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Apr 20, 2010

उदंती.com, अप्रैल 2010

उदंती.com
वर्ष 2, अंक
9, अप्रैल 2010
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जगत एक सुंदर पुस्तक है लेकिन जो इसे नहीं पढ़ता उसके लिए यह निरर्थक है।
- गोल्डोनी
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अनकही: खाप पंचायतों के तालिबानी फैसले
जल संकट: समस्या बड़ी गंभीर है - अनुपम मिश्र
स्वादः दर्द की दवा चॉकलेट!
समाजः आखिर क्या है यह खाप पंचायत
खेलः गोल्फ कोर्स पर महिलाएं - रेनू राकेश
जरा सोचें- विज्ञान का यह वरदान मेरे शहर में क्यों नहीं?- राहुल सिंह
वाह भई वाहः धंधा
यात्राः खजियार में सन्नाटा... - प्रिया आनंद
पुरातनः विश्व धरोहर की बाट जोहता सिरपुर - उदंती फीचर्स
कलाकारः उम्मे सलमा: प्रकृति के साथ बंधन - उदंती फीचर्स
बोरिस पास्तरनाक: एक कटे हुए पेड़ का तना- सूरज प्रकाश
लघु कथाएं/ हरदर्शन सहगल
21वीं सदी के व्यंग्यकारः राजा विक्रम और हिंदी का पिशाच - जवाहर चौधरी
किताबें
कहानी: नामालूम सी एक खता - आचार्य चतुरसेन शास्त्री
क्या पुन: जीवित हो सकेगी एलीफैन्ट बर्ड
आपके पत्र/ इन बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया


खाप पंचायतों के तालिबानी फैसले

कैथल के करोड़ा गांव में तीन साल पहले मनोज और बबली ने जब अपने प्रेम को पूर्णता देने के लिए शादी करके नई दुनिया बसानी चाही थी तब उस गांव के लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि शीरी फरहाद की तरह मनोज और बबली की इस दुखभरी प्रेम कहानी के जरिए हरियाणा का उनका यह छोटा सा गांव दुनिया भर में सुर्खियों पर आ जाएगा। प्रेम की खातिर कुर्बान हुए इस आधुनिक शीरी फरहाद को न सिर्फ करनाल की अदालत से न्याय मिला है बल्कि उन खाप पंचायतों की भी हार हुई है जो प्रथा और परंपरा के नाम पर कानून को अपने हाथ में रख कर मनमानी करते हुए मौत का फरमान जारी करते हैं, लेकिन इज्जत के नाम पर की जाने वाली इन हत्याओं के मामले में पहली बार दोषी लोगों को दंडित किया गया है।
इस आनर किलिंग (इज्जत की खातिर हत्या) मामले में करनाल की अदालत ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए 5 परिजनों (भाई सतीश और सुरेश, चचेरे भाई गुरुदेव, मामा बारूराम और चाचा राजेंद्र) को फांसी, लड़की के दादा तथा खाप पंचायत के एक सदस्य गंगाराम को उम्रकैद और टैक्सी चालक मंदीप को सात साल की सजा दी गई है। मामले में लापरवाही बरतने वाले पुलिस अफसरों पर भी अदालत ने कार्रवाई के आदेश दिए हैं। इस तरह बेटे- बहू की हत्या के बाद इंसाफ के लिए लड़ रही मनोज की दुखियारी मां को थोड़ी राहत जरूर मिली है।
हरियाणा के कैथल जिले के गांव करोड़ा में रहने वाले मनोज- बबली ने 18 मई 2007 को घर से भागकर शादी कर ली थी लेकिन जैसे ही इस शादी की खबर खाप पंचायत (खाप पंचायत क्या है इस पर विस्तृत जानकारी इसी अंक में अलग से दी जा रही है) को लगी तो पूरे गांव में भूचाल आ गया। पंचायत ने मनोज के परिवार का सामाजिक बहिष्कार यह कहकर किया कि मनोज और बबली एक ही गोत्र के हैं इसलिए ये भाई- बहन हैं तथा इनकी शादी को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। मामले को गरम होते देख इस प्रेमी जोड़े ने, परिजनों द्वारा जान से मारने की धमकी मिलने पर हाईकोर्ट से सुरक्षा की गुहार भी लगाई थी। तब हाईकोर्ट ने उन्हें सुरक्षा भी मुहैया करवा दी थी। परंतु मनोज और बबली का प्रेम तो इतिहास के पन्नों पर जगह पाने के लिए ही पनपा था। 15 जून को उनके ही परिजनों ने उनका अपहरण कर लिया तथा 10 दिन बाद उनकी हत्या कर दी। दोनों के शव नारनौंद के पास एक नहर में मिले थे। अफसोस अदालत के आदेश के बाद भी पुलिस ने मनोज और बबली को पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी बल्कि कत्ल के बाद दोनों की लाश को लावारिस बताकर अंतिम संस्कार भी कर दिया था।
आज जबकि हम अपने आपको आधुनिक और शिक्षित होने का दंभ भरते है तब देश के सबसे सम्पन्न कहे जाने वाले हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिकांश गांवों में खाप पंचायत का दबदबा क्यों कायम है? तथा इस पंचायत के फैसले को आंख मूंद कर मानने के लिए गांव वाले क्यों बाध्य हैं? सबसे दुखद पहलू यह है कि जो प्रदेश विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं उन्हीं प्रदेशों में पिछले कुछ वर्षों में खाप पंचायतों से संबंधित हिंसा और हत्या के मामले सबसे अधिक सामने आ रहे हैं?
सच तो यही है कि शासन और प्रशासन की ऊंची गद्दी पर बैठने वाले भी तो इसी समाज का हिस्सा होते हैं जो स्वयं भी इस तरह की रुढिय़ों में जकड़े होते हैं। अत: यह भी जरूरी है कि इस महकमें में अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की समझ विकसित हो तथा गांव या क्षेत्र के प्रभावशाली समझे जाने वाले व्यक्तियों की कैद से आजाद हों। यह भी सच है कि इस तरह के गोत्र विवाद सामने आने पर ज्यादातर राजनीतिक दल मौन धारण कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें वोट बैंक के खिसकने का डर रहता है। ऐसे मामलों में अक्सर देखा यही गया है कि जब खाप पंचायतें किसी प्रेमी युगल और उनके परिजनों के खिलाफ कोई फरमान जारी करती हैं तो पुलिस- प्रशासन इसे घरेलू या पारिवारिक मामला है कहकर चुप्पी साध लेती है और कानूनी कदम उठाने के बजाय अधिकांश मामलों में वह सुलह कराने के फेर में रहती है।
अब जबकि एक कठोर फैसला सामने आया है क्या खाप पंचायतें कानून को अपने हाथ में लेने से डरेंगी? ऐसा लगता तो नहीं क्योंकि ताजा समाचार के अनुसार खाप पंचायत ने मनोज बबली मामले में अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए लोगों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है, इतना ही नहीं खाप पंचायत सजा पाए सभी को समाज के लिए आदर्श मानती है और उन्होंने चंदा अभियान शुरु कर दिया है ताकि वे एकत्र धन से सजा पाए व्यक्तियों के परिवारों को आर्थिक सहायता दे सकें। खाप ने यह प्रस्ताव भी पास किया है कि सरकार हिन्दु कोड बिल में संशोधन करे और एक ही गोत्र के विवाह को अवैधानिक घोषित करे। इन सबके साथ उन्होंने यह घोषणा भी कर दी है कि जो राजनीतिक पार्टियां खाप के विरूद्ध होंगी उन्हें वे वोट नहीं देंगे।
यह भी सत्य है कि सिर्फ कानून और पुलिस के जरिए किसी भी रूढि़वादी परंपरा को खत्म नहीं किया जा सकता। जिस दिन मनोज और बबली की हत्या के मुकदमे में उपरोक्त फैसला आया उसी दिन पंजाब में वैसे ही मामले में एक प्रेमी युगल की हत्या कर दी गई। हफ्ते भर बाद हरियाणा में ही एक 16 वर्षीय युवती को पड़ोसी युवक से प्रेम करने के अपराध में उसके बड़े भाई द्वारा फांसी पर लटका दिया गया! अत: ऐसी किसी भी रुढि़ को जड़ से उखाडऩे के लिए समाज की मानसिकता में बदलाव जरुरी है। इसके लिए अत्यावश्यक है कि सामाजिक संगठन एवं राजनीतिक दल सामने आएं। कुछ सामाजिक संगठन तो समाज में फैली इन कुरीतियों के विरुद्ध देश में काम कर रही हैं पर अफसोस की बात है कि हमारे देश में राजनीतिक दल इस प्रकार का कोई कार्य नहीं करते। इस सच्चाई को हम सब स्वीकार करते हैं कि जिस प्रकार से हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में एक बड़ा वर्ग गोत्र संबंधी रूढिय़ों से ग्रसित है उसी तरह देश के अन्य हिस्सों में भिन्न- भिन्न तरह की कई कुरीतियां व्याप्त हैं, ऐसी ही अंधविश्वास जनित एक अत्यंत बर्बर एवं शर्मनाक प्रथा है टोनही जो छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में व्याप्त है, इसके चलते निरीह असहाय स्त्रियों को धूर्तों द्वारा टोनही घोषित कर दिया जाता है और उसकी निर्मम हत्या कर दी जाती है। ऐसी ही एक निर्मम परंपरा है कन्या भ्रूण हत्या। इस अत्यंत अमानवीय और लज्जा जनक कुप्रथा का सबसे ज्यादा प्रभाव पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे देश के सबसे समृद्ध क्षेत्र में देखा जाता है। वैसे तो इन सभी रूढिय़ों, कुरीतियों के खिलाफ नियम- कानून बने हुए हैं, लेकिन वे कितने प्रभावी हैं यह हम सभी जानते हैं। अत: जरुरत है राजनीतिक दलों द्वारा भी समाज सुधार के कार्यक्रमों को अपने राजनीतिक एजेंडे में प्रमुखता से शामिल करना चाहिए।

- रत्ना वर्मा

समस्या बड़ी गंभीर है


- अनुपम मिश्र
सतही पानी की अपेक्षा भूमिगत पानी के उपयोग में कई सुविधाएं हैं। भूमिगत जल के जलाशयों में, सतही जलाशयों की तरह पानी का रिसाव नहीं होता और वाष्पीकरण भी बहुत कम होता है। भूमिगत पानी फौरन जहां चाहे वहां यानी जहां इस्तेमाल करना हो वहीं प्राप्त किया जा सकता है।
जल संपदा के मामले में कुछेक संपन्नतम देशों में गिने जाने के बाद भी हमारे यहां जल संकट बढ़ता जा रहा है। आज गांवों की बात तो छोडि़ए, बड़े शहर और राज्यों की राजधानियां तक इससे जूझ रही हैं। अब यह संकट केवल गर्मी के दिनों तक सीमित नहीं है। पानी की कमी अब ठंड में भी सिर उठा लेती है। दिसंबर 86 में जोधपुर शहर में रेलगाड़ी से पानी पहुंचाया गया था।
देश की भूमिगत जल संपदा प्रति वर्ष होने वाली वर्षा से दस गुना ज्यादा है। लेकिन सन् 70 से हर वर्ष करीब एक लाख 70 हजार पंप लगते जाने से कई इलाकों में जल स्तर घटता जा रहा है।
वर्षा के पानी को छोटे-बड़े तालाबों में एकत्र करने की संपन्न परंपरा अंग्रेजी राज के दिनों में खूब उपेक्षित हुई और फिर आजादी के बाद भी इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया। कहा जाता है देश की तीन प्रतिशत भूमि पर बने तालाब होने वाली कुल वर्षा का 25 प्रतिशत जमा कर सकते हैं। नए तालाब बनाना तो दूर, पुराने तालाब भी उपेक्षा की गाद से पुरते जा रहे हैं।
एक से एक प्रसिद्ध तालाब, झील और सागर सूखकर गागर में सिमटते जा रहे हैं। लाखों मछुआरों का जीवन अनिश्चित हो गया है। जल के लिए कुप्रबंध ने हमारे जल के स्रोतों को खतरे में डाल दिया है और उन पर सीधे निर्भर समाज को चौपट कर दिया है।
पानी के मामले में हमारे देश की गिनती दुनिया के कुछेक संपन्नतम देशों में है। यहां औसत वर्षा 1,170 मिमी है- अधिकतम 11,400 मिमी उत्तर-पूर्वी कोने चेरापुंजी में और न्यूनतम 210 मिमी उसके बिलकुल विपरीत पश्चिमी छोर पर जैसलमेर में। मध्य- पश्चिमी अमेरिका में, जो आज दुनिया का 'अन्नदाता' माना जाता है, सालाना औसत बारिश 200 मिमी है। उससे तुलना करके देखें तो हमारी धरती निश्चित ही बहुत सौभाग्यशाली है।
पर दुर्भाग्य कि हम इस वरदान का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। सन् 2025 तक भी हम अपनी कुल सालाना बारिश के एक चौथाई का भी इस्तेमाल कर सकें तो बड़ी बात होगी। तब भी आने वाले बीस सालों में हमें पानी की भयंकर कमी का सामना करना पड़ेगा। इसका सीधा कारण है कि हम इंद्र देवता से मिलने वाले इस प्रसाद को ठीक से ग्रहण तक नहीं कर पा रहे।
इस दुखद परिस्थिति का एक मुख्य कारण वन विनाश ही है। लापरवाही के कारण होने वाला भूक्षरण भी साफ है ही। साथ ही बारिश का बहुत सारा पानी अपने साथ कीमती मिट्टी को भी लेकर समुद्र में चला जाता है। पुरते जा रहे तालाब, झील, पोखर और नदी जैसे सार्वजनिक जलाशयों का निरंतर और बेरोकटोक दुरुपयोग इस समस्या को और भी उग्र बना रहा है। नलकूपों के बढ़ते चलन की वजह से भूमिगत जल भी निजी मालिकी का साधन बन चुका है। देवी स्वरूप नदियां भी आज बस शहरी औद्योगिक कचरे को ठिकाने लगाने का सुलभ साधन बन गई हैं। एक समय था जब हमारे शहरों और गांवों में तालाब और पोखर बहुत पवित्र सार्वजनिक संपदा की तरह संभाल कर रखे जाते थे। इन जलाशयों की गाद साफ करने का काम लोग खुद किया करते थे। गाद की चिकनी मिट्टी से घर बनाए जाते थे, दीवारें लीपी जाती थीं और उसे खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि उसमें हरे साग-पात के सड़े तत्व और अन्य प्राकृतिक पोषक तत्व होते थे। लेकिन हमारी वर्तमान जल नीति (अगर ऐसी कोई नीति है तो) किसी और ही दिशा में बढ़ चली है। नलकूप, कुएं और तालाब जैसी किफायती छोटी परियोजनाओं की पूरी उपेक्षा की गई है। बस बड़े- बड़े बांध बन रहे हैं। इन बांधों का कितना ही भव्य और सुंदर बखान किया जाता हो, पर वास्तविकता तो यही है कि हर साल बाढ़ और सूखे का जो दौर चलता है और वह जो भारी कहर ढा देता है, उसे ये बांध जरा भी नहीं थाम पाए हैं।
देश में जलप्रबंध की स्थिति का अंदाजा सिर्फ इसी से लग जाएगा कि आज तक ऐसा एक भी विस्तृत सर्वेक्षण नहीं हो सका है कि देश में सचमुच कितना पानी है। 'केंद्रीय भूजल बोर्ड' ने हाल में घोषित किया है कि शीघ्र ही पूरे देश के सर्वेक्षण का काम पूरा हो जाने की आशा है। आज जो आसार नजर आ रहे हैं, उन्हें देखते लगता यही है कि उस समय तक तो देश भयंकर सूखे के दौर से जूझ रहा होगा।
भूमिगत जल संपदा
हालत दिन-ब-दिन ज्यादा-से-ज्यादा बिगड़ती जा रही है, फिर भी हम अपने जल संसाधनों के उपयोग इतनी लापरवाही से कर रहे हैं मानो वे कभी खत्म ही नहीं होने वाले हैं। दामोदर घाटी प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष श्री सुधीर सेन इसे नेतृत्व का संसाधनों के बारे में 'अज्ञान' कहते हैं।
देश की जल संपदा का कोई ठीक चित्र पेश करना कठिन है क्योंकि प्रामाणिक आंकड़े और तथ्य प्राप्त नहीं हैं। बंबई के 'सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के निदेशक डॉ. नरोत्तम शाह 1983 में सेंट्रल स्टेटिस्टिकल' आर्गनाइजेशन के लिए तैयार किए गए अपने एक निबंध में लिखते हैं, 'कितनी विचित्र बात है कि देश की जल संपदा के बारे में सही तथ्य इकट्ठा कर सकने का हमारा यहां कोई प्रबंध नहीं हो पाया है। नीति बनाने, कार्यक्रम तैयार करने और दुर्लभ जल संसाधन के सही उपयोग की निगरानी के लिए यह अभ्यास बहुत जरूरी है।'
राष्ट्रीय कृषि आयोग के श्री बीएस नाग और श्री जीएन कठपालिया ने देश के जल चक्र का एक खाका खींचा है। आंकड़े निर्विवाद नहीं हैं, पर काफी हद तक ठीक हैं। जैसे, 1974 में भूमिगत जल के उपयोग और भंडार की मात्रा के जो आंकड़े दिए गए हैं वे केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से भिन्न हैं। लेकिन इस चार्ट से भावी जल भंडार और इसके उपयोग के स्वरूप का अंदाज मिल सकता है। इसके अनुसार 1974 में 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी बहा, लेकिन उपयोग में केवल 3.80 करोड़ हेक्टेयर मीटर (क.हे.मी.) 9.5 फीसदी ही आया। सन् 2025 तक क.हे.मी. (26 प्रतिशत) हो सकेगा। श्री नाग और श्री कठपालिया के अनुसार 10.5 करोड़ हेक्टेयर-मीटर हमारी अधिकतम उपयोग क्षमता का सूचक है। हमें हर साल 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है, उसका खर्च तीन प्रकार से होता है -7.00 क.हे.मी. भाप बनकर उड़ जाता है और बाकी 11.5 क.हे.मी. नदियों आदि से होकर बहता है और बाकी 21.5 क.हे.मी. जमीन में जज्ब हो जाता है। फिर इन तीनों के बीच परस्पर कुछ लेनदेन भी चलता है। आखिर में सारा पानी वापस वातावरण में लौट जाता है।
जमीन में जज्ब होने वाले पानी का बहुत- सा हिस्सा पेड़- पौधों के काम आता है। सतही और भूमिगत दोनों प्रकार के पानी का उपयोग घरों में, सिंचाई में, उद्योगों आदि में होता है।
सतह पर बहने वाले पानी में कुछ (11.5 क.हे.मी.) सीधे प्राप्त होता है, कुछ (2 क.हे.मी) दूसरे पड़ोसी देशों से नदियों के द्वारा आता है। कुछ भूमि के नीचे से खींचा जाता है। यह सब कुल मिलाकर 18 क.हे.मी होता है। इस कुल पानी में से 1.5 क.हे.मी पानी को उसका रास्ता मोड़कर और सीधे पंपों से काम में लाया जाता है। बाकी 15 क.हे.मी. पानी वापस समुद्र में या पड़ोसी देशों को चला जाता है। अनुमान है कि सन् 2025 तक सतही पानी की मात्रा बढ़कर 18.5 क.हे.मी. होगी, जिसमें से (3.5 क.हे.मी.)
भंडारण द्वारा और सीधे पंपों से (4.5 क.हे.मी) यानी कुल 8 क.हे.मी. पानी का उपयोग किया जा सकेगा। इसके अलावा सतही सिंचाई को बढ़ाकर लगभग 50 लाख हे.मी. अतिरिक्त पानी फिर दुबारा उपयोग के लिए प्राप्त किया जा सकेगा।
जमीन में जज्ब होने वाले कुल 21.5 क.हे.मी. से 16.5 क.हे.मी. पानी मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी 5 क.हे.मी भूमिगत जल स्रोतों में जा मिलता है। बरसात के मौसम में आमतौर पर नदियों के पानी का स्तर आसपास के जल स्तर से ऊंचा होता है। कारण नदी के रिसन में लगभग 50 लाख हे.मी. पानी की बढ़ोतरी होती है। सिंचाई में से होने वाले रिसन के कारण 1.2 क.हे.मी. पानी और जुड़ जाता है और इस प्रकार कुल 6.7 क.हे.मी. पानी भूमिगत भंडार में फिर जा मिलता है।
पिछले कुछ वर्षों से भूमिगत जल का भयानक गति से उपयोग बढ़ता जा रहा है। इससे नदी से पानी का रिसाव बढ़ेगा। सिंचाई के बढऩे से भी खेतों का पानी जमीन में ज्यादा जज्ब होने लगेगा। इस प्रकार अंत:स्राव की बढ़ती मात्रा से सालाना भूमिगत भंडार में जुडऩे वाले पानी का प्रमाण भी बढ़कर लगभग 8.5 क.हे.मी हो जाएगा। मिट्टी के संरक्षण के लिए किए जाने वाले उपायों से, जैसे फिर हरियाली बढ़ाने या मेड़बंदी आदि से जमीन में ज्यादा से ज्यादा पानी जाएगा। इस अतिरिक्त भूमिगत जल से सीधे उपयोग के लिए ज्यादा पानी मिल सकेगा और पास की नदियों में भी बहाव बढ़ेगा।
भूमिगत पानी की इस पुनर्वृद्धि का कई तरह से क्षय होता है- बहुत- सा पानी भाप बनकर उड़ जाता है, खुले कुओं और नलकूपों में से पानी खींचा जाता है, या जमीन के भीतरी स्रोतों से अपने आसपास की नदियों को चला जाता है। इन रूपों में जितने पानी का उपयोग नहीं होता है, वह पानी की सतह को ऊंचा करता है और उससे वाष्पीकरण बढ़ता है। अंदाज है कि सन् 2025 तक भूमिगत पानी को ऊपर खींचने का प्रमाण आज के 1.3 क.हे.मी. से बढ़कर 3.5 क.हे.मी. होने वाला है।
पानी की मुख्य मांग सिंचाई
पानी की मुख्य मांग सिंचाई के लिए है। 1974 में देश में जितना पानी इस्तेमाल हुआ, इसका 92 प्रतिशत सिंचाई में गया। बचे 8 प्रतिशत से घरेलू और औद्योगिक जरूरतें पूरी की गईं। देहातों में या तो पानी है नहीं, या पानी उनकी पहुंच में नहीं है, इसलिए कम से कम पानी से उन्हें काम चलाना पड़ता है। अगर मान लें कि सन् 2025 तक घरेलू और औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार पूरा और पर्याप्त प्रबंध होता है, तो कुल पानी का 73 प्रतिशत सिंचाई के काम में आएगा।
अनुमान है कि हम वास्तव में सालाना 8.6 क.हे.मी. से 10.5 क.हे.मी. तक पानी प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान दिल्ली के वैज्ञानिकों के मत में हमारी क्षमता ज्यादा- से- ज्यादा 8.65 क.हे.मी. प्राप्त करने की है, जबकि भारतीय तथा अमेरिकी विशेषज्ञों के एक दल का विश्वास है कि हम 9.27 क.हे.मी. तक जा सकते हैं। श्री नाग और श्री कठपालिया का अंदाज 10.5 क.हे.मी. तक का है, क्योंकि उन्हें लगता है कि नगर पालिकाओं और उद्योगों के गंदे पानी को साफ करके फिर से काम में लाया जा सकता है। लेकिन मान लें कि 10.5 क.हे.मी पानी मिलने लगेगा, तो भी सन् 2025 के साल बाद पानी की जो नाना प्रकार की मांग बढ़ेगी, उनकी पूर्ति इतने पानी से नहीं हो सकेगी। नई दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी के श्री एमसी. चतुर्वेदी ने जो चित्र खींचा है, वह बड़ा निराशजनक है। प्रो. चतुर्वेदी कहते हैं कि अगले दशक में ही देश भर में पानी की किल्लत होने लगेगी। श्री चतुर्वेदी अंतिम उपयोग- क्षमता को बहुत कम, यानी 9.27 क.हे.मी. मानते हैं और सिंचाई में काम आने वाले पानी की मात्रा को ज्यादा आंकते हैं। इसलिए उक्त अनुमानों में इतना फर्क दिखाई देता है। श्री नाग और श्री कठपालिया यह मानकर हिसाब लगाते हैं कि सिंचाई में पानी का उपयोग ज्यादा अच्छा होगा और कम- से- कम इस सदी के अंत तक तो वैसे ही बने रहेंगे। ये दोनों प्रकार के अनुमान दस साल पहले के हैं। इस बीच जैसी परिस्थिति बन रही है, उसको देखते हुए लगता है कि श्री चतुर्वेदी का निराशाजनक अनुमान ही ज्यादा सही है।
श्री चतुर्वेदी ने हिसाब लगाया है कि पानी का उपयोग करने वाले उद्योगों के अपशेष में बढ़ोतरी होगी और उससे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ेगा। बिजली का उत्पादन बढ़ेगा, तो गरम गंदे पानी के कारण नदियों के पानी में आक्सीजन घटेगी। अपने अध्ययन का उपसंहार उन्होंने इस शब्दों से किया है, 'हमारे सामने समस्या बड़ी गंभीर है। अनेक नदियों के थालों में उपयोग के योग्य स्रोत खत्म हो जाएंगे। सभी नदियों के थालों में प्रदूषण की समस्या भयंकर हो जाएगी और सदी के पूरा होते- होते पर्यावरण की अवनति सार्वधिक हो जाएगी। इन सबका दिल दहलाने वाला संकेत यह है कि अगर हम तत्काल हिम्मत के साथ ठीक कदम नहीं उठाएंगे तो ऐसी परिस्थिति टाले नहीं टलेगी।'
संपर्क- संपादक, गांधी मार्ग, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय रोड (आईटीओ) नई दिल्ली 110002
फोन - 01123237491, 23236734

चॉकलेट दर्द की दवा !

अपने अनुभवों से बहुतों ने यह साबित किया है कि यदि आपके सर में दर्द हो रहा हो तो थोड़ा मीठा खा लीजिए दर्द से आराम मिल जाएगा।
वा से दर्द दूर करने के तमाम रास्ते हैं। दवाईंयां खाने से दर्द तो चला जाता है, लेकिन कई साइड इफेक्ट भी झेलने पड़ते हैं। लेकिन इधर कुछ शोधकर्ताओं ने जो शोध किए हैं और दावा किया है उसे जानकर आपको खुशी होगी कि अब न केवल आपको दर्द से छुटकारा मिलेगा, बल्कि मुंह का जायका भी बदल जाएगा। यह नया शोध बताता है कि चॉकलेट खाने या एक ग्लास पानी पीने से दर्द में आराम मिलता है। बशर्ते उस दौरान आप भूखे या प्यासे न हों।
शिकागो यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता डॉ. पैगी मेसन के अनुसार- शौकिया तौर पर चाकलेट खाना या महज पानी पीना प्राकृतिक दर्द निवारक के तौर पर काम करता है। पूर्व में किए शोधों से भी साबित हो चुका है चॉकलेट खाने से दर्द में आराम मिलता है।
वैसे अपने अनुभवों से बहुतों ने यह साबित किया है कि यदि आपके सर में दर्द हो रहा हो तो थोड़ा मीठा खा लीजिए दर्द से आराम मिल जाएगा। जर्नल ऑफ न्यूरोसाइंस में प्रकाशित शोध के मुताबिक प्यास या भूख न लगने पर खान- पान दर्द निवारक का काम करता है। इस शोध में चूहों को चॉकलेट, चीनी मिला हुआ या सादा पानी पीने के लिए दिया गया। उनके पिंजरे की जमीन को बल्ब की रोशनी से गर्म किया गया। गर्माहट पर चूहों ने अपना पैर जमीन से उठा कर प्रतिक्रिया दी। लेकिन खाने-पीने के दौरान चूहों की शारीरिक प्रक्रियाएं धीमी रहीं। डा. मेसन ने बताया, इसका कैलरी से कुछ लेना-देना नहीं है। पानी में कोई कैलरी नहीं होती। सैक्रीन में भी शर्करा नहीं होती, लेकिन दोनों में चॉकलेट जैसा ही प्रभाव होता है। हैरान न हों, वैज्ञानिकों का मानना है खाने-पीने से दर्द में तभी आराम मिल सकता है जब इसे आनंद लेने के लिए खाया जाए। बीमार चूहे द्वारा चॉकलेट खाने से कोई फर्क नहीं देखा गया। मस्तिष्क में मौजूद रेफे मैग्नस नामक हिस्सा खाने या पीने के दौरान दर्द को कम करने का काम करता है। डॉ. मेमन के अनुसार यह प्रभाव मनुष्यों में भी पाया जाता है। पूर्व के शोधों में साबित हो चुका है बच्चों को टीका लगाने पर दर्द होने के दौरान मीठा पेय पदार्थ देने पर उन्हें कम दर्द होता है।
तो जनाब यदि आप तेज दर्द से परेशान हैं तो चॉकलेट खाकर और एक गिलास ताजा पानी पीकर देखिए फिर बताइए क्या इससे आपको राहत मिली? यदि हां तब तो चाकलेट बनाने वाली कंपनियों के वारे न्यारे हो गए समझिए।

आखिर क्या है यह खाप पंचायत

खाप पंचायत की सबसे खास बात यह है कि औरतें इसमें शामिल नहीं की जातीं, ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है तथा सारे फैसले पुरुष ही लेते हैं। इसी तरह दलित इनकी पंचायत में या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं
भारत के गांव में जब भी किसी परिवार की इज्जत के नाम पर हत्या होती है तो जाति पंचायत या खाप पंचायत का जिक्र आता है। किसी परिवार को यदि किसी शादी के मामले में परेशानी होती है तो मामला खाप पंचायत तक पहुंचता है और इस खाप पंचायत को पूरा अधिकार होता है कि वह किसी ऐसी शादी को अमान्य कर दें जो उनकी नजर में सामाजिक नियम कायदों के अनुकूल न हो, जैसे विवाहित जोड़ें को अलग कर दें तथा संबंधित परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर उसे गांव से ही बाहर कर दे। बात इतने से भी नहीं बनती तो कई मामलों में युवक या युवती की हत्या तक क ा फैसला यह खाप पंचायत सुना
सकती है।
मीडिया द्वारा लगातार ऐसे विषयों से संबंधित समाचारों को प्रकाशित- प्रसारित करने के बाद भी बहुतों के मन में सवाल उठता है कि आखिर यह खाप पंचायत है क्या बला-
खाप पंचायतों पर गहन शोध करने वाले डॉक्टर प्रेम चौधरी का कहना है कि खाप पंचायतें पारंपरिक पंचायतें होती हैं। जिसपर प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है। जो गोत्र जिस इलाके में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा प्रभाव होता है। कम जनसंख्या वाले गोत्र भी यद्यपि पंचायत में शामिल होते हैं लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में चलती है। गांव के सभी निवासियों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएं या न आएं ...और जो भी फ़ैसला लिया जाता है उसे सर्वसम्मति से लिया गया फैसला माना जाता है और वह सभी पर लागू होता है।
इस खाप पंचायत की सबसे खास बात यह है कि औरतें इसमें शामिल नहीं की जातीं, ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है तथा सारे फ़ैसले पुरुष ही लेते हैं। इसी तरह दलित इनकी पंचायत में या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता। जबकि ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं। सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की ही बताई जाती है। विशेष तौर पर पंजाब- हरियाणा के देहाती इलाकों में जाटों के पास बहुत अधिक भूमि है, प्रशासन और राजनीति में भी इनका बोलबाला है।
डॉक्टर प्रेम चौधरी का इस बारे में मत है कि- आज एक राज्य से दूसरे राज्य में और साथ ही एक ही राज्य के भीतर भी बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना बढ़ा है। इससे किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या का स्वरूप बदला है। साथ ही एक गांव जहां पांच गोत्र थे, आज वहां 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं। यदि पहले पांच गोत्रों में शादी- ब्याह करने पर प्रतिबंध था तो अब इन गोत्रों की संख्या बढ़कर 20-25 हो गई है।
आसपास के गांवों में भी भाईचारे के तहत शादी नहीं की जाती है। ऐसे हालात में जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो शादी की संस्था पर ख़ासा दबाव बन गया है।
पिछले कुछ वर्षों में इन प्रदेशों से जो किस्से सामने आए हैं वे केवल भागकर शादी करने के नहीं हैं। उनमें से अनेक मामले तो माता-पिता की रज़ामंदी के साथ शादी के भी हैं पर पंचायत ने गोत्र के आधार पर इन्हें नामंज़ूर कर दिया।
जैसे सात साल पहले जौणदी गांव में रिसाल सिंह ने खाप पंचायत में रहते हुए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और गोत्र विवाद को लेकर गांव के सात परिवारों को गांव से निकलने का हुक्म सुनाया था। आज उसी रिसाल के पोते रविंद्र सिंह और उनकी पत्नी शिल्पा की शादी को लेकर उनके पूरे परिवार को गांव छोडऩे का दबाव झेलना पड़ रहा है।
मामला कुछ इस प्रकार है- रविंद्र जब पांच साल का था उसकी बुआ उसको लेकर दिल्ली के सुल्तानपुर डबास गांव ले आई थी। उसकी शादी भी उधर ही कर दी गई। शादी के कुछ महीने बाद जब दोनों अपने पुश्तैनी गांव ढराणा गए तब वहां की महिलाओं ने शिल्पा से उसका गांव और गोत्र पूछ लिया। जैसे ही उन्हें पता चला कि शिल्पा कादियान गोत्र की है, परिवार पर गाज गिर पड़ा। कादियान खाप ने पंचायत बुलाई और फैसला सुना दिया कि या तो रविंद्र और शिल्पा की शादी तोड़ दी जाए या वह परिवार गांव छोड़ दे। रविंद्र शिल्पा को नहीं छोडऩा चाहता। रविंद्र ने पंचायत को वचन भी दिया है कि वह अपने पुश्तैनी गांव ढराणा में कभी कदम नहीं रखेगा पर पंचायत फिर भी अड़ी है कि रिसाल सिंह के परिवार को गांव छोडऩा ही होगा।
ऐसे कई और मामले है जो खाप पंचायत के शिकार हुए हैं - रोहतक के गांव खेड़ी महम में एक दंपती को भाई- बहन की तरह रहने का आदेश जारी किया गया था, क्योंकि दोनों एक ही गोत्र के हैं। इस दंपती की तीन साल पूर्व शादी हुई थी। उनका एक साल का बच्चा भी है।
इसी प्रकार राज्य के कैथल जिले के मटौर गांव के वेदपाल ने पिछले वर्ष नौ मार्च को जींद के सिंघवाल गांव की सोनिया से प्रेम विवाह किया था। उनका भी कसूर था कि दोनों एक ही गोत्र के थे। इस मामले में तो लगभग पांच सौ लोगों की भीड़ ने वेदपाल को दौड़ा- दौड़ाकर पीटा, और, तब तक पीटते रहे जब तक कि उसकी जान नहीं चली गई। बाद में उसके शव को सड़क पर फेंक दिया गया। हैरानी की बात है कि वह युवक अकेला नहीं था उसके साथ हाईकोर्ट के वारंट अफसर और पुलिस के पंद्रह जवान भी थे।
इसी तरह करनाल जिले के बल्ला गांव में नौ मई 2008 को सुनीता और जसबीर की हत्या कर दी गई। उन दोनों ने भी प्रेम विवाह किया था। (उदंती फीचर्स)

गोल्फ कोर्स पर महिलाएं

- रेनू राकेश
21 वर्षीय निकिता जडेजा, जयपुर के क्रिकेटरों के घराने से है। वंश-परंपरा होने के बावजूद, मनोविज्ञान की इस छात्रा के लिए क्रिकेट पहली पसंद नहीं था।
जब बैंगलोर स्थित, 27 वर्षीय साहसी एम.बी.ए., निकी पोनप्पा ने गोल्फ के लिए, बीमा कैरियर और उससे मिलने वाले महीने के वेतन चैक को छोडऩे का फैसला किया तो कई लोग दंग रह गए। 'क्या यह करना उचित है?' यह स्वाभाविक प्रश्न था, क्योंकि भारत में महिलाओं को व्यवसायिक (प्रोफेशनल) गोल्फ अभी शैशवकाल में है। लेकिन निकी ने अपना रास्ता चुन लिया और अब वह अपने क्लब को छोडऩे वाली नहीं थी।
निकी, जो पिछले 2 सालों से प्रो. गोल्फ खेल रही है, महिलाओं के व्यवसायिक गोल्फ टुअर 2009-2010 के (जयपुर के रामबाग गोल्फ क्लब में) दूसरे दौर में खेल रही नौ महिला गोल्फ खिलाडि़यों में से एक थी।
महिलाओं का गोल्फ भारत में कुछ वर्षों पुराना है लेकिन फिर भी विभिन्न पृष्ठभूमियों से कई सारी युवा महिलाएं इसमें शामिल हो रही हैं। वर्ष 2004 में, भारत के महिला गोल्फ असोसिएशन में केवल तीन व्यवसायियों ने रजिस्ट्रेशन कराया है। आज, देश में व्यवसायिक महिला गोल्फरों की कुल संख्या 20 से कुछ अधिक है।
21 वर्षीय निकिता जडेजा, जयपुर के क्रिकेटरों के घराने से है। वे कहती हैं, 'मेरे पिता, प्रहलाद सिंह जडेजा ने राजस्थान से रणजी खेला, और मेरे दादा जी रणवीर सिंह जडेजा ने टेस्ट क्रिकेट खेला। वास्तव में, वे ऑस्ट्रेलिया जाने वाली भारत की पहली टीम का हिस्सा थे। और अधिक प्रसिद्घ, अजय जडेजा मेरे चचेरे भाई हैं।' लेकिन वंश-परंपरा होने के बावजूद, मनोविज्ञान की इस छात्रा के लिए क्रिकेट पहली पसंद नहीं था। निकिता ने प्रो. सर्किट में प्रवेश से पहले, पांच वर्षों तक शौकिया गोल्फ खेला।
शर्मिला निकोलेट के जीवन में खेल हमेशा रहा है। बैंगलोर स्थित नवीं कक्षा की 18 वर्षीय किशोरी घर से ही पढ़ाई करती रही है और अपना बाकी समय विभिन्न खेलों को समर्पित करती रही है। वर्तमान में पत्राचार के माध्यम से बी.ए. प्रथम वर्ष कार्यक्रम में पंजीकृत, शर्मिला ने जल्द ही अपना उद्देश्य खोज लिया। गत वर्ष वे देश की सबसे युवा महिला गोल्फ व्यवसायी बन गईं।
फिर, जाहिर है, अनुभवी महिला खिलाड़ी भी हैं जैसे चंपिका सान्याल, एक स्थापित महिला गोल्फर, और 1999 से 2002 तक भारतीय गोल्फ यूनियन के महिला भाग की अध्यक्ष; और स्मृति मेहरा, भारत की पहली और इकलौती महिला व्यवयायी गोल्फ असोसिएशन की व्यवसायी थी। डब्ल्यू.जी.ए.आई. को आंरभ करने वाले इस युगल को विश्वास है कि किसी दिन और भी भारतीय महिलाएं एल.पी.जी.ए. और यूरोपियन टुअर का हिस्सा होंगीं। स्मृति, सिम्मी के नाम से भी जानी जाती हैं, 1997 - अपने रंगरूट वर्ष - में यू.एस. गईं थी, क्योंकि उस समय भारत में महिलाओं के लिए कोई प्रो. गोल्फ था ही नहीं।
शर्मिला और स्मृति मेहरा को छोड़ कर, भारत में सभी महिला गोल्फर अपने 20वें वर्ष में हैं और उसमें से अधिकांश के परिवार में एक गोल्फर है। 21 वर्षीय दुबली-पतली प्रीतेंदर कौर के लिए प्रेरणा हरियाणा सरकार के मुलाजिम, उनके पिता, पाल सिंह से आई, जो स्वयं व्यवसायी हैं। तो, 2007 में शौकिया सर्किट में अपनी उपस्थिति महसूस कराने के बाद, यह जाहिर था कि प्रीतेंदर भी प्रों बनेंगीं।
निकी ने पहले गोल्फ अपने पिता, सेना में कर्नल को कोर्स पर साथ देते हुए, तब खेला जब वे मैसूर कालेज में थीं। स्मृति के लिए, गोल्फ हमेशा से खाने की मेज पर होने वाली सामान्य बातचीत का हिस्सा रहा। उसके भाई, संजीव मेहरा, अभी कुछ वर्षों तक भारत के लिए व्यवसायिक गोल्फ खेलते थे। जहां पिता सामाजिक गोल्फर थे, वहीं उनकी मां, बिली मेहरा, प्रसिद्घ हुई जब उन्होंने शौकिया सर्किट में भारत का प्रतिनिधत्व किया। जाहिर है, पिता के जयपुर में गिने चुने प्रमाणित गोल्फ कोच होने के साथ, निकिता के पास परिवार में क्रिकेट और गोल्फ दोनों ही थे।
दिल्ली की नलिनी सिंह, जो चार वर्ष पहले व्यवसायी बनीं, लेकिन अपना पहला टुअर इस साल खेल रही हैं, बताती हैं कि 'जब किसी को खेलते हुए देखते हो, वो आपके लिए शुरुआत बन जाती है।' कईयों का मानना है, प्रो. बनने के लिए बहुत लगन चाहिए लेकिन बहुत लाभकारी हो सकता है। निकी को लगता है कि गोल्फ कोर्स पर बहुत कुछ हो सकता है क्योंकि जब वे आई.एन.जी. वैश्या जीवन बीमे के साथ थीं, उन्होंने कोर्स पर अपने हाई-नेट ग्राहकों के साथ काफी अच्छा बिजनेस किया।
एक गोल्फर के कैरियर में वित्तीय दर्शनीयता की बात करते हुए, स्मृति कहती हैं, 'यू.एस. में, विजेता को 2.5 से 3 मिलियन यू.एस.डी. डॉलर के बीच कुछ भी प्राप्त होता है। अंतिम आने वाले गोल्फर को भी करीब 35-40,000 यू.एस. डॉलर मिल जाते हैं। खर्च जो अधिकतर आने-जाने, रहने और कैडी लेने पर होता है, वह करीब 60-70,000यू.एस. डॉलर होता है। यूरोपियन टुअर पर, आप एक साल में लगभग आधा मिलियन यूरोस कमा लेते हैं जबकि खर्चा करीब 20,000 यूरोस के करीब होता है। भारत में, पुरस्कार राशि काफी कम होती है, वार्षिक लगभग 4-4,50,000। अच्छी बात यह है कि यह खेल इतना महंगा नहीं है........क्योंकि अधिकांश खिलाड़ी, सेना पृष्ठभूमि से आते हैं, उन्हें रहने की जगह सेना मेस में मिल जाती है। केवल खेल के सामान पर खर्चा होता है। यू.एस. की तरह नहीं, जहां प्रो. गोल्फरों को खेल सामान मुफ्त मिलता है, भारत में, एक साल में, खेल के सामान पर 30-50,000 रूपये खर्च करने पड़ते हैं।'
आगे स्मृति कहती हैं, भारत में, अंतिम स्थान का चैक से भी खर्च निकल जाता है। रुचिकर है कि जहां महिला गोल्फरों के लिए निवेश अधिक है, सभी जीवन भर केवल गोल्फ व्यवसायी नहीं बने रहना चाहतीं। निकिता, जो मनोविज्ञान की छात्रा हैं, रुचिकर केरियर मिश्रण बनाना चाहती हैं। दिल्ली के लेडी श्रीराम कालेज की इस छात्रा का कहना है, 'मैं कैरियर के लिए खेल मनोविज्ञान को लेना चाहती हूं। सचिन तेंदुलकर के पास खेल मनोचिकित्सक हैं जो विदेशी हैं; ऐसा ही सानिया के साथ है। मैं इस अंतर को भरना चाहती हूं।'
ये प्रतिभाशाली युवा महिलाएं बिल्कुल जानती हैं कि कोर्स पर अपना बेहतरीन कैसे देना है और महान खेल कैरियर पर कैसे आगे बढऩा है। (विमेन्स फीचर सर्विस)

धंधा



डॉक्टर - वकील साहब, आपका धंधा अच्छा है। आपकी
जरा- सी भूल से आदमी को जमीन से पांच फुट ऊपर लटका दिया जाता है।
वकील - हां, डॉक्टर साहब , लेकिन आपका धंधा तो मेरे धंधे से भी अच्छा है। आपकी जरा- सी भूल से आदमी को जमीन से पांच फुट नीचे दबा दिया जाता है।

विज्ञान का यह वरदान मेरे शहर में क्यों नहीं?


- राहुल सिंह
27 मार्च को अर्थ-ऑवर की सुगबुगाहट इस वर्ष सन् 2010 में रायपुर छत्तीसगढ़ में भी हुई। रात साढ़े आठ से साढ़े नौ बजे तक निर्धारित इस अवधि में विद्युत मंडल के अनुसार बिजली की खपत लगभग दस फीसदी कम हुई। अगले दिन सुबह टहलते हुए, धूप निकलते तक स्ट्रीट लाइट जलते देखा। तब कोई चालीस साल पहले पढ़ा, विज्ञान का पाठ 'फोटो सेल' याद आया, जिसमें पढ़ाया जाता था कि किस तरह से यह रोशनी के असर से काम करता है और स्ट्रीट लाइट के जलाने- बुझाने को नियंत्रित कर सकता है। मैं सोचता था गुरूजी बता रहे हैं, किताब में लिखा है, सच ही होगा, ताजा-ताजा अविष्कार है, विदेशों में इस्तेमाल हो रहा होगा, हमारे यहां भी आ जाएगा, विज्ञान का यह वरदान।
28 मार्च 2010 के किसी अखबार में यह खबर भी थी कि अर्थ-ऑवर पर भारी पड़ा 20-20 क्रिकेट, यानि मैच और खेल प्रेमी दर्शकों पर इसका कोई असर नहीं हुआ तब याद आया दस साल पहले का एक दिवसीय क्रिकेट का डे-नाइट मैच, जिसमें बताया जा रहा था कि फोटो सेल नियंत्रित फ्लड लाइट ढलते दिन की कम होती रोशनी में इस तरह से एक-एक कर जलती हैं कि खिलाडिय़ों पर संधि बेला का फर्क नहीं होता और उजाला दिन- रात में एक सा बना रहता है।
अब सब बातें मिलाकर सोचता हूं कि फोटो सेल का पाठ यदि मैंने चालीस साल पहले पढ़ा, तो यह उससे पहले का अविष्कार तो है ही, फिर उसका प्रयोग हमारे देश में भी होने लगा है यह डे- नाइट क्रिकेट मैच में देख चुका हूं, तो फिर यह इस शहर की सड़कों तक, स्ट्रीट लाइट के जलने- बुझने के नियंत्रण के लिए क्यों नहीं पहुंचा? चालीस साल पहले के फोटो सेल का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है, नादान मन ने अपने को समझा लिया था, लेकिन 'चिप' के दौर में, आज इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है।
अर्थ-ऑवर पर बिजली की बचत के लिए दो और बातें- पहली तो पुरानी यादों में से ही हैं, जब सुबह आठ बजे दुकानें खुल जाया करती थीं और शाम सात बजे से दुकान बढ़ाई जाने लगती थी, रात आठ बजते- बजते बाजार सूना हो जाता था। आज का बाजार सुबह ग्यारह बजे अंगड़ाई ले रहा होता है और शाम सात बजे के बाद शबाब पर आता है। रविवार को बाजार का खुलना- बंद होना चर्चा का विषय बन जाता है, लेकिन 27 मार्च के एक घंटे बत्ती गुल कर, क्या इस तरह की बातें सोची- याद की जा सकती हैं और एक दिन, एक घंटे में सोची गई इन बातों को पूरे साल के लिए विस्तार क्यों नहीं दिया जा सकता?
हम मन चंगा रखने के लिए कठौती में गंगा ले आते हैं। हर मामले के लिए हमने अलग- अलग आकार- प्रकार के कठौते बना लिए हैं। वैलेन्टाइन का, महिला, बच्चों, बूढ़ों का, हिन्दी का, भाषा का एक-एक दिन, कभी सप्ताह और पखवाड़ा, हर तरह के कठौते। हलषष्ठी पर तालाब तो अनंत चतुर्दशी पर पूरा समुद्र अपने आंगनों में रच लेते हैं। लेकिन चिंता और अवसाद- ग्रस्त मन के रचे कठौते, कूप-मण्डूक बना सकते हैं और आंख मूंद लेने की शुतुरमुर्गी सुरक्षा महसूस करा सकते हैं। ध्यान रखना होगा कि कठौते से कभी-कभार ही और सिर्फ तभी काम चलता है, जब मन चंगा हो।

संपर्क- राहुल सिंह, रायपुर, छत्तीसगढ़
मो.- 9425227484, rahulks58@yahoo.co.in
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खजियार में सन्नाटा...

- प्रिया आनंद
खजियार ... ऊंचे देवदार वृक्षों से घिरा हरियाली से सजा एक गोल मैदान और मैदान के बीच तश्तरी जैसी नीली झील....। इस झील में देवदार के वृक्ष झांकते दिखते हैं और पानी में बतखें शरारतें करती नजर आती हैं।

हिमाचल के बारे में एक आम सी बात है कि अगर आप यहां पर्यटन की दृष्टि से भी आते हैं तो आपका पर्यटन अपने आप धार्मिक पर्यटन हो जाएगा। यानी एक पंथ दो काज, पर कुछ एक जगहें ऐसी भी हैं जिन्हें शुद्ध पर्यटन की श्रेणी में रखा जा सकता है, यह अलग बात है कि मंदिर वहां भी होते हैं परंतु वहां पर्यटन का महत्व अधिक होता है ऐसा ही एक स्थान है खजियार जो पर्यटन के संदर्भ में मिनी स्विट्रलैंड का खिताब पा चुका है। स्विट्जरलैंड... हिमाचल में, और वह भी डलहौजी चंबा के बेहद करीब...? यह एक ऐसा सवाल है जो रोमानी अनुभूति देता है। सच तो यह है डलहौजी या चंबा का पर्यटन बिना खजियार के पूरा ही नहीं होता।
समुद्र तल से 6400 फुट की ऊंचाई पर स्थिति धरती का यह सुंदर छोटा सा टुकड़ा नैसर्गिक आकर्षण रखता है ... वह भी कुछ ऐसा कि यहां कदम रखते ही आप अपनी सारी थकान भूल जाते हैं। कह सकते हैं कि खजियार के बिना न तो डलहौजी की कल्पना की जा सकती है, न ही चंबा का पर्यटन इसके बिना पूरा होता है।
खजियार ... ऊंचे देवदार वृक्षों से घिरा हरियाली से सजा एक गोल मैदान और मैदान के बीच तश्तरी जैसी नीली झील....। इस झील में देवदार के वृक्ष झांकते दिखते हैं और पानी में बतखें शरारतें करती नजर आती हैं। खजियार को देखकर ही लार्ड कर्जन के होठों से बेसाख्ता निकल गया था ....
नेस्लिंग एमंगस्ट दि हायर हिल्स
सराउंडेड बाइ दि स्नोज
चंबा मिसेस हाफ अवर इल्स
एंड आल अवर लेसर वोज
ए जेंटल राजा रूल्स दि लैंड
विथ फर्म बट जेंटल हैंड्स
ओह हू कुड विश ए बेटर फेट
दैन चंबा, ज हिल हिड लैंड्स
खजियार की खूबसूरती अनुपम है, लोकेशन अच्छी होने के कारण अकसर फिल्म वाले भी इधर रूख करते हैं। जब बर्फबारी का मौसम हो तो इसकी सुंदरता में चार चांद लग जाते हैं। देवदारों पर जमी हुई बर्फ धीरे- धीरे उतरती है, ऐसे समय खजियार सैलानियों को किसी स्वर्ग से कम नहीं लगता। जहां इतिहासकारों ने इसकी तुलना पहलगाम से की है वहीं इसे मिनी स्विट्जरलैंड के खिताब से भी नवाजा गया है।
चंबा और डलहौजी के लोगों का नियम सा है कि वे अकसर वीकएंड मनाने खजियार चले जाते हैं और सारा दिन वहां बिताकर शाम को घर वापस लौट आते हैं। उनके लिए यह आउटिंग बेहद सस्ती पड़ती है। यहां धूप धीरे- धीरे उतरती है और आहिस्ते से पूरे मैदान पर फैल जाती है...।
सैलानियों के लिए यहां बहुत कुछ है ... मैदान के किनारे लगी खूबसूरत रंगीन बैंचे, बच्चों के लिए झूले, घुड़सवारी करना हो तो घोड़े किराए पर लीजिए और पूरे मैदान का चक्कर लगाइए... और अगर आपकी धर्म में आस्था हो तो खज्जीनाग मंदिर में जाकर पूजा अर्चना कर सकते हैं। देवदार के पर्वतीय जंगलों से घिरे मैदान और उसकी गोद में ठहरी, नन्हीं नीली तश्तरी जैसी झील में ही इस धरती की खूबसूरती का तिलिस्म है। यहां पूरे दिन रह कर ही इस जगह का पूरा आनंद लिया जा सकता है। यह एक तथ्यपरक बात है कि सुबह खजियार की सुंदरता कुछ और होती है, दोपहर कुछ और तथा शाम इन सबसे अलग होती है। जैसे- जैसे शाम की परछाइयां मैदान पर उतरती हैं, यहां का पूरा वातावरण रहस्यमय होता जाता है। ढलती शाम में तरह- तरह की रहस्यमय कहानियां सुनाने वाले लोग भी मिल जाएंगे। वह भी कुछ इस तरह कि यहां बने यूरोपीय शैली के दोनों रेस्ट हाउसेज में से एक में भूतों का डेरा है सच यही है कि ऐसा कुछ भी नहीं है, पर अगर आपको काल्पनिक भूतों से मिलने का शौक हो तो, बेशक यहां रात को रूककर भूतों का इंतजार कर सकते हैं। फिलहाल भूत मिलें या न मिलें, पर गहराती रात में इस जगह की खूबसूरती आपको मोहित कर जाएगी। यह एक ऐसा अनुभव होगा जिसे आप जिंदगी भर नहीं भूल सकेंगे। प्रकृति अपने दिव्यतम रूप में यहां स्थित है और इसका साक्षात्कार आप तभी कर सकते हैं, जब यहां रूक कर पूरे इत्मीनान से प्रकृति के सान्निध्य में अपना वक्त गुजारेंगे। यह एक खूबसूरत नन्हा सा स्वर्ग है।
समुद्र तल से इतनी ऊंचाई पर स्थित यह गोल मैदान हरे नगीने सा तो लगता ही है, किसी आदर्श गोल्फ कोर्स की तरह भी लगता है। डलहौजी जीपीओ स्क्वायर से मात्र 22 किमी की दूरी पर स्थित खजियार तक सड़क सुविधा है। हरियाली से भरपूर यह मैदान 1.6 किमी लंबा और 0.9 किमी चौड़ा हैं ऊंचे देवदारों, चीड़ वृक्षों से घिरे खजियार के ऊपर नीले आकाश का सुंदर चंदोवा तना है जिसमें रात होते ही सलमें सितारे टक जाते हैं। यहां की झील में पहले एक फ्लोटिंग आइलैंड भी था जो पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण रखता था। हरे देवदारों के बीच से ही चंबा के लिए रास्ता जाता है, जहां चंबा के एक हजार साल पुराने मंदिर है।
खजियार का दुर्भाग्य यह है कि इसके बारे में भ्रामक प्रचार कर दिया गया है। जैसे कि वहां खाने को कुछ नहीं मिलता इसलिए वहां रुकना भी बेकार है। इस तरह की बातों का नतीजा यह होता है कि लोग डलहौजी रुकते हैं और वहां से पैक्ड लंच लाते हैं। टूरिस्ट बसें यहां आने ही नहीं दी जातीं और टैक्सी वालों की चांदी रहती है। इस तरह देखें तो यहां का पर्यटन सरकारी बसों के हवाले हो कर रह गया है। खजियार का सबसे खूबसूरत मौसम जाड़ों का होता है, जब घनी बर्फ धीरे-धीरे उतरती है... सारे पेड़ चांदी जैसी बर्फ से सज जाते हैं... तब इस गोल मैदान की हरियाली बर्फ की सफेदी से ढकी और भी सुंदर लगती है।
खजियार का एक खूबसूरत आकर्षण और भी है बशर्ते इसे समझा जा सके, यहां से सोलह किमी की दूरी पर एक जगह ऐसी है जहां से मणिमहेश कैलाश के साक्षात दर्शन होते हैं। अगर इसे धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से लिया जाए तो भारी पर्यटक खींचा जा सकता है। रास्ते में कालाटोप अभ्यारण्य भी पड़ता है। यहां कितने ही ऐसे होटल हैं जिनमें अच्छी व्यवस्था है। मिनी स्विस, कंट्री रिजोर्ट, होटल देवदार, शाइनिंग स्टार, बाम्बे पैलेस जैसे होटल हैं। इनके अलावा छोटे गेस्ट हाउस हैं जिनके रेट्स कम हैं और आम पर्यटक की जेब के अनुकूल भी ... साथ ही मंदिर में धर्मशाला है। यहां से थोड़ी ही दूर पलवानी माता का स्थान है जहां से पंजाब की पांचों नदियों देखी जा सकती हैं आज तक इस जगह के बारे में भी अच्छी तरह प्रचार नहीं किया गया।
खजियार की खूबसूरती जाड़ों के मौसम में देखने वाली होती है। चारों तरफ होती है, बस बर्फ की सफेदी... एक ऐसा नयनाभिराम दृश्य जिसे देखते आंखें नहीं थकतीं। यह नजारा हफ्ते भर यूं ही बना रहता है। ... भूले भटके जो पर्यटक यहां आ जाते हैं वे यह सुंदरता देखकर हतप्रभ रह जाते हैं।
पर कुछ एक कमियां हैं, जैसे कि अगर भारी बर्फ गिर जाए तो रास्ते से बर्फ हटाने के लिए स्नोकटर का इंतजाम नहीं है इसलिए पर्यटक जिस मुश्किल से गुजरते हैं उसके बाद आने का नाम ही नहीं लेते। सबसे कमी, सही प्रचार की है अन्यथा यह सचमुच अपना स्विट्जरलैंड नाम सार्थक करता है। प्रशासन इसके लिए कोशिश करे तो खजियार उसके कमाऊ पर्यटक स्थलों में आ सकता है। यहां का सुंदर गोल मैदान गंदगी का ढेर बन कर रह गया है ... वह सुंदर झील जिसका जिक्र किताबों में है, अब एक गंदा तालाब बन कर रह गया है। खजियार को प्रकृति ने सौंदर्य दिया है, पर इसकी जितनी उपेक्षा हुई है, उसने इसे घातक स्थिति में ला खड़ा किया है।
सुरक्षा के मामले में भी खजियार को असुरक्षित ही कहा जाएगा क्योंकि यहां पुलिस चौकी तक नहीं है। सबसे बड़ी समस्या बिजली की है एक बार गई तो आनी मुश्किल होती है। टेलीफोन सेवा भी बाधित रहती है। हालांकि मोबाइल की वजह से आधी परेशानी तो दूर हो गई है, पर हमने पर्यटकों के लिए क्या व्यवस्था की है इसी से पता चल जाता है। यही कारण है कि कुल पर्यटन का सीजन 15 अप्रैल से 15 जुलाई तक सिमट कर रह गया है। खजियार की बर्फबारी कितनी खूबसूरत होती है ... पर्यटक इसे देख सकें तो कितने खुश होंगे पर उनके लिए सुविधाएं कौन मुहैय्या करेगा? सड़क तंग है, लेबर कम है इसलिए स्नोकटर से रास्ता साफ करने के प्रक्रिया चलानी मुश्किल हो जाती है। हां सरकार अगर सारी सुविधाएं दे देती है तो यहां का पर्यटन चमक जाएगा।
खजियार का वातावरण और लोकेशन पैराग्लाइडिंग के लिए आदर्श है, पर इस व्यवसाय को भी यहां काफी निराशा ही मिली है। इस सब के बावजूद देखें तो खजियार एक नन्हा सा स्वर्ग है... इसलिए जब भी आप हिमाचल की हवाओं का रूख करते हैं तो खजियार जाना न भूलिएगा. यहां पहुंचने के लिए करीबी हवाई अड्डा गगल एयरपोर्ट है। नजदीकी रेलवे स्टेशन पठानकोट है। यहां तक आने के बाद खजियार के लिए बस मिल जाती है।
खजियार चंबा का आश्चर्य है ... जहां पहुंच कर प्रकृति से सीधा साक्षात्कार होता है। मई-जून के महीने में भी यहां आने के लिए हल्के गर्म वस्त्र जरूरी हैं क्योंकि अचानक आई बारिश के बाद मौसम का ठंडा हो जाना आम बात है अन्यथा मौसम सुहावना ही रहता है।
संपर्क -दिव्य हिमाचल, पुराना मटौर कार्यालय, कांगड़ा पठानकोट मार्ग, कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश)176001
मोबाइल- 09816164058

Apr 19, 2010

विश्व धरोहर की बाट जोहता सिरपुर

सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज तथा महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से उपलब्ध होता है जिनमें 'श्रीपुर' से भूमिदान दिया गया था। पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर महत्वपूर्ण राजनैतिक व सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। महाशिवगुप्त बालार्जुन के 57 वर्षीय सुदीर्घ शासनकाल में यहां अनेक मंदिर, बौद्ध विहार, सरोवर तथा उद्यानों का निर्माण करवाया गया।
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोशल) की राजधानी सिरपुर में जैसे जैसे उत्खनन का कार्य आगे बढ़ते जा रहा हैं वैसे- वैसे अतीत में छुपी अनेक पुरातात्विक, व ऐतिहासिक घटनाओं का खुलासा भी होते जा रहा है जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक समृद्धि व वास्तुकला के अकाट्य प्रमाण हैं।
सिरपुर प्राचीन काल में श्रीपुर के नाम से विख्यात रहा है तथा पाण्डुवंशीय शासकों के काल में इसे दक्षिण कोशल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त रहा है। सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज तथा महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से उपलब्ध होता है जिनमें 'श्रीपुर' से भूमिदान दिया गया था। पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर महत्वपूर्ण राजनैतिक व सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। महाशिवगुप्त बालार्जुन के 57 वर्षीय सुदीर्घ शासनकाल में यहां अनेक मंदिर, बौद्ध विहार, सरोवर तथा उद्यानों का निर्माण करवाया गया। सातवीं सदी ईस्वी में चीन के महान पर्यटक व विद्वान ह्वेनत्सांग ने सिरपुर की यात्रा की थी। उस समय यहां लगभग 100 संघाराम थे तथा महायान संप्रदाय के 10,000 भिक्षु निवास करते थे। महाशिवगुप्त बालार्जुन ने स्वयं शैव मतावलंबी होते हुए भी बौद्ध विहारों को उदारतापूर्वक प्रचुर दान देकर संरक्षण प्रदान किया था।
वर्तमान में चल रही खुदाई से सिरपुर में कई बड़े-बड़े शिव मंदिर तथा पंचायतन शैली के मंदिर मिले हैं, जिसे भारत का सबसे बड़ा मंदिर माना जा है। इसके अलावा अनेक भव्य बौद्ध मठ, बौद्ध विहार, घंटा घर, वैदिक पाठशाला और कई प्राचीन शिलालेख प्राप्त हुए हैं। बौद्ध स्तूप और राजप्रासाद एवं ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में पत्थरों से निर्मित तहखाना और एक आयुर्वेदिक स्नानागार भी मिला है। जिस स्थान पर तहखाना और घंटाघर मिला है, वहीं पर 36 अन्नागार और 9 आयुर्वेदिक स्नानकुंड प्राप्त हुए हैं यह सब इस बात को इंगित करते हैं कि सिरपुर के इतिहास को नए सिरे से परिभाषित करना होगा।
मंदिरों का नगर
यहां का प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर छठवीं शताब्दी में निर्मित भारत का सबसे पहले ईंटों से बना मंदिर है। यह मंदिर सोमवंशी राजा हर्षगुप्त की विधवा रानी बासटा देवी द्वारा बनवाया गया था। इस मंदिर के समीप ही ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का राम मंदिर है, जो भग्नावस्था में है। इसके अलावा यहां सोमवंशी राजाओं की वंशावली को दर्शाने वाले अनेक दर्शनीय मंदिर हैं हैं- गंधेश्वर महोदव मंदिर, शिव मंदिर, राधाकृष्ण मंदिर, चण्डी मंदिर।
सांची के स्तूपों से भिन्न स्तूप
सिरपुर की खुदाई में एक किलोमीटर की परिधि में फैले दूसरी शताब्दी के अवशेषों के अंतर्गत जो स्तूप मिले हैं उन स्तूपों का सीधा संबंध भगवान बुद्ध से है। इन स्तूपों के संबंध में बताया जाता है कि ये स्तूप सांची के स्तूपों से अलग हैं और पत्थर के बने हैं। पत्थरों के स्तूपों के बारे में कहा जाता है कि ऐसे स्तूप तो बुद्ध ही बनाते थे। पुरातत्व विभाग के अधिकारी बताते हैं कि बौद्ध ग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भगवान बुद्ध सिरपुर आए थे। यहां के स्तूप उसी समय के हैं।
हाल की खुदाई में यहां प्राप्त 184 टीलो के नीचे स्वणर््िाम इतिहास दबा हुआ है। यहां जो स्तूप मिले हैं उन्हें सम्राट अशोक के काल का स्तूप माना गया है। स्तूप मिलने के बाद अब यहां की संस्कृति ईसा से तीन सदी पूर्व की मानी जाएगी। पुरातत्ववेत्ता डॉ. अरुणकुमार शर्मा के अनुसार जातक कथाओं मे भी इस बात का उल्लेख है कि महात्मा बुद्ध छत्तीसगढ़ आए थे। वे जहां- जहां गये थे वहां सम्राट अशोक ने उनके निर्वाण के बाद स्तूप बनवाये थे। अब छत्तीसगढ़ मे स्तूप मिलने से उनके यहां आने की पुष्टि तो होती ही है, एक नए इतिहास की शुरुआत भी हो जाती है।
बौद्ध विहार
यहां दो बौद्ध विहार के अवशेष प्राप्त हुए हैं इनका निर्माण भी ईंटों से हुआ है। विहार के मुख्य कक्ष में भगवान बुद्ध की साढ़े छै फुट ऊंची प्रतिमा प्रस्थापित है। इसके अतिरिक्त यहां अवलोकितेश्वर और मकर वाहिनी गंगा भी मिली है। अभिलेख से ज्ञात होता है महाशिव गुप्त बालार्जुन के राज्य में आनंदप्रभु नामक भिक्षु ने इस विहार का निर्माण करवाया था। दो मंजिला इस मठ में 14 कमरे थे। इसी के पास एक ध्वस्त विहार भी प्राप्त हुआ है। यहां भी बुद्ध की प्रतिमा है।
घंटाघर
यहां प्राप्त घंटाघर के संदर्भ में पुरातत्ववेत्ता डॉ. अरुण कुमार शर्मा का कहना है कि समय के ज्ञान के लिए तब घड़ी जैसे उपकरणों का अविष्कार नहीं हुआ था तब यह घंटाघर ही सिरपुर व्यवसायियों और रहवासियों के लिए समय की जानकारी देने का एकमात्र साधन रहा होगा। प्राचीनकाल में घंटा, मिनट और सेकंड के स्थान पर पहर, पल और छिन समय के सूचक हुआ करते थे। रात्रिकाल को चार पहर में बांटा गया था। सिरपुर में मिले लगभाग 2600 वर्ष पुराने लोहे- तांबे जैसे कठोर धातु से निर्मित इस घंटे को ईसा पूर्व तीसरी-चौथी सदी का बताया जा रहा है। मिट्टी में सैकड़ों साल तक दबे रहने और जंग लगने से घंटा जीर्ण अवस्था में है। घंटे के साथ ही दो छोटी घंटियंा भी मिली हैं। बड़े घंटे की लंबाई 33 सेमी, चौड़ाई 26 सेमी और मोटाई 16 सेमी है।
पुरातन वैदिक पाठशाला
उत्खनन में 5वीं शताब्दी में बनाई गई वैदिक पाठशाला के प्रमाण भी यहां देखे जा सकते हैं। इस वैदिक पाठशाला को अरुणकुमार शर्मा के निर्देशन में खोजा गया है। 10 मीटर लंबाई व 1. 5 मीटर चौड़ाई के कमरों के बीचोंबीच में विष्णु की मूर्ति मिली है। इस कमरे में 60 विद्यार्थियों के पढऩे की व्यवस्था थी। डॉ. शर्मा के अनुसार यह भारत में खोजी गई सबसे प्राचीन पाठशाला है। यहां पर शिक्षकों के कमरें भी मिले हैं।
भव्य स्नान कुंड
डॉ. शर्मा ने नगर संरचना के उत्खनन में एक सार्वजनिक मकान खोजा है, जिसमें बरामदे ही बरामदे हैं। इसके अलावा यहां सफेद पत्थरों से निर्मित कुंड निकला है। 3.6 मीटर लंब व चौड़े कुंड की गहराई 70 सेंटीमीटर है।
कुंड के चारों तरफ 12 स्तम्भ भी थे। इनके अवशेष के रूप में आधार स्तम्भ शेष बचे हैं। कुंड के उत्तर पूर्व में तुलसी चौरा है। इसमें जल की निकासी के लिए एक भूमिगत नाली से जोड़कर कुंड से मिलाया गया है। कुंड के दक्षिण-पश्चिम कोने पर भी भूमिगत नाली से जल निकासी के काम करने के प्रमाण यहां पर मिले हैं। यह कुंड संभवत: आयुर्वेदिक स्नान के लिए प्रयुक्त होता था। कुंड में नीम की पत्तियां डालने का अनुमान हो सकता है। यहां पर संभवत: तेल स्नान पद्धति का भी उपयोग किया जाता रहा होगा।
यहां सात धान्य भंडार भी मिले हैं। इसमें तुलसी और नीम पत्ती व गेरू के टुकड़े रखकर दीमक से सुरक्षा करने के प्रमाण मिले हैं।
व्यापारिक नगरी का प्रमाण
औद्योगिक नगर की प्रतिष्ठा शरभपुरिया और पांडूवंशीय काल में सिरपुर का वैभव एक महान राजधानी के तौर पर था लेकिन हाल में मिले साक्ष्यों से इस बात की पुष्टि हो गई है कि इससे पहले भी इसकी ख्याति औद्योगिक उत्पादनों के लिए थी। सातवाहनों का प्रभुत्व इस नगर पर तीसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसवी तक रहा। महानदी के तट पर स्थित सिरपुर अरब देशों में चावल निर्यात का प्रमुख केंद्र था। सूरत बंदरगाह होते हुए सदियों पूर्व अरबदेश के व्यापारी यहां आते थे।
उत्खनन के निदेशक डा. अरुण शर्मा ने बताया कि वहां पानी के बड़े कुंड के पास एक कमरा मिला है। इसमें सोने के गहने और कांच की चूडिय़ों की ढलाई होती थी। 10 सेमी लंबा और ढाई सेमी चौड़ा स्लेटी प्रस्तर खंड पर एक ऐसा सांचा मिला है जिसमें बारीक नक्काशीदार आकृतियां हैं। जिसे दो हजार वर्ष पहले की सातवाहन काल का बताया जाता है। सोने को गलाने के बाद इसमें डाला जाता था। आम और कई आकर्षक आकृतियों में गहनों की ढलाई कर ली जाती। गहने ही नहीं यहां बनाई जाने वाली कांच की चूडिय़ों की मांग देश के कई हिस्सो में होती थी। सोने-चांदी और कांच का सामान पिघलाने में इस्तेमाल होने वाले मिट्टी के पात्र भी पाए गए हैं। बड़े पैमाने पर गहने और कांच की चूडिय़ों का उत्पादन कर इनका गुजरात, उड़ीसा समेत देश के कई हिस्सों में व्यापार होता था।
राम वनवास और सिरपुर
खुदाई में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उससे फिर से इस बात की पुष्टि हुई है कि भगवान श्रीराम को जब 14 साल का वनवास मिला था तब उनको सिरपुर से होकर ही दक्षिण की तरफ जाना पड़ा था। श्रीराम के छत्तीसगढ़ के सिरपुर से होकर जाने के और कई प्रमाण पहले से भी छत्तीसगढ़ में मौजूद हैं जैसे आरंग में अहिल्या का स्थान होने के साथ तुरतुरिया में बाल्मीकि का आश्रम। सात ही दंडकारण्य जाने का सबसे बेहतर रास्ता सिरपुर से होकर ही जाता था। श्रीराम ने शबरी से जो बेर खाए थे उसे सिरपुर के आस-पास के जंगलों में ही बताया जाता है।
शबरी जहां रहती थीं उस नगर को शबरीपुर कहा जाता था। शबरीपुर का उल्लेख अलेक्जेंडर कनिंघम की पुस्तक में भी मिलता है जो उन्होंने 1872 में लिखी थी। इस पुस्तक में शबरीपुर के साथ इस बात का भी उल्लेख है। यह बात भी स्थापित है कि सिरपुर में ही देश का प्रमुख चौराहा था। इस चौराहे से गुजरे बिना कोई भी दूसरी दिशा में जा ही नहीं सकता था। जहां किसी को दक्षिण की और जाना होता था तो उसको इलाहाबाद, सतना, अमरकंटक के बाद सिरपुर होकर ही दक्षिण की और जाना पड़ता था। श्रीराम भी दक्षिण जाने के लिए इस चौराहे से होकर गए थे। इस मार्ग का उपयोग उस समय ज्यादा इसलिए भी होता था क्योंकि यही एक ऐसा मार्ग था जिस मार्ग में नदियां कम पड़ती थी।
मंदोदरी पिता ने की टाउन प्लानिंग
ढाई हजार साल पुराने सिरपुर की खुदाई कर रहे पुरातत्ववेत्ताओं का यह भी दावा है कि इस शहर की डिजाइन लंका के राजा रावण के ससुर मय ने बनाया है। रावण की पत्नी मंदोदरी के पिता मय का जिक्र पुराणों और पुरानी तमिल पांडुलिपियों में अद्वितीय वास्तुविद के रूप में मिलता है। सिरपुर के महल, शहर संरचना, राजधानी के लिए जगह के चयन से लेकर ईंटों को जोडऩे के लिए प्रयुक्त गारे तक में वही सामग्री इस्तेमाल हुई है, जिसका जिक्र 10 हजार साल पहले मय ने किया था।
भवन निर्माण की सारी विधियों को संस्कृत भाषा में लिखी गई पांडुलिपियों में सुरक्षित किया गया था। कुछ साल पहले इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली ने इन पांडुलिपियों को मयमतम् (मय के विचार) किताब के रूप में प्रकाशित किया था। डेढ़ हजार से ज्यादा पेजों की दो हिस्सों में छपी किताब का अंग्रेजी में अनुवाद बेल्जियम के ब्रूनो डेगन्स ने किया है, जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वास्तुविद और संस्कृत के शिक्षक हैं। ग्रंथ के हिसाब से पांडुवंशी राजाओं ने सिरपुर को ऐसे स्थान पर बसाया, जहां पीली मिट्टी थी और उसका आकार नदी की धारा के साथ-साथ धनुष जैसा था। शहर की बाहरी दीवार नदी के धारा के समानांतर ठीक 22 से 30 डिग्री के कोण पर थी। मयमतम् के अनुसार नदी से लगी दीवारों के ऐसे कोण से बाढ़ में भी शहर को नुकसान नहीं पहुंचता। सिरपुर का ढाल भी किताब के अनुसार पूर्व से पश्चिम की तरफ है।
सिरपुर में अब तक मिले 17 शिवमंदिरों में भी एक खास सिद्धांत का प्रयोग हुआ है, जिन्हें भी वास्तुविद और भगवान शिव के भक्त मय ने बनाया था। सिद्धांत के अनुसार मंदिर का दरवाजा शिवलिंग के आकार से दोगुना बड़ा और मंदिर का शिखर आठ गुना होना चाहिए। जांच में पाया गया कि सारे शिवमंदिर उसी गणना के अनुरूप बने हैं। आज हम आधुनिक शहरों में भूमिगत नाली की व्यवस्था की बात करते हैं, लेकिन सिरपुर में 1800 से 2500 साल पुराने मकानों में पहले से ही यह व्यवस्था थी। शहर की कुछ भूमिगत नालियां तो एक किमी से भी ज्यादा लंबी मिलीं है।
ईंटों की जुड़ाई का फार्मूला
मकान, मंदिरों में इस्तेमाल ईंटों की जुड़ाई में मसाले की जगह फेविकोल जैसे पेस्ट का बखूबी इस्तेमाल किया गया था। सीमेंट से कहीं ज्यादा मजबूत जुड़ाई करने वाले पेस्ट के नमूने को शर्मा ने केमिकल टेस्ट के लिए देहरादून के लैब में भेजा था। जांच से उन्हें पता चला कि पेस्ट तैयार करने के लिए हजारों साल पुराने फार्मूले का इस्तेमाल हुआ था। इसे बबूल की गोंद, अलसी के तेल, भूसे, सड़े हुए गुड़, कुछ जड़ी-बूटियों के मिश्रण को सड़ाकर तैयार किया जाता था।
विश्व धरोहर की बाट जोहता सिरपुर?
सिरपुर के इन पुरातन विशेषताओं के देखते हुए लंबे समय से इसे विश्व धरोहर घोषित कराने की मांग की जा रही है परंतु इस पर अभी तक गंभीरता से विचार नहीं किया गया है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह इस ओर पुन: प्रयास आरंभ करे ताकि विश्व के पर्यटन मानचित्र पर सिरपुर का नाम भी प्रमुकता से आए और आधिक से अधिक देशी और विदेशी पर्यटक इस ओर आकर्षित हों वैसे राज्य सरकार ने वर्ष 2006 से सिरपुर महोत्सव का आयोजन प्रारंभ कर किया है जिससे सिरपुर को राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेष पहचान मिली है। इसके बावजूद अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
(उदंती फीचर्स)

उम्मे सलमाः प्रकृति के साथ बंधन

चित्रकला को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लेने वाली उम्मे सलमा अपनी पहली चित्र प्रदर्शनी की सफलता से बेहद प्रसन्न हैं। प्रकृति उनके चित्रों में प्रमुखता से दिखाई देते हैं, खासतौर पर रंग- बिरंगे फूलों के माध्यम से वे अपनी बात बहुत ही सहज ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। हमने उदंती के पिछले अनेक अंकों में कई प्रतिभाशाली चित्रकारों से अपने पाठकों को रू-ब-रू कराया है और उनके चित्रों से उदंती के विभिन्न पृष्ठों को सजाया संवारा है। इस बार के अंक में प्रस्तुत है ऐसी ही एक उभरती कलाकार उम्मे सलमा -
म्मे स्कूल के दिनों से ही कुछ अलग, कुछ नया करने का जूनून था। वह कभी भी औरों की तरह परीक्षा के हौवे, अधिक नंबरों और डिग्री की उत्कंठा को अपने जीवन में प्राथमिकता नहीं दे पाई। बचपन से उसे रंगों में अपने मन के द्वार खोलने का माध्यम दिखाई दिया। पढ़ाई को जारी रखते हुए उम्मे ने रंगों से खेलना शुरू कर दिया। बेटी के इस शौक को परिवार का भी पूरा सहयोग मिला और घरवालों की मंजूरी और बढ़ावे की मदद से उम्मे ने ब्रश और रंगों की बारिकियों को सीखा और समझा।
उम्मे ने अपनी पेटिंग्स की पहली प्रदर्शनी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हस्त शिल्प विकास मंडल के हाट परिसर में लगाई थी। उनकी यह प्रदर्शनी प्रकृति पर आधारित थी। प्रदर्शनी का नाम भी लिगेचर विद नेचर अर्थात प्रकृति के साथ बंधन रखा गया था। जिसमें प्रकृति से जुड़ी कई जानकारियों के साथ उससे हो रही छेड़छाड़ को भी बखूबी दर्शाया था। यह विषय चुनने के पीछे सलमा ने बताया कि प्रकृति के अंदर वही जोश वही जुनून है जो स्वयं उनके अंदर है। पतझड़ एक सच्चाई है, लेकिन इसके बावजूद आने वाले भयावह अंजाम से बेखबर प्रकृति बसंत का स्वागत मुस्कुरा कर करती है। प्रकृति द्वारा रचित रंगों की यह खूबसूरत दुनिया उन सारे दुख, दर्द और अवसाद से दूर ले जाती है जो हमारे आसपास छाए हुए हैं।
उम्मे की यह सोच दर्शाती है कि उसके अंदर संवेदना और आत्मविश्वास का सम्मिश्रण कितने प्रबल रूप में स्थापित है। उम्मे कहती हैं अगर प्रकृति में ये खूबसूरत रंग ये दृश्यावली हमारे सामने नहीं होते, तो दुनिया कितनी नीरस हो जाती। पेटिंग्स उम्मे के लिए किसी मंजिल को पाने का रास्ता नहीं बल्कि खुद मंजिल है।
उम्मे कहती हैं कि हर मनुष्य के जीवन में उतार- चढ़ाव आते हंै। प्रकृति भी इससे अछूति नहीं है। उम्मे सलमा ने अपने चित्रों में इसी बात को कहने की कोशिश की है। उनके चित्र का एक दूसरा पहलू भी है। वह ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता है। उनके कुछ चित्रों में यह बताया गया है कि यदि प्रकृति की रक्षा नहीं की गई, तो मनुष्य का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।
अपनी पहली ही प्रदर्शनी में उम्मे ने अपने गुरु उमेश शर्मा की बनाई पेटिंग्स को भी सम्मिलित कर यह साबित किया है कि विनम्रता और गुरु का सत्कार ही एक अच्छा कलाकार पैदा कर सकता है।
चित्रकला को कैरियर बनाने की चाह में उम्मे पिछले पांच वर्षों से चित्रकारी कर रही हैं। अपनी पसंदीदा पेंटिंग्स के बारे में उम्मे का कहना है कि मेरी सबसे पसंदीदा पेटिंग का मैंने अब तक नाम नहीं सोचा है, पर इस पेटिंग की फिलिंग मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। मैंने अपनी इस पेटिंग में डार्क पिंक कलर का उपयोग कर पत्ते से गिरने वाली ओस की बूंद से सुबह की खूबसूरती को दिखाया है।
उमे सलमा बताती हैं कि उन्हें बचपन से ही पेटिंग्स का शौक रहा है। पहले वह रेखाचित्र बनाया करती थी। उसके बाद इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से एक साल का डिप्लोमा कोर्स किया। इस कोर्स के बाद उमेश शर्मा से पेटिंग्स की टे्रनिंग ली।
चित्रकला जैसे कठिन क्षेत्र में जहां बहुत अधिक संघर्ष है को अपना कैरियर बनाने के निर्णय पर उम्मे का कहना है कि कहीं न कहीं से शुरुआत करना तो जरूरी है, और मन में सच्चा विश्वास हो तो जरूर सफलता मिलेगी।
उम्मे ने बी.काम. के बाद एच.आर. में पी.जी. किया। इसके बाद दो साल तक नौकरी भी की। लेकिन उनका मन तो चित्रकारी में रम चुका था सो सब कुछ छोड़कर चित्रकला के क्षेत्र में ही नाम कमाने और कुछ नया कर गुजरने की चाह लिए उम्मे ने पिछले पांच साल से चित्रकला को ही अपनी दुनिया बना ली।
आगे की योजनाओं के बारे में उम्मे का कहना है कि वे अब दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भी अपनी चित्र प्रदर्शनी लगाने के बारे में सोच रही हैं, उन्हें विश्वास है कि वहां भी उन्हें सफलता हासिल होगी। पेटिंग के साथ उम्मे को एडवेंचर्स स्पोट्र्स का भी शौक है। वे फोटोग्राफी का शौक भी रखती हैं। (उदंती फीचर्स)
संपर्क- ई-12, सेक्टर 3, देवेन्द्र नगर, रायपुर (छग)
मो. 09977186008 ईमेल- ubharmal19@gmail.com

बोरिस पास्तरनाक की कविता,

एक कटे हुए पेड़ का तना
 अनुवाद- सूरज प्रकाश

कलम में एक जानवर की तरह, मैं कट गया हूं
अपने दोस्तों से, आज़ादी से, सूर्य से
लेकिन शिकारी हैं कि उनकी पकड़
मजबूत होती चली जा रही है।

मेरे पास कोई जगह नहीं है दौडऩे की
घना जंगल और ताल का किनारा
एक कटे हुए पेड़ का तना
न आगे कोई रास्ता है और न पीछे ही
सब कुछ मुझ तक ही सिमट कर रह गया है।

क्या मैं कोई गुंडा हूं या हत्यारा हूं
या कौन सा अपराध किया है मैंने
मैं निष्कासित हूं?
मैंने पूरी दुनिया को रुलाया है

अपनी धरती के सौन्दर्य पर
इसके बावजूद, एक कदम मेरी कब्र से
मेरा मानना है कि क्रूरता, अंधियारे की ताकत,
रौशनी की ताकत के आगे
टिक नहीं पायेगी।

कातिल घेरा कसते जा रहे हैं
एक गलत शिकार पर निगाहें जमाये
मेरी दायीं तरफ कोई नहीं है
न कोई विश्वसनीय और न ही सच्चा

और अपने गले में इस तरह के फंदे के साथ
मैं चाहूंगा मात्र एक पल के लिए
मेरे आंसू पोंछ दिये जायें
मेरी दायीं तरफ खड़े किसी शख्स के द्वारा
उनका पूरा जीवन है यह कविता
प्रख्यात कवि, उपन्यासकार और चिंतक बोरिस पास्तरनाक की यह कविता जो उन्होंने 1959 में नोबेल पुरस्कार लेते समय रची थी।
कितनी तड़प, कितनी पीड़ा और कितनी बेचैनी है इन शब्दों में कि मन पढ़ कर ही बेचैन हो उठता है, और कितनी बड़ी त्रासदी है कि पास्तरनाक का पूरा जीवन ही इसी कविता के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाता है।
यह कविता नहीं, उनका पूरा जीवन है जो उन्होंने भोगा और अपने आपको पूरी ईमानदारी से अभिव्यक्त करने के लिए वे हमेशा छटपटाते रहे।
अपने समकालीन दूसरे बुद्धिजीवी रचनाकारों की ही तरह पास्तरनाक हमेशा डर और असुरक्षा में सांस लेते रहे। सोवियत रूस की क्रांति के बाद के कवि के रूप में उन्हें भी शासन तंत्र के आदेशों का पालन करने और अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर अपनी बात कहने की आजादी के बीच के पतले धागे पर हमेशा चलना पड़ा। उन्होंने उन स्थितियों में भी हर संभव कोशिश की कि कला को जीवन से जोड़ कर सामने रखें जब कि उस वक्त का तकाजा यह था कि सारी कलाएं क्रांति की सेवा के लिए ही हैं। अपनी सारी रचनाएं, कविताएं, संगीत लहरियां और लेखों के सामने आने में हर बार इस बात का डर लगा रहता था कि कहीं ये सब उनके लिए जेल का दरवाजे न खोल दे।
पास्तरनाक की बदकिस्मती कि वे ऐसे युग में और माहौल पर जीने को मजबूर हुए। उन्होंने कभी भी दुनिया को राजनीति या समाजवाद के चश्मे से नहीं देखा। उनके लिए मनुष्य और उसका जीवन कहीं आधक गहरी मानसिक संवेदनाओं, विश्वास और प्यार तथा भाग्य के जरिये संचालित था। उनका साहित्य कई बार कठिन लगता है लेकिन उसके पीछे जीवन के जो अर्थ हैं या मृत्यु का जो भय है, वे ही उत्तरदायी है। वे समाजवाद को तब तक ही महत्त्व देते हैं जब तक वह मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने में सहायक होता है। उस वक्त का एक प्रसिद्ध वाक्य है कि आपकी दिलचस्पी बेशक युद्ध में न हो, युद्ध की आपमें दिलचस्पी है।
पास्तरनाक अपने समय के रचनाकार नहीं थे और इसकी सजा उन्हें भोगनी पड़ी। वे इतने सौभाग्यशाली नहीं थे कि उस समय रूस में चल रही उथल-पुथल के प्रति तटस्थ रह पाते। इसी कारण से बरसों तक उनका साहित्य रूस में प्रकाशित ही न हो सकता। क्योंकि अधिकारियों की निगाह में उनके साहित्य में सामाजिक मुद्दों को छूआ ही नहीं गया था। वे जीवनयापन के लिए गेटे, शेक्सपीयर, और सोवियत रूस के जार्जियन काल के कवियों के अनुवाद करते रहे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उन्होंने अपनी विश्व प्रसिद्ध कृति डॉक्टर जिवागो की रचना शुरू की जिसे उन्होंने 1956 में पूरा कर लिया था। इसे रूस से बाहर ले जा कर प्रकाशित किया गया। 1958 में उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया जो रूस के लिए खासा परेशानी वाला मामला था। यही कारण रहा कि यह किताब रूस में 1988 में ही प्रकाशित हो सकी।
1890 में जन्मे बोरिस पास्तरनाक की मृत्यु 1960 में हुई।
इतिहास की इससे बड़ी घटना क्या होगी कि जिस बोल्शेविक शासन तंत्र ने पास्तरनाक को आजीवन सताया और उसकी रचनाओं को सामने न लाने के लिए हर संभव कोशिश की, उसका आज कोई नाम लेवा भी नहीं है और पास्तरनाक का साहित्य आज भी पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है और उसकी कब्र पर दुनिया से लोग फूल चढ़ाने आते हैं।

संपर्क- एच1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड
पूर्व मुंबई 400097, मोबाइल 09769518340
Blogs: soorajprakash.blogspot.com, Kathaakar.blogspot.com,
email ID:kathaakar@gmail.com

मुआयना

मुआयना- हरदर्शन सहगल
तो आप हैं इंचार्ज साहब, यह काली- काली बैट्रियां कमरे में कितनी भद्दा लग रही हैं। इन्हें बाहर खिड़की के पास रखवाइए।
चोरी हो जाने का डर है।
हूं चोरी! कोई मजाक है। तब मैं अपनी जेब से रकम भर दूंगा।
फिर मुआयना।
मुझे तुम्हारा तार मिला। तो करवा दी चोरी। वाह मैंने कहा था, रकम भर दूंगा। खूब, तुम सबने मिलकर सचमुच बैट्रियां चोरी करवा दीं। हर रोज एक आदमी की पेशी होगी।
दसवें रोज।
तुम लोगों को अब क्या पुलिस की पेशियां करवाऊं। आखिर स्टाफ बच्चों के समान होता है। यह लो सात सौ रुपए। खरीद लाओ नई बैट्रियां। लिख दूंगा, दूसरे दफ्तर वाले बिना बताए ले गए थे। मिल गई। वार्निंग ईशू कर दी।
मुआयना खत्म हुआ। साहब का टीए- डीए छब्बीस सौ से कुछ ऊपर बैठा था।
आश्वस्त
'तो अब मैं चलूं?'
'ठीक है, परसों अपने कागज ले जाइएगा।'
'काम हो जाएगा ना? '
'आप घुमाफिराकर यही बात और कितनी बार पूछेंगे।'
'आप बुरा मत मानिए साहब, बस जरा...'
'यकीन नहीं होता, यही ना...'
'विश्वास तो सभी पर रखना पड़ता है, पर...'
'कह तो दिया आपका काम हो जाएगा। अब आप ही बताइए आपको कैसे विश्वास दिलाऊं? '
'बस, आप जरा पचास का यह नोट रख लीजिए।'
गम
शहर के जाने माने पत्रकार बल बलादुर सिंह ने अखबार के लिए एक दिलेराना (बोल्ड) लेख लिखा।
इन दिनों, माफियाओं ने अंधेर मचा रखा था। यह लोग दलित वर्ग की ज़मीनें हड़पने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रहे थे। सामंत गरीब स्त्रियों की इज्ज़त लूट रहे थे।
बल बलादुर सिंह ने ऐसी घटनाओं का ब्यौरा आंकड़ों सहित लिख डाला। जिन माफियाओं ने आग लगवाई थी, और जिन लोगों ने औरतों को बेइज्ज़त किया था, उन सबके नाम भी लिख डाले थे।
किंतु यह सब लिख चुकने के बाद, बल बलादुर घबरा गए। इसलिए अपना नाम लिखने की बजाए उन्होंने एक सामान्य- फ र्जी नाम चुन लिया। रामचंद सोनगरा। बस्ती का नाम सच्चा। लेखक का नाम झूठा।
लेख छपते ही तहलका मच गया। फर्जी नाम का जीवित प्राणी रामचंद सोनगरा गुंडों के कहर का शिकार हुआ। वह बहुतेरा कहता रहा कि उसने ये लेख नहीं लिखा। पर पिटाई- ठुकाई होती रही। तब उसने कहा, कर लो, क्या कर लोगे। मैंने ही लिखा है। जान से मार डालोगे। मार डालो। इसमें झूठ क्या है।
इतने में कुछ लोगों और पुलिस का हस्तक्षेप हुआ। रामचंद सोनगरा को अस्पताल में दाखिल कराया गया। उसके बहुत चोटें लगी थीं। स्थानीय नेताओं के प्रभाव से कुछ गिरफ्तारियां भी हुई थीं।
दूसरे दिन के समाचार पत्र में यह विवरण पढ़कर बल बलादुर सिंह को खुशी हुई।
शहर के पिछड़े वर्ग के समर्थन में कुछ और लोग आए। एक समिति का गठन हुआ। सभी ने एक मत से रामचंद सोनगरा को उस समिति का अध्यक्ष चुना।
अन्याय, अत्याचारों के विरुद्ध किए जाने वाले क्रियाकलाप की सूचनाएं आने लगीं। संगोष्ठियां होने लगीं। दलितों की बहुत सारी ज़मीनें मुक्त करा ली गईं वे सार्वजनिक नलों से पानी भरने लगे। यह सब रामचंद के कुशल नेतृत्व में हो रहा था।
आठ माह बाद राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों की घोषणा हुई, दलित मुक्ति संघर्ष के लिए रामचंद सोनगरा को 51 हजार रुपए का पुरस्कार मिला।
पढ़कर बल बलादुर सिंह ने माथा पीट लिया।
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