। जब भी लेटर पोस्ट करने को होता रास्ते में लोग क्या तो भी बता देते कि कुछ जोडऩा कुछ काटना पड़ जाता।
अब रैली में हमारे सीनियर सिटीजंस साथी, खासतौर से मेरे शहर के 'धरना स्थल' पर इसलिए गए थे कि वे भी पहचान तो लें अपने शहर की उन ईमानदार छुपी हुई छवियों को जो आपके समर्थन में धरने में बैठे थे क्योंकि अगर लोकपाल बिल आ गया तो कल को काम तो उन्हीं से कराना पड़ेगा। लेकिन अन्ना। आपने राजनीतिक पार्टियों को बहिष्कृत रख के ठीक नई किया। अब न तो मंच में बैठे लोगों को प्रैक्टिस थी भाषणबाजी की और न ही सामने खड़ी भीड़ से कोई साहस कर पा रहा था। और सामने वाले साहस करते भी कैसे। जनता, तो सिर्फ सुनने और ताली बजाने की अभ्यस्त थी। तो धरना स्थल उसी तरह नीरस होने लगा था, (आखिर लोग कब तक उन्हीं घिसे पिटे चेहरों को देखते रहते) जैसे बिना शीला की जवानी की रिकार्ड बजे- कोई उत्सव।
सभी किसी चमत्कार की आशा कर रहे थे ठीक उसी तरह जैसे कम्प्यूटर में बटन दबाते ही आपकी मनचाही साइट खुल जाती है। अब इतना तो प्राय: सभी समझने लगे थे कि ये जन लोकपाल बिल कुछ हट के है और कुछ कर गुजरेगा। लेकिन हम तो बस इतना ही कयास लगा पाये कि यह देश में व्याप्त भ्रष्टाचार नामक 'दानव' को खत्म कर देने वाला शायद वह 'तोता' है जिसमें दानव अपनी जान छुपाकर आम, निरीह और निर्दोष लोगों पर अत्याचार किया करता था। नानी तो ये भी बताती थीं कि राजकुमार को उस तोता तक पहुंचने में लोहे के चने चबाने पड़े थे तो अन्ना जी वो तो आपने चबाना शुरु ही कर दिया दिखता है।
मेरी बगल में खड़े एक बुजुर्ग, जिससे यह तसल्ली कर लेना चाहते थे कि अब कल- परसों तक उनकी उस पेंशन का निर्धारण तो हो जाएगा ना- जो टे्रजरी आफिस में दो साल से लंबित है, वो शख्स खुद अपना राशनकार्ड बनवाने के लिए तीसरी बार शपथपत्र और फोटो लिए फूड इंस्पेक्टर को तलाशता खड़ा था। मैं उनके पास से हट गया- मुझे भी घर के नल- कनेक्शन की याद आ गयी जो मुंसपल ऑफिस में इसलिए रूका पड़ा था कि अधिकारी और ठेकेदार के बीच लम्बी अनबन चल रही थी।
वहां से मैं अगले पंडाल की ओर बढ़ा जहां एक मजदूर टाइप का इंसान किसान टाइप के इंसान से पूछ रहा था -
'दाऊ, क्या सच्ची अब हमें सरकारी रेट से मजदूरी मिलेगी? मेरे बेटे को बड़े स्कूल में भर्ती कर लेंगे? राशन दुकान रोज खुलेंगी? तुम्हें बीज, खाद और पानी समय में मिलेगा? तुम अब तो घर के लोगों को अनाथ बनाने के लिए अपने चाचा की तरह पेड़ पर नहीं लटकोगे?'
इसके पहले कि अगला कुछ बोलता, एक बिना छाप (ब्रांड) के उभरते नेता जो अपनी उपस्थिति, बगैर यह परवाह किए कि आयोजन किस पार्टी का है और प्रयोजन क्या है, बोल उठे-
'अरे तुम लोग ये क्या छोटी- छोटी बातें करने लगे। यह राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन है इसमें मंत्री, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश, उद्योगपति-कम नेता जैसी देश की महान हस्तियों का भविष्य दांव पर लगा है- और तुम्हें नून- तेल की पड़ी है।'
'तो फिर वो सरदार जी जिनके एक ही नंबर के दो ट्रक मिले हैं... वो मित्तल जी जिनके कारखाने में मिलावटी घी पकड़ा गया... वो शर्मा जी जिनकी गोदाम में आरपीएफ ने रेलवे माल जब्त किया और वो अग्रवाल जी जिनके लॉकर में बेहिसाब करेंसी नोट निकले, मंच के पास क्या कर रहे हैं।' एक नौजवान बोल उठा।
'अरे वो सब भ्रष्टाचार से त्रस्त है।' छुटभइया नेता बोला।
'कैसे?' सहसा मेरे मुंह से निकला।
'देखो वो जो ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन के कर्ताधर्ता बैठे हैं उनका कहना है कि नाकों में बड़ा अनाप- शनाप पैसा वसूला जाता है। ड्रायवर पांच हजार खर्चा लेता है दिल्ली का, जबकि सरकारी पर्ची मुश्किल से डेढ़ दो हजार की कटती है। ये भ्रष्टाचार बंद होना चाहिए कि नहीं।'
'वो तो ठीक है लेकिन सुना है कि ये पासिंग से दुगुना तिगना माल भी तो भरते हैं।' एक जानकार ने अपना ज्ञान बघारा।
'तो क्या हुआ? उसका पैसा तो अलग से देते ही हैं। पर कुछ रेट तो होना चाहिए- एक दम मनमानी।' ये शायद कोई दु:खी ट्रांसपोर्टर था जिसकी पहुंच मंच तक नहीं हो पायी थी।
'रेट कैसे वाजिब हो... वहां की पोस्टिंग क्या बिना गांठ ढीली किए हो जाती है... बोली लगती है चेक पोस्ट की।' नेता ने झिड़का।
बातों की दिशा कुछ ज्यादा ही स्तरीय होती जा रही थी सो मैंने वहां से खिसक लेना ही उचित समझा। अगले दिन फिर जब पत्र रिराइट कर रहा था तो पता चला कि समिति बनाने में ही लोचा आ गया। कोई कहता है अध्यक्ष हमारा हो, कोई वंशवाद पर आपित्त कर रहा है, किसी को अल्प संख्यक तो किसी को दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व समानुपात में चाहिए। अब मेरी पत्नी भी महिला प्रतिनिधि की वकालत करने लगी। मैंने कहा किरण बेदी तो हैं। तो कहने लगी - 'वो महिलाओं की प्रतिनिधि नहीं, उपेक्षित शासकीय अधिकारियों/ कर्मचारियों की प्रतिनिधि हैं। हमारी तरफ से तो कोई ऐसी गृहणी ही होना चाहिए जिसे आटे- दाल का भाव मालूम हो।'
मैंने कहा संसद में तो तुम्हारी सुनता नहीं जहां इतनी दमदार महिलाएं बैठी हैं- अब यहां कौन तीस मार खां आ जाएगा? अभी समिति, संविधान सम्मत है कि नहीं इसी बात को लेकर कोई कोर्ट चला गया तो जो तारीख दी हुई है मानसून सत्र में बिल पारित होने की, कैसे निभ पाएगी?
लो। अभी टीवी चलाया तो यही खबर मिली की न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जाने वाला है। चैनल वाला बस स्टैंड में खड़ा आम जनता के विचार पूछ रहा था। एक सज्जन जो ऑटो रिक्शा से उतरकर मीटर से भाड़ा लेने की जिद कर रहे थे ड्रायवर को लोकपाल बिल की धमकी देकर ज्योंही आगे बढ़े, एंकरर ने माइक्रोफोन उनके आगे करके पूछा- 'सर। इस जन लोकपाल बिल से क्या वाकई राम राज्य आने के संकेत मिल रहे हैं?'
'हां। अब हमें किसी भी काम के लिए निर्धारित दर से कम या अधिक पैसा नहीं लेना- देना पड़ेगा। इतने वर्षों से ये जो लोग नीचे से रूपया ले कर ऊपर जा बैठे हैं उनकी टेंट से सब ब्याज सहित वसूला जाएगा। और ये धन इतना अधिक होगा कि न केवल देश का कर्जा उतर जाएगा- सारी लंबित योजनाएं बिना किसी अड़चन या कर्ज के पूरी हो जाएंगी।' यह कोई आशावादी गांधी युग का शिक्षक या स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लगता था।
चैनल वाले ने अपने मतलब का उत्तर पाकर माइक्रोफोन एक खूबसूरत महिला की ओर बढ़ा दिया हालांकि ऑटो वाला ड्रायवर भी कुछ कहने को उतावला हो रहा था।
...तो अन्ना। यही सब कारण हैं कि पत्र अभी तक भेज नहीं पाया और शायद जल्दी भेज भी न पाऊं क्योंकि बाबा रामदेव जी वाला एपिसोड सीरियल के बीच विज्ञापन की तरह आ गया।
अब बाबा रामदेव के पास तो सबका बहीखाता रखा हुआ दिखता है। मुझे तो लगता है जरूरत होने पर डिपोजिटर भी उन्हीं से बैलेंस पूछता होगा क्योंकि वो खुद तो रिकार्ड में कुछ रख सकता नहीं। अब ये बात अलग है कि कुछ सिरफिरे बाबा से ही पूछना चाहते हैं कि बाबा 10 साल पहले तक जब आपके पास सायकल सुधरवाने के लिए पैसे नहीं हुआ करते थे अब इस अल्पकाल में विस्तारित सल्तनत का कुछ हिसाब किताब आपने भी रखा है कि नहीं। क्योंकि जनता तो जनता है। वो तो बस पीछे ही चलना जानती है उसके आगे कोई भी हो। और हां। नजर पैनी ही रखती है कि किसी आयोजन के पीछे प्रायोजक कौन है क्योंकि उसने आपके दरबार में भी सुदामा से अधिक भामाशाह पूजे जाते देखे हैं।
अरे... मैं कहां बाबाजी की तरफ बढ़ गया। अन्नाजी मैं तो बस इतना ही कहना चाहूं कि जब गांधीजी ने देश को आजादी दिलायी तो हमारी पीढ़ी का बचपन था। हम बिना कुछ जाने समझे हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को पूरे जोश से आजादी के गीत गाते हुए प्रभात फेरी करते थे और लड्डू खाते खुशी- खुशी घर चले आते थे। जब कुछ बड़े हुए... सुनने समझने की बुद्धि आई तो लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है तभी श्रद्धेय जयप्रकाश जी आ गए- पर इस प्रक्रिया में 25 साल टूट गए। 74-75 में हमारी पीढ़ी पूर्ण युवा थी और पूरे जोश खरोश के साथ दूसरे गांधी के साथ यूं हो ली थी कि बस अब चमत्कार होने को है- किंतु सपना टूट गया। इस पर भी हम हारे या टूटे नहीं, हां निराश अवश्य हुए।
अब फिर 42 बरस से लंबित इस जन लोकपाल बिल को पास कराने की जो अलख आपने जगाई है तो अब भी हम आपके साथ हैं लेकिन पता नहीं ये लोग कब तक साथ दे, क्योंकि बैठक में जो कुछ आपके लोकपाल बिल को लेकर हुआ उससे डर ही लग रहा है। तो जो करना है जल्दी कर लें क्योंकि हम फिर 25 बरस इंतजार नहीं कर पाएंगे।
अत: हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस सवा अरब की आबादी वाले देश से निरपेक्ष घोटालेबाजों और निष्क्रिय सत्ताधीशों का सिंहासन हिलाने का जो बीड़ा आपने उठाया है वह शीघ्र पूरा हो - आमीन।

संपर्क: सांस्कृतिक भवन मार्ग, टाटीबंध, रायपुर 492099 (छ.ग.) मो. 9584025175

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