-डॉ. नलिनी श्रीवास्तव
प्रकृति का सुन्दर खिला हुआ फूल किसको मुग्ध नहीं करता? सबसे अच्छी बात जो सबको अच्छा लगे वही हमारी संस्कृति है। हमारी संस्कृति की आत्मा धर्म है। यही कारण है कि हमारी संस्कृति पुरातन होकर आज भी नवीन बनी हुई है। हम अपनी विरासत को समेटे अपनी परंपरा की दुहाई देते थकते नहीं है। आधुनिक युग में बढ़ते हुए जनमानस का सैलाब कितना ही पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध से प्रभावित होकर पाश्चात्य धुनों पर थिरकने लगे परंतु फिर भी हमारे पारंपरिक रीति- रिवाजों को नष्ट करने में असमर्थ ही है, कारण हमारी संस्कृति की जड़ें गहरी हैं। हम भारतीयों की भावनाओं में फूलों की सुरभि की तरह संस्कृति समायी हुई है। नदी की कल- कल ध्वनि को हम देख सकते हैं लेकिन हम पकड़ नहीं सकते। फूलों की सुरभि को हम सिर्फ अनुभव कर सकते हैं यही हमारी संस्कृति की आत्मा है।नदी की कोख से ही संस्कृति का जन्म होता है। यही कारण है कि नदी के किनारे उगने वाले पेड़- पौधे ही नहीं ऋषि- मुनियों की बौद्धिक ज्ञान की जागृति भी पल्लवित पुष्पित होती रही है। हमारे यहां गंगा पवित्र नदी है। जिसकी पूजा करते हुए हम स्वयं गौरवान्वित होते हैं। गंगा जल हम सभी भारतीयों के लिए अमृत है।
नदी की कोख से ही संस्कृति का जन्म होता है। यही कारण है कि नदी के किनारे उगने वाले पेड़- पौधे ही नहीं ऋषि- मुनियों की बौद्धिक ज्ञान की जागृति भी पल्लवित पुष्पित होती रही है। हमारे यहां गंगा पवित्र नदी है। जिसकी पूजा करते हुए हम स्वयं गौरवान्वित होते हैं। गंगा जल हम सभी भारतीयों के लिए अमृत है। परंतु उससे भी ज्येष्ठ नर्मदा नदी है। नर्मदा नदी का उद्गम स्थल छत्तीसगढ़ की पावन धरती अमरकंटक पर्वत से निकली है। इसी प्रकार शिवनाथ नदी छत्तीसगढ़ के गांव गांव को खुशहाली की जिंदगी देते हुए महानदी में जाकर समाहित हो जाती है। इस धरती की प्राकृतिक सुषमा अपने आप में अतुलनीय है।
इतना ही नहीं राजनांदगांव व दुर्ग जिले के लिए शिवनाथ नदी अमृतधारा का काम करती है। पर्वत, नदी, पेड़- पौधों की जब तक हम रक्षा करते रहेंगे हमारा जीवन भी उतना भी सुखमय होगा।
पर्यावरण मुख्य: दो प्रकार के होते हैं। भौतिक और जैविक। भौतिक पर्यावरण में मनुष्य को प्रभावित करने वाली वस्तुएं शामिल हंै जैसे नदी, पहाड़, रेगिस्तान आदि। जैविक पर्यावरण में मनुष्य के चारों ओर पाये जाने प्राणी आते हैं। जैसे पशु- पक्षी और कीट- पतंगे तथा अन्य सभी जीवधारी।
'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना को लेकर चलने वाले हमारे ऋषि- मनीषी और महात्मा मानवीय गुणों से ओतप्रोत हो जीवन जीने की सीख आदिकाल से देते चले आ रहे हैं। 'न मातु: परम दैवतम।' माता से बढ़कर कोई देवता नहीं है। हम बड़े गर्व से पृथ्वी को धरती माता कहते हैं, भारत माता कहते हैं। गांवों, शहरों में स्थापित शीतला माता के मंदिर हमारी भारतीय परंपरा के प्रतीकात्मक स्वरूप हैं। माता की गोद में ही बालक सर्वप्रथम 'कुआं पूजन' उत्सव में शामिल होता है। यहीं से शुरु हो जाती है मानव जीवन की धर्मयात्रा।
इसी तरह भारतीय घरों के आंगन में तुलसी चौरा का होना अनिवार्यता की परिधि में आता है। तुलसी का पौधा एक धार्मिक आस्था प्रगट करने वाला ही नहीं औषधि के रामबाण गुण भी उसमें समाहित हंै।
साहित्य, वेद और धर्म के साथ प्रकृति एक विशेष तादात्म्य है। कितने ही हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में पेड़ पौधों की महत्वपूर्ण भूमिका पाई जाती है। चाहे वह हलषष्ठी का व्रत हो, या वट सावित्री का व्रत हो। वट, नीम और पीपल का भी अपने आप में एक विशेष महत्व है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनेक सुंदर पेड़- पौधे फूल- पत्तियां औषधि के रुप में जीवन को स्वस्थ रखने में सहायक रहते हैं।
वेदों में भी पर्यावरण की गाथा हमें दिखाई देती है। वायु, जल, खाद्य, मिट्टी, वन संपदा, पशु- पक्षी सभी प्रकृति पर आश्रित हैं। ऋग्वेद में वायु के गुणों की चर्चा इस प्रकार की गई है- 'वात आ वातु भेषजं शंभू, मयोभु नो हदे। प्राण आयुंषि तारिषत्'- ऋग्वेद (10/186/1) अर्थात् शुद्ध ताजी वायु अमूल्य औषधि है जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनन्ददायक है। वह उसे प्राप्त कराता है और हमारे आयु को बढ़ाता है।
संस्कृत साहित्य में कालिदास प्रकृति के अनुपम चितेरे हैं। ऋतुसंहार में कालिदास ऋतुओं का वर्णन करते हुए जनमानस के भावों को उत्तेजित करने में सफल हुए हैं। प्रकृति का साहचर्य हमें पल- पल अपनी अनिवार्यता का परिचय देता है। 'कुमारसंभव' में प्राकृतिक विभूति और दैवी विभूति में साम्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है। किन्तु यह प्रकृति मानव संबंध 'रघुवंश' महाकाव्य में और भी सुन्दरता के साथ मन को मुग्ध करने में सक्षम है। 'अभिज्ञान शाकुन्तलम' में कालिदास की लेखनी की शक्ति का तब अहसास होता है जब हम कण्व ऋषि के तपोवन में यह देखते हैं कि प्रकृति भी अन्य पात्रों के साथ एक विशेष पात्र बन गई है। कालिदास की लेखनी में चेतना रहित पेड़- पौधें आदि सबको सजीव रूप में प्रतिबिम्बित कर अमरत्व की दीपशिखा को प्रज्जवलित कर गये हैं। कालिदास की नायिका शकुन्तला के सौंदर्य के अनुपम लावण्य का वर्णन तब तक पूर्ण नहीं होता है जब तक वह नायिका के कानों में शिरीष के फूल न लगा दे। प्रकृति हमें जीवन की सीख देने के साथ- साथ अपना संतुलन बनाए रखने के लिए प्रताडि़़त करने से नहीं चूकती है।
तुलसीदास ने रामचरित मानस में प्रकृति के जीवंत रूप की अभिव्यंजना अपनी पूर्ण भव्यता के साथ उजागर किया है। सीता को खोजते हुए राम रास्ते में आये हुए पशु- पक्षी और पेड़- पौधों से भी पूछते हैं- 'हे खग मृग हे मुधकर सेनी तुम देखी सीता मृगनयनी।'
प्रेमचंद की साहित्य संबंधी धारणा प्रगतिशीलता पर आधारित है। साहित्य का उद्देश्य यही है जिसके सुख- दुख में हंसने रोने का अर्थ समझ सकते हैं उसीसे हमारी आत्मा का मेल होता है। प्रेमचंद ने साहित्य को कभी भी सीमित अर्थों में आबद्ध करने की चेष्टा नहीं किया है। उनके अनुसार साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं है हृदय की वस्तु है जहां ज्ञान और उपदेश असफल हो जाते हैं, वहां साहित्य बाजी मार लेता है।
अत: आज के युग में हम प्रगति का मार्ग तो अवश्य प्रशस्त कर रहे हैं लेकिन यह याद रखना चाहिए कि राष्ट्रसंघ पर्यावरण कार्यक्रम में 1980 में यह चेतावनी दी गई थी कि कार्बन डाई आक्साइड गैस की मात्रा से गर्मी बढ़ेगी और जलवायु में परिवर्तन आएगा। तापमान के बढऩे से बर्फ भी पिघलेंगे तथा समुद्री जल का स्तर बढऩे से किनारे में बसे हुए अनेक शहरों के अस्तित्व के मिटने की संभावना है।
बढ़ती हुई आबादी एवं औद्योगिकीकरण के कारण वनों के अंधाधुंध कटाई व नगरीकरण से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ते जा रहा है। एक ओर भौतिक सुख- सुविधा ऐश्वर्य से सम्पन्न सभ्य समाज प्रगतिशीलता की दौड़ में दौड़ते चले जा रहे हैं और दूसरी ओर प्रकृति के प्रकोप से अनजान बने हुए हैं। अत: आज जरुरत है कि हम सम्पूर्ण विश्व में 5 जून पर्यावरण दिवस पर लोगों को प्रकृति के महत्व को समझाएं और उसकी उपादेयता पर अपने विवेक का सही प्रयोग करें।
आधुनिक परिवेश में हमने निश्चय ही अपने विवेक और बुद्धि के सहारे जीवन के हर क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया है। आज हम ऊंची- ऊंची अट्टालिकाओं के बीच रहते हुए प्रकृति का सानिध्य हमारे लिए आसमान से तारे तोडऩे वाली बात हो गई है। इतना ही नहीं हमारा जीवन भी धीरे- धीरे पूर्णत: मशीनों पर आश्रित होते हुए मशीनमय होते जा रहा है। वैज्ञानिकों की सूझ- बूझ एवं ज्योतिषियों की भविष्यवाणियां कितना भी हमें आने वाले आकस्मिक संकट से बचाने की कोशिश करें लेकिन सुनामी कांड जैसी वारदातें प्रकृति के प्रकोप का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। अत: हमें बढ़ती हुई जनसंख्या एवं मशीनों की दुनिया से अलग हटकर अपने सुरक्षा कवच को बनाए रखने के लिए पर्यावरण के प्रति हर मानव को जागरूक होना चाहिए।
प्रकृति का सानिध्य हमें जीवन में जैसी ऊर्जा प्रदान करती है वैसा प्रफुल्लित परिवेश मशीनों की दुनिया में नहीं मिल सकता है। कुछ पल का आकर्षण हमें मुग्ध अवश्य कर देता है लेकिन उसके बाद की हानि हमारे जीवन को विषाक्त बना देने के लिए पर्याप्त है। पृथ्वी सूत्र में अथर्वेद के ऋषियों ने कहा है- 'जो मैं तुममे खोजता हूं वह शीघ्र बढ़े। मेरे मर्म स्थलों को या तेरे हृदय स्थल को चोट न पहुंचाऊं।' जितना हम प्रकृति से लें उतना वापस करें यही पर्यावरण संतुलन है और यही पर्यावरण संरक्षण का मूलमंत्र है।
लेखक के बारे में:
खैरागढ़ राजनांदगांव जिला में जन्मी डॉ. नलिनी श्रीवास्तव हिन्दी साहित्य में पी. एच- डी हैं और साहित्य वाचस्पति पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की पौत्री हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में कहानी व लेख के प्रकाशन के साथ दो कहानी संग्रह- 'एक टुकड़ा सच' व 'केक्टस की चुभन', एक संस्मरणात्मक निबंध- 'बख्शीजी मेरे दादा जी' प्रकाशित। विभागाध्यक्ष- हिन्दी सेंट थामस कालेज भिलाई से अवकाश प्राप्त।
संपर्क: 'शिवायन' 3-बी सड़क- 33 सेक्टर-1, भिलाई 490001 (छ. ग.) मो. 9752606036
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