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Jul 12, 2011

हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं

- के. जयलक्ष्मी
वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार प्रति मनुष्य पर 61 पेड़ थे। इससे यह सवाल उठना लाजमी है कि ऑक्सीजन के लिए हम कितने समय तक संघर्ष कर पाएंगे। यह देखते हुए कि जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है और सड़कों व भवनों के लिए वृक्ष कुर्बान होते जा रहे हैं, वह समय दूर नहीं है जब हम हांफते नजर आएंगे।
शहरों में वृक्षों की कटाई और जंगलों का अंधाधुंध विनाश कर क्या हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार रहे हैं? यह खुदकुशी नहीं तो क्या है? वृक्ष जो लाइफ सपोर्ट सिस्टम बनाते हैं, क्या हमें उसका एहसास है?
एवरग्रीन स्टेट कॉलेज, वॉश्ंिाग्टन की प्रो. नलिनी नाडकर्णी ने अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा खींची गई धरती की तस्वीरों को लिया, वृक्षों के हस्ताक्षरों की व्याख्या की और कुछ सामान्य गणित का इस्तेमाल कर पृथ्वी पर विद्यमान वृक्षों और मनुष्य का अनुपात हासिल किया। उनके अनुमान के अनुसार 2005 में धरती पर 400,246,300,201 (चार खरब चौबीस करोड़ से ज़्यादा) वृक्ष थे। वर्ष 2007 में दुनिया में मनुष्यों की आबादी 6,45,67,89,877 (छह अरब पैंतालीस करोड़ से ज्यादा) थी। इस तरह 2007 में धरती पर प्रति मनुष्य औसतन 61 पेड़ थे। 2010 में इसमें और भी गिरावट आई होगी।
नासा की वेबसाइट एक वृक्ष द्वारा कॉर्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करने व ऑक्सीजन छोडऩे की गणना कर उसे मनुष्य की जरूरत के साथ समायोजित करती है। यह मानते हुए कि प्रत्येक पेड़ एक दिन में 50 ग्राम कॉर्बन डाइऑक्साइड लेता है और बदले में 100 प्रतिशत प्रतिफल देता है तो वह रोजाना औसतन 36.36 ग्राम ऑक्सीजन छोड़ेगा। यह मानते हुए कि एक मनुष्य को प्रतिदिन 630 ग्राम ऑक्सीजन की जरूरत होती है, उसके लिए 17 वृक्षों की आवश्यकता होगी।
वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार प्रति मनुष्य पर 61 पेड़ थे। इससे यह सवाल उठना लाजमी है कि ऑक्सीजन के लिए हम कितने समय तक संघर्ष कर पाएंगे। यह देखते हुए कि जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है और सड़कों व भवनों के लिए वृक्ष कुर्बान होते जा रहे हैं, वह समय दूर नहीं है जब हम हांफते नजर आएंगे।
आइए अब इस बात पर विचार करते हैं कि हम कितनी कॉर्बन डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ते हैं। एक मनुष्य श्वसन द्वारा हर रोज एक किलोग्राम यानी एक साल में 365 किलोग्राम कॉर्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है। इसे संतुलित करने के लिए एक व्यक्ति को 20 वृक्षों की जरूरत होगी। यदि हम एक मनुष्य का औसत जीवनकाल 75 वर्ष मानें तो इसका मतलब होगा कि वह अपनी जिंदगी में करीब 25 टन कॉर्बन डाइऑक्साइड छोड़ेगा। इसी समयावधि में वैश्विक आधार पर इसकी गणना करें तो यह तीन ट्रिलियन टन होगी यानी अभी वातावरण में मौजूद कुल कॉर्बन डाइऑक्साइड से भी ज्यादा।
यूएसडीए फॉरेस्ट सर्विस की गणना के मुताबिक 50 साल की अवधि में एक पेड़ 31,250 डॉलर मूल्य के बराबर ऑक्सीजन पैदा करता है, 62,000 डॉलर मूल्य के बराबर वायु प्रदूषण नियंत्रण मुहैया करवाता है, 37,500 डॉलर मूल्य के बराबर पानी की रिसाइक्ंिलग करता है और 31,250 डॉलर मूल्य के बराबर मिट्टी के क्षरण को रोकता है।
इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए इस खबर पर विचार कीजिए कि 'दुनिया के कॉबर्न सिंक' यानी अमेजन के जंगल 2050 तक आधे कट जाएंगे। ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेशल रिसर्च ने पाया कि 2050 तक अमेजन के जंगलों में 50 फीसदी तक की कमी हो जाएगी। यह ऐसा बिंदु होगा जहां से ये धीरे- धीरे पूरी तरह से नष्ट हो जाएंगे। शोध के अनुसार यदि अमेजन के जंगल खत्म होते हैं तो कभी हरे- भरे वर्षा वनों का एक बड़ा हिस्सा एक तरह से मरुस्थल में तब्दील हो सकता है।
ग्लोगो अमेजोनिया की रिपोर्ट के अनुसार नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेशल रिसर्च के गिल्वैन सैम्पैइओ द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि वनों के कटने और आग से होने वाली तबाही के अलावा आने वाले सालों में अमेजन की वनस्पति पर बढ़ते वैश्विक तापमान का भी असर पड़ेगा। दुनिया में जलवायु को संतुलित बनाने में स्वयं अमेजन के वर्षा वन अहम भूमिका निभाते हैं। ऐसे में वहां की वनस्पति के विनाश की दर धीरे- धीरे बढ़ती जाएगी क्योंकि उन्हें संतुलित करने के लिए बहुत कम जंगल हैं।
तो क्या अमेजन वन खत्म?
जब सूखे की वजह से लगने वाली आग और लगातार वनों की कटाई से अमेजन का आकार घटकर आधा रह जाएगा तो मरुस्थलीकरण धीरे- धीरे पूरे क्षेत्र को ऊष्णकटिबंधी सवाना में बदल देगा। रिपोर्ट का आकलन है कि जंगलों के नष्ट होने के बाद उसके सवाना में बदलने का वह संधि बिंदु 2050 तक आ सकता है।
हालांकि हाल के वर्षों में जंगलों के विनाश को रोकने के लिए ब्राजील ने कई कदम उठाए हैं, लेकिन प्रतिबंधित क्षेत्रों में विकास और पेड़ों की कटाई अमेजन के लिए समस्या बनी हुई है। यह पूरी दुनिया के हित में है कि अमेजन के जंगल अक्षुण्ण बने रहें, लेकिन ब्राजील अथवा इंडोनेशिया के लोगों की विकास की तमन्ना की भरपाई कौन करेगा?
व्यापक पैमाने पर हो रही वनों की कटाई के कारण इंडोनेशिया ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर है। बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जंगलों को साफ करके ताड़ के पेड़ लगाए जा रहे हैं ताकि पॉम ऑयल का उत्पादन किया जा सके। अधिकारियों का कहना है कि केवल अवैध कटाई की वजह से ही एक करोड़ हैक्टर क्षेत्रफल में ऊष्णकटिबंधी वर्षा वन नष्ट हो गए हैं। इसमें तानाशाह सुहार्तो के 32 साल के शासन की भी प्रमुख भूमिका रही है। यह वह समय था, जब इंडोनेशिया के जंगलों को केवल राजस्व का स्रोत समझा जाता था। वर्ष 1998 में सत्ता से बेदखल हुए सुहार्तो ने आधे से भी अधिक जंगलों में कटाई के अधिकार दे दिए थे। यह अधिकार पाने वालों में अधिकांश उनके रिश्तेदार और राजनीतिक सहयोगी थे।
दुनिया के तीसरे सबसे बड़े द्वीप बोर्नियो में 1985 से 2000 के बीच इतने वृक्ष काट डाले गए, जितने दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका में मिलकर भी नहीं कटे होंगे। निचले क्षेत्र के आधे जंगल तबाह हो चुके हैं और अगले दस साल में यह आंकड़ा दो तिहाई तक पहुंच सकता है। गौरतलब है कि धरती पर कॉर्बन डाइऑक्साइड को सोखने में 95 फीसदी भूमिका ऊष्णकटिबंधी वृक्षों की होती है।
एक सरकारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भारत में 1990 में जो कॉर्बन उत्सर्जन 1.6 अरब टन था, वह 2030 में बढ़कर 3.6 अरब टन हो जाएगा। अगर आज के स्तर से इसकी तुलना करें तो यह 57 फीसदी ज्यादा होगा। इंडोनिशया संयुक्त राष्ट्र के वनों के विनाश एवं हानि से उत्सर्जन में कमी कार्यक्रम का समर्थन करता है, लेकिन इसके बदले में उसे मुआवजे का जो प्रस्ताव दिया गया है, वह उससे ज्यादा की मांग कर रहा है।
विकासशील देशों के अधिकांश शहरों में जंगलों का विनाश एकतरफा विकास की अनिवार्य परिणति माना जा रहा है।
वाहनों के आवागमन के लिए सड़कों को चौड़ा करते समय हरित आवरण की अनदेखी कर दी जाती है। उदाहरण के लिए भारतीय शहरों को लिया जा सकता है, जहां पिछले पांच साल में सड़क किनारे के 60 फीसदी से अधिक पेड़ काट दिए गए हैं। नए पौधे लगाने के वादे अक्सर पूरे नहीं किए जाते और अगर नए पौधे लगा भी दिए जाते हैं तो बाद में उनकी देखरेख नहीं की जाती। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश शहरों में न केवल तापमान में बढ़ोतरी हुई है, बल्कि कॉर्बन उत्सर्जन भी बढ़ा है। कॉर्बन डाइऑक्साइड के साथ संतुलन स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण पहलू वृक्ष की उम्र का भी है। एक अधिक उम्र का पेड़ अपेक्षाकृत नए पेड़ की तुलना में कहीं अधिक ग्रीनहाउस गैस सोखेगा। दुर्भाग्य से हममें से कोई भी तब तक शिकायत नहीं करेगा जब तक कि हम अपनी वातानुकूलित कारों में सनसनाते हुए निकलते रहेंगे।
उत्सर्जन
वर्ष 1990 में पूरी दुनिया में कॉर्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 21.5 अरब टन था। यह वह वर्ष है जिसे अधिकांश गाइडलाइनों में बेसलाइन वर्ष माना जाता है। इस वर्ष यह उम्मीद की गई थी कि वर्ष 2050 तक इस उत्सर्जन में 80 फीसदी की कमी होनी चाहिए। लेकिन आज उत्सर्जन करीब 30 अरब टन है। वर्ष 2010 से 2050 तक कॉर्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती की सीधी गणना करें तो हमें 2025 तक यह आंकड़ा 20 अरब टन या उससे नीचे लाना होगा। लेकिन मौजूदा रुझान बताता है कि हम इस आंकड़े को आसानी से पार कर लेंगे। यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अमेजन के वन आधे नष्ट हो जाते हैं, तो इसका मतलब यही होगा कि हवा में कॉर्बन डाईऑक्साइड की मात्रा और भी अधिक होगी। कॉर्बन में बढ़ोतरी का वृक्षों पर क्या असर पड़ेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है। याद रखिए, वृक्ष हर उस कॉर्बन को हजम नहीं कर सकते जो वातावरण में छोड़ी जा रही है। वे केवल उतने ही कॉर्बन का इस्तेमाल करेंगे जितनी कि उन्हें जरूरत है। अब इस बात पर सर्वसम्मति बनती जा रही है कि वृक्षों पर वातावरणीय कॉर्बन डाइऑक्साइड के असर से वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी रेडियोएक्टिव प्रभाव से होने वाले वैश्विक तापमान से कहीं अधिक होगी। हवा में जरूरत से अधिक कॉर्बन डाइऑक्साइड से पौधों की पत्तियों के छिद्र बंद हो जाते हैं। इसका नतीजा वाष्पन-उत्सर्जन में कमी के रूप में सामने आता है।
स्टैनफोर्ड स्थित कैल्डेरा प्रयोगशाला पौधों पर कॉर्बन डाइऑक्साइड के असर के कारण तापमान में हुई बढ़ोतरी के प्रतिशत की बात करती है। कॉर्बन डाइऑक्साइड गैस चूंकि ग्रीनहाउस गैस है, इसलिए यह धरती को गर्म करती है। हालांकि साथ ही इसकी वजह से पौधों में वाष्पन की प्रक्रिया, जो वातावरण को ठंडा रखती है, कम होती जाती है। केल्डेरा का अध्ययन बताता है कि कुछ स्थानों पर गर्मी में 25 फीसदी का इजाफा इसलिए हुआ क्योंकि पौधों के वाष्पन की प्रक्रिया घट गई है।
इस तरह के अध्ययन बताते हैं कि हम अपनी जैव प्रणाली के संचालन की जटिलताओं को कितना कम समझते हैं। पेड़ जल प्रबंधन में भी अहम भूमिका निभाते हैं। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि किसी क्षेत्र में होने वाली बारिश से वृक्षों का कितना प्रत्यक्ष सम्बंध जोड़ा जा सकता है, लेकिन आम तौर पर देखने में आता है कि हरे- भरे इलाकों में अपेक्षाकृत अधिक वर्षा होती है। वृक्ष मिट्टी में पानी को बनाए रखने और भूजल को रिचार्ज करने में भी मददगार होते हैं। तो एक बात तय है। यदि हम जंगलों का विनाश इसी गति से करते रहे तो हम एक मददगार प्रणाली को खत्म कर देंगे।
(स्रोत फीचर्स)

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